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मुद्राराक्षस - हिंदी by विशाखदत्त

 




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भूमिका 



सामंत विशाखदत्त रचित मुद्राराक्षस नामक नाटक का संस्कृत साहित्य में काफी 

महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस नाटक की विशेषताएं यह हैं कि इनमें 


एक - शुरू से अंत तक सब पुरुष- पात्र हैं । केवल एक स्त्री - पात्र है, जिसका कथानक से 

मूलरूप में कोई संबंध नहीं है । केवल करुण रस पैदा करने के लिए उसे स्थान दिया गया है । 

सदियों बाद इग्लैंड में शेक्सपियर ने भी ऐसा ही एक नाटक जूलियस सीज़र लिखा था , 

जिसमें मुख्य रूप से सभी पुरुष -पात्र हैं और स्त्रियों का बहुत ही गौण स्थान है । 


दो इसका मुख्य कारण है कि दोनों ही नाटक मुख्य रूप से राजनीति के षड्यंत्र, 

कुचक्र और दांव - पेचों को प्रकट करते हैं । मुद्राराक्षस में मौर्यकालीन भारतीय राजनैतिक 

परिस्थिति का चित्रण है । 


तीन - तीसरी बात यह है कि विशाखदत्त के इस नाटक में कहीं भी तबीयत ऊबती नहीं । 

निरंतर नवीनता मिलती चलती है । कथानक इसीलिए अपनी रोचकता का अंत तक निर्वाह 

करता रहता है । 


मुख्य रूप में यही बातें इसके मूल में हैं । 

मुद्राराक्षस का अर्थ है राक्षस की अंगूठी । राक्षस की अंगूठी में उसकी मुद्रा अर्थात् मुहर 

भी है । संस्कृत में मुद्रा शब्द मुहर और अंगूठी दोनों के लिए आता है । यह अंगूठी बहुत 

महत्त्वपूर्ण है । इसी अंगूठी के कारण चाणक्य को पता चलता है कि श्रेष्ठि चंदनदास के यहां 

राक्षस का परिवार छिपा हुआ है । बस इतना पता चलते ही चाणक्य अपना खेल शुरू कर 

देता है । इसी मुद्रा के सहारे से सिद्धार्थक शकटदास से पत्र लिखवाकर मुहर लगाकर 

राजनीतिक दांव -पेंच खेलता है । इसी के कारण मलयकेतु का राक्षस से झगड़ा होता है और 

चन्द्रगुप्त मौर्य का रास्ता साफ हो जाता है । क्योंकि मुद्रा नाटक की घटनाओं में इतना महत्व 

रखती है, इस नाटक का नाम कवि ने उचित ही मुद्राराक्षस रखा है । 


विशाखदत्त सामंत बटेश्वरदत्त का पौत्र और महाराज पद वाले पृथु का पुत्र था । वह स्वयं 

बड़ा नीतिज्ञ रहा होगा, जिसने इतनी राजनीति , ज्योतिष आदि के पांडित्य का परिचय दिया 

है । उसका नाट्यशास्त्र का अध्ययन भी काफी था , क्योंकि उसने बुरे नाटककार और अच्छे 

कवि के ऊपर भी प्रकाश डाला है । कवि शंकर और विष्णु दोनों को ही भगवान मानता था । 

काव्य में गौड़ी रीति के आधिक्य के कारण लोगों का अनुमान है कि वह गौड़ देश का रहने 

वाला था , उसने क्षपणक ( बौद्ध साधु) दर्शन को , जैसा कि उस समय विश्वास था , अच्छा 

नहीं माना, परंतु अर्हतों की प्रशंसा की है। उसने बुद्ध के चरित्र की महानता को भी स्वीकार 



किया है । हम इस विषय में कुछ नहीं कह सकते कि वह कौन था और कहाँ का था । भारतेन्दु 

का मत है कि पृथु वास्तव में राजा पृथ्वीराज था । वे तर्क देते हैं कि बटेश्वरदत्त जैसे लंबे नाम 

को जल्दी में सोमेश्वर भी कहा जा सकता है । बटेश्वर में सोमेश्वर से एक मात्रा कम ही है अतः 

यह बात कुछ भी नहीं जमती । संभवतः सामंत का पुत्र महाराज कैसे हुआ होगा, यही उनके 

सामने समस्या थी । परंतु पुराने समय में महाराज एक पद था । तभी - महाराजपदभाक् भी 

कहा गया है । महाराज बड़े जागीरदार किस्म के राजकुल से संबंधित व्यक्ति होते थे। इससे 

केवल यही प्रकट होता है कि विशाखदत्त एक बहुत कुलीन परिवार का व्यक्ति था । उसकी 

रुचि केवल राजनीति में ही दिखाई देती है । ब्रजभाषा में अनेक अवध के कवियों ने कविता 

