Ad Code

दशकुमारचरित भुमिका

 

भूमिका

संस्कृत गद्य अपने प्रारम्भिक रूप में यजुर्वेद में ही पाया जाता है। उपनिषदों में उसकी कमी नहीं, न ब्राह्मण ग्रन्थों में आख्यायिका, आख्यान आदि का नाम हमें उपनिषद् साहित्य में ही मिल जाता है। महाभारत में भी गद्यकथाओं के उल्लेख हैं। पतञ्जलि के समय में सुमनोत्तरा, वासवदत्ता और भैमरथी प्रसिद्ध कथाएँ थीं। भास और कालिदास के अतिरिक्त हमें बौद्ध पालि जातकों में भी गद्य मिलता है। शुंगकाल से हर्षवर्धन (छठी शती) तक संस्कृत के गद्यकाव्य खूब लिखे गए थे, ऐसे वर्णन मिलते हैं।

गद्यकाव्य के प्रणेताओं में दो विशेष प्रसिद्ध हैं- दण्डी और बाणभट्ट । दण्डी कब हुए थे इसपर विद्वान अभी एकमत नहीं हैं। संस्कृत में दण्डी को ही 'कवि' माना गया है, ऐसी प्रशंसात्मक उक्तियाँ तक मिल जाती हैं। 'काव्यादर्श' नामक ग्रन्थ दण्डी का ही लिखा हुआ माना जाता है। उनका एक और ग्रन्थ बताया जाता है, पर उसके बारे में विद्वान एकमत नहीं हो सके हैं। विद्वानों में से कुछ का मत है कि 'काव्यादर्श' और 'दशकुमारचरित' एक ही व्यक्ति के लिखे नहीं हैं क्योंकि 'काव्यादर्श' में वह यथार्थवाद स्वीकृत नहीं किया गया है जो 'दशकुमारचरित' में प्राप्त होता है। किन्तु एक ही लेखक का विकास होता है यह हमें ध्यान में रखना चाहिए, ऐसा कुछ विद्वानों का मत है।

'दशकुमारचरित' में गुणाढ्य की बृहत्कथा का प्रभाव बताया जाता है। इसमें भारत के कुछ स्थानों के नाम पुराने ही प्रयुक्त हुए हैं। जैसे अवन्तिका, शूरसेन और त्रिगर्त्त इत्यादि । परन्तु अवन्तिका के साथ ही उज्जयिनी शब्द भी मिलता है। यह परवर्ती नाम है।

उत्तरपीठिका में छठे उच्छ्वास में आता है-

स तमभिप्रशस्याशंसत् - सत्यमिदम् । अवन्तिपुर्यामुज्जयिन्याम्....

अर्थात् उसने उसकी प्रशंसा करके कहा- यह सत्य है। अवन्तिपुरी में उज्जयिनी में.... इसका तात्पर्य यही लगाया जा सकता है कि कथा तब लिखी गई थी जब दोनों नाम चलते थे, बल्कि 'उज्जयिनी' के साथ उसकी पहचान के लिए 'अवन्ति' भी लगाना पड़ता था।

इसमें यवन 'खनति' और 'रामेषु' का नाम भी आता है। यवन मुसलमान नहीं, ग्रीक थे या रोमन, और इसीलिए यही लगता है कि दशकुमारचरित काफी पुरानी रचना है। यदि इन नामों को सीरियन या ईरानी माना जाए तो यह समझना पड़ेगा कि भारत में विदेशों के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी। ईरानी को यहां स्पष्ट ही पारसीक कहते हैं।

छठी सदी के बाद जब भारत का समुद्री व्यापार अरबों ने छीन लिया और उत्तर का भूमिमार्ग का व्यापार अरबों और तुर्कों ने उसके बाद ही भारत में विदेशों की जानकारी घटती चली गई थी।

