वेद प्रवचन
-गंगा प्रसाद उपाध्याय
ओ३म्
पहला मंत्र
ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद्भद्रं तन्न आसुव।।
ऋग्वेद ५//८२//५, यजुर्वेद ३०//३
अर्थ– हे प्रेरक देव! सब बुराईयों को दूर कीजिए। जो कल्याणकारक वस्तु हो, वह हमें दिलाइए।
व्याख्या– प्रत्येक मतमतान्तर का माननेवाला मनुष्य इस मंत्र से बिना संकोच के प्रार्थना कर सकता है। इस प्रकार की प्रार्थना सब प्रकार की साम्प्रदायिकताओं से मुक्त है। सभी ‘दुरित’से बचना चाहते हैं और ‘भद्र’को ग्रहण करना चाहते हैं।
इस मंत्र में तीन विशेष शब्द हैं, जिनके अर्थ विचारणीय हैं। एक ‘सविता’, दूसरा ‘दुरित’ और तीसरा ‘भद्र’। प्रार्थना का अर्थ है, प्र+अर्चना। ‘प्र’का अर्थ है ‘प्रकर्षेण’ तेजी से, विशेष उत्कण्ठा से। अर्थना का अर्थ मांगना। प्रार्थी उसी वस्तु को उत्कण्ठा से मांगता है, जिसका मूल्य उसको ज्ञात होता है और जिसको पा जाना उसकी शक्ति के भीतर है। भूखा भिखारी रोटी मांगता है, अमेरिका के राज की प्रधानता नहीं चाहता। अज्ञात या अप्राप्य वस्तु की कल्पना हो सकती है, कभी-कभी इच्छा भी, परन्तु इसको प्रार्थना नहीं कह सकते। प्रार्थना के लिए आन्तरिक उत्कण्ठा या विह्वलता आवश्यक है। उसके लिए यह जानने की आवश्यकता है कि वह क्या वस्तु है जिसकी हमको मांग है? बच्चा भूख से व्याकुल होकर चिल्लाता है। यह उसकी सबसे सच्ची प्रार्थना होती है। ‘अर्थ’ बिना समझे ‘प्रार्थना’ करना अपने को धोखा देना है। जिस वस्तु को तुम जानते ही नहीं, उसको प्राप्त करने की इच्छा ही कैसे हो सकती है और यदि वह वस्तु प्राप्त भी हो जाए, तो उससे तुमको क्या लाभ हो सकता है? संसार में लोग ‘मोक्ष’ या ‘स्वर्ग’ के लिए सबसे अधिक प्रार्थना करते हैं। वे नहीं जानते कि मोक्ष क्या वस्तु है या स्वर्ग कैसा और कहां है। इसलिए ऐसी अज्ञात प्रार्थनाएं मोक्ष के स्थान में बन्ध और स्वर्ग के स्थान में नरक की प्राप्ति ही कराती हैं। इसलिए प्रार्थी को ‘दुरित’ और ‘भद्र’ के अर्थों को जानना चाहिए।
—-
आप्टे ने ‘दुरित’ का अर्थ किया है Difficult (कठिन), Sinful (पाप), A bad course (बुरा मार्ग)। धातु और प्रत्यय पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि मार्ग में जो कुछ बाधाएं उपस्थित होती हैं, वे सब ‘दुरित’ हैं। आप कहीं पर पहुंचने के लिए कोई मार्ग खोजते हैं। यदि मार्ग अच्छा है, तो यात्रा सुगम होती है, परन्तु मार्ग में कांटे हों तो यह ‘दुरित’ है। यदि ईंट-कंकड़ के रोड़े हों तो यह दुरित है। यदि ऊबड़-खाबड़ हो तो यह दुरित है। यदि झाड़-झंखाड़ हो तो यह दुरित है। यदि आपके पैरों में थकावट आ जाए और आपको यात्रा के बीच में ही बैठ जाना पड़े, यह दुरित है। यदि मार्ग में डाकू मिल जाएं, तो यह दुरित है। सारांश यह कि आपकी जीवनयात्रा में जो बाधाएं पड़ती हैं, वे सब दुरित हैं।
—-
छोटा-सा भी दुरित शेष रह गया तो, आपकी जीवनयात्रा असम्भव हो सकती है। आपका समस्त शरीर सुदृढ़ और रोगरहित हो, केवल पैर की सबसे छोटी अंगुली के एक किनारे पर सरसों के बराबर फोड़ा हो जाए, आप देखेंगे कि आपका सारा काम ठप्प हो जाएगा। ‘दुरितों’ का दूर करना ही भद्र है। रुकावटों के निः शेष होने पर जो स्थिति होगी, वही ‘भद्र’है। उसी की प्राप्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना की गई है।
इस मंत्र में ईश्वर को ‘देव सवितः’ कहकर पुकारा गया है।
—-
‘सविता’ का अर्थ है, ‘प्रसविता’ अर्थात् प्रेरक। मोनियर विलियम्स ने अपने ‘बृहद् संस्कृत कोश’ में ‘सव’ का अर्थ दिया है, “One sets in motion, impels, an instigator stimulator.” सविता का अर्थ है-a stimulator, rouser, vivifier.