की हैं , इसलिए काव्य - शैली से कवि का स्थान ढूंढ़ना उचित नहीं है । कवि अपने वर्णन में 

कुसुमपुर का उल्लेख करता है । पाटलिपुत्र का ही दूसरा नाम कुसुमपुर था । गुप्तों के समय में 

कुसुमपुर का बड़ा महत्त्व था । संभवतः कवि उसी समय का था । धनंजय के दशरूपक में 

प्रथम प्रकाश की 68वीं कारिका के अंत में मुद्राराक्षस का नाम है । सरस्वतीकंठाभरण के 

तीसरे परिच्छेद में उल्लेख है । चैतन्नाटक में भी नाम है । इससे स्पष्ट होता है कि ईस्वी दसवीं 

शती में यह बहुत प्रसिद्ध नाटक था । कुछ विद्वान् म्लेच्छ शब्द का प्रयोग यहां होने से इसे 

सातवीं सदी का मानते हैं । किंतु सबसे बड़ी इसमें तीन बातें हैं । 

___ एक तो इसमें जिस पृथु के राज्य की कल्पना है, वह हिमालय से समुद्र तक का है , जो 

सातवीं सदी तक ह्रासप्राय हो चला था । मौर्यों से वर्धनों तक ही इसका ज़ोर रहा था , जब कि 

सामंतीय व्यवस्था विदेशियों से प्रजा की रक्षा करने में प्रगति का आधार थी । 


दूसरे, इसमें जो अन्त का भरतवाक्य है, वह चन्द्रगुप्त के शासन को दीर्घजीवी होने का 

आशीर्वाद है । उसमें स्पष्ट ही तत्कालीन राजा की प्रसन्नता की बात है, अन्यथा प्रायः 

भरतवाक्य लोक - कल्याण के अन्य रूपों का वर्णन करते हैं । चन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्तों में शकारि 

विक्रमादित्य कहलाता था । उसने ध्रुवस्वामिनी की रक्षा की थी । इसलिए उसकी स्मृति में 

उसकी तुलना दांत पर पृथ्वी उठाने वाले वाराह विष्णु अवतार से की जाती थी । उसके समय 

में वाराह भगवान् की पूजा का काफी प्रचार था । वाराह का भी भरतवाक्य में उल्लेख है । इन 

बातों को देखकर लगता है कि यह नाटक ईस्वी चौथीं- पांचवीं सदी का होना चाहिए। म्लेच्छ 

शब्द धर्मशास्त्रों और पुराणों में आता है । उसका तुर्क मुसलमानों से ही संबंध जोड़ना चाहिए; 

बल्कि तुर्क मुसलमानों को यवन ही मुख्य रूप से कहा जाता था , यद्यपि यवन शब्द पुराने 

ग्रीक लोगों के लिए प्रचलित हआ था । नाटक में खस, म्लेच्छ , शक और हूणों का भी उल्लेख 

है । हूणों के लिए यह नहीं समझना चाहिए कि स्कंदगुप्त से पहले वे अज्ञात थे । उनकी 

शाखाएं भारत के उत्तर में तब भी थीं । पारसीक आदि भी प्राचीन ही थे। 

__ तीसरी बात यह है कि जब यह नाटक लिखा गया होगा तब मूल चन्द्रगुप्त मौर्य की कथा 

काफी पुरानी पड़ चुकी थी क्योंकि इसमें कुछ गड़बड़ियां भी हैं । यद्यपि इस नाटक ने 

इतिहास पर बड़ा प्रभाव डाला है, फिर भी सब बातें पूर्ण रूप से ऐतिहासिक ही हों , ऐसा नहीं 

है । इसमें यह तो आता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य का मुख्य पौरुष विदेशियों को भगा देना था । 

अन्त में इसपर ज़ोर है। कथा में भी विदेशियों की समस्या दिखाई पड़ती है, परंतु राज्य 



जीतने के दांव- पेच बहुत दिखते हैं । इसमें सिकन्दर के आक्रमण का कोई उल्लेख नहीं और 

पारसीक राजा को भी स्पष्ट रूप से विदेशी नहीं माना गया है । गुस्से में राक्षस मलयकेतु को 

भी म्लेच्छ कह जाता है । कथा चाणक्य की चतुरता पर अधिक बल देती है , चन्द्रगुप्त की 

वीरता पर नहीं । यदि यह चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय का नाटक होता तो क्या चाणक्य का 

इतना स्थान होता ? परंतु यहां हमें याद रखना चाहिए, एक चन्द्रगुप्त के बहाने से दूसरे 