'दशकुमारचरित' के जिस रूप का हमने अनुवाद किया है, वह सब दण्डी का लिखा नहीं है। इसमें तो कहानी भी गड़बड़ में पड़ जाती है। कहां तो प्रमति वन में जन्म लेता है, और वही आगे तारावली का बेटा कहलाता है। ऐसे ही अनेक स्थल हैं जहाँ आगे-पीछे के बयान मिलते नहीं है। इसीलिए कुछ विद्वान कहते हैं कि दण्डी का लिखा हुआ तो असल में वह है जो यहां उत्तर-पीठिका का भाग है, उपसंहार और पूर्वपीठिका बाद में लिखे गए हैं। उपसंहार के बारे में तो और भी प्रमाण मिलते हैं कि उनकी टीका पुराने लोगों ने नहीं की है, 'दशकुमारचरित' के बीच के ही भाग की टीका की है, परन्तु उलझन होती है कि जहाँ से उत्तरपीठिका शुरू होती हैअर्थात् अवन्तिसुन्दरी और राजवाहन की बातचीत से, वह बिलकुल बीच में से शुरू हो जाती है और लगता है कि दण्डी ने कथा को अचानक ही शुरू कर दिया था। लेकिन जहाँ तक राजमहल और अवन्तिसुन्दरी की कथा है, वह तो पूर्वपीठिका में बहुत ही अच्छी तरह निभाई गई है। केवल नायक-नायिका की बातचीत के क्रम में गड़बड़ है। अतः हम यही कह सकते हैं कि अभी कुछ स्पष्ट नहीं। कभी-कभी कोई लेखक पूरी रचना लिख जाता है, परन्तु बाद के 'हाथ' उसमें न जाने क्या-क्या जोड़ जाते हैं, कभी वह अधूरी रचना छोड़ देता है तो उसे पूरा भी कर डालते हैं मेरा अपना विचार यही है। कि दण्डी ने दशकुमारों की कथा की एक रूपरेखा अवश्य बनाई थी। कुछ हिस्से वह पूरे लिख गया था, कुछ में लोगों ने क्षेपक जोड़कर गड़बड़ कर दी। शिवराम पण्डित की 'भूषण', कवीन्द्राचार्य पण्डित की 'पदचन्द्रिका' और भानुचन्द्र की 'लघुदीपिका' नामक टीकाओं में पूर्व पीठिका और उत्तरपीठिका (उपसंहार) की टीका नहीं है। परन्तु वे सब हैं 'दशकुमारचरित' की टीकाएं ही और पूर्वपीठिका को मिलाए बिना दशकुमार होते ही नहीं । इससे समस्या सुलझती नहीं उलझती ही है। इन तथ्यों से भी 'दशकुमारचरित' की तिथि पर प्रकाश नहीं पड़ता। 'काव्यादर्श' की सहायता से लोग दण्डी का समय सातवीं सदी से कुछ पहले मानते हैं; यद्यपि यह भी अभी प्रामाणिक रूप से माना नहीं जा सकता।

अन्तः साक्ष्य को देखने पर दण्डी के जीवन चरित्र के बारे में कुछ भी प्रामाणिक नहीं मिलता। किंवदंतियां तो अनेक हैं किन्तु उनमें व्याजस्तुतियाँ हैं और तथ्य नहीं के बराबर ही हैं। उनका विवरण देकर हमें लाभ नहीं होगा। हमारे लिए अधिक लाभदायक है मूल ग्रन्थ को देखना ।

(i) 'दशकुमारचरित में यथार्थवाद अपनी अभिव्यक्ति में बहुत ही निर्मम बनकर उतरा है। इसमें जुआ, चोरी और व्यभिचार, चालबाज़ियाँ, हत्या और बेईमानी इत्यादि सब ही मिलते हैं।

(ii) 'दशकुमारचरित' में प्रेम का वर्णन बहुत है। किन्तु इसमें हमें हर जगह प्रेम 'कामाग्नि का भड़कना' और संभोग का ही रूपान्तर-सा दिखाई देता है।

'महाभारत' में भी प्रेम को ऐसी नर-नारी की वासना के रूप में ही हम देखते हैं, जबकि कालिदास में हम प्रेम को इसी शारीरिक बन्धन में नहीं देखते, वरन् उनमें एक सूक्ष्मता भी है। 'दशकुमारचरित' में प्रेम सुरतमात्र है और कुछ नहीं यह उस समाज का चित्र है जिसमें-

(अ) वेश्या का समाज में 'गणिका' के रूप में आदर था।

(आ) पतिव्रत की महिमा थी, परन्तु कन्याएँ छिपकर प्रेमियों से चैन से सम्भोग कराने में बुराई नहीं समझती थीं।