परमात्मा ‘सविता’, ‘प्रसविता’या प्रेरक है, इसका क्या अर्थ है?
संकुचित अर्थ में ‘सविता’ सूर्य को भी कहते हैं। सूर्य भी प्रसविता या प्रेरक है। रात के व्यतीत होने पर सूर्य की किरणें, जब वस्तुओं पर पड़ती हैं. तो हर पदार्थ के भीतर एक प्रकार की प्रेरणा या जागृति उत्पन्न हो जाती है। सूर्य किसी नई चीज का उत्पादन नहीं करता। पदार्थों में जो शक्तियां निहित थीं, वे ही जाग उठती हैं, नया जीवन आ जाता है। अंग्रेजी के शब्द stimulator या vivifier आन्तरिक भावों को ठीक-ठाक व्यक्त करते हैं। कोई मनुष्य प्रातः काल अपने जीवन में सूर्य के प्रकाश से आई हुई इस जागृति का अनुभव कर सकता है, अन्य प्राणधारी, या वनस्पति आदि जड़पदार्थ भी इस बात के द्योतक हैं। सूर्य की किरणें यदि, गुलाब पर न पड़ती तो गुलाब न खिलता। सूर्य की किरणें गुलाब नहीं हैं, सूर्य का और गुलाब का कारण-कार्य का सम्बन्ध नहीं हैं, सूर्य से गुलाब नहीं बना, न गुलाब बिगड़कर सूर्य में विलीन होगा, परन्तु गुलाब की आन्तरिक बीजरूप अविकसित शक्तियों को विकास करने को उद्यत करने में सूर्य की किरणें प्रेरक हैं। उनके द्वारा भीतर से कुछ ऐसा परिवर्तन होता है कि गुलाब के समस्त अन्तर्निहित गुण अव्यक्त से व्यक्त हो जाते हैं। दूसरा दृष्टान्त आप विद्युत् का ले सकते हैं। विद्युत्-तरंग को भी सविता या प्रेरक कह सकते हैं। एक ही विद्युत्-कोष से भिन्न-भिन्न यंत्रों का सम्बन्ध होता है। तरंग खुलते ही भिन्न-भिन्न यन्त्रों को प्रेरणा मिलती है और वे प्रगतिशील हो जाते हैं- आटे की चक्की आटा पीसने लगती है, लकड़ी काटने की मशीन लकड़ी काटने लगती है, छापेखाने की मशीन छापने लगती है। मशीनें अलग-अलग हैं, परन्तु प्रेरणा सबको उसी विद्युत्-तरंग से मिलती है।
इन लौकिक उदाहरणों की आन्तरिक भावनाओं पर विचार कीजिए और फिर उनको इस मंत्र में प्रयुक्त ‘सविता’ शब्द पर घटाइए।
परमात्मा किसी प्राणी को बलात् आज्ञा नहीं देता कि तुम ऐसा करो, तुम ऐसा मत करो। प्रायः धार्मिंक क्षेत्रों में ऐसी धारणा है कि ईश्वर जो चाहता है प्राणियों से कराता है, परमात्मा जिसको चाहता है ठीक मार्ग पर लगाता है, जिसको चाहता है गुमराह कर देता है। यदि, ईश्वर इसी प्रकार अपनी आज्ञाओं को बलात् जीवों पर थोपता तो जीवों की प्रार्थना व्यर्थ जाती।
—-
यदि परमात्मा की इच्छा ही है कि संसार में दुरित रहें, तो दुरितों के दूर करने और उनके स्थान में ‘भद्र’ प्राप्त कराने का प्रश्न ही नहीं उठता। परन्तु परमात्मा के लिए इस प्रकार की भावना वैदिक भावना नहीं है। परमात्मा न किसी जीव को बनाता है, न उसको किसी विशेष कार्य के लिए मजबूर करता है। सूर्य की किरणें जब मिर्च के बीज पर पड़ती हैं और साथ-ही-साथ उसके पास ही बोये हुए गाजर के बीज पर पड़ती हैं, तो उनकी प्रेरणा तो दोनों के लिए होती