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वेद प्रवचन गंगा प्रशाद उपाध्याय-2

 विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे ।

इन्द्रस्य युज्यः सखा।।

ऋग्वेद १// २२//१९

अर्थ– हे लोगो ! विष्णु के कर्मों को देखो, जिनको देखकर मनुष्य अपने व्रतों को पालन करने में सफल होता है। विष्णु इन्द्र का सबसे योग्य सखा या मित्र है।

व्याख्या– इस मन्त्र में परमेश्वर को ‘विष्णु’ शब्द से सम्बोधित किया है।

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चर और अचररूप जगत् में व्यापक होने से परमात्मा का नाम विष्णु है।

आस्तिक्य की पहली भावना यह है कि ईश्वर सृष्टिकर्त्ता है। सृष्टिकर्त्ता का अर्थ है, उन सब छोटी-बड़ी क्रियाओं का कर्त्ता, जिनके कारण सृष्टि कहलाती है। जब हम कहते हैं कि पृथ्वी को ईश्वर ने बनाया, तो इसका अर्थ यह होता है कि परमाणुओं की पहली हलचल से, जिससे पृथिवी का बनना प्रारम्भ हुआ, लेकर उस क्रिया तक जब पृथिवी पूर्णरूप से तैयार हो गई और उसके पश्चात् वे सब प्रगतियां जिनके आश्रय से पृथिवी पृथिवी बनी हुई है, इन सब क्रियाओं का कर्त्ता परमेश्वर है। इसलिए संसार के प्रायः सभी आस्तिक-सम्प्रदाय ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता मानते हैं। परन्तु मनुष्यकृत या प्राणिकृत क्रियाओं के साथ एक सीमित भावना है। कुम्हार को हम घडे़ का बनानेवाला कहते हैं। कारीगर को मकान का बनानेवाला कहते हैं। जुलाहे को कपड़े का बनानेवाला कहते हैं। चित्रकार चित्र का बनानेवाला कहलाता है। यहाँ कर्त्तत्व केवल एक अन्तिम क्रिया का है, शेष का नहीं। एक सीमा तक बनी हुई मिट्टी को अन्तिम रूप दे देने का नाम ही घड़े को बनाना है। घड़े को बनाने से पहले मिट्टी किन-किन क्रियाओं का परिणाम थी अथवा घड़ा बनने के पीछे घड़े को घड़े के रूप में स्थित रखने के लिए किन रासायनिक क्रियाओं का नैरन्तर्य रहता है। उससे कुम्हार का कोई सम्बन्ध नहीं, अतः कुम्हार का घड़े के साथ क्षणिक सम्बन्ध ही रहता है। इस उपमा के आधार पर कतिपय विचारकों ने यह धारणा बनाई है है कि ईश्वर सृष्टि को बनाता है, उसके भीतर रहता नहीं। सृष्टि में तो तुच्छ-से-तुच्छ और गन्दी-से-गन्दी चीजें शामिल हैं। क्या ईश्वर उन सब में चिपटा हुआ है? इसी आधार पर लोगों ने एक विशेष देवधाम की कल्पना की है। उसी का नाम बहिश्त, हैविन, स्वर्ग, गोलोक आदि रक्खा है। वहीं से बैठा-बैठा ईश्वर इस मत्र्यलोक की भी देखभाल करता है। बहिश्त पर विश्वास रखनेवाले लोग यह तो नहीं मानते कि जहन्नुम या नरक में भी ईश्वर उसी प्रकार व्याप्त है, जैसे बहिश्त या स्वर्ग में। विष्णु शब्द में जो भावना निहित है, वह इस सीमित भावना का खण्डन करती है। ईश्वर को प्रत्येक क्रिया में समाविष्ट होना चाहिए। ईश्वर वह है, जिससे सृष्टि का सर्जन, पोषण और संहार होता है। सर्जन कोई अलग क्रिया नहीं है, जो पोषण से अलग और भिन्न हो। सर्जन, पोषण और संहार के बीच में कोई भेदक भित्ति नहीं है। यह नहीं कह सकते कि सर्जन समाप्त हुआ अब पोषण आरम्भ होगा, या पोषण समाप्त हुआ अब संहार आरम्भ होगा। वस्तुतः यह सब अनन्त क्रियाओं का एक सदा चलनेवाला प्रवाह है। मनुष्य अपनी सीमित बुद्धि की कल्पना से अपनी ओर से सीमाएं निर्धारित कर लेता है। जो क्रियाएं दिन बनाती है। वही रात बनाने का भी कारण हैं। सूर्य और पृथिवी तो निरन्तर चलते ही रहते हैं, कभी ठहरते नहीं। हम अपनी सीमित भाषा में कुछ को दिन और कुछ को रात कहते हैं। यदि हम पृथिवी लोक से बाहर कहीं जाकर खड़े हो सकें और वहां से पृथिवी को घूमती हुई देखें, तो हम यह न कह सकेंगे कि अब दिन समाप्त हो गया, रात हो गई या रात समाप्त हो गई, दिन का आरम्भ है। इसी प्रकार जगत् की किस क्रिया को कहेंगे कि इसमें ईश्वर की आवश्यकता नहीं? वैदिक आस्तिकता की यह भावना बड़ी महत्त्वपूर्ण है। अणु-अणु और परमाणु-परमाणु में हर समय व्यापक होने के कारण ही हम ईश्वर को विष्णु कहते हैं। कोई विशेष विष्णुलोक नहीं। कण-कण और पत्ता-पत्ता विष्णुलोक है। चींटी का हृदय विष्णुलोक है। हाथी का शरीर विष्णुलोक है और मेरा तथा आपका मन भी विष्णुलोक है।