(इ) परस्त्रीगमन बुरा ज़रूर समझा जाता था, परन्तु चलता था और काम देता था । उसके बारे में लोग सभ्य समाज में सुना भी देते थे, उसे अन्य कारणों से क्षम्य भी माना जाता

था।

(ई) बहुपत्नी प्रथा थी और सामन्त (दारुवर्मा) खुले आम विवाह के पहले ही स्त्री को सम्भोग करने को ले जाता था (बालचन्द्रिका) ।

(उ) स्त्रियाँ इतनी मुखर थीं कि प्रेमी के मुँह पर कहती थीं कि 'मुझसे सम्भोग करके मेरी कामपीड़ा मिटा'

(ऊ) चोरी, डकैती और हर तरह का बुरा काम किया जाता था और कार्यसिद्धि के लिए जायज़ था।

(ए) राक्षस, अप्सरा, यक्ष आदि पर काफी विश्वास किया जाता था। सिद्ध लोगों की बहुत चर्चा थी और जनता और सामन्त दोनों ही घोर अन्धविश्वासी थे और चाहे जैसे धर्म के नाम पर उन्हें बहकाया जा सकता था। (दो कथाओं में राजाओं का कत्ल करके दूसरे ही दो आदमी आ जाते हैं कि शकल बदल गई; चमड़े की भाथी धन देती है; एक आदमी देवी का प्रतिनिधि बन जाता है।)

(ऐ) देवता कहीं नहीं दिखते, पर उनकी आड़ काफी ली जाती है।

(ओ) चोरी और जुए का काफी प्रचार मिलता है।

(ii) दशकुमारचरित में स्पष्ट लिखा है कि चाणक्य की नीति उस समय काफी प्रभाव रखती थी। महाभारत तक हमें ब्राह्मण 'अवध्य' मिलता है, परन्तु यहाँ चाणक्य का हवाला दिया गया है कि उसने चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में ही 'वैश्य' वणिक् को 'अवध्य' करार दे दिया था और इस कथा को लिखने के समय उसी कानून का उल्लेख किया गया है।

अब हमें इन बातों का विवेचन करना आवश्यक है। (i) यह बात प्रकट करती है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के बाद उस समय 'दशकुमारचरित' लिखा गया जब उसी के समय के नियम समाज में और राज्य में माने जाते थे। वणिक् उस समय भी सशक्त थे और समुद्री व्यापार भी करते थे। यदि यह माना जाए तब तो इसका समय छठी शती से पहले का होना ही चाहिए, क्योंकि छठी शती में भारतीय समुद्र व्यापार ढलाव पर था। उसका विकास-काल जैन कथाओं के आसपास है, जो लगभग ईस्वी सदी पहली से चौथी तक का समय है। पाँचवी- छठी सदी में समुद्र व्यापार ईरानियों और अरबों के हाथों में था।

(iv) यह बात प्रकट करती है कि जब प्रेम को सम्भोग का ही रूप माना गया है, तब वह कालिदास से पहले की रचना होनी चाहिए।

शेष बातों को देखकर हमें संस्कृत साहित्य में 'दशकुमारचरित' से तुलनीय 'मृच्छकटिक' नामक शूद्रक रचित नाटक का वर्तमान रूप मिलता है। उसमें भी वही नग्न यथार्थ देखते हैं जो 'दशकुमारचरित' में मिलता है। यदि बाणभट्ट की 'कादंबरी' की 'दशकुमारचरित' से तुलना की जाए तो वह एक ऐसे समाज का चित्र खींचती है जिसमें न इतना नग्न यथार्थ है, न ऐसी कुत्सा ही है। यह स्पष्ट करता है कि ये दोनों रचनाएँ एक ही युग की नहीं हैं।

साहित्य में युग होते हैं। एक युग की रचनाओं में प्रायः एक न एक समानता मिलती है; प्रायः शैली में या विषयवस्तु में इस दृष्टि से विषयवस्तु में 'दशकुमारचरित' 'मृच्छकटिक' के वर्तमान रूप के अधिक निकट है। गुणाढ्य की बृहत्कथा और 'दशकुमारचरित' के मूलस्रोत सम्भवतः एक ही हैं और 'दशकुमारचरित' काफी पुरानी रचना है उसे हम संस्कृत साहित्य के उस युग में रख सकते हैं जब-