चन्द्रगुप्त की जीत पर जोर दिया गया है । गृह- कलह दूर करके शांति स्थापित की गई है । 

पुरुष से स्त्री रूप धरकर छल से शकराज को चन्द्रगुप्त द्वितीय ने भी मारा था । उन दिनों की 

राजनीति भी आज की तरह छल से भरी थी । क्षपणक का ब्राह्मण चाणक्य का साथ देना , 

भारतीय परम्परा में इन दो साम्प्रदायों का विदेशी आक्रमण के समय मिल जाना इंगित करता 

है । नाटक मौर्यकालीन नहीं है, इसका परिचय यही है कि यहां यह दर्शाया गया है कि वास्तव 

में नंद का राज्य बहुत ठीक था । केवल चाणक्य के क्रोध के कारण उसे उखाड़ा गया । फिर 

प्रजा को शांत करने के लिए काफी चालाकियां करनी पड़ी । इसमें नंद का पुत्र होकर भी 

चन्द्रगुप्त मौर्य दासी- पुत्र है, तभी वृषल है, नीच है, जबकि नंद को शूद्र नहीं कहा गया है, 

बल्कि उसे कुलीन भी कहा है । 


इन्ही बातों से लगता है कि नाटक चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय का हो सकता है। 


कथा का प्रमुख पात्र मूल रूप से चाणक्य है। नाटककार ने चाणक्य को बहुत ही धूर्त 

और कुटिल दिखाया है । वह अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण कर चुका है । उसका क्रोध भयानक था । वह 

सब कुछ पहले से ऐसा सोच लेता है कि उसकी हर चाल ऐसी जाती है कि कोई उसे काट ही 

नहीं पाता । वह सब शत्रुओं को मार डालता है, कुछ को हराता है, और राक्षस को वह चतुर 


और महत्वपूर्ण तथा प्रभावशाली समझने के कारण जीत लेता है । उसके सामने वस्तुतः 

राक्षस कोई टक्कर का आदमी नहीं है और चाणक्य भी उसकी इस प्रतिस्पर्धा को देखकर 

मन ही मन हंसा करता है । चाणक्य राक्षस की स्वामिभक्ति से प्रसन्न है । वैसे चाणक्य त्यागी 

है , टूटे - फूटे घर में रहता है और निडर होकर राजा को वृषल कहता है । दूसरी ओर राक्षस धन 

की भी चिन्ता करता है, निःस्पृह भी नहीं, बुरी तरह मात खाता है, और अंत में नंद -विरोधी ही 

बन जाता है । राक्षस का अंत बहुत ही बुरा है और वह अंत में बहुत ही पदलोलुप- सा दिखाई 

देता है । चाणक्य बहुत ही बुद्धिमान व्यक्ति है । राक्षस उसकी तुलना में कुछ भी नहीं है । 

उसका नाम भी विचित्र है । और वह नंद की ऐसी स्तुति गाता है जैसे उसके समय में बड़ा 

भारी सुख था । बाद में चन्द्रगुप्त की सेवा भी इसीलिए स्वीकार करता है कि चन्द्रगुप्त नंद का 

ही पुत्र है । वैसे नाटककार ने यही दिखाया है कि राक्षस के अमात्य बनने का कारण 

चंदनदास के प्राणों की रक्षा करना है, किंतु यहां राक्षस का लोभ छिप नहीं पाता । यदि वह 

आन का पक्का होता तो प्राण दे सकता था और तब चन्दनदास की समस्या का भी अंत हो 

जाता । राक्षस नितांत कायर नहीं था , इसीलिए कवि उससे तलवार भी उठवाता है , पर राक्षस 

की तलवार भी चाणक्य की बुद्धि से दूर कर दी जाती है । कवि तो बंदिश पूरी बांधता है, परंतु 

राक्षस का पतन किसी से नहीं रुकता । कवि यह दिखाता है कि है तो राक्षस वीर , प्रचंड , 

स्वामिभक्त और चतुर, परंतु चाणक्य के सामने वह है कुछ भी नहीं । सबसे बड़ी चाणक्य की 



महानता तो यह है कि वह अंत में बहुत ही नम्र है; जबकि राक्षस में एक खिसियानापन है 


और वह वाजिब भी है । चरित्र -चित्रण के दृष्टिकोण से इसमें दो ही पात्र हैं , चाणक्य और 

राक्षस । बाकी सब काम चलाने वाले लोग हैं । वे तो हुक्म बजाने वाले लोग हैं । परंतु नाटकीय 

दृष्टि से प्रत्येक बड़ा सफल कार्य करता है । हर एक का काम उम्दा होता है । फिर भी हम यह 