है, परन्तु मिर्च का बीज तो मिर्च बनाता है और गाजर का गाजर। एक में कड़वापन, दूसरे में मीठापन! किरणें न कड़वापन उत्पन्न करती हैं न मीठापन। केवल प्रेरणा देती हैं। जिस प्रकार सूर्य की किरणें पदार्थों को जागृति देती हैं, उसी प्रकार आस्तिक्य-भावना भी प्रत्येक प्राणी के भीतर जागृति उत्पन्न कर देती हैं। वही स्फूर्ति ‘दुरितों’ के निराकरण के लिए शक्ति प्रदान करती हैं। दुरित तो अपने आक्रमण सभी पर करते हैं, परन्तु जो प्रार्थी दुरितों की प्रकृति को समझता हुआ परमात्मा की प्रेरणा से अपने को सुसज्जित पाता है, उसके दुरित शीघ्र पराजित हो जाते हैं, सबल होते हुए भी प्रभाव-शून्य हो जाते हैं।
—-
‘प्रार्थी’ईश्वर के प्रेरकत्व पर विश्वास करके दुरितों को दूर करने का सामर्थ्य चाहता है। दुरितों का दूर करना ही भद्र की प्राप्ति है।
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम।।
ऋग्वेद १// १८९// १, यजुर्वेद ५//३६, ७//४३, ४॰//१६
अर्थ– हे सबके नायक या पथप्रदर्शक भगवन्! आप सब ज्ञानों को जानने वाले हैं। इसलिए हम आपकी बहुत-बहुत स्तुति करते हैं। आप धन-सम्पत्ति के लिये हमको ठीक मार्ग से ले चलिए। हमसे कुटिल पाप को दूर कीजिए।
व्याख्या– इस मंत्र में परमात्मा का विशेष नाम ‘अग्नि’ है और उससे पथ-प्रदर्शन की प्रार्थना की गई है। लोकभाषा में ‘अग्नि’ आग को कहते हैं। आग से प्रकाश होता है और प्रकाश मार्ग-प्रदर्शन करता है। अंधेरे में चल नहीं सकते। अंधेरी रात में घने जंगल में भटकने वाले पथिक के लिए जुगनू की चमक भी सहायक हो जाती है और यदि कहीं बिजली कौंध जाए तो कुछ न कुछ मार्ग दिखाई देने लगता है।
अंधरे रास्ते में दीपक, मशाल आदि मार्ग-प्रदर्शन करते हैं। ये सब आग के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं। सूर्य आग का सबसे बड़ा गोला है और सूर्य के समान दूसरी वस्तु भौतिक अर्थ में पथ-प्रदर्शक है ही नहीं, अतः ‘अग्नि’ का पथप्रदर्शन से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
—-
सृष्टि के आरम्भ में जब वेदों का आविर्भाव हुआ होगा, तो ऋषियों को सबसे पहली आवश्यकता हुई होगी कि कोई उनका पथप्रदर्शक होता। एक तो ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि थी, उसकी वस्तुएं मनुष्य का पथ-प्रदर्शन करती थीं। इसको आप ‘नेचर’ या सृष्टि कह सकते हैं। घास की छोटी-सी पत्ती से लेकर सूर्य जैसे विशाल पदार्थ सभी मनुष्य को कुछ-न-कुछ पाठ पढ़ाते ही हैं। चींटी से लेकर हाथी तक सभी मनुष्य के गुरु बनना चाहते हैं और बुद्धिमान् मनुष्य सभी से आचार ग्रहण कर सकता है। परन्तु सृष्टि पथप्रदर्शन का ठीक-ठाक कार्य करने में असमर्थ है। सृष्टि विशाल है। यह एक अद्भुत भिन्नताओं का संग्रहालय है। मनुष्य इतनी भारी भीड़ में से किसका अनुकरण करे, यह एक प्रश्न रहता है। जो मनुष्य