कुछ ब्रह्मवादियों ने ब्रह्म के कर्तृत्व का निषेध किया है। वे कहते हैं कि कर्तृत्व तो क्षुद्र प्राणियों की क्षुद्र इच्छाओं का परिणाम है। महान् ईश्वर तो क्रियाशून्य है। वह कर्म के बन्धन में नहीं आता। वह द्रष्टामात्र है, कर्त्ता नहीं। कर्त्ता और भोक्ता तो जीव हैं, ईश्वर नहीं।

यदि विचार से देखें तो यह युक्ति न केवल अवैदिक है अपितु सारहीन और हेत्वाभास भी। चेतन और जड़ में भेद ही यह है कि चेतन क्रियाशील होता है और जड़ क्रिया-शून्य। यदि ईश्वर भी क्रिया-शून्य हो, तो वह जड़ हो जाए! यदि जड़ हो तो कर्त्ता न रहे और यदि कर्त्ता न रहे तो ईश्वर न रहे, अर्थात् जिस आधार पर हमारे मन में ईश्वर की भावना का प्रादुर्भाव हुआ था, वह आधार ही न रहा तो ईश्वर की भावना भी न रही। इसको आप दूसरे ढंग से सोचिए, आपने घड़ी देखी। सोचा कि घड़ी बनी हुई वस्तु है। उसका कोई बनाने वाला अवश्य होगा। आपके ध्यान में आया कि इसका जो कोई बनानेवाला होगा, उसको हम ‘घड़ीसाज’ कहेंगे। इस भावना के आधार पर आपने घड़ीसाज के सम्बन्ध में अनेक कल्पनाएं कीं। इसका नाम आपने रखा ‘घड़ीसाजी का साहित्य’। यदि अन्त में यह सिद्ध हो जाए कि जिसको हम घड़ीसाज कहते हैं उसका अस्तित्व तो अवश्य है, परन्तु वह घड़ी का कर्त्ता नहीं हो सकता, केवल द्रष्टामात्र है, तो आपके विचारों को कितना आघात पहुंचेगा? ‘घड़ीसाजी’ का समस्त साहित्य अस्तव्यस्त हो जाएगा। जिस बुनियाद पर हमने आस्तिक्य-भावना या ईश्वरवाद का भवन बनाया था वही धड़ाम से आ गिरता है। इसीलिए, स्वामी दयानन्द ने आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर के अनेक गुण, कर्म और स्वभावों का परिगणन करते हुए अन्त में लिखा है कि ‘ईश्वर सृष्टि-कर्त्ता’है।