नहीं भूल पाते , और स्वयं पात्र भी हमें याद दिलाते रहते हैं , कि इन सब कामों के पीछे तो 

चाणक्य की बुद्धि है । चाणक्य का लोहा बरसता है । वह पांव उठाता है तो धरती कांपती है । 

उधर राक्षस परेशान रहता है । नाटक में कहीं भी यह नहीं दिखता कि वह कभी चैन भी पा 

सका हो । उसने कई चालें चलीं। चाणक्य की नींद तो उसने बिगाड़ी, पर हारा हर जगह । 

कहीं- कहीं ही नाटककार पात्रों की मनःस्थिति का सामाजिक और व्यक्तिगत परिचय देता है । 

मलयकेतु को धोखा देते हुए भागरायण को दुःख होता है । कंचुकी को बुढ़ापे की तकलीफ 

है । राजनीति के कुचक्रों में प्रकृति वर्णन नहीं मिलते । अंतिम दृश्य मृच्छकटिक से मिलता 

जुलता है । चंदनदास बड़ा त्यागी है, फिर भी उसके साथ चारुदत्त की - सी संवदेना नहीं 

जागती । वह राजद्रोही है और इसीलिए हम चन्द्रगुप्त को इसके लिए अत्याचारी ठहरा ही नहीं 

पाते । हम जानते हैं कि चंदनदास मरेगा नहीं, क्योंकि चाण्डाल भी वास्तव में चाण्डाल नहीं है 


और राक्षस भी कायदे से फंसता चला आ रहा है । इसीलिए मैं चंदनदास के चरित्र को भी 

महत्त्वपूर्ण नहीं मानता । कवि बार- बार उसे शिव जैसा त्यागी बताता है । शायद वैश्यों को 

प्रसन्न करना उसके मन में अवश्य था । उस समय व्यापार खूब होता था और सेठों का प्रभुत्व 

भी था । अंत में तो वह जगत- सेठ बनाया जाता ही है । कवि यह भी कहलवाता है कि परस्त्री 

से वैश्य प्रेम नहीं करते, वह बड़े शीलवाले होते हैं । इसके अतिरिक्त इस नाटक में चरित्र 

चित्रण की कोई विशेषता नहीं है । रस के दृष्टिकोण से इसमें मुख्य रस वीर है । करुण थोड़ा 

सा है । राक्षस कई जगह करुणा- भरी बातें कहता है , परंतु वह सब नंद के प्रति हैं , और नंद से 

हमारी सहानुभूति यों नहीं होती कि हमें चन्द्रगुप्त अच्छा लगता है , हालांकि चन्द्रगुप्त केवल 

अमात्य चाणक्य के हाथ का खिलौना ही है, परंतु है तो विजयी चाणक्य का ही प्रिय पात्र । 

नायक के रूप में वह धीरोदात्त है । त्यागी , कुलीन , कृती, रूपयौवनोत्साही, दक्ष, अनुरक्त , 

शीलवान् , नेता आदि नायक की कोटि में आते हैं । चन्द्रगुप्त क्षमावान् गंभीर, महासत्त्व , 

दृढ़व्रती है, अतः धीरोदात्त है । मलयकेतु प्रतिनायक है। यहां नायिका और विदूषक हैं ही 

नहीं । संस्कृत के नाटकों की परम्परा में यह सुखांत नाटक है । संस्कृत में ऐसा नाटक दुर्लभ ही 

है । भावानुसार भाषा का प्रयोग है । अलंकार काफी प्रयुक्त हुए हैं । छोटी- छोटे अंक हैं । 

शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी आदि प्राकृत भाषाएं इसमें संस्कृत के अतिरिक्त प्रयुक्त हुई हैं । 

इतिहास की बात हम फिर दुहराना चाहते हैं । विष्णुगुप्त , चाणक्य , कौटिक्य आदि एक ही 

व्यक्ति के नाम हैं , यह मुद्राराक्षस ने ही प्रकट किया ; और फिर इस विषय में कोई संदेह नहीं 

रहा । इस नाटक ने भारतीय इतिहास के पूर्वमध्यकाल की राजनीतिक व्यवस्था का काफी 

परिचय दिया है । 

___ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने मुद्राराक्षस का अनुवाद किया है । किंतु वह अनुवाद गद्य और पद्य 

दोनों में है । संस्कृत के गद्य का खड़ी बोली में अनुवाद है और श्लोकों का अनुवाद ब्रजभाषा 



पद्य में किया गया है । मैंने इसी कारण मुद्राराक्षस का आधुनिक शैली में अनुवाद करने की 

चेष्टा की है , जिसमें पद्य के स्थान पर गद्य का प्रयोग किया गया है । 


भारतेन्द्र हरिश्चन्द्र ने बड़े मनोयोग में मुद्राराक्षस नाटक की पूर्व कथा लिखी है । उन्होंने 

