मंगलाचरण
ब्रह्माण्ड - छत्र का दण्ड, अरे वह
दकल्याण करे वह ज्योतिचक्र का अक्षदण्ड, वामन का सुखमय चरणदण्ड ! 1
1- दसों कुमारों के जन्म तथा शिक्षा
मगधराज राजहंस का वर्णन
संसार के सारे नगरों के वैभव की कसौटी, समुद्र के रत्नों को अपने हाटों में भरे हुए, मगध देश की राजधानी पुष्पपुरी है। उसमें पहले कभी राजहंस नामक राजा राज्य करता था। उसके भुजदण्ड ऐसे प्रचण्ड थे मानो वह भयंकर समुद्रों को भी मथकर मन्दराचल की भाँति विक्षुब्ध कर सकता था। शरदऋतु का चन्द्रमा, माघ मास के फूल, कपूर, हिम, मोती माला, मृणाल, ऐरावत हाथी, जल, दुग्ध, शिव का अट्टहास, कैलास पर्वत आदि श्वेत वस्तुओं की भाँति सर्वत्र उसका धवल यश फैला हुआ था। उसने निरन्तर यज्ञ और दक्षिणाओं द्वारा आचारवान विद्वान ब्राह्मणों की रक्षा की। मध्याह्न के प्रचण्ड मार्तण्ड-सा उसका प्रताप था। रूप में वह कामदेव को भी नीचा दिखाता था। उस राजा की रानी का नाम वसुमति था । वसुमति पृथ्वी भी कहलाती है। इस प्रकार वह राजा दोनों वसुमतियों का भोग करता था।
रानी वसुमति का वर्णन
रानी वसुमति को देखकर लगता था कि शिव के तीसरे नेत्र के खुलने से जब कामदेव भस्म हुआ, उसकी सेना भयभीत होकर इस स्त्री के अंगों में छिप गई। भौरे बालों में, चन्द्रमा मुख में, जयध्वज मत्स्य आँखों में, मलयानिल मुखवायु में, तथा प्रवाल होंठों में छिप गए। विजय शंख ग्रीवा में दिखने लगा। पूर्णकुम्भ कुचों में, धनुष की डोरियाँ भुजाओं में, कुछ खिला-सा लाल कमल भंवरदार नाभि में, जैत्ररथ जघन में जयस्तम्भ उरु युगल में, छत्रकमल चरणों में जा समाए । यों वह अद्वितीय थी। दोनों आनन्द से रहते थे।
मन्त्रियों का वर्णन
राजहंस के परम आज्ञाकारी कुलपरम्परा से आए तीन मन्त्री थे। वे बृहस्पति को भी कुछ नहीं समझते थे। उनमें से सितवर्मा के सुमति और सत्यवर्मा नामक पुत्र थे। धर्मपाल के सुमंत्र, सुमित्र और कामपाल तथा तीसरे मन्त्री पद्मोद्भव के सुश्रुत और रत्नोद्भव नामक पुत्र हुए थे। इन पुत्रों में से धर्म में लगा सत्यवर्मा तो संसार को असार देखकर तीर्थयात्रा करने देशांतर चला गया। कामपाल विटों, नटों और वेश्याओं के सम्पर्क में आकर उद्दण्ड और भाइयों तथा बाप की न सुनता हुआ आवारा हो गया। रत्नोद्भव वाणिज्य करने समुद्र में आर-पार आने-जाने लगा। बाकी पुत्र जैसे पिता थे, वैसे ही उनकी भाँति ही काम में लग गए।
राजहंस का युद्ध
ऐसे ही समय में राजहंस मगधराज मालवराज मानसार की विजयों की कथाएँ सुनने लगा। मानसार बड़ा अहंकारी हो गया था। राजहंस क्रुद्ध होकर समुद्रों के गम्भीर गर्जनों को दबाने वाले भेरी नाद को प्रतिध्वनित करता, भयभीत दिग्गजों को आतंकित करता, हाथी, घोड़े, पैदल और आयुधों से सजी सेना लेकर शेषनाग के फर्नो को व्याकुल करता हुआ, मालवेश्वर पर आक्रमण करने चल पड़ा। मानसार भी अपने हाथी ले आया। तुमुल संग्राम शुरू हो गया। रथ के पहियों और घोड़ों की टापों से धूलि पिस गई। हाथियों की झरती मदधारा में सनकर धूलि पति और नई वधू के बीच के पर्दे की तरह फैल गई। युद्ध के नाद से दिशाएँ बधिर हो गईं। शस्त्रों पर शस्त्र और हाथों से हाथ टकराने लगे। सारी सेना को नष्ट करके राजहंस ने मानसार को ज़िन्दा ही पकड़ लिया, परन्तु फिर उसे उसका राज्य लौटा दिया । और मगध लौटकर सम्पूर्ण पृथ्वी पर शासन करने लगा। किन्तु उसके पुत्र नहीं था। इसलिए वह नारायण की आराधना करने लगा।
रानी का गर्भ धारण करना
एक दिन रानी वसुमति ने स्वप्न में ब्राह्म मुहूर्त में सुना जैसे कोई कह रहा था - 'हे देवि! तुम राजा से कल्पवृक्ष का फल प्राप्त करो।'
और उसे गर्भ आ गया। इन्द्र जैसे वैभव से राजहंस ने मित्र राजाओं को बुलाकर रानी का सीमंतोत्सव किया।
तदनन्तर, एक बार जब गुणी मगधराज राजहंस अपने शुभेच्छु मित्र, मन्त्रियों और पुरोहितों से घिरा सभा में बैठा था, द्वारपाल ने आकर प्रणाम करके कहा: 'हे देव! आपके दर्शनार्थ कोई पूज्य संन्यासी द्वार पर उपस्थित है।'
आज्ञा पाकर द्वारपाल उस संन्यासी को राजा के सामने ले आया। राजा समझ गया कि कोई गुप्तचर आया है। उसने एकान्त करवा दिया। मन्त्रियों के साथ रह गया। संन्यासी आया तो सबने प्रणाम किया। राजा ने हंसकर कहा 'हे तापस! इस कपट वेश में भ्रमण करते हुए आपने कोई नई बात देखी हो तो बताएं।'
संन्यासी गुप्तचर का खबर देना:
घुमक्कड़ संन्यासी बोला 'देव! आपकी आज्ञा से जो वेश अपनाया वह बड़ा अशंकनीय है। मैं मालवराज के नगर में गया था। वहाँ छिपकर सारी खबर ले आया हूँ। मानसार हार की ग्लानि से म्लान होकर इतना खिन्न हो गया कि अन्त में वह शारीरिक कष्ट सहकर महाकाल' निवासी महेश्वर की आराधना में जुट गया। उसके तप से प्रसन्न होकर शिव ने उसे मुख्य शत्रुवीर को मारने वाली भयंकर गदा दी है। अब वह अपने को अद्वितीय योद्धा मानता हुआ युद्ध का उद्योग कर रहा है। अब आप भविष्य की चिन्ता करें।'
मन्त्रियों ने विचार करके एकमत होकर राजा से कहा