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दिनकर के गीत : रामधारी सिंह 'दिनकर' (हिन्दी कविता) Dinkar Ke Geet : Ramdhari Singh Dinkar

 दिनकर के गीत : रामधारी सिंह 'दिनकर' (हिन्दी कविता)

Dinkar Ke Geet : Ramdhari Singh Dinkar


1. याचना

प्रियतम! कहूँ मैं और क्या?


शतदल, मृदुल जीवन-कुसुम में प्रिय! सुरभि बनकर बसो।

घन-तुल्य हृदयाकाश पर मृदु मन्द गति विचरो सदा।

प्रियतम! कहूँ मैं और क्या?


दृग बन्द हों तब तुम सुनहले स्वप्न बन आया करो,

अमितांशु! निद्रित प्राण में प्रसरित करो अपनी प्रभा।

प्रियतम! कहूँ मैं और क्या?


उडु-खचित नीलाकाश में ज्यों हँस रहा राकेश है,

दुखपूर्ण जीवन-बीच त्यों जाग्रत करो अव्यय विभा।

प्रियतम! कहूँ मैं और क्या?


निर्वाण-निधि दुर्गम बड़ा, नौका लिए रहना खड़ा,

कर पार सीमा विश्व की जिस दिन कहूँ ‘वन्दे, विदा।’

प्रियतम! कहूँ मैं और क्या?


१९३४

2. राम, तुम्हारा नामराम, तुम्हारा नाम कंठ में रहे,

हृदय, जो कुछ भेजो, वह सहे,

दुख से त्राण नहीं माँगूँ।


माँगू केवल शक्ति दुख सहने की,

दुर्दिन को भी मान तुम्हारी दया

अकातर ध्यानमग्न रहने की।


देख तुम्हारे मृत्यु दूत को डरूँ नहीं,

न्योछावर होने में दुविधा करूँ नहीं।

तुम चाहो, दूँ वही,

कृपण हौ प्राण नहीं माँगूँ।

3. ये गान बहुत रोयेतुम बसे नहीं इनमें आकर,

ये गान बहुत रोये ।


बिजली बन घन में रोज हँसा करते हो,

फूलों में बन कर गन्ध बसा करते हो,

नीलिमा नहीं सारा तन ढंक पाती है,

तारा-पथ में पग-ज्योति झलक जाती है ।

हर तरफ चमकता यह जो रूप तुम्हारा,

रह-रह उठता जगमगा जगत जो सारा,

इनको समेट मन में लाकर

ये गान बहुत रोये ।


जिस पथ पर से रथ कभी निकल जाता है,

कहते हैं, उस पर दीपक बल जाता है ।

मैं देख रहा अपनी ऊँचाई पर से,

तुम किसी रोज तो गुजरे नहीं इधर से ।

अँधियाले में स्वर वृथा टेरते फिरते,

कोने-कोने में तुम्हें हेरते फिरते ।

पर, कहीं नहीं तुमको पाकर

ये गान बहुत रोये ।


कब तक बरसेगी ज्योति बार कर मुझको ?

निकलेगा रथ किस रोज पार कर मुझको ?

किस रोज लिये प्रज्वलित बाण आओगे,

खींचते हृदय पर रेख निकल जाओगे ?

किस रोज तुम्हारी आग शीश पर लूँगा,

बाणों के आगे प्राण खोल धर दूँगा ?

यह सोच विरह में अकुला कर

ये गान बहुत रोये ।

(१९५३ ई०)

4. अगेय की ओरगायक, गान, गेय से आगे

मैं अगेय स्वन का श्रोता मन।


सुनना श्रवण चाहते अब तक

भेद हृदय जो जान चुका है;

बुद्धि खोजती उन्हें जिन्हें जीवन

निज को कर दान चुका है।

खो जाने को प्राण विकल है

चढ़ उन पद-पद्मों के ऊपर;

बाहु-पाश से दूर जिन्हें विश्वास

हृदय का मान चुका है।


जोह रहे उनका पथ दृग,

जिनको पहचान गया है चिन्तन।

गायक, गान, गेय से आगे

मैं अगेय स्वन का श्रोता मन।


उछल-उछल बह रहा अगम की

ओर अभय इन प्राणों का जल;

जन्म-मरण की युगल घाटियाँ

रोक रहीं जिसका पथ निष्फल।

मैं जल-नाद श्रवण कर चुप हूँ;

सोच रहा यह खड़ा पुलिन पर;

है कुछ अर्थ, लक्ष्य इस रव का

या ‘कुल-कुल, कल-कल’ ध्वनि केवल?


दृश्य, अदृश्य कौन सत इनमें?

मैं या प्राण-प्रवाह चिरन्तन?

गायक, गान, गेय से आगे

मैं अगेय स्वन का श्रोता मन।


जलकर चीख उठा वह कवि था,

साधक जो नीरव तपने में;

गाये गीत खोल मुँह क्या वह

जो खो रहा स्वयं सपने में?

सुषमाएँ जो देख चुका हूँ

जल-थल में, गिरि, गगन, पवन में,

नयन मूँद अन्तर्मुख जीवन

खोज रहा उनको अपने में।


अन्तर-वहिर एक छवि देखी,

आकृति कौन? कौन है दर्पण?

गायक, गान, गेय से आगे

मैं अगेय स्वन का श्रोता मन।


चाह यही छू लूँ स्वप्नों की

नग्न कान्ति बढ़कर निज कर से;

इच्छा है, आवरण स्रस्त हो

गिरे दूर अन्तःश्रुति पर से।

पहुँच अगेय-गेय-संगम पर

सुनूँ मधुर वह राग निरामय,

फूट रहा जो सत्य सनातन

कविर्मनीषी के स्वर-स्वर से।


गीत बनी जिनकी झाँकी,

अब दृग में उन स्वप्नों का अंजन।

गायक, गान, गेय से आगे

मैं अगेय-स्वन का श्रोता मन।

5. चंद्राह्वानजागो हे अविनाशी !

जागो किरणपुरुष ! कुमुदासन ! विधु-मंडल के वासी !

जागो है अविनाशी !