(1) ब्राह्मण को पूज्य माना जाकर भी उससे उपहास किया जाता था।

(2) देवताओं पर चोट की जाती थी।

(3) प्रचलित रूढ़ियों का करारा मज़ाक उड़ाया जाता था।

(4) बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियों का नैतिक स्तर अच्छा नहीं रहा था। (5) जैन पाखण्डी कहलाने लगे थे।

(6) कापालिकों के भी दर्शन होते थे, और उनका समाज में सम्मान था। (विश्रुत-कथा में ऐसा ही है)।

प्रायः यही बातें हमें 'मृच्छकटिक' के वर्तमान रूप में भी विषयांतर से मिल जाती हैं। ये कालिदास में नहीं हैं, भारवि में नहीं है, भास में नहीं हैं और तो और भट्टि में भी नहीं हैं। किन्तु शूद्रक में हैं।

इस दृष्टि से देखने पर लगता है कि यदि साहित्य में युग होते हैं (और वे होते ही हैं) तो 'दशकुमारचरित' भास के बाद और कालिदास के पहले की रचना है। इसमें विशेषता यह है कि लेखक के रचनाकाल में भारत में कोई भी सार्वभौम सम्राट् नहीं मालूम होता। जैसे शूद्रक एक सार्वभौम सम्राट् की कल्पना का आनन्द लेता है, वैसे ही इसमें भी राजनैतिक उपदेश यह है कि एक ही सम्राट् बनता है और सब उससे प्रेम से निर्वाह करते हैं और सारी पृथ्वी का भोग करते हैं। पृथ्वी का तात्पर्य केवल भारत भूमि से लगाया जाता है। 'मृच्छकटिक' से इस कथा की दूसरी समानता है कि इसमें भी पाटलिपुत्र से उज्जयिनी का अधिक महत्त्व दिखाई देता है। किन्तु भेद यह है कि 'मृच्छकटिक' में उज्जयिनी को केन्द्र बनाकर कल्पना की गई है, जब कि इसमें मगध को केन्द्र बनाने की कल्पना है। इसका कारण भी हमें याद रखना चाहिए कि 'मृच्छकटिक' की मूल कथा अपने वर्तमान रूप से पुराने युग की थी।

मुझे तो यही लगता है कि 'दशकुमारचरित' का लेखक दण्डी दूसरा व्यक्ति था और 'काव्यादर्श' का लेखक दण्डी कोई और ही था। जिस प्रकार विभिन्न कालिदासों को इतिहास ने मिलाकर एक कर दिया है, उस प्रकार दण्डी भी मिला दिए गए हैं। इन दो व्यक्तियों को मिलाना काफी बड़ी खाई को इच्छानुसार पाट देने का प्रयत्न है। हम यही कह सकते हैं कि जिस समय 'मृच्छकटिक' का वर्तमान रूप प्रस्तुत हुआ था, उसी समय के लगभग 'दशकुमारचरित' का मूलरूप प्रस्तुत हुआ होगा।

2

कथा की दृष्टि से 'दशकुमारचरित' बहुत ही रोचक है। इसमें अकाल, अराजकता आदि के बहुत ही सजीव चित्रण हुए हैं। प्रकृति का वर्णन बहुत ही सुन्दर हुआ है। यौवन और रूप के तो गज़ब के वर्णन हैं। इनमें यहाँ तक कमाल है कि युद्ध-वर्णन में शस्त्रों की झंकार तक सुनाई देती है। किन्तु चरित्र-चित्रण के दृष्टिकोण से इसमें कमी यह है कि प्रत्येक कथा का कुमार एकदम सब पर छा जाता है और सब कुछ उसी की योजना और तरकीबों के हिसाब से हो जाता है। इसकी नायिकाओं में सब ही कामप्रिया हैं और प्रायः सब ही नायक बड़े भारी भोगकर्ता हैं। परन्तु इसमें एक विचित्रता यह है कि इसके धूर्त नायकों की हरकतें नक्शा-सा खींचती चली जाती हैं। इस दृष्टि से इसका चरित्र-चित्रण यद्यपि अपने विशेष ढंग का है, फिर भी वह महत्वपूर्ण है।