अपने समय तक के ऐतिहासिक अध्ययन को प्रस्तुत किया है । उस दृष्टिकोण में उन सब 

बातों का समावेश है जिनको विशाखदत्त ने भी स्वीकार किया है , यद्यपि भारतेन्दु ने बहुत - सी 

बातें अपने अध्ययन के फलस्वरूप प्रस्तुत की हैं । उनका संक्षिप्त मत यह है 


प्राचीन काल में मगध से पुरुवंश को हटाकर नंदवंश ने 138 वर्ष राज्य किया । उन्हीं के 

समय में अलक्षेन्द्र (सिकन्दर ) ने भी आक्रमण किया था । महानंद प्रतापी था । उसके दो मंत्री 

थे, शकटार शूद्र और राक्षस ब्राह्मण । शकटार क्रोधी था । महानंद ने क्रुद्ध हो उसे एक निविड़ 

बंदीगृह में डाल दिया । दो सेर सत्तू मात्र उसके परिवार को देता । शकटार दुःखी हो गया । 

एक - एक कर भूखे ही उसके घर के सब लोग मर गए । शकटार रह गया । एक दिन महानंद के 

हंसने पर एक दासी विचक्षणा हंस पड़ी । राजा ने कारण पूछा तो वह प्राण-दंड के भय से 

शकटार से कारण पूछने आई और इस प्रकार महानंद के प्रसन्न होने पर शकटार से कारण 

पूछने आई और इस प्रकार महानंद के प्रसन्न होने पर शकटार छूट गया । उसे राक्षस के नीचे 

मंत्री बना दिया गया । शकटार को बदले की आग जला रही थी । उसने काला ब्राह्मण ढूंढ़ा जो 

घास से पांव कटने पर मट्ठा डाल - डालकर उसकी जड़ें जला रहा था । शकटार ने उससे नगर 

में एक पाठशाला खुलवा दी । एक दिन राजा के यहां श्राद्ध में शकटार चाणक्य को ले गया 


और उसे आसन पर बिठा दिया । चाणक्य का रंग काला , आंखें लाल और दांत काले थे । नंद 

ने उसे अनिमंत्रित जानकर बाल पकड़कर निकलवा दिया । चाणक्य ने शिखा खोलकर 

नंदवंश के विनाश की प्रतिज्ञा की । शकटार ने उसे घर बुलाकर विचक्षणा को उसके काम में 

मदद देने को लगाया । महानंद के 9 बेटे थे। 8 विवाहिता रानी से, एक मुरा नामक नाइन से 

चन्द्रगुप्त । इसीसे मुरा का पुत्र मौर्य कहलाता था , वृषल भी । चन्द्रगुप्त बड़ा विद्वान था । आठों 

भाई उससे जलते थे। रोम के बादशाह ने एक पिंजरे में एक शेर भेजा था कि बिना खोले शेर 

बाहर कर दो । वह मोम का था । चन्द्रगुप्त ने उसे पिघलाकर बाहर निकाल दिया । महानंद भी 

इससे कुढ़ता था । चन्द्रगुप्त बड़ा था , सो अपने को राज्य का भागी मानता था । चाणक्य और 

शकटार ने चन्द्रगुप्त को राज्य का लोभ दिया । चाणक्य ने अपनी कुटी में जाकर विष मिले 

पकवान बनाए , विचक्षणा ने वे पकवान महानंद को पुत्रों समेत खिला दिए। वे सब मर गए । 

शकटार अपने पापों से संतप्त होकर वन में चला गया और वहां अनशन करके मर गया । 

चाणक्य फिर अपने अंतरंग मित्र जीवसिद्धि को क्षपणक के वेश में राक्षस के पास छोड़कर 

विदेश गया और उत्तर के निवासी पर्वतेश्वर नामक राजा को मगध का आधा राज्य देने के 

लोभ से ले आया । पर्वतक का भाई वैरोधक या वैराचक था , पुत्र था मलयकेतु । उसके साथ 

म्लेच्छ राजा थे। उधर राक्षस ने नंद के भाई सर्वार्थसिद्धि को राजा बना दिया । चाणक्य ने घेरा 

डलवाया । 15 दिन युद्ध हुआ । जीवसिद्धि ने सर्वार्थसिद्धि को बहका कर तपोवन भेज दिया । 

राक्षस उसे मनाने को चन्दनदास नामक व्यापारी के घर अपना परिवार छोड़कर चला । 

चाणक्य ने उसे पहले ही मरवा डाला । चन्द्रगुप्त को राजा बना दिया । राक्षस ने पर्वतेश्वर के 