रत्न-जड़ित-पथ-चारी, जागो,

उडू-वन-वीथि-विहारी, जागो,

जागो रसिक विराग-शोक के, मधुवन के संन्यासी !

जागो हे अविनाशी!


जागो शिल्पि अजर अम्बर के !

गायक महाकाल के घर के !

दिव के अमृतकंठ कवि, जागो, स्निग्ध-प्रकाश-प्रकाशी !

जागो हे अविनाशी !


विभा-सलिल का मीन करो हे !

निज में मुझको लीन करो हे !

विधु-मंडल में आज डूब जाने का मैं अभिलाषी !

जागो हे अविनाशी !

(१९४६ ई०)

6. अन्तर्वासिनीअधखिले पद्म पर मौन खड़ी

तुम कौन प्राण के सर में री?

भीगने नहीं देती पद की

अरुणिमा सुनील लहर में री?

तुम कौन प्राण के सर में ?



शशिमुख पर दृष्टि लगाये

लहरें उठ घूम रही हैं,

भयवश न तुम्हें छू पातीं

पंकज दल चूम रही हैं;

गा रहीं चरण के पास विकल

छवि-बिम्ब लिए अंतर में री।

तुम कौन प्राण के सर में?


कुछ स्वर्ण-चूर्ण उड़-उड़ कर

छा रहा चतुर्दिक मन में,

सुरधनु-सी राज रही तुम

रंजित, कनकाभ गगन में;

मैं चकित, मुग्ध, हतज्ञान खड़ा

आरती-कुसुम ले कर में री।

तुम कौन प्राण के सर में?


जब से चितवन ने फेरा

मन पर सोने का पानी,

मधु-वेग ध्वनित नस-नस में,

सपने रंगे रही जवानी;

भू की छवि और हुई तब से

कुछ और विभा अम्बर में री।

तुम कौन प्राण के सर में?


अयि सगुण कल्पने मेरी!

उतरो पंकज के दल से,

अन्तःसर में नहलाकर

साजूँ मैं तुम्हें कमल से;

मधु-तृषित व्यथा उच्छ‌वसित हुई,

अन्तर की क्षुधा अधर में री।

तुम कौन प्राण के सर में ?

7. प्रीतिप्रीति न अरुण साँझ के घन सखि!

पल-भर चमक बिखर जाते जो

मना कनक-गोधूलि-लगन सखि!

प्रीति न अरुण साँझ के घन सखि!


प्रीति नील, गंभीर गगन सखि!

चूम रहा जो विनत धरणि को

निज सुख में नित मूक-मगन सखि!

प्रीति नील, गंभीर गगन सखि!


प्रीति न पूर्ण चन्द्र जगमग सखि!

जो होता नित क्षीण, एक दिन

विभा-सिक्त करके अग-जग सखि!

प्रीति न पूर्ण चन्द्र जगमग सखि!


दूज-कला यह लघु नभ-नग सखि!

शीत, स्निग्ध,नव रश्मि छिड़कती

बढ़ती ही जाती पग-पग सखि!

दूज-कला यह लघु नभ-नग सखि!


मन की बात न श्रुति से कह सखि!

बोले प्रेम विकल होता है,

अनबोले सारा दुख सह सखि!

मन की बात न श्रुति से कह सखि!


कितना प्यार? जान मत यह सखि!

सीमा, बन्ध, मृत्यु से आगे

बसती कहीं प्रीति अहरह सखि!

कितना प्यार? जान मत यह सखि!


तृणवत धधक-धधक मत जल सखि!

ओदी आँच धुनी बिरहिन की,

नहीं लपट कि चहल-पहल सखि!

तृणवत धधक-धधक मत जल सखि!


अन्तर्दाह मधुर मंगल सखि!

प्रीति-स्वाद कुछ ज्ञात उसे, जो

सुलग रहा तिल-तिल, पल-पल सखि!

अन्तर्दाह मधुर मंगल सखि!

8. प्रभातीरे प्रवासी, जाग , तेरे

देश का संवाद आया।


भेदमय संदेश सुन पुलकित

खगों ने चंचु खोली;

प्रेम से झुक-झुक प्रणति में

पादपों की पंक्ति डोली;

दूर प्राची की तटी से

विश्व के तृण-तृण जगाता;

फिर उदय की वायु का वन-

में सुपरिचित नाद आया।

रे प्रवासी, जाग , तेरे

देश का संवाद आया।


व्योम-सर में हो उठा विकसित

अरुण आलोक-शतदल;

चिर-दुखी धरणी विभा में

हो रही आनन्द-विह्वल।

चूमकर प्रति रोम से सिर

पर चढ़ा वरदान प्रभु का,

रश्मि-अंजलि में पिता का

स्नेह-आशीर्वाद आया।

रे प्रवासी, जाग , तेरे

देश का संवाद आया।


सिन्धु-तट का आर्य भावुक

आज जग मेरे हृदय में,

खोजता उद्गम विभा का

दीप्त-मुख विस्मित उदय में;

उग रहा जिस क्षितिज-रेखा

से अरुण, उसके परे क्या?

एक भूला देश धूमिल-

सा मुझे क्यों याद आया?

रे प्रवासी, जाग , तेरे

देश का संवाद आया।

9. जागरण(वसन्त के प्रति शिशिर की उक्ति)


मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !


खोल दृग, मधु नींद तज, तंद्रालसे, रूपसि विजन की !

साज नव शृंगार, मधु-घट संग ले, कर सुधि भुवन की ।

विश्व में तृण-तृण जगी है आज मधु की प्यास आली !

मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !


वर्ष की कविता सुनाने खोजते पिक मौन बोले,

स्पर्श कर द्रुत बौरने को आम्र आकुल बाँह खोले;

पंथ में कोरकवती जूही खड़ी ले नम्र डाली।

मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !


लौट जाता गंध वह सौरभ बिना फिर-फिर मलय को,

पुष्पशर चिन्तित खड़ा संसार के उर की विजय को ।

मौन खग विस्मित- ‘कहाँ अटकी मधुर उल्लासवाली ?’

मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !


मुक्त करने को विकल है लाज की मधु-प्रीति कारा;

विश्व-यौवन की शिरा में नाचने को रक्तधारा।

चाहती छाना दृगों में आज तज कर गाल लाली।

मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !


है विकल उल्लास वसुधा के हृदय से फूटने को,

प्रात-अंचल-ग्रंथि से नव रश्मि चंचल छूटने को ।

भृंग मधु पीने खड़े उद्यत लिये कर रिक्त प्याली ।

मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !


इंद्र की धनुषी बनी तितली पवन में डोलती है;

अप्सराएँ भूमि के हित पंख-पट निज खोलती है ।

आज बन साकार छाने उमड़ते कवि-स्वप्न आली !

मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !


१९३४

10. साथीउसे भी देख, जो भीतर भरा अंगार है साथी।


(1)

सियाही देखता है, देखता है तू अन्धेरे को,

किरण को घेर कर छाये हुए विकराल घेरे को।

उसे भी देख, जो इस बाहरी तम को बहा सकती,

दबी तेरे लहू में रौशनी की धार है साथी।


(2)

पड़ी थी नींव तेरी चाँद-सूरज के उजाले पर,

तपस्या पर, लहू पर, आग पर, तलवार-भाले पर।

डरे तू नाउमींदी से, कभी यह हो नहीं सकता।

कि तुझ में ज्योति का अक्षय भरा भण्डार है साथी।


(3)

बवण्डर चीखता लौटा, फिरा तूफान जाता है,

डराने के लिए तुझको नया भूडोल आता है;

नया मैदान है राही, गरजना है नये बल से;

उठा, इस बार वह जो आखिरी हुंकार है साथी।


(4)

विनय की रागिनी में बीन के ये तार बजते हैं,

रुदन बजता, सजग हो क्षोभ-हाहाकार बजते हैं।

बजा, इस बार दीपक-राग कोई आखिरी सुर में;

छिपा इस बीन में ही आगवाला तार है साथी।


(5)

गरजते शेर आये, सामने फिर भेड़िये आये,

नखों को तेज, दाँतों को बहुत तीखा किये आये।

मगर, परवाह क्या? हो जा खड़ा तू तानकर उसको,

छिपी जो हड्डियों में आग-सी तलवार है साथी।


(6)

शिखर पर तू, न तेरी राह बाकी दाहिने-बायें,

खड़ी आगे दरी यह मौत-सी विकराल मुँह बाये,

कदम पीछे हटाया तो अभी ईमान जाता है,

उछल जा, कूद जा, पल में दरी यह पार है साथी।


(7)

न रुकना है तुझे झण्डा उड़ा केवल पहाड़ों पर,

विजय पानी है तुझको चाँद-सूरज पर, सितारों पर।

वधू रहती जहाँ नरवीर की, तलवारवालों की,

जमीं वह इस जरा-से आसमाँ के पार है साथी।


(8)

भुजाओं पर मही का भार फूलों-सा उठाये जा,

कँपाये जा गगन को, इन्द्र का आसन हिलाये जा।

जहाँ में एक ही है रौशनी, वह नाम की तेरे,

जमीं को एक तेरी आग का आधार है साथी।


रचनाकाल: १९४६

11. किसको नमन करूँ मैं ?तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?

मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?

किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?


भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?

नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?

भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है

मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है

जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?


तू वह, नर ने जिसे बहुत ऊँचा चढ़कर पाया था;

तू वह, जो संदेश भूमि को अम्बर से आया था।

तू वह, जिसका ध्यान आज भी मन सुरभित करता है;

थकी हुई आत्मा में उड़ने की उमंग भरता है ।

गन्ध -निकेतन इस अदृश्य उपवन को नमन करूँ मैं?

किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं?


वहाँ नहीं तू जहाँ जनों से ही मनुजों को भय है;

सब को सब से त्रास सदा सब पर सब का संशय है ।

जहाँ स्नेह के सहज स्रोत से हटे हुए जनगण हैं,

झंडों या नारों के नीचे बँटे हुए जनगण हैं ।

कैसे इस कुत्सित, विभक्त जीवन को नमन करूँ मैं ?

किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं ?


तू तो है वह लोक जहाँ उन्मुक्त मनुज का मन है;

समरसता को लिये प्रवाहित शीत-स्निग्ध जीवन है।

जहाँ पहुँच मानते नहीं नर-नारी दिग्बन्धन को;

आत्म-रूप देखते प्रेम में भरकर निखिल भुवन को।

कहीं खोज इस रुचिर स्वप्न पावन को नमन करूँ मैं ?

किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं ?


भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है

एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है

जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है

देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है

निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं !


खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से

पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से

तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है

दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है

मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं !


दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं

मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं

घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन

खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन

आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं !


उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है

धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है

तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है

किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है

मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं !

12. नई आवाजकभी की जा चुकीं नीचे यहाँ की वेदनाएँ,

नए स्वर के लिए तू क्या गगन को छानता है?


[1]


बताएँ भेद क्या तारे? उन्हें कुछ ज्ञात भी हो,

कहे क्या चाँद? उसके पास कोई बात भी हो।

निशानी तो घटा पर है, मगर, किसके चरण की?

यहाँ पर भी नहीं यह राज़ कोई जानता है।


[2]


सनातन है, अचल है, स्वर्ग चलता ही नहीं है;

तृषा की आग में पड़कर पिघलता ही नहीं है।

मजे मालूम ही जिसको नहीं बेताबियों के,

नई आवाज की दुनिया उसे क्यों मानता है?


[3]


धुओं का देश है नादान! यह छलना बड़ी है,

नई अनुभूतियों की खान वह नीचे पड़ी है।

मुसीबत से बिंधी जो जिन्दगी, रौशन हुई वह,

किरण को ढूँढता लेकिन, नहीं पहचानता है।


[4]


गगन में तो नहीं बाकी, जरा कुछ है असल में,

नए स्वर का भरा है कोष पर, अब तक अतल में।

कढ़ेगी तोड़कर कारा अभी धारा सुधा की,

शरासन को श्रवण तक तू नहीं क्यों तानता है?