कथा-प्रवाह चलता है और उसमें अन्तर्कथाएँ भी अन्तर्भुक्त की गई हैं। इसमें न केवल समाज के निम्नवर्ग का चित्रण है, वरन् हमें समस्त सामन्तीय जीवन अपने काफी विस्तार के साथ दिखाई दे जाता है। राजा, अच्छा राजा, बुरा राजा, चापलूस, चोर, सिपाही, गणिका, अन्धविश्वासी, धूर्त, जुआरी, संपेरा, मान्त्रिक, सिद्ध, वैश्य, शूद्र, गरीब, अमीर, विलासी, जादूगर, युद्ध नाश, अकाल, जासूस, अराजकता और ऐसे ही अनेक लोग और दृश्य दिखाई देते हैं। इन सबका यथार्थ चित्रण हुआ है। इसको पढ़कर पता चलता है कि उस समय का आदमी बड़ा 'उस्ताद' होता था और प्राचीन भारत में सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं था, वरन् यहाँ काफी बुराइयाँ थीं। संस्कृत के आचार्यों ने ऐसे ग्रन्थ को इतना महान कहा, यह बताता है कि उस समय बुराइयों की पोल खोलने पर शास्त्रीय ढंग से प्रतिबन्ध नहीं थे। नाटक में अवश्य कुत्सित दृश्य नहीं दिखाए जाते थे क्योंकि उसमें दर्शक के मन पर सीधे ही बुरा प्रभाव पड़ता था, किन्तु श्रव्यकाव्य में ऐसी कोई रोक-टोक नहीं थी। परवर्ती काल में इस यथार्थ पर रोक-टोक लगाई गई थी जो दूसरे दण्डी के काव्यादर्श से प्रकट होता है। परवर्ती काव्यों में हमें सामन्तों के जीवन पर ऐसा गहरा प्रहार नहीं मिलता जैसा यहाँ है। प्राचीन समय में राजा आवश्यक होता था, क्योंकि अराजकता बहुत भयानक वस्तु थी, किन्तु सामन्त का व्यक्तिगत जीवन जनता के लिए विशेष महत्त्व नहीं रखता था । ऐयाशी और लड़ाई, सामन्तों के यही दो काम थे और इसीलिए 'दशकुमारचरित' के लेखक ने मिल- जुलकर राज करने का उपदेश दिया है, जिसमें केन्द्रीय सम्राट् किसी भी राज्य पर ज़ोर ज़बर नहीं करता । चातुर्वर्ण्य की उचित मर्यादा को पाला जाए, यह भी लेखक का एक स्वप्न है।

सबसे बड़ी बात इस ग्रन्थ में है इसका मज़ाक बड़ी ही चुभीली चोटें की गई हैं और मज़ाक मज़ाक में ही लेखक बड़े-बड़ों को नहीं छोड़ता । प्रायः हर कुमार जिस तरकीब से काम लेता है, उसमें हँसी अवश्य आती है, चाहे वह जुगुप्सा ही क्यों न पैदा करें। चन्द्रसेना को ऐसा अन्जन मिलने को होता है कि वह बन्दरिया नज़र आए और नतीजा होता है कि अंजन देने वाला ही समुद्र में बहता दीखता है। धूमिनी की कथा में व्यभिचार हँसी तक ला देता है। ऐसे ही निम्बवर्ती और नितम्बवती की कथाएँ भी हमें मुस्कराता छोड़ जाती हैं। काममंजरी और अपहारवर्मा तो बहुत ही खूब बन पड़े हैं।

यद्यपि दण्डी ने कहीं भी किसी बात को दुहराया नहीं है, किन्तु क्योंकि अन्त में हर कुमार को एक राज्य मिल जाता है, इसलिए यह 'टेक' ज़रा आगे चलकर उबा देती है; क्योंकि ज्योंही तरकीबें शुरू हुई कि हमें पहले से ही अन्त का अनुमान होने लगता है। एकाध स्थल पर तो घटनाओं की योजना बताई गई है और उन्हें होते हुए भी नहीं दिखाया गया। बस यही कह डाला गया है कि सब इसी प्रकार हो गया। यह कथात्मकता में रोचकता को घटाने वाली बात है।