मंत्री को बहकाया । मंत्री ने पर्वतेश्वर को लिखकर भेजा। इसके बाद राक्षस ने चन्द्रगुप्त को 

मारने को विषकन्या भेजी। जीवसिद्धि ने बता दिया तो चाणक्य ने विषकन्या को पर्वतेश्वर के 

पास पहुंचाकर उसे मरवा डाला, और नगर के प्रतिष्ठित नागरिक भागुरायण से कहकर 

मलयकेतु को भी भगवा दिया । चाणक्य ने साथ ही अपने विश्वस्त भद्रभट आदि उसकी सेना 

में भेज दिए। राक्षस अब मलयकेतु के साथ हो गया । चाणक्य ने यह उड़ा दिया कि राक्षस ने 

ही विषकन्या को भेजकर चन्द्रगुप्त के मित्र पर्वतक को मरवा डाला और स्वयं आधा राज्य 

देने की बात को छिपा गया । 


प्रस्तुत नाटक इससे आगे की कथा का वर्णन करता है । 



चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय में इतिहास यह बताता है कि वह मोरियवन के क्षत्रियों में से था । 

इसलिए उसका नाम मौर्य पड़ा था । वह दासी पुत्र नहीं था वरन् उन क्षत्रियों में से था जो कि 

ब्राह्मण धर्म का प्रभुत्व स्वीकार नहीं करते थे। गौतम बुद्ध के समय में क्षत्रियों ने बुद्धि - पक्ष में 

तथा दर्शन के क्षेत्र में ब्राह्मणों से बड़ी टक्कर ली थी । उस समय मगध का राजा बिंबसार था । 

इसका पुत्र अजातशत्रु हुआ जिसने अपने पिता की हत्या की थी । बिंबसार का वंश 

शैशुनागवंश कहलाता है । इस वंश के उपरांत हम नंदवंश का उत्थान देखते हैं । नंदवंश को 

शूद्रवंश कहा गया है । नंदों के वैभव का सिक्का जमा हुआ था । किंतु उस समय ब्राह्मण 

अप्रसन्न थे। चाणक्य तक्षशिला में पढ़ाता था । बाद में वह मगध पहुंचा, जहां उसका अपमान 

हुआ। चन्द्रगुप्त उस समय राजा नंद के मयूरों और उद्यानों का रखवाला था । उसकी वीरता से 

नंद प्रसन्न हो गया और उसने उसे सेनापति बना दिया । कुछ दिन बाद वह उससे अप्रसन्न हो 

गया । यह देखकर चन्द्रगुप्त भाग गया और उसने पाटलिपुत्र में विप्लव करा दिया, जिसे राजा 

नंद ने कुचल दिया । चन्द्रगुप्त भागकर उत्तर - पश्चिम भारत में आ गया, जहां वह सिकन्दर से 

मिला, परंतु किसी बात पर उसका सिकन्दर से झगड़ा हो गया और वह फिर भाग निकला। 

बड़ी मुश्किल से चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने विंध्य प्रदेश में डाकुओं को एकत्र करके सेना खड़ी 

की और पहले सीमाप्रांत के राज्यों को जीता तदनन्तर अंत में मगध पर शासन जमाया । 

लगभग बीस वर्ष बाद यवन सिल्यूकस निकाटोर ने भारत पर आक्रमण किया, जिसमें यवनों 

को चन्द्रगुप्त ने पराजित किया और बाख्त्री आदि प्रांतों को भी अपने साम्राज्य में मिला 

लिया । कुछ लोगों का मत है कि चाणक्य अंत में तपोवन में चला गया । आज के इतिहासज्ञों 

ने बहुत खोज - बीनकर इतने तथ्य पाए हैं । विशाखदत्त की इस कथा से इतना ही साम्य है कि 

चाणक्य का नंद ने अपमान किया था । चन्द्रगुप्त को चाणक्य ने गद्दी पर बिठाया , अपना 

बदला लिया । 


राक्षस के विषय में इतिहास कुछ नहीं बोलता । शकटदास के बारे में भी विशेष कुछ नहीं 

आता । कुछ लोगों का मत है कि नंद का मंत्री वररुचि था । कुछ कहते हैं , कात्यायन था । जो 

हो, कथाएं बहुत बन जाती हैं और पुरानी घटनाओं को फटककर अलग कर लेना वस्तुतः 

असम्भव होता है । विशाखदत्त के समय में पुरानी कथा काफी चमत्कारों से लद गई थी । मौर्य 



का मुरा दासी का पुत्र हो जाना भी इतिहास की एक भूल ही कही जा सकती है, क्योंकि तब 

तक वृषल का अर्थ भूला जा चुका था । दासीपुत्र होने से उसे चाणक्य वृषल कहता था , ऐसी 