[5]


नया स्वर खोजनेवाले! तलातल तोड़ता जा,

कदम जिस पर पड़े तेरे, सतह वह छोड़ते जा;

नई झंकार की दुनिया खत्म होती कहाँ पर?

वही कुछ जानता, सीमा नहीं जो मानता है।


[6]


वहाँ क्या है कि फव्वारे जहाँ से छूटते हैं,

जरा-सी नम हुई मिट्टी कि अंकुर फूटते हैं?

बरसता जो गगन से वह जमा होता मही में,

उतरने को अतल में क्यों नहीं हठ ठानता है?


[7]


हृदय-जल में सिमट कर डूब, इसकी थाह तो ले,

रसों के ताल में नीचे उतर अवगाह तो ले।

सरोवर छोड़ कर तू बूँद पीने की खुशी में,

गगन के फूल पर शायक वृथा संधानता है।

13. हारे को हरिनामसब शोकों का एक नाम है क्षमा

ह्रदय, आकुल मत होना।


[१]

दहक उठे जो अंगारे बन नए

कुसुम-कोमल सपने थे

अंतर में जो गाँस मार गए

अधिक सबसे अपने थे

अब चल, उसके द्वार सहज जिसकी करुणा है

और कहाँ, किसका आंसू कब थमा?

ह्रदय, आकुल मत होना


[२]

आघातों से विषण्ण म्रियमाण

गान मत छोड़ अभय का

और न कर अब अधिक मार्ग-संधान

सिद्धि का, दैहिक जय का

सुख निद्रा की निशा, विपद जागरण प्रात का

किरणों पर चढ़ पकड़ प्रकृति उत्तमा

ह्रदय, आकुल मत होना


[३]

उषः लोक का पुलकाकुल कल रोर

मधुर जिसका प्रसाद है

दुर्दिन की झंझा में वज्र-कठोर

उसी का शंखनाद है

जिसका दिवस ललाट, उसी का निशा चिकुर है

रम उसमें, जो है दिगंत में रमा

ह्रदय, आकुल मत होना

14. जवानी का झण्डाघटा फाड़ कर जगमगाता हुआ

आ गया देख, ज्वाला का बान;

खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,

ओ मेरे देश के नौजवान!


(1)

सहम करके चुप हो गये थे समुंदर

अभी सुन के तेरी दहाड़,

जमीं हिल रही थी, जहाँ हिल रहा था,

अभी हिल रहे थे पहाड़;

अभी क्या हुआ? किसके जादू ने आकर के

शेरों की सी दी जबान?

खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,

ओ मेरे देश के नौजवान!


(2)

खड़ा हो, कि पच्छिम के कुचले हुए लोग

उठने लगे ले मशाल,

खड़ा हो कि पूरब की छाती से भी

फूटने को है ज्वाला कराल!

खड़ा हो कि फिर फूँक विष की लगा

धुजटी ने बजाया विषान,

खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,

ओ मेरे देश के नौजवान!


(3)

गरज कर बता सबको, मारे किसीके

मरेगा नहीं हिन्द-देश,

लहू की नदी तैर कर आ गया है,

कहीं से कहीं हिन्द-देश!

लड़ाई के मैदान में चल रहे लेके

हम उसका उड़ता निशान,

खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,

ओ मेरे देश के नौजवान!


(4)

अहा! जगमगाने लगी रात की

माँग में रौशनी की लकीर,

अहा! फूल हँसने लगे, सामने देख,

उड़ने लगा वह अबीर

अहा! यह उषा होके उड़ता चला

आ रहा देवता का विमान,

खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,

ओ मेरे देश के नौजवान!


रचनाकाल: १९४४

15. सूखे विटप की सारिके !(1)

सूखे विटप की सारिके !


उजड़ी-कटीली डार से

मैं देखता किस प्यार से

पहना नवल पुष्पाभरण

तृण, तरु, लता, वनराजि को

हैं जो रहे विहसित वदन

ऋतुराज मेरे द्वार से।



मुझ में जलन है प्यास है,

रस का नहीं आभास है,

यह देख हँसती वल्लरी

हँसता निखिल आकाश है।

जग तो समझता है यही,

पाषाण में कुछ रस नहीं,

पर, गिरि-हृदय में क्या न

व्याकुल निर्झरों का वास है ?


(2)

बाकी अभी रसनाद हो,

पिछली कथा कुछ याद हो,

तो कूक पंचम तान में,

संजीवनी भर गान में,

सूखे विटप की डार को

कर दे हरी करुणामयी

पढ़ दे ऋचा पीयूष की,

उग जाय फिर कोंपल नयी;

जीवन-गगन के दाह में

उड़ चल सजल नीहारिके।

सूखे विटप की सारिके !

16. आश्वासनतृषित! धर धीर मरु में।

कि जलती भूमि के उर में

कहीं प्रच्छन्न जल हो।

न रो यदि आज तरु में

सुमन की गन्ध तीखी,

स्यात, कल मधुपूर्ण फल हो।


नए पल्लव सजीले,

खिले थे जो वनश्री को

मसृण परिधान देकर;

हुए वे आज पीले,

प्रभंजन भी पधारा कुछ

नया वरदान लेकर।


दुखों की चोट खाकर

हृदय जो कूप-सा जितना

अधिक गंभीर होगा;

उसी में वृष्टि पा कर

कभी उतना अधिक संचित

सुखों का नीर होगा।


सुधा यह तो विपिन की,

गरजती निर्झरी जो आ

रही पर्वत-शिखर से।

वृथा यह भीति घन की,

दया-घन का कहीं तुझ

पर शुभाशीर्वाद बरसे।


करें क्या बात उसकी

कड़क उठता कभी जो

व्योम में अभिमान बनकर?

कृपा पर, ज्ञात उसकी,

उतरता वृष्टि में जो सृष्टि

का कल्याण बनकर।


सदा आनन्द लूटें,

पुलक-कलिका चढ़ा या

अश्रु से पद-पद्म धोकर;

तुम्हारे बाण छूटे,

झुके हैं हम तुम्हारे हाथ

में कोदण्ड होकर।17. गीत-अगीतगीत, अगीत, कौन सुंदर है?