अतिरिक्त इसके कि दण्डी ने मानव मन को परिस्थितियों के वैविध्य में सफलता से चित्रित किया है, यह भी प्रकट होता है कि वह न केवल एक बड़ा भारी भाषा का पंडित था, वरन् यह भी स्पष्ट होता है कि उसे जानकारी बहुत थी। वह राजनीति को तो बहुत ही अच्छी तरह समझने वाला था। विश्रुत की कथा, जो शायद उसने पूर्ण नहीं की है, उसके पहले हिस्से में राज्य का इतना अच्छा वर्णन है कि देखते ही बनता है। उसके चित्रण आंखों देखे के से होते हैं।

हो सकता है, काल के गाल से यदि पुराने ग्रन्थ बच पाते तो हमें पता चलता कि संस्कृत साहित्य में यथार्थवाद की ये जड़ें कितनी गहरी उतर गई थीं और कब इनका निराकरण प्रारंभ हुआ, किन्तु दुर्भाग्य से पुस्तकें ही नहीं मिलतीं, जो इसपर पूर्ण रूप से प्रकाश डाल सकें। हम यही कह सकते हैं कि 'दशकुमारचरित' एक युग की समस्त चेतना का प्रतीक है और जब यह लिखी गई होगी तब इसने काफी हलचल मचा दी होगी। समस्त ग्रन्थ को पढ़कर यही लगता है कि लेखक की सहानुभूति किसी भी पात्र से नहीं है, वह निष्पक्ष है, उसमें वह लगन नहीं, जो कालिदास को दुष्यन्त से और वाल्मीकि को राम से थी। उसकी बला से उसका पात्र भला है या बुरा, वह तो ऐसे सुना जाता है जैसे इस सबसे उसे कोई सम्बन्ध ही नहीं।

3

अन्त में अपने अनुवाद के विषय में भी कुछ स्पष्ट कर दूँ। अनुवाद और वह भी संस्कृत गद्य के ग्रन्थ का, वास्तव में बहुत ही कठिन कार्य है। क्योंकि संस्कृत का गद्य प्रायः काव्य जैसा ही होता है। उसमें अनुप्रास तो इतने होते हैं कि उन्हें हिन्दी में लाया ही नहीं जा सकता। फिर भी किसी भी ग्रन्थ का प्राण केवल उसके बाह्य कलेवर में नहीं हुआ करता, उसके प्रतिपाद्य में होता है। वह प्रतिपाद्य किसी भी भाषा में प्रयत्न करके प्रस्तुत किया जा सकता है। मैंने इसीको अपने सामने लक्ष्य बनाकर इसका अनुवाद करने का साहस किया है। 'दशकुमारचरित' के हिन्दी में और भी अनुवाद हुए हैं।

पं. निरंजनदेव विद्यालंकार ने 'दशकुमारचरित' का हिन्दी में अनुवाद किया है। किन्तु उसमें मूल के प्रति इतना ज़ोर नहीं है, जितना अपनी व्याख्यात्मकता का जोर है। अपने ग्रन्थ पृ. 382 पर वे लिखते हैं, "मैंने उस शिकारी की यह बात सुनकर उसके कान में बहुत धीरे से कहा सुनो, तुम्हें मालूम है, असलियत क्या है? वास्तविक बात यह है कि मित्रवर्मा बड़ा चालाक है। वह धूर्त इस लड़की का अच्छी जगह सम्बन्ध करके इसकी माँ के जी में जगह बना लेना चाहता है। उसका विश्वास पाकर फिर उसीके मुँह से यह जान लेना चाहता है कि अपना लड़का उसने कहाँ भेज दिया है..."