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जो लोग ईश्वर को कर्त्ता न मानकर द्रष्टामात्र मानते हैं, वे ‘दर्शन’ के ग्रन्थों को नहीं समझते। द्रष्टा का दृश्य पदार्थ से यदि केवल ‘दर्शन’ मात्र का ही सम्बन्ध हो, तो दृश्य की अपेक्षा से द्रष्टा की आवश्यकता नहीं रहती। यदि मैं दृश्य ही हूं तो लाखों मेरे देखनेवाले क्यों न हों, मुझे क्या? बिल्ली राजा को देखती है। यहां बिल्ली ‘द्रष्टा’ है। राजा ‘दृश्य’। राजा पर बिल्ली का क्या प्रभाव है? अन्धा किसी को नहीं देखता। किसी का क्या बनता-बिगड़ता है? इसलिए, केवल एक कल्पित सिद्धान्त की पुष्टि के लिए ईश्वर को ‘द्रष्टा’ मात्र मान बैठना ठीक नहीं है। वेद में ‘विष्णोः कर्माणि’ कहकर परमात्मा के कर्तृत्व को स्पष्ट कर दिया।

 अब ‘पश्यत’ शब्द पर विचार कीजिए।

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यहां ‘पश्यत’ का अर्थ केवल चक्षु-इन्द्रिय से देखनेमात्र का अर्थ नहीं है। ‘दर्शन’ का अर्थ है, सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति । जब हम किसी कर्म को देखते हैं, तो इस देखने के दो प्रकार हैं- एक स्थूल अर्थात् घटनामात्र को देखना, दूसरा उस नियम का ज्ञान प्राप्त करना, जिसके अन्तर्गत वह घटना घटित हुई। इसको समझने के लिए एक साधारण घटना पर विचार कीजिए। कल्पना कीजिए कि आप अपने घर के भीतर हैं। किसी ने आपके द्वार पर दस्तक दी। आपने नौकर को आदेश दिया, ‘देखो कौन है?’ यदि नौकर मूर्ख है तो जाएगा, देखेगा, और आकर उत्तर देगा-‘ एक आदमी है।’ उत्तर ठीक है। आपने कहा-‘ देखो’। वह देख आया। परन्तु आप सन्तुष्ट नहीं हैं। बुद्धिमान् नौकर का उत्तर भिन्न होगा-‘अमुक महाशय आये हैं। वह अमुक विषय पर आपसे बात करना चाहते हैं।’ वस्तुतः आपने जब ‘देखो’ कहा तो आपका तात्पर्य इस पिछले दर्शन से था। इसी प्रकार जब वेद का मुख्य आदेश है कि विष्णु के कर्मों को देखो, तो वहां ‘देखो’ से तात्पर्य है, सम्यक् ज्ञान प्राप्त करो। सेब वृक्ष से गिरता है। लाखों ऐसी घटना को देखते हैं। परन्तु, न्यूटन का देखना देखना था। कौन ऐसा है, जो विष्णु के कर्मों को नहीं देखता? कुत्ते, बिल्ली, भेड़-बकरी, जिसके आंख है वह देखता है। साधारण मनुष्य की आंख के समक्ष विष्णु के बहुत से काम आते हैं। सूर्य निकलता है, नदी बहती है, वृक्ष उगते हैं, बिजली कड़कती है, परन्तु ये तो घटनाएं हैं। घटनाओं के देखने-मात्र का नाम ज्ञान नहीं है और न इनसे आस्तिक्य की भावना उत्पन्न होती है। घड़ी के देखने मात्र से तो घड़ीसाज का ज्ञान नहीं होता और न उस देखने से कोई लाभ है। यदि आंख का काम केवल देखना-मात्र ही होता, तो उस आंख से कोई लाभ न था। जो चैकीदार चोर को देखता-मात्र है और देखने के पश्चात् क्या काम करना चाहिए, उसका ज्ञान नहीं रखता, उस चौकीदार से क्या लाभ? विष्णु के कर्मों के सम्यक् ज्ञान की सहायता से मनुष्य अपने व्रतों का अनुष्ठान कर सकता है।