गाकर गीत विरह की तटिनी

वेगवती बहती जाती है,

दिल हलका कर लेने को

उपलों से कुछ कहती जाती है।


तट पर एक गुलाब सोचता,

"देते स्‍वर यदि मुझे विधाता,

अपने पतझर के सपनों का

मैं भी जग को गीत सुनाता।"


गा-गाकर बह रही निर्झरी,

पाटल मूक खड़ा तट पर है।

गीत, अगीत, कौन सुंदर है?


बैठा शुक उस घनी डाल पर

जो खोंते पर छाया देती।

पंख फुला नीचे खोंते में

शुकी बैठ अंडे है सेती।


गाता शुक जब किरण वसंती

छूती अंग पर्ण से छनकर।

किंतु, शुकी के गीत उमड़कर

रह जाते स्‍नेह में सनकर।


गूँज रहा शुक का स्‍वर वन में,

फूला मग्‍न शुकी का पर है।

गीत, अगीत, कौन सुंदर है?


दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब

बड़े साँझ आल्‍हा गाता है,

पहला स्‍वर उसकी राधा को

घर से यहाँ खींच लाता है।


चोरी-चोरी खड़ी नीम की

छाया में छिपकर सुनती है,

'हुई न क्‍यों मैं कड़ी गीत की

बिधना', यों मन में गुनती है।


वह गाता, पर किसी वेग से

फूल रहा इसका अंतर है।

गीत, अगीत, कौन सुन्‍दर है?

18. सावन मेंजेठ नहीं, यह जलन हृदय की,

उठकर जरा देख तो ले;

जगती में सावन आया है,

मायाविन! सपने धो ले।


जलना तो था बदा भाग्य में

कविते! बारह मास तुझे;

आज विश्व की हरियाली पी

कुछ तो प्रिये, हरी हो ले।


नन्दन आन बसा मरु में,

घन के आँसू वरदान हुए;

अब तो रोना पाप नहीं,

पावस में सखि! जी भर रो ले।


अपनी बात कहूँ क्या! मेरी

भाग्य-लीक प्रतिकूल हुई;

हरियाली को देख आज फिर

हरे हुए दिल के फोले।


सुन्दरि! ज्ञात किसे, अन्तर का

उच्छल-सिन्धु विशाल बँधा?

कौन जानता तड़प रहे किस

भाँति प्राण मेरे भोले!


सौदा कितना कठिन सुहागिनि!

जो तुझ से गँठ-बन्ध करे;

अंचल पकड़ रहे वह तेरा,

संग-संग वन-वन डोले।


हाँ, सच है, छाया सुरूर तो

मोह और ममता कैसी?

मरना हो तो पिये प्रेम-रस,

जिये अगर बाउर हो ले।

19. भ्रमरीपी मेरी भ्रमरी, वसन्त में

अन्तर मधु जी-भर पी ले;

कुछ तो कवि की व्यथा सफल हो,

जलूँ निरन्तर, तू जी ले।


चूस-चूस मकरन्द हृदय का

संगिनि? तू मधु-चक्र सजा,

और किसे इतिहास कहेंगे

ये लोचन गीले-गीले?


लते? कहूँ क्या, सूखी डालों

पर क्यों कोयल बोल रही?

बतलाऊँ क्या, ओस यहाँ क्यो?

क्यों मेरे पल्लव पीले?


किसे कहूँ? धर धीर सुनेगा

दीवाने की कौन व्यथा?

मेरी कड़ियाँ कसी हुई,

बाकी सबके बन्धन ढीले।


मुझे रखा अज्ञेय अभी तक

विश्व मुझे अज्ञेय रहा;

सिन्धु यहाँ गम्भीर, अगम,

सखि? पन्थ यहाँ ऊँचे टीले।

20. रहस्यतुम समझोगे बात हमारी?


उडु-पुंजों के कुंज सघन में,

भूल गया मैं पन्थ गगन में,

जगे-जगे, आकुल पलकों में बीत गई कल रात हमारी।


अस्तोदधि की अरुण लहर में,

पूरब-ओर कनक-प्रान्तर में,

रँग-सी रही पंख उड़-उड़कर तृष्णा सायं-प्रात हमारी।


सुख-दुख में डुबकी-सी देकर,

निकली वह देखो, कुछ लेकर,

श्वेत, नील दो पद्म करों में, सजनी सध्यःस्नात हमारी।

21. संबलसोच रहा, कुछ गा न रहा मैं।


निज सागर को थाह रहा हूँ,

खोज गीत में राह रहा हूँ,

पर, यह तो सब कुछ अपने हित, औरों को समझा न रहा मैं।


वातायन शत खोल हृदय के,

कुछ निर्वाक खड़ा विस्मय से,

उठा द्वार-पट चकित झाँक अपनेपन को पहचान रहा मैं।


ग्रन्थि हृदय की खोल रहा हूँ,

उन्मन-सा कुछ बोल रहा हूँ,

मन का अलस खेल यह गुनगुन, सचमुच, गीत बना न रहा मैं।


देखी दृश्य-जगत की झाँकी,

अब आगे कितना है बाकी?

गहन शून्य में मग्न, अचेतन, कर अगीत का ध्यान रहा मैं।


चरण-चरण साधन का श्रम है,

गीत पथिक की शान्ति परम है,

ये मेरे संबल जीवन के, जग का मन बहला न रहा मैं।


एक निरीह पथिक निज मग का

मैं न सुयश-भिक्षुक इस जग का,

अपनी ही जागृति का स्वर यह, बन्धु, और कुछ गा न रहा मैं।

सोच रहा, समझा न रहा मैं।

22. प्रतीक्षाअयि संगिनी सुनसान की!


मन में मिलन की आस है,

दृग में दरस की प्यास है,

पर, ढूँढ़ता फिरता जिसे

उसका पता मिलता नहीं,

झूठे बनी धरती बड़ी,

झूठे बृहत आकश है;

मिलती नहीं जग में कहीं

प्रतिमा हृदय के गान की।

अयि संगिनी सुनसान की!