विशाखदत्त ने व्याख्या की है, क्योंकि मतानुसार चाणक्य निःस्पृह ब्राह्मण था और उसे न 

किसी की चिंता थी , न किसी का डर । किंतु यह विशाखदत्त के युग की व्याख्या मात्र है । 

चन्द्रगुप्त का वृषल नाम परम्परा में प्रचलित रहा होगा और बाद में उसे समझने की इस 

प्रकार चेष्टा की गई होगी । यदि प्रस्तुत नाटक को चौथी- पांचवीं शती का भी माना जाए, तो 

भी जिस घटना का इसमें वर्णन है, वह नाटककार से लगभग सात या साढ़े सात सौ बरस 

पुरानी थी । जैसे आज कोई कवि या नाटककार गुलामवंश के बलवन या रज़िया के बारे में 

लिखे तो उनके इतिहास का जितना अभाव है, उससे कहीं अधिक विशाखदत्त के युग में था । 

राक्षस ऐतिहासिक पात्र था या नहीं, यह भी संदेहास्पद है । बहत्कथा में वररुचि का उल्लेख है 

जिसकी एक राक्षस से मित्रता थी । राक्षस मनुष्य नहीं था । वह पाटलिपुत्र के पास घूमा करता 

था । वह एक रात वररुचि से मिला और बोला कि इस नगर में कौन - सी स्त्री सुंदरी है । वररुचि 

ने कहा - जो जिसको रुचे वही सुंदरी है - इस पर राक्षस ने उससे प्रसन्न होकर मित्रता कर 

ली और उसके राजकाज में सहायता करने लगा । इस कथा से कुछ भी पता नहीं चलता । 

यहां तो यह लगता है कि यदि कोई राक्षस नामक व्यक्ति उस समय था भी तो वह यहां तक 

आते- आते मनुष्य नहीं रहा था , नामसाम्य के कारण राक्षस हो गया था । विशाखदत्त के 

नाटक की ऐतिहासिकता इसीलिए प्रामाणिक नहीं है । परंतु प्रामाणिक यह है कि कवि अपने 

युग को घोर कलिकाल मानता था ; उसने कहा भी है कि सच्ची मित्रता तब दुर्लभ थी । कवि 

क्षत्रिय था , विष्णु और शंकर का उपासक था , परंतु वह वैश्यों , ब्राह्मणों और बौद्धों तथा जैनों 

का भी विरोधी नहीं था । यह सहिष्णुता हमें गुप्तों के उत्कर्ष- काल में मिलती है । हमें 

विशाखदत्त को उसके बहुरूपों में न देखकर नाटकीय घात - प्रतिघातों में ही सीमित करके 

देखना चाहिए । जो भी कथा विशाखदत्त ने ली है, वह बहुत ही आकर्षक ढंग से हमारे सामने 

प्रस्तुत की गई है । 


एक बात मुझे इस नाटक के बारे में विशेष महत्त्वपूर्ण लगी । वह यह है कि इसमें 

घटनाओं के उल्लेख का बाहुल्य है, और यह भी बातचीत में ही । अंकों में घटनाएं तीव्रता से 

नहीं चलतीं। कथा में अब क्या होगा का कौतूहल अधिक है, वैसे कोईविशेषता नहीं । 

___ पहले अंक में चाणक्य का चिंतन , शकटदास द्वारा पत्र लिखवाने की सलाह, सेनापतियों 

का भागना, शकटदास और सिद्धार्थक का भागना, चंदनदास का अडिग रहना आदि हैं । परंतु 

‘ एक्शन यानी कर्म बहुत कम है । 


दूसरे अंक में राक्षस और विराधगुप्त का प्रायः संवाद ही संवाद है जिसमें सारी कथाएं 

दुहराई जाती हैं । 


तीसरे अंक में चन्द्रगुप्त और चाणक्य की नकली लड़ाई हो जाती है । 

चौथे अंक में मलयकेतु के मन में भागुरायण संदेह पैदा कर देता है । 

पांचवें अंक में काफी रोचक घटनाएं हैं । नाटकीय ढंग भी यहीं अधिक दिखाई देता है । 



छठे अंक में कोई विशेषता नहीं । कुछ दया ज़रूर पैदा होती है । 


सातवें अंक में भी एक्शन बहुत कम ही है और सारे नाटक में यह कमी सबसे अधिक 

इसलिए खटकती है कि नाटक का नायक चन्द्रगुप्त पूरे नाटक में तीसरे और सातवें अंक में 

दिखाई देता है । तीसरे अंक भर में वह लज्जित होता है और सातवें में उसकी कोई विशेषता 