केवल प्रकृति का अनुकरण करते हैं। वे प्रायः धोखे में पड़ जाते हैं। बड़ी मछलियां छोटी मछलियों को खा जाती हैं। शेर छोटे पशुओं को खा जाता है। बहुत-से मनुष्यों का विचार है कि कुदरत या नेचर हमको क्रूर होना सिखाती है। ‘हिंसा’ स्वाभाविक है और ‘अहिंसा’ अस्वाभाविक है। यदि मनुष्य पशुओं को ही गुरु बनाए, तो मानव-समाज में मत्स्यराज्य या सिंह राज्य हो जाए। सभ्यता कहां रहे? सभ्य समाज के सभी नियम उलट-पलट हो जाएँ। गाय और बैल, या घोड़े और घोड़ी, कुत्ते और कुतिया में पति-पत्नी का स्थायी सम्बन्ध नहीं होता। केवल कुछ पक्षियों में वैवाहिक जीवन के कुछ चिन्ह पाये जाते हैं, अतः समय-समय पर किसी-किसी देश में ऐसे नेता उत्पन्न हो गये हैं, जिन्होंने वैवाहिक -प्रथा को सृष्टिक्रम के प्रतिकूल बताया है। यूनान का यशस्वी और कीर्तिमान् दार्शनिक प्लैटो (अफलातून) उच्चकोटि के मानव के लिए पति-पत्नी के स्थायी सम्बन्ध को आदर्श धर्म नहीं मानता था और उसके तत्सम्बन्धी विचारों का आधार केवल पशु-जगत् ही था, अतः सृष्टि या कुदरत हमारा नेतृत्व तो करती है, परन्तु अचूक नेतृत्व नहीं। सृष्टि तो वस्तुतः जड़ है। वह अपना एक अंग ही प्रदर्शित कर सकती है। चेतन के पथ-प्रदर्शन के लिए चेतन चाहिए- ऐसा चेतन जो चेतनों में सबसे अधिक चेतनता का स्वामी हो। ऐसे चेतन को वेदों ने ‘अग्नि’शब्द से सम्बोधित किया।
—-
वेद हैं किसलिए? मनुष्य को ठीक मार्ग बताने के लिए। और वेदों का दाता है ईश्वर, वही हमारा पथ-प्रदर्शक हुआ।
वेदमन्त्र में ‘अग्नि’का एक विशेषण दिया है- ‘विश्वानि वयुनानि विद्वान’। यह अग्नि के उस गुण को व्यक्त करता है, जिसके कारण हम ईश्वर का आश्रय चाहते हैं। ‘वयुनम्’ का अर्थ है ‘प्रज्ञा’ या ज्ञान। ‘विश्वानि वयुनानि’का अर्थ हुआ- समस्त ज्ञानों का भण्डार। सृष्टि के पदार्थ हमको ज्ञान देते हैं, परन्तु आंशिक, एकदेशी या अधूरा। इसीलिए हम धोखे में पड़ जाते हैं। ईश्वर पूर्ण ज्ञानी है, उसमें अज्ञान लेशमात्र भी नहीं है। उसका पथ-प्रदर्शन सबसे उचित होगा। उपनिषद् में कहा है कि ईश्वर के दर्शनमात्र से ‘छिद्यन्ते सर्वसंशयाः’ समस्त शंकाएं निवृत हो जाती हैं और मनुष्य का मार्ग सरल हो जाता है। वेदमन्त्र में ‘जुहुराणम्’ अर्थात् कुटिल-मार्ग को ही ‘एनः’अर्थात् पाप बताया है। टेढ़े मार्ग पर चलने का नाम ही पाप है। इसका उल्टा है-‘सुपथ’अर्थात् सीधा मार्ग। सीधा मार्ग एक होता है। दो बिन्दुओं के बीच के सबसे छोटे मार्ग को सरल रेखा कहते हैं। जो सरल न हो वह ‘जुहुराणम्’अथवा कुटिल है। मनुष्य यों तो जीवन भर चलता ही रहता है, जैसे, जंगल में पचासों रास्ते बने होते हैं, समझ में नहीं आता कि कौन-सा रास्ता ग्रहण करना चाहिये। यदि शेर ने कहीं से अपनी मांद में जाने के लिए मार्ग बना लिया तो वह भी मार्ग है। भालू किसी ओर होकर गुजर