तुम जानती सब बात हो,

दिन हो कि आधी रात हो,

मैं जागता रहता कि कब

मंजीर की आहट मिले,

मेरे कमल-वन में उदय

किस काल पुण्य-प्रभात हो;

किस लग्न में हो जाय कब

जानें कृपा भगवान की।

अयि संगिनी सुनसान की!


मुख में हँसी, मन म्लान है,

उजड़े घरों में गान है,

जग ने सिखा रक्खा, गरल

पीकर सुधा-वर्षण करो,

मन में पचा ले आह जो

सब से वही बलवान है।

उर में पुरातन पीर, मुख

पर द्युति नई मुसकान की।

अयि संगिनी सुनसान की!

23. शेष गानसंगिनि, जी भर गा न सका मैं।


गायन एक व्याज़ इस मन का,

मूल ध्येय दर्शन जीवन का,

रँगता रहा गुलाब, पटी पर अपना चित्र उठा न सका मैं।


विम्बित इन में रश्मि अरुण है,

बाल ऊर्म्मि, दिनमान तरुण है,

बँधे अमित अपरूप रूप, गीतों में स्वयं समा न सका मैं।


बँधे सिमट कुछ भाव प्रणय के,

कुछ भय, कुछ विश्वास हृदय के,

पर, इन से जो परे तत्व वर्णों में उसे बिठा न सका मैं।


घूम चुकी कल्पना गगन में,

विजन विपिन, नन्दन-कानन में,

अग-जग घूम थका, लेकिन, अपने घर अब तक आ न सका मैं।


गाता गीत विजय-मद-माता,

मैं अपने तक पहुँच न पाता,

स्मृति-पूजन में कभी देवता को दो फूल चढ़ा न सका मैं।


परिधि-परिधि मैं घूम रहा हूँ,

गन्ध-मात्र से झूम रहा हूँ,

जो अपीत रस-पात्र अचुम्बित, उस पर अधर लगा न सका मैं।


सम्मुख एक ज्योति झिलमिल है,

हँसता एक कुसुम खिलखिल है,

देख-देख मैं चित्र बनाता, फिर भी चित्र बना न सका मैं।


पट पर पट मैं खींच हटाता,

फिर भी कुछ अदृश्य रह जाता,

यह माया मय भेद कौन? मन को अब तक समझा न सका मैं।


पल-पल दूर देश है कोई,

अन्तिम गान शेष है कोई,

छाया देख रहा जिसकी, काया का परिचय पा न सका मैं।


उडे जा रहे पंख पसारे,

गीत व्योम के कूल-किनारे,

उस अगीत की ओर जिसे प्राणों से कभी लगा न सका मैं।


जिस दिन वह स्वर में आयेगा,

शेष न फिर कुछ रह जायेगा,

कह कर उसे कहूँगा वह जो अब तक कभी सुना न सका मैं।

24. परदेशीमाया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी?

भय है, सुन कर हँस दोगे मेरी नादानी परदेशी!

सृजन-बीच संहार छिपा, कैसे बतलाऊं परदेशी?

सरल कंठ से विषम राग मैं कैसे गाऊँ परदेशी?


एक बात है सत्य कि झर जाते हैं खिलकर फूल यहाँ,

जो अनुकूल वही बन जता दुर्दिन में प्रतिकूल यहाँ।

मैत्री के शीतल कानन में छिपा कपट का शूल यहाँ,

कितने कीटों से सेवित है मानवता का मूल यहाँ?

इस उपवन की पगडण्डी पर बचकर जाना परदेशी।

यहाँ मेनका की चितवन पर मत ललचाना परदेशी !


जगती में मादकता देखी, लेकिन अक्षय तत्त्व नहीं,

आकर्षण में तृप्ति उर सुन्दरता में अमरत्व नहीं।

यहाँ प्रेम में मिली विकलता, जीवन में परितोष नहीं,

बाल-युवतियों के आलिंगन में पाया संतोष नहीं।

हमें प्रतीक्षा में न तृप्ति की मिली निशानी परदेशी!

माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी?


महाप्रलय की ओर सभी को इस मरू में चलते देखा,

किस से लिपट जुडाता? सबको ज्वाला में जलते देखा।

अंतिम बार चिता-दीपक में जीवन को बलते देखा ;

चलत समय सिकंदर -से विजयी को कर मलते देखा।

सबने देकर प्राण मौत की कीमत जानी परदेशी।

माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी?


रोते जग की अनित्यता पर सभी विश्व को छोड़ चले,

कुछ तो चढ़े चिता के रथ पर, कुछ क़ब्रों की ओर चले।

रुके न पल-भर मित्र, पुत्र माता से नाता तोड़ चले,

लैला रोती रही किन्तु, कितने मजनू मुँह मोड़ चले।


जीवन का मधुमय उल्लास,

औ' यौवन का हास विलास,

रूप-राशि का यह अभिमान,

एक स्वप्न है, स्वप्न अजान।


मिटता लोचन -राग यहाँ पर,

मुरझाती सुन्दरता प्यारी,

एक-एक कर उजड़ रही है

हरी-भरी कुसुमों की क्यारी।


मैं ना रुकूंगा इस भूतल पर

जीवन, यौवन, प्रेम गंवाकर ;

वायु, उड़ाकर ले चल मुझको

जहाँ-कहीं इस जग से बाहर


मरते कोमल वत्स यहाँ, बचती ना जवानी परदेशी !

माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी?

25. शब्द-वेधखेल रहे हिलमिल घाटी में, कौन शिखर का ध्यान करे ?

ऐसा बीर कहाँ कि शैलरुह फूलों का मधुपान करे ?


लक्ष्यवेध है कठिन, अमा का सूचि-भेद्य तमतोम यहाँ?

ध्वनि पर छोडे तीर, कौन यह शब्द-वेध संधान करे ?


"सूली ऊपर सेज पिया की", दीवानी मीरा ! सो ले,

अपना देश वही देखेगा जो अशेष बलिदान करे ।


जीवन की जल गयी फसल, तब उगे यहाँ दिल के दाने;

लहरायेगी लता, आग बिजली का तो सामान करे ।


सबकी अलग तरी अपनी, दो का चलना मिल साथ मना;

पार जिसे जाना हो वह तैयार स्वयं जलयान करे ।


फूल झडे, अलि उड़े, वाटिका का मंगल-मधु स्वप्न हुआ,

दो दिन का है संग, हृदय क्या हृदयों से पहचान करे ?


