महान् व्यक्ति अच्छे इनसान भी होते हैं
यह वाकया 1950 के दशक का है। जमशेदपुर का सतीश परिवार में तीन बहनों के बीच
अकेला लड़का था , लेकिन दुर्भाग्य से उसे कैंसर हो गया । उसे आखिरी स्टेज में मुंबई के
टाटा मेमोरियल अस्पताल में भरती कराया गया था और परिवार परेल, जहाँ अस्पताल
था , वहाँ से दो स्टेशन दूर माटुंगा में चाची के घर में रुका हुआ था ; लेकिन हालत में सुधार
न होते देख डॉक्टरों ने जवाब दे दिया और माता -पिता को सतीश को घर ले जाने की
अनुमति दे दी ।
सतीश ने एक दिन चाची के घर में इच्छा जताई कि वह पंडित रविशंकर को सुनना चाहता
है, निश्चित रूप से उसे ऑडिटोरियम तक ले जाना दुस्साहस भरा कदम था । लेकिन यह
मरनेवाले व्यक्ति की अंतिम इच्छा थी । इसलिए बजाय इस लड़के को यह समझाने के कि
ऐसा कर पाना उसके लिए संभव नहीं है, उसकी बहन सुनीति अपने बीमार भाई को खुद
वहाँ लेकर गई ।
सुनीति ने पंडितजी के उस रात के कार्यक्रम का टिकट खरीदा और वे पहली पंक्ति में जाकर
बैठ गए। पंडितजी ने भावपूर्ण प्रस्तुति दी , लेकिन बहन का ध्यान उनके संगीत पर नहीं था ।
उसके दिमाग में कुछ और ही चल रहा था । उसके दिमाग में सिर्फ एक ही विचार घूम रहा
था कि पंडितजी , उसके भाई के लिए सितार बजाएँ, इसके लिए वह क्या कर सकती है ?
उसने प्रस्तुति के दौरान अनुरोध करने के लिए कई बार पंडितजी से आँखें मिलाने की
कोशिश की । पंडितजी की आँखों से कई बार उसकी आँखें मिली भी । लेकिन सुनीति के
चेहरे पर आँसू देखकर पंडितजी मुसकराए, क्योंकि कलाकार समर्पित श्रोता को देखकर
प्रसन्न होता है ।
पंडितजी ने प्रस्तुति के दौरान एक के बाद एक कई राग बजाए। जब तक पंडितजी ने अपनी
प्रस्तुति का समापन नहीं किया तब तक श्रोता अपनी जगह से नहीं हिले। कार्यक्रम के बाद
जब पंडितजी ग्रीन रूम में थे तो उनसे कई लोग मिलने की कोशिश कर रहे थे। सुनीति
किसी तरह लोगों को पीछे छोड़कर आगे पहुंची और पंडितजी का ध्यान अपनी ओर
खींचा । पंडित रविशंकर ने उसको नजदीक आने का इशारा करते हुए पूछा कि तुम वही
लड़की तो नहीं , जो हॉल में बैठकर आँसू बहा रही थी ? सुनीति को तब समझ नहीं आया कि
वह इस सवाल का क्या उत्तर दे, क्योंकि उसके आँसू की वजह कुछ और थी । उसने सितार
वादन की प्रशंसा करते हुए कमरे में आने की अपनी असली वजह बता दी । इसके बाद
पंडितजी ने सुनीति को अपनी बाँहों में ले लिया और उनकी आँखों से आँसू बह निकले ।
इसके बाद वहाँ कुछ क्षणों के लिए इतनी गहरी खामोशी छा गई, जो पंडितजी के संगीत से
अधिक गहरी थी । वहाँ उस्ताद अल्लारक्खा खानजी मौजूद थे। पंडिजी ने उनसे अगले दिन
के कार्यक्रम के बारे में पूछा । जवाब मिलने के बाद वे सुनीति की ओर मुड़े और कहा कि
कृपया आप मुझे अपना पता बताएँ, हम कल रात वहाँ आएँगे ।
सुनीति यह सुनकर स्तब्ध रह गई। उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था । उसने
पंडितजी और उनकी मंडली के लिए गाड़ी का इंतजाम करने के बारे में हौले से पूछा । तो
पंडितजी ने इससे साफ इनकार करते हए कहा कि , बेटी , इसकी कोई जरूरत नहीं । एक तो
पहले ही तुम्हारा परिवार मुश्किलों का सामना कर रहा है । इन तमाम कष्टों के बावजूद
तुमने यहाँ आकर मुझे बुलाया है । हम अपने साधन से आ जाएंगे। बस तुम हमें यह बता दो
कि हमें कहाँ आना है।
वे अगली शाम अपनी मंडली और वाद्ययंत्रों के साथ टैक्सी से पहली मंजिल के उस फ्लैट में
पहुँचे। सीधे उस बेडरूम में गए, जहाँ सतीश उनका इंतजार कर रहा था । पंडितजी पूरी
रात सितार बजाते रहे और उस्ताद अल्लारक्खाजी संगत करते रहे । बीच-बीच में वे सतीश
से उसका पसंदीदा राग पूछते और फिर वही बजाते । आखिर में अलस्सुबह उन्होंने भैरवी
राग बजाया ।
संगीत के इन दो दिग्गजों ने इसके बाद सुबह सतीश और उसके परिवार के सदस्यों के साथ
नाश्ता किया । फिर काफी देर तक वे सतीश से सामान्य बातचीत और हँसी- मजाक करते
रहे । मजेदार बात यह है कि उन्होंने टैक्सी लाने के लिए इनकार कर दिया । वे विन्सेट रोड
( अब आंबेडकर रोड ) पर टैक्सी का इंतजार करते रहे, जब तक उन्हें खाली कैब नहीं मिल
गई । उनमें से किसी ने भी इस भावपूर्ण अनुभव के लिए एक पैसा नहीं लिया । यहाँ तक कि
टैक्सी का किराया भी नहीं। उनका सिर्फ एक ही मकसद था , मौत से जूझ रहे व्यक्ति को
खुशी देना ।
: फंडा यह है कि पहले आप मनुष्य बनें और तभी आप महान् कलाकार
बन पाएँगे । क्या आपको इससे भी बेहतर उदाहरण की जरूरत है ?
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