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‘व्रत’ का अर्थ है ‘वर्तन’, बर्ताव या कर्तव्यपालन। चेतन जीव होने के नाते मैं कुछ-कुछ तो करता ही रहता हूं। ‘कर्तुम्, अकर्तुम् अन्यथा कर्तुम्’- करना, न करना, उल्टा करना, ये तीन लक्षण हैं, चेतन के । अकर्तुम् भी एक क्रिया है, क्योंकि क्रिया के प्रवाह को रोकना पड़ता है। बहते हुए जल की धारा को रोकने के लिए बांध बांधना भी तो क्रिया ही है। क्या कोई ऐसा चेतन भी है, जो कभी कोई काम न करे? वह कोई-न-कोई काम अवश्य करेगा और उसका यह काम कर्तुम्, अकर्तुम् और अन्यथा कर्तुम् की कोटियों के अन्तर्गत ही होगा परन्तु, प्रत्येक क्रिया कर्तव्यता नहीं है। ‘कर्तव्य’ वही है, जिससे उद्देश्य की पूर्ति हो। कर्तव्य की पूर्ति तो विष्णु के कर्मों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने से ही होगी। मनुष्य का स्वभाव है कि वह अनुकरण करे, अर्थात् जैसा काम किसी को करते देखे वैसा ही स्वयं भी करे। परन्तु, अनुकरण और निर्वचन में भेद है। जो क्रिया केवल अनुकरण (copy) के रूप में की जाती है वह कर्तव्य नहीं है, व्रत भी नहीं है। जब मैं बहुत-से कर्मों में से, जिनका करना मेरे लिए सम्भव है या जिसके करने की मेरी प्रवृत्ति है, किसी एक कर्म का निर्वचन (छांट करके) करके उसको करता हूं तो वह व्रत कहलाता है। मेरे सामने टेढ़े-सीधे अनेक मार्ग हैं। मुझे अधिकार है कि मैं उन मार्गों में से किसी एक पर चल पडूं, परिणाम भला हो या बुरा। यह अनुकरण तो है, निर्वचन का अंश न होने से यह व्रत नहीं है। व्रत वह होगा, जिसको मैं केवल इसलिए न करूंगा कि दूसरे करते हैं, अपितु इसलिए कि कई मार्गों में से एक मार्ग ऐसा है, जिससे मेरे उद्देश्य की पूर्ति होगी। विष्णु के सहस्त्रों कर्मों को देखकर उनका अनुकरण-मात्र करना नहीं, अपितु परिस्थिति को देखते हुए और अपनी मंजिल पर निगाह रखते हुए यह निर्वचन करना है कि मुझे यह मार्ग ठीक पड़ेगा, यही व्रत है। जो लोग केवल नेचर या कुदरत का अनुकरण करते हैं, वे भूल-भुलैयाँ में पड़ जाते हैं। मनुष्य को अपने व्रतों का निश्चय करना है और विष्णु के कर्मों को देखकर उनसे शिक्षा लेनी है।

संसार के वैज्ञानिक लोग विष्णु के कर्मों अर्थात् कुदरत की घटनाओं का निरीक्षण करते और उनका अनुकरण करते हैं। मछली को तैरते देखकर उसी के शरीर के अनुकरणरूप में नौकाएं बनाते हैं। पक्षियों को उड़ते देखकर उन्हीं के अनुकरणरूप में विमानों का निर्माण करते हैं।                      

यह सब अनुकरण है और अनुकरण साइंस का आधारभूत है, परन्तु साइंस (science) का मुख्य प्रयोजन तब सिद्ध होता है, जब मनुष्य मछली या पक्षी के उद्देश्यों और मानवजाति के उद्देश्यों में भेद करके नौका या विमानों का अपने लाभ के लिए प्रयोग करता है। वेदमन्त्र यह नहीं कहता कि विज्ञान नास्तिकता है या नास्तिकता का पोषक है। बहुत-से मतमतान्तर हैं, जो प्राकृतिक नियमों के निरीक्षण या परीक्षण-मात्र को ईश्वर को कुपित करना मानते है। यही कारण है कि वैज्ञानिकों और ईश्वर के भक्तों में बहुत दिनों से युद्ध चला आता है। कहीं शीतयुद्ध (cold war) और कहीं उष्णयुद्ध आजकल भी है और पहले भी था। ऐसा प्रतीत होता है कि कुदरत के निरीक्षक और परीक्षक जो वैज्ञानिक हैं, उनका एक अलग जत्था है और ईश्वर के मानने वाले, उसकी स्तुति करने वाले और उसकी पूजा करने वाले जो धार्मिक लोग हैं, उनका अलग जत्था है। वेदमन्त्र की भावना इसके विपरीत है। वेदमन्त्र का उपदेश है कि विष्णु के कर्मों को देखो, स्थूलकर्मों को, सूक्ष्मकर्मों को, बाह्यकर्मों को और आन्तरिक कर्मों को। छोटे कर्मों को और बड़े कर्मों को आंखें खोलकर देखो, परिश्रम करके देखो और बुद्धि की कसौटी पर कसकर देखो। उस समय पता चलेगा कि सृष्टि के मौलिक नियम वही हैं, जो धर्म के हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि भौतिक जगत् के भी उसी प्रकार नियामक हैं जैसे आध्यात्मिक जगत् के। कुदरत का विरोध करके कोई ईश्वरभक्त नहीं बन सकता। जैसे किसी राजा या शासक के कानून को भंग करके कोई उस शासक का भक्त नहीं बन सकता।