सिर देकर सौदा लेते हैं, जिन्हें प्रेम का रंग चढ़ा;

फीका रंग रहा तो घर तज क्या गैरिक परिधान करे ?


उस पद का मजीर गूँजता, हो नीरव सुनसान जहाँ;

सुनना हो तो तज वसन्त, निज को पहले वीरान करे ।


मणि पर तो आवरण, दीप से तूफाँ में कब काम चला ?

दुर्गम पंथ, दूर जाना है, क्या पन्थी अनजान करे ?


तरी खेलती रहे लहर पर, यह भी एक समाँ कैसा ?

डाँड़ छोड़, पतवार तोड़ कर तू कवि ! निर्भय गान करे ।


(१९३५ ई०)

26. परिचयसलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं

स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं

बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं

नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं


समाना चाहता है, जो बीन उर में

विकल उस शुन्य की झनंकार हूँ मैं

भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में

सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं


जिसे निशि खोजती तारे जलाकर

उसीका कर रहा अभिसार हूँ मैं

जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन

अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं


कली की पंखडीं पर ओस-कण में

रंगीले स्वपन का संसार हूँ मैं

मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं

सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं


जलन हूँ, दर्द हूँ, दिल की कसक हूँ,

किसी का हाय, खोया प्यार हूँ मैं ।

गिरा हूँ भूमि पर नन्दन-विपिन से,

अमर-तरु का सुमन सुकुमार हूँ मैं ।


मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से

लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं

रुंदन अनमोल धन कवि का, इसी से

पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं


मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का

चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं

पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी

समा जिस्में चुका सौ बार हूँ मैं


न देखे विश्व, पर मुझको घृणा से

मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं

पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले

तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं


सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा

स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं

कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का

प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं


दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा की

दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं

सजग संसार, तू निज को सम्हाले

प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं


बंधा तुफान हूँ, चलना मना है

बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं

कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी

बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं


(१९३५ ई०)

27. पावस-गीतअम्बर के गृह गान रे, घन-पाहुन आये।


इन्द्रधनुष मेचक-रुचि-हारी,

पीत वर्ण दामिनि-द्युति न्यारी,

प्रिय की छवि पहचान रे, नीलम घन छाये।


वृष्टि-विकल घन का गुरु गर्जन,

बूँद-बूँद में स्वप्न विसर्जन,

वारिद सुकवि समान रे, बरसे कल पाये।


तृण, तरु, लता, कुसुम पर सोई,

बजने लगी सजल सुधि कोई,

सुन-सुन आकुल प्राण रे, लोचन भर आये।


(१९४७ ई०)

28. परियों का गीत-1हम गीतों के प्राण सघन,

छूम छनन छन, छूम छनन ।

बजा व्योम वीणा के तार,

भरती हम नीली झंकार,

सिहर-सिहर उठता त्रिभुवन ।

छूम छनन छन, छूम छनन ।

सपनों की सुषमा रंगीन,

कलित कल्पना पर उड्डीन,

हम फिरती हैं भुवन-भुवन

छूम छनन छन, छूम छनन ।

हम अभुक्त आनन्द-हिलोर,

भिंगो भुमि-अम्बर के छोर,

बरसाती फिरती रस-कन ।

छूम छनन छन, छूम छनन ।

29. परियों का गीत-2फूलों की नाव बहाओ री,यह रात रुपहली आई ।

फूटी सुधा-सलिल की धारा

डूबा नभ का कूल किनारा

सजल चान्दनी की सुमन्द लहरों में तैर नहाओ री !

यह रात रुपहली आई ।

मही सुप्त, निश्चेत गगन है,

आलिंगन में मौन मगन है ।

ऐसे में नभ से अशंक अवनी पर आओ-आओ री !

यह रात रुपहली आई ।

मुदित चाँद की अलकें चूमो,

तारों की गलियों में घूमो,

झूलो गगन-हिन्डोले पर, किरणों के तार बढ़ाओ री !

यह रात रुपहली आई ।

30. वर्षा-गानदूर देश के अतिथि व्योम में

छाए घन काले सजनी,

अंग-अंग पुलकित वसुधा के

शीतल, हरियाले सजनी!


भींग रहीं अलकें संध्या की,

रिमझिम बरस रही जलधर,

फूट रहे बुलबुले याकि

मेरे दिल के छाले सजनी!


किसका मातम? कौन बिखेरे

बाल आज नभ पर आई?

रोई यों जी खोल, चले बह

आँसू के नाले सजनी!


आई याद आज अलका की,

किंतु, पंथ का ज्ञान नहीं,

विस्मृत पथ पर चले मेघ

दामिनी-दीप बाले सजनी!


चिर-नवीन कवि-स्वप्न, यक्ष के

अब भी दीन, सजल लोचन,

उत्कंठित विरहिणी खड़ी

अब भी झूला डाले सजनी!


बुझती नहीं जलन अंतर की,

बरसें दृग, बरसें जलधर,

मैंने भी क्या हाय, हृदय में

अंगारे पाले सजनी!


धुलकर हँसा विश्व का तृण-तृण,

मेरी ही चिंता न धुली,

पल-भर को भी हाय, व्यथाएँ

टलीं नहीं टाले सजनी!


किंतु, आज क्षिति का मंगल-क्षण,

यह मेरा क्रंदन कैसा?

गीत-मग्न घन-गगन, आज

तू भी मल्हार गा ले सजनी!

31. धीरे-धीरे गाबटोही, धीरे-धीरे गा।


बोल रही जो आग उबल तेरे दर्दीले सुर में,

कुछ वैसी ही शिखा एक सोई है मेरे उर में।

जलती बत्ती छुला, न यह निर्वाषित दीप जला।


बटोही, धीरे-धीरे गा।


फुँकी जा रही रात, दाह से झुलस रहे सब तारे,

फूल नहीं, लय से पड़ते हैं झड़े तप्त अंगारे।

मन की शिखा सँभाल, न यों दुनिया में आग लगा।


बटोही, धीरे-धीरे गा।


दगा दे गया भाग? कि कोई बिछुड़ गया है अपना?