इस प्रकार काफी समझाकर अन्त में विश्रुत (बोलने वाला पात्र) कहता है, (पृ. 384) "इधर तो यह काम हो रहा होगा, उधर में और यह बालक, हम दोनों अघोरी साधु का भेष बनाकर भीख माँगते हुए रानी के दरवाज़े पर पहुँचेंगे।" फिर पृष्ठ 385 पर विश्रुत भीख लेकर कहता है, "इसके उपरान्त भीख लेकर मैंने धीरे से नालीजंघ को बुलाया। नालीजंघ मेरे पीछे- पीछे आ रहा था...।"

अब इसको देखा जाए तो कुछ का कुछ अर्थ निकाला गया है। कथा में नालीजंघ एक बूढ़ा है, जो बालक राजकुमार को बचाकर वन में ले आया है। यहाँ विश्रुत मिलता है, जिसे नालीजंघ सारा किस्सा सुनाता है। इसी बीच एक किरात आता है ('किरात' एक जातिविशेष का शिकारी होता था)। इस किरात से बातों में पता चलता है कि मंजुवादिनी का ब्याह होने वाला है। इस पर पं. निरंजनदेव कहते हैं कि "मैंने (विश्रुत ने उस शिकारी की वह बात सुनकर उसके कान में धीरे से कहा "...इत्यादि ।

सोचने की बात है कि विश्रुत एक अनजान शिकारी से एकदम क्यों ऐसी गुप्त बात कहेगा? और नालीजंघ और बालक के अतिरिक्त वहाँ कोई है नहीं, तो फिर कान में कहने की ज़रूरत ही क्या है?

मूल संस्कृत में है

"अथ कर्णेजीर्णमब्रवम्"

अर्थात् कान में बूढ़े से (नालीजंघ से) कहा- यह ठीक है, क्योंकि नालीजंघ ने किस्सा सुनाया है, और शिकारी के मुँह से खबर सुनकर, शिकारी क्योंकि बाहरी आदमी है, वह बूढ़े के कान में कहता है।

का अर्थ है जर्जर यानी बूढ़ा शिकारी किस तरह जीर्ण हो गया। फिर आगे जो नालीजंघ को बुलाने का स्थल है। वहाँ मूल है।

"लब्धभैक्ष्यः नालीजंघमाकार्य्यं निर्गम्य ततश्च तं चानुयान्तं शनैरपृच्छम्"

...अर्थात् भिक्षा प्राप्त कर, नालीजंघ को साथ लेकर चल पड़ा और कुछ आगे जाकर मैंने धीरे-धीरे पूछा.....

यदि नालीघ यहाँ पहले से न होता तो बुला कहाँ से लिया जाता? यदि शिकारी भेजा जाता तो बिना किसी निशानी के रानी तक पहुँचता कैसे ? रानी उसकी बात मान कैसे जाती ? पूछती - नालीजंघ कहां है? तो वह क्या कहता? एक नए आदमी को रहस्य की बात करते देख वह उसे शत्रुपक्ष का गुप्तचर क्यों न समझ लेती ? और फिर नालीजंघ जंगल से गायब होकर सीधा फिर महल में मिलता है।

अपने अनुवाद में उन्होंने मंगलाचरण में वामनावतार विष्णु के चरणदण्ड को शंकर का चरणदण्ड कहा है। स्पष्ट ही "त्रिविक्रम" वामन का ही नाम है। त्रिविक्रम ने जो तीसरा चरण फैलाया था उसी की संस्कृत साहित्य में महिमा गाई गई है। शिव के चरणदण्ड की ऐसी महिमा परंपरा - विरुद्ध है। फिर शिव की ओर इंगित करने वाला कोई शब्द भी नहीं। पंडित जी ने अपने अनुवाद में 'फर्लाङ्ग' आदि शब्द का भी प्रयोग किया है जो पाठकों को भ्रम में डाल देते हैं कि क्या दण्डी के समय भी ऐसे दूरी नापने के हिसाब थे पृष्ठ 334 पर वे बड़ी दूर हिमालय पर्वत से, जहाँ शंकर भगवान नृत्य करते थे, एक बड़े पुराने साल के पेड़ की लम्बी-लम्बी जटाएँ मँगाते हैं। मूल में है- "शंकर नृत्यरंग देश जातस्य जरत्सालस्य स्कंधरंध्रान्तर्जटाजालं निष्कृष्य तेन जटिलतां गतः ।" शंकर के ताण्डव का स्थान दक्षिण देश है या श्मशान? यहाँ श्मशान से तात्पर्य है पता नहीं हिमालय से पेड़ की जटाएँ वहाँ दक्षिण भारत में इतनी जल्दी कौन ले आया? और यह मतलब पण्डित जी ने कैसे निकाल लिया?