आप ईश्वर के कर्मों को क्यों देखें और क्यों उनका अनुकरण करें? इसका उत्तर मन्त्र के अन्तिम चरण में दिया है। ‘इन्द्रस्य युज्यः सखा’। विष्णु इन्द्र का सबसे योग्य सखा या मित्र है। ‘इन्द्र’ नाम है जीव का । विष्णु से अधिक निःस्वार्थ मित्र कौन होगा? उसकी हितैषिता तो प्रत्येक कर्म से प्रकट होती है। हम आंख का उपभोग और प्रयोग करते हैं। आंख हमारा करण है। परन्तु, आंख बनाने वाला तो विष्णु ही है। उसने आंख हमारे हित के लिए ही बनाई है और आंख की सहायता के लिए सूर्य भी विष्णु महाराज की ही मित्रता का फल है। इसी प्रकार जहां तक आप विचार करेंगे, संसार की प्रत्येक वस्तु से विष्णु भगवान् की मित्रता का प्रमाण मिलेगा। उससे अधिक मित्र कौन मिलेगा, जिसके कर्मों को देखकर हम अपने व्रतों का ठीक-ठीक अनुष्ठान कर सकें।

चौथा मंत्र

 

ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत्।

 

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।

 

-यजुर्वेद अध्याय ४0 मन्त्र  १

 

अर्थइस सृष्टिरुपी प्रपंच में जो कुछ गतिविधान है, वह सब परमात्म-शक्ति के द्वारा परिपूरित होना चाहिए। उस जगत् या गतिविधान की सहायता से हे मनुष्य ! तू सुख का उपभोग कर। ऐसे गतिविधान के द्वारा, जिसको तूने छोड़ दिया है, अर्थात् जिसमें तू चिपटा नहीं है। चिपट मत! धन किसका है? अर्थात् किसी एक का नहीं।

 

व्याख्याइस मन्त्र में मुख्य शब्द जगत्है। जगत्का ही प्रकरण है। जगत्का मुख्य अर्थ क्या है? जीव से इसका किस प्रकार का सम्बन्ध होना चाहिए? किन भूलों के होने की सम्भावना है, जिनसे बचना आवश्यक है? इन सब बातों का इस मन्त्र में उपदेश दिया गया है। इस मन्त्र में कई शब्द गम्भीर विचार के पात्र हैं? क्योंकि, इस विषय में अनेक भ्रान्तियुक्त धारणाएं हैं। मन्त्र में कोई शब्द कठिन नहीं है। केवल सीधी रीति से विचार करना चाहिए और कल्पनाओं से बचना चाहिए।

 

जगती नाम है समस्त प्रपंच का, जिसको सृष्टि या संसार कहते हैं। यह संसार परिवर्तनशील है, एकरस नहीं । परिवर्तन का नाम है गति! संसार नाम ही सम्पूर्ण गतिविधान का है, अतः जगत्का अर्थ हुआ गतिविधान। गतिविधान तो प्रत्यक्ष ही है। इसके सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं। घटनाएं नित्यप्रति होती हैं। प्रत्येक क्षण में कोई-न-कोई गति हो जाती है। यह गतिन भ्रम है न कल्पित है। इसका आधार अविद्या नहीं है, अर्थात् ऐसी वस्तु नहीं, जिसका अस्तित्व हो ही नहीं और समझनेवाले ने अविद्या या भ्रान्ति के कारण इसको गतिसमझ रक्खा हो। ये गतियां परस्पर असम्बद्ध भी नहीं। एक का दूसरी से सम्बन्ध है। इसीलिए जगत् का अर्थ गतिविधानही करना चाहिए।