मनसूबे जल गये? कि कोई टूट गया है सपना?

किसी निठुर, निर्मोही के हाथों या गया छला?


बटोही, धीरे-धीरे गा।


करुणा का आवेग? कि तेरा हृदय कढ़ा आता है?

लगता है, स्वर के भीतर से प्रलय बढ़ा आता है?

आहों से फूँकने जगत-भर का क्यों हृदय चला?


बटोही, धीरे-धीरे गा।


अनगिनती सूखी आँखों से झरने होंगे जारी,

टूटेंगी पपड़ियाँ हृदय की, फूटेगी चिनगारी।

दुखियों का जीवन कुरेदना भी है पाप बड़ा।


बटोही, धीरे-धीरे गा।


नेह लगाने का जग में परिणाम यही होता है,

एक भूल के लिए आदमी जीवन-भर रोता है।

अश्रु पोंछनेवाला जग में विरले को मिलता।


बटोही, धीरे-धीरे गा।


एक भेद है, सुन मतवाले, दर्द न खोल कहीं जा,

मन में मन की आह पचाले, जहर खुशी से पी जा।

व्यंजित होगी व्यथा, गीत में खुद मत कभी समा।


बटोही, धीरे-धीरे गा।


१९४४

32. निमंत्रणतिमिर में स्वर के बाले दीप, आज फिर आता है कोई।


’हवा में कब तक ठहरी हुई

रहेगी जलती हुई मशाल?

थकी तेरी मुट्ठी यदि वीर,

सकेगा इसको कौन सँभाल?’


अनल-गिरि पर से मुझे पुकार, राग यह गाता है कोई।


हलाहल का दुर्जय विस्फोट,

भरा अंगारों से तूफान,

दहकता-जलता हुआ खगोल,

कड़कता हुआ दीप्त अभिमान।


निकट ही कहीं प्रलय का स्वप्न, मुझे दिखलाता है कोई।


सुलगती नहीं यज्ञ की आग,

दिशा धूमिल, यजमान अधीर;

पुरोधा-कवि कोई है यहाँ?

देश को दे ज्वाला के तीर।


धुओं में किसी वह्नि का आज निमन्त्रण लाता है कोई।


१९४४

33. आशा का दीपकवह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है;

थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।


(1)

चिनगारी बन गई लहू की

बूँद गिरी जो पग से;

चमक रहे, पीछे मुड़ देखो,

चरण-चिह्न जगमग-से।

शुरू हुई आराध्य-भूमि यह,

क्लान्ति नहीं रे राही;

और नहीं तो पाँव लगे हैं,

क्यों पड़ने डगमग-से?


बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है;

थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।


(2)

अपनी हड्डी की मशाल से

हॄदय चीरते तम का,

सारी रात चले तुम दुख

झेलते कुलिश निर्मम का।

एक खेय है शेष किसी विधि

पार उसे कर जाओ;

वह देखो, उस पार चमकता

है मन्दिर प्रियतम का।


आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है,

थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।


(3)

दिशा दीप्त हो उठी प्राप्तकर

पुण्य--प्रकाश तुम्हारा,

लिखा जा चुका अनल-अक्षरों

में इतिहास तुम्हारा।

जिस मिट्टी ने लहू पिया,

वह फूल खिलायेगी ही,

अम्बर पर घन बन छायेगा

ही उच्छवास तुम्हारा।


और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है।

थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।


रचनाकाल: १९४३

34. प्रणति-1कलम, आज उनकी जय बोल


जला अस्थियाँ बारी-बारी

छिटकाई जिनने चिंगारी,

जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।


जो अगणित लघु दीप हमारे

तूफानों में एक किनारे,

जल-जलाकर बुझ गए, किसी दिन माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।


पीकर जिनकी लाल शिखाएँ

उगल रहीं लू लपट दिशाएं,

जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।


अंधा चकाचौंध का मारा

क्या जाने इतिहास बेचारा ?

साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।


35. प्रणति-2नमन उन्हें मेरा शत बार ।


सूख रही है बोटी-बोटी,

मिलती नहीं घास की रोटी,

गढ़ते हैं इतिहास देश का सह कर कठिन क्षुधा की मार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।


अर्ध-नग्न जिन की प्रिय माया,

शिशु-विषण मुख, जर्जर काया,

रण की ओर चरण दृढ जिनके मन के पीछे करुण पुकार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।


जिनकी चढ़ती हुई जवानी

खोज रही अपनी क़ुर्बानी

जलन एक जिनकी अभिलाषा, मरण एक जिनका त्योहार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।


दुखी स्वयं जग का दुःख लेकर,

स्वयं रिक्त सब को सुख देकर,

जिनका दिया अमृत जग पीता, कालकूट उनका आहार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।


वीर, तुम्हारा लिए सहारा

टिका हुआ है भूतल सारा,

होते तुम न कहीं तो कब को उलट गया होता संसार ।

नमन तुम्हें मेरा शत बार ।


चरण-धूलि दो, शीश लगा लूँ,

जीवन का बल-तेज जगा लूँ,

मैं निवास जिस मूक-स्वप्न का तुम उस के सक्रिय अवतार ।

नमन तुम्हें मेरा शत बार ।


36. प्रणति-3आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।


'जय हो', नव होतागण ! आओ,

संग नई आहुतियाँ लाओ,

जो कुछ बने फेंकते जाओ, यज्ञ जानता नहीं विराम ।

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।


टूटी नहीं शिला की कारा,

लौट गयी टकरा कर धारा,

सौ धिक्कार तुम्हें यौवन के वेगवंत निर्झर उद्दाम ।

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।


फिर डंके पर चोट पड़ी है,

मौत चुनौती लिए खड़ी है,

लिखने चली आग, अम्बर पर कौन लिखायेगा निज नाम ?

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।


(१९३८ ई०)


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