    मैंने दूसरा अनुवाद श्री रामतेजशास्त्री और श्री केदारनाथ शर्मा कृत देखा है। इसमें अर्थ भी स्पष्ट नहीं होता। व्याकरण की भाषा में भी भूलें हैं। उत्तरपीठिका - प्रथम अध्याय में दर्पसार अपनी ही बहन अवंतिसुन्दरी से विवाह करना चाहता है (पृ. 145), जबकि दर्पसार की जगह वीरशेखर होना चाहिए था। क्षपणक विहार (जैन विहार) को बौद्ध विहार (पृ. 178) कहा गया है।

अपना समय बचाकर कहूँ कि दोनों अनुवाद अभी प्रामाणिक नहीं हैं। आगे के संस्करणों में विद्वान् लेखकों को परिमार्जन कर लेना चाहिए। भूल चूक तो हो ही जाती है। अनुवाद के विषय में मैं यही कहूँगा कि यह भी कोई उत्कृष्ट रचना नहीं है। संस्कृत भाषा में समास प्रधानता है, जो एक बड़ी संगीतात्मक गठन पैदा करती है। यदि उनका अनुवाद उसी रूप में किया जाए और वह किया भी जा सकता है, जैसे पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी 'बाणभट्ट की आत्मकथा' लिखी है, परन्तु हिन्दी के लिए वह बड़ी ही कृत्रिम शैली-सी लगती है और उसमें सरलता भी नहीं आती इसीलिए मैंने सरलता पर ज़ोर दिया है। जहाँ तक हो सका है मूल के निकट रहा हूँ परन्तु हिन्दी का मुहावरा पकड़ने की मैंने अधिक चेष्टा की है, क्योंकि मूलग्रन्थ भी सरल भाषा में लिखा गया है, ताकि लोगों की समझ में आसानी से आ सके।

उत्तरपीठिका में सातवें अध्याय में मन्त्रगुप्त अपनी कहानी सुनाता है। दण्डी ने उसमें ओष्ठ्य वर्णों का प्रयोग नहीं किया है। प, , , भ मिलेंगे ही नहीं। मैंने भी अपने अनुवाद में इस कार्य पर, जहाँ तक मुझसे बन पाया है, ध्यान रखा है और इन वर्णों का प्रयोग उसके बयान में नहीं किया है यद्यपि हिन्दी की गढ़न में यह बहुत ही कष्टदायक कार्य रहा है। पवर्ग में म भी होता है, उसे भी होठ मिलाए बिना नहीं बोल सकते परन्तु मूल में 'चाहं' (चाहम्), निर्दयं (निर्दयम्), चेयं (चेयम्), जातम्, इत्यादि म के अनेक प्रयोग हैं, अतः म को मैंने भी प्रयुक्त किया है।

महाकवि दण्डी की अनमोल कृति 'दशकुमारचरित' जहाँ एक ओर अपने साथ इतिहास के एक पट को लाकर खोल देती है, वहीं हमें साहित्य स्रष्टा के उस मन को भी दिखाती है, जिसने 'उदात्त' की परंपरा को अपनी 'इति' न मानकर, समाज की गहराइयों में उतरने की चेष्टा की थी। दण्डी के पात्रों का चातुर्य देखने पर वे 'वैचित्र्य' की कोटि में आते हैं, परन्तु जहाँ तक उनके मन का सवाल है, वे साधारण हैं और उनमें यदि कोई विकृति भी है तो उनकी पृष्ठभूमि में शास्त्र की मर्यादा को खड़ा करके, दोष व्यक्ति से हटाकर समाज और शास्त्र पर डाल दिया गया है। इसीलिए यह ग्रन्थ संस्कृत साहित्य में अपना सानी नहीं रखता क्योंकि इसमें उस युग का मनुष्य बड़े ही उघड़े रूप में हमारे सामने आता है और हम उसे बिलकुल हाड़-मांस का बना हुआ ही देखते हैं।

-रांगेय राघव


Post a Comment

0 Comments

Ad Code