 

 

गतिविधानके सम्बन्ध में पहली बात यह सोचनी है कि गतिहै क्या? आप चलते हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान को। एक स्थान से गति आरम्भ होती है, दूसरे स्थान पर समाप्त होती है। स्थान ठहरा हुआ है। गम्के धात्वर्थ का स्थाके धात्वर्थ के साथ परस्पर सम्बन्ध है। यदि स्थान न हो, तो गति का आरम्भ कहां से हो? और यदि स्थान न हो, तो गति की समाप्ति कहां पर हो? अर्थात् ठहरना और चलना एक-दूसरे की विरोधी क्रियाएं नहीं, अपितु सापेक्षिक हैं। परिवर्तन का अर्थ ही यह है कि जो चीज जिस अवस्था में हो, उससे दूसरी अवस्था को प्राप्त हो जाए। परिवर्तित वस्तु नई नहीं है, उसमें पुराना अस्तित्व बना हुआ है। यह भावना न हो तो परिवर्तन या गतिशीलता कह ही नहीं सकते। बालों वाले आदमी को मूंड दिया जाए, तो कहेंगे कि पहले यह बाल वाला था, अब मुंडा हो गया। यदि उस बाल वाले आदमी को हटाकर उसकी जगह किसी मुंडे को ला खड़ा किया जाए, तो यह नहीं कहेंगे कि बालवाला आदमी परिवर्तित होकर मुंडा हो गया। गधे के सिर पर सींग होते ही नहीं, बैल के सिर पर होते हैं, अतः बैल के सींग काटकर उसको बदला हुआ कह सकते हैं, गधे को नहीं। इस बात को पूर्ण रीति से समझ लेना चाहिए। तभी मन्त्र का असली रहस्य खुल सकेगा।

 

गति क्या है? इस विषय में दार्शनिक जगत् में भिन्न-भिन्न धारणाएं हैं। कुछ लोग कहते हैं कि गतिवास्तविक नहीं, भ्रान्तिमात्र है, जैसे, सूर्य चलता नहीं, परन्तु चलता प्रतीत होता है। रेल के यात्री को सड़क के वृक्ष चलते दिखाई देते हैं, वस्तुतः वे चलते नहीं। इतना तो ठीक है कि कभी-कभी हम ठहरी चीज को चलती समझ लेते हैं परन्तु साथ ही यह भी तो है कि हम चलती चीज को ठहरी हुई समझते हैं। रेल का यात्री न चलते हुए वृक्षों को चलता हुआ देखता है और चलती हुई रेल को ठहरी हुई कहता है। इससे स्पष्ट है कि जो युक्ति गतिको भ्रान्तियुक्त मानने के लिए दी जाती है, वही युक्ति स्थितिको भ्रान्त मानने के लिए दी जा सकती है। इससे गतिमात्र का खण्डन नहीं होता। भ्रान्ति इसलिए नहीं है कि गतिकी कोई सत्ता नहीं, अपितु इसलिए है कि भ्रान्ति का कारण अन्य है।

 

गतिके अस्तित्व के विरोधी एक हेत्वाभास देते हैं। वे कहते हैं कि कोई वस्तु उस स्थान पर गति नहीं कर सकती, जहां वह है और उस स्थान पर भी गति नहीं कर सकती, जहां वह नहीं है, अतः दोनों अवस्थाओं में गति असम्भव है। अतः गतिभ्रममात्र है। (A thing does not move where it is. It does not move where it it not. Therefore, it does not move at all) यह ठीक है कि जिस देश-विशेष को मैं घेरे हुए हूं उसी देशविशेष में मेरी गति असम्भव है। गति के लिए उस स्थान को छोड़ना होगा। यह भी ठीक है कि जहां मैं हूं ही नहीं, वहां मेरी गति कैसे होगी? परन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि मैं उस स्थान को जहां मैं हूं छोड़ भी नहीं सकता। (A thing does not move where it is. It cannot move where it it not. But, it can move from where it is, to where it is not)         