गया, तो उसके पैरों के चिन्ह् भी पद्धति (पत्-हति) हैं। सैकड़ों भूल-भुलैया हैं, वे पथ तो हैं, ‘सुपथ’नहीं, ये सब ‘जुहुराणम्’ कुटिल और मनुष्य को हानि पहुंचाने वाले हैं। इसी प्रकार संसार में भी मनुष्य दूसरे के मार्गों का अनुसरण करके अपने लिए कितने आदर्श गढ़ता है। किसी ने जुआरी को देखा कि एक दाव पर उसे पांच सौ रुपये मिल गए। वह जी में कहता है-यही मार्ग है ‘राये’अर्थात् सम्पत्तिशाली होने के लिए। जुआरी का मार्ग, मार्ग तो है परन्तु सन्मार्ग या सुपथ नहीं। इस मार्ग पर चलकर हजारों जुआरी बन जाते हैं। वे स्वंय भी भ्रष्ट होते हैं और संसार के लिए बुरा उदारहण छोड़ जाते हैं। कोई डाका डालता है, कोई अन्य अत्याचार करके सुखी होना चाहता है। सच्चा साथी ईश्वर से प्रार्थना करता है कि ‘जुहुराणं एनः युयोधि’ – ऐसे कुटिल मार्ग से मुझे दूर रख अर्थात् मुझे पाप करने की प्रवृत्तियों से बचा। जिस प्रार्थी के हृदय में पाप से बचने की इतनी उत्कट इच्छा होगी, वह पाप से अवश्य बचेगा। पाप-कर्मों में कुछ प्रलोभन होता है, कुछ मिठास होती है। ‘मक्खी बैठी शहद पर पंख गये लिपटाय।’ शहद मीठा है। मक्खी को यह पता नहीं कि यह मिठास ही उसकी मृत्यु का हेतु बनेगा। परन्तु जिसको पाप की प्रवृत्ति की कुटिलता या हिंसकता का पता है, वह पाप से ऐसे ही डरता है जैसे बच्चा आग से। योगदर्शन (२//३४) में पाप से बचने के लिए एक सूत्र आया है – ‘वितर्कबाधने प्रतिपक्ष-भावनम्’ अर्थात् पाप की प्रवृत्ति से बचना चाहो, तो पाप से होनेवाली हानियों को चित्रित करके अपने मन के सामने रक्खा करो। यदि हम कुटिल मार्ग पर चलेंगे, तो ऐसा दुख होगा। बद-परहेज बीमार कभी-कभी आनेवाली पीड़ा के डर से परहेज करने लगता है। प्रार्थना का सबसे बड़ा लाभ यह है कि जब हम पाप से बचने के लिए प्रभु के सामने गिड़गिड़ाते हैं, तो पापों की हानियां हमारे मन पर अंकित हो जाती हैं और यही पापों से बचने का उपाय है।
परन्तु प्रतिपक्ष- भावना सुगम काम नहीं है। पापी के हृदय में पाप के मिठास की तो भावना होती है, परन्तु उसके प्रतिपक्ष अर्थात् दुख की भावना उत्पन्न नहीं होती। जो विद्यार्थी खेलकूद में पड़कर कुटिल मार्ग का अवलम्बन करता है और विद्यार्थी के कर्तव्यों से च्युत होता है, उसके सामने परीक्षा में विफल होने वाले दुख का पूरा चित्र बन ही नहीं पाता। जो उस चित्र को ठीक-ठीक मन के पटल पर खींच पाया, उसका अपने कार्य में सफल होना अवश्यम्भावी है। यह काम साधारण इच्छामात्र से पूरा नहीं होता। सुख की इच्छा तो सभी करते हैं और पुण्य भी सभी करना चाहते हैं, परन्तु इच्छामात्र से ईश्वर किसी की सहायता नहीं करता। इच्छा उत्कट होनी चाहिए जो साधारण प्रलोभनों से चलायमान न हो सके। प्रलोभनों की आंधी छोटे वृक्षों को तो शीघ्र ही उखाड़ फेंकती है। इसके लिए लगातार कोशिश की