नहीं । 


इसके विपरीत चाणक्य पहले, तीसरे और सातवें अंक में दिखाई पड़ता है । राक्षस दूसरे, 

चौथे, पांचवें , छठे अंकों में है । हम तो यही ठीक समझते हैं कि इस नाटक का नायक , जो 

शास्त्रीय विवेचनानुसार चन्द्रगुप्त माना जाता है, नाटक नहीं है । नायक तो चाणक्य है और 

प्रतिनायक है राक्षस , जो अन्त में पराजित हो जाता है । इस दृष्टिकोण से यह बहुत ही सफल 

नाटक है । इसे मानते ही हमें चरित्र - चित्रण का भी अभाव नहीं मिलता । तब तो अपने - आप 

हम नायक और प्रतिनायक की टक्कर ही नहीं , एक - दूसरे को ही सीधे या घूरकर , हर तरीके 

से सब पर छाया हुआ देखते हैं । स्त्री - पात्र का अभाव, प्रकृति -चित्रण का अभाव , इत्यादि 

कुछ भी नहीं अखरते । आज तक मुद्राराक्षस पुजा तो है , परंतु उन कारणों को किसी ने नहीं 

देखा, जो इसकी मूलशक्ति हैं । यह एक बुद्धि - प्रधान नाटक है । हृदय - पक्ष वाले अंश इसमें 

बहुत थोड़े हैं । परंतु बीच -बीच में उन्हें रखकर मर्म का स्पर्श किया गया है । इसमें जो संवेदना 

की कचोट पैदा होती है, वह पात्र की अपनी विशेष बात को बार- बार दुहराने से, जैसे बार 

बार राक्षस और चन्दनदास स्वामिभक्ति और मित्र- वत्सलता की ही बात को कहे चले जाते 



अंत में कह सकते हैं कि यह नाटक बहुत अच्छा नाटक है और इसमें एक विशेषता है कि 

आप इसे इतना सुगठित पाते हैं कि इसमें से आप एक वाक्य भी इधर से उधर सरलता से 

नहीं कर सकते । यदि कहीं अतीत का भावव्यंजक स्मरण ही है , तब भी वह वर्तमान की 

तुलना में उपस्थित किया गया है इसीलिए वह अनिवार्य है, उसे छोड़ा नहीं जा सकता, 

क्योंकि वह प्रवाह को तोड़ देता है । 

___ और संस्कृत नाटकों की भांति एक समय यह भी खेला ही गया था । उस समय पर्यों का 

प्रयोग होता था । मुद्राराक्षस में यवनिका - जल्दी गिरने वाले पर्दे का भी उल्लेख हुआ है , 

किंतु सारे सेट नहीं बनते थे। सामाजिकों अर्थात् दर्शकों को काफी कल्पना से काम चलाना 

पड़ता था । हम इतना ही कह सकते हैं , कि बहुत थोड़े परिवर्तनों से दृश्य -विभाजन करके इस 

नाटक को बड़ी आसानी से खेला जा सकता है; जो इस विषय में दिलचस्पी रखते हैं , उन्हें 

अवश्य खेलना चाहिए, क्योंकि संस्कृत नाटकों में नाटकीयता काफी मात्रा में प्राप्त होती है । 

_ मुद्राराक्षस एक सामंत का लिखा हुआ नाटक है, किंतु यह इस बात का प्रमाण है कि 

कवि अपने वर्ग में सीमित नहीं रहता । वह दलित और व्यथित की वास्तविक मनोभावनाओं 

को अपने चरित्रों की मनोनुकूलन अवस्थाओं के माध्यम से निष्पक्ष अभिव्यक्ति देता है । वह 

राजा के उत्तरदायित्व की वास्तविकता भी दिखाता है, और राजनीतिग्रस्त मानवों की उलझनें 

भी । इसलिए कि यह नाटक अपनी अभिव्यक्तियों में सर्वतंत्रेण स्वतंत्र है, कला की दृष्टि से 

इसका मूल्य हमारी दृष्टि में काफी ऊंचा है । 



मुद्राराक्षस प्रेम - कथा नहीं, समस्यात्मक कथा को लेकर चलता है और उसका अंत तक 

निर्वाह भी सफलता से करता है । संभवतः यही कारण है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिंदी के 

नवयुग के उन्मेष में इसका महत्त्व प्रतिपादन करने के लिए इसका अनुवाद किया था । 

___ मैंने अपने अनुवाद को प्रयत्न कर सहज बनाने की चेष्टा की है । यदि मैं इसमें सफल हो 

सका हूं , तो अवश्य ही अपने परिश्रम को भी सफल मानूंगा । 


- रांगेय राघव 

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