 

यदि गति वास्तविक है तो जगत्, अर्थात् गतिविधान भी वास्तविक हुआ और जगत् अविद्या, माया या भ्रान्तिमात्र नहीं रहा। विधान (System) भ्रान्तियों का नहीं हो सकता। जगत् का भाव है अभाव नहीं। सूर्य निकलता और डूबता है। वृक्ष बढ़ता और नियमपूर्वक उसका ह्रास हो जाता है। यह केवल गति नहीं, अपितु गतिविधान है। दो गतियों में परस्पर सम्बन्ध है। जैसे, किसी यन्त्र के भिन्न-भिन्न पुर्जे अलग-थलग नहीं होते। पुर्जे अलग रहें तो वह यन्त्र नहीं, न वे पुर्जें यन्त्र के हैं। इसी प्रकार, यदि असम्बद्ध गतियां हों, तो वह न गतिविधान है न जगत् है।

 

यन्त्र के पुर्जे नहीं जानते कि वे यन्त्र के पुर्जे हैं। यन्त्र भी नहीं जानता कि कौन पुर्जा मेरा है और उसका क्या काम है। इसका ज्ञान तो यन्त्र के संचालक को ही है, जो हर पुर्जे के वैयक्तिक धर्मों का ज्ञान रखता है और उन पुर्जों को यन्त्र के संचालन में क्या करना है, इसको भी समझता है। इसी प्रकार जगत् के गतिविधान का भी एक संचालक है। वह जानता है कि सूर्य को क्या करना है और चन्द्रमा को क्या करना है। चन्द्रमा नहीं जानता कि सूर्य क्या है। सूर्य नहीं जानता कि चन्द्रमा क्या है, परन्तु जगत् के गतिविधान का नियन्ता सूर्य और चन्द्र दोनों की गतियों का ज्ञाता तथा स्वामी है। उसी नियन्ता के लिए ईशकहा है। परमात्म-तत्त्वकी सिद्धि में परमोत्कृष्ट हेतु यही है कि यह प्रपंच एक गतिविधान है। गति के संचालक के बिना कोई गतिविधान बन ही नहीं सकता। कुछ लोग यह तो मानते हैं कि यह प्रपंच गतिविधान है, परन्तु वे इसको स्वयं-संचालित या आटोमैटिक (Automatic) कहते हैं। वे इस बात को भूल जाते हैं कि आटोमैटिक (स्वंय -संचालित) यन्त्र भी वस्तुतः स्वंय संचालित नहीं होता। उसका भी कोई वशी’ (वश में रखनेवाला) होता है। इस प्रपंच की ओर देखने और इसकी रूपरेखा पर विचार करने से यह आवश्यक हो जाता है कि हम परमात्म-तत्त्वकी ओर जाएं। प्रपंच का प्रवाह है। यह प्रवाह ही ईश्वर के अस्तित्व का सूचक है।

 