जरुरत है। मन्त्र में कहा है- ‘भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम’ -हे प्रभो! हम बहुत अधिक बार अर्थात् बार-बार प्रार्थना करते हैं। ‘भूयिष्ठ’ शब्द के अर्थों पर विचार कीजिए। केवल ‘भूयिष्ठ’ शब्द कहने से कोई क्रिया ‘भूयिष्ठ’ नहीं हो जाती। जिह्वा से ‘भूयिष्ठ’ शब्द तो जल्दी से कहा जा सकता है, परन्तु क्रिया के ‘भूयिष्ठ’ होने में तो समय लगता है, परिश्रम करना पड़ता है, तप की आवश्यकता होती है। हम समझते हैं कि जब हमने वेदमन्त्र में ‘भूयिष्ठाम्’ शब्द का प्रयोग किया तो हमारी प्रार्थना भी ‘भूयिष्ठ’ हो गई और ईश्वर भी यह समझकर कि मैं ‘भूयिष्ठां नम उक्तिम्’ करता हूँ, उसका फल मुझे दे ही देगा। हम प्रायः बहुत -से भजन गाते हैं, जिनमें दिया होता है कि प्रभु, हम तुम्हारी लाखों बार प्रार्थना करते हैं। यहां लाखों का अर्थ ‘लाखों’ नहीं होता। ‘सहस्रों’ में तीन अक्षर हैं, ‘लाखों’ में दो। वस्तुतः प्रार्थी एक छोटे-से शब्द का प्रयोग करके ‘लाखों’ का लाभ उठाना चाहता है। यह स्वयं अपने को धोखा देना है। दस बार प्रणाम करने का अर्थ है एक-एक क्रिया दस बार करनी। इसी प्रकार लाख प्रणामों का क्या अर्थ होगा? क्या कोई लाख बार प्रार्थना करता है? यदि करता ही नहीं, तो उसको फल की प्राप्ति कैसे हो सकती है? वेदमन्त्र इस प्रकार की निरर्थक प्रार्थनाओं को विहित नहीं समझते। जो कहो, उसे करो। जो वाणी में हो, वही मन में हो। यदि प्रार्थी गम्भीरता से ऐसी प्रार्थना करेगा, तो उसका जीवन अवश्य पवित्र होगा।
वेदमन्त्र में ‘सुपथा’ अर्थात् ठीक मार्ग की मांग की गई है। ईश्वर हमारा पथप्रदर्शक है। पथप्रदर्शन उसी का हो सकता है, जो वास्तव में पथिक हो। जो पथिक ही नहीं उसके लिए पथप्रदर्शक व्यक्ति और पथप्रदर्शन करने वाले चित्र या पुस्तिकाएं व्यर्थ हैं। यदि मैं कलकत्ते जाना ही नहीं चाहता, तो रेल के टाइम-टेबिल या स्टेशन का इन्क्वायरी (पूछताछ) आफिस किस प्रयोजन का? इसी प्रकार वैदिक प्रार्थनाएं भी धर्मयात्रा के यात्री के लिए हैं। जो उस मार्ग का अनुगामी ही नहीं, उसके लिए प्रार्थनाएं बेकार हैं। मार्ग की खोज वह करता है, जिसे मार्ग पर चलना है। प्रायः हर धर्ममन्दिर में प्रार्थनाएं हुआ करती हैं। बड़े-बड़े कवि अपने मनोहर काव्य रचकर प्रार्थियों के हाथ में दे देते हैं और प्रार्थी इन पदों को बड़ी श्रद्धा से गाते हैं। इसी का नाम प्रार्थना है, परन्तु इन प्रार्थना करनेवालों में एक भी धर्म-मार्ग पर चलने वाला नहीं होता। परमात्मा ऐसे प्रार्थियों को ‘सुपथा’ या अच्छे मार्ग से कैसे ले-जा सकता है? सन्मार्ग पर चलने की इच्छा हो, सन्मार्ग खोजने की इच्छा हो और वह इच्छा तीव्र, उत्कट तथा अमिट हो तो अग्निदेव उसका पथ-प्रदर्शन अवश्य करेंगे।
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know