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अब आप इस गतिविधान से अपने सम्बन्ध का हिसाब लगाइए। आप ऐसे चक्र से सम्बद्ध हैं, जो कभी एक अवस्था में नहीं रहता, निरन्तर गतिवान् है, इसलिए यदि किसी देश से चिपक जायेंगे तो नष्ट हो जायेंगे। वह यन्त्र आपके लिए रुकेगा नहीं। इसलिए आवश्यक है कि हम इस गतिविधान के साथ ऐसी भावना रक्खें जैसी एक यात्री की मार्ग के साथ होती है। यात्री मार्ग पर चलता है, उससे चिपटता नहीं, अर्थात् मार्ग के प्रत्येक प्रदेश से उसका सम्बन्ध क्षणिक होता है। वह उसको छोड़कर आगे बढ़ जाता है। यदि यात्री का पैर एक स्थान पर चिपक जाए, तो यात्रा भंग हो जाए। वह मार्ग पर चलेगा, चिपटेगा नहीं। इसी का नाम क्रान्तिहै। क्रान्ति का अर्थ है आगे बढ़ना। आगे बढ़ने का अर्थ यह है कि पिछले स्थान को छोड़ना। इसीलिए तेन त्यक्तेनशब्द का प्रयोग हुआ है। तेनका अर्थ है जगता। मार्ग यात्रा का साधक है, परन्तु तभी तक जब तक कि वह मार्ग त्यक्तहोता जाए, अर्थात् छूटता जाए, मार्ग चिपटे तो बुरा और यात्री चिपटे तो बुरा। मार्ग अर्थात् जगत् तो किसी से चिपटता नहीं। उसका स्वभाव ही चिपटने का नहीं। हां, मनुष्य चिपटना चाहता है और उसकी यह चिपटने की इच्छा उसकी यात्रा में बाधक होती है। आप चलते नहीं, ढकेले जाते हैं। आपकी आन्तरिक इच्छा चिपटने की होती है। परन्तु, दैवीशक्ति आपको बाधित करती है कि आपको आगे को ढकेल दिया जाए। आप अपने भोगों के लिए जगत् का प्रयोग अवश्य करें, क्योंकि जगत् आपके भोगों का साधक है, उसी के द्वारा आप भोगेंगे। परन्तु इस साधक का विशेषण है त्यक्त। त्यागा जाता हुआ या त्यागा जानेवाला अर्थात् जगत् को जो मार्ग के समान यात्रा का साधन बनाना चाहता है, उसे त्यागभाव धारण करना होगा, चिपटने की भावना छोड़ देनी होगी। हम जगत् के एक मनोरम, सुन्दर और सुखप्रद उद्यान में से गुजरते हैं। समस्त उद्यान हमारे सुख के लिए है। मनुष्य जीवन से बढ़कर और कौनसा सुखप्रद जीवन होगा! परन्तु जगन्नियन्ता का आदेश है कि इस बाग का उपभोग करो, मार्ग के रूप में। यह मार्ग है, सराय नहीं। सड़क को घेरकर खड़े हो जाइए, पुलिस गिरफ्तार कर लेगी। मार्ग चलने के लिए है, डेरा डालने के लिए नहीं। इसलिए त्यागभाव धर्म का मुख्य अंग है। न भोगने का नाम त्याग नहीं, भोग से न चिपटने का नाम त्याग है और त्यागमय उपभोग सदा सुखकारी होता है। दुख भोग में नहीं, चिपटने में है। इसलिए दो आदेश साथ-साथ दिये हैं-भुञ्जीथाःऔर मा गृधःभोगों और चिपटो मत्। जगत् को भोगने से आप कहां रुक सकते हैं। आपकी शारीरिक आवश्यकताएं आपको भोगने के लिए बाधित करती हैं। यह कैसे सम्भव है कि आप खाना न खाएं! सौन्दर्य का निरीक्षण करके आनन्द न लें! भोग तो जीवन के साथ है, परन्तु भोग को मर्यादा में रखने के लिए चिपटो मत, यह आदेश भी आवश्यक है। मुमुक्षु भोगने के साथ त्यागने के लिए भी उद्यत रहता है।

 

अब प्रश्न यह है कि न चिपटने का आदेश क्यों दिया? मार्ग और सराय में भेद है। मार्ग भी स्थान है और सराय भी। परन्तु सराय केवल आपके लिए है, मार्ग सबके लिए है। जगत् के गतिविधान में सबका भाग है, केवल एक का नहीं। जगतरूपी धन कस्यचित्’, अर्थात् किसी एक का नहीं है, सबका है। ऐसा तो नहीं है कि वह धन किसी का नहीं है। किसी का न होता तो उसे कोई न भोगता। यदि कोई न भोगता तो उस धन का लाभ ही क्या था? धन व्यर्थ नहीं है, भोगने की वस्तु है। परन्तु एक जीव के भोगने की नहीं, सबके भोगने की, अतः जब कोई एक व्यक्ति धन पर प्रभुत्व जमाना चाहता है, तो धन उसको सुखद होने के स्थान में दुखद हो जाता है। जिस प्रकार स्वादिष्ट वस्तु अधिक देर तक मुंह में रखने से स्वादहीन हो जाती है, उसी प्रकार धन से चिपटने से धन अलाभकर हो जाता है।

 

 इस प्रकार इस मन्त्र में चार बातें मुख्य हैं-

 

(1) जगत् के गतिविधान की वास्तविकता, (2) ईश्वर का उस पर प्रभुत्व (3) जगत् भोग के लिए है, (4) जगत् से चिपटना नहीं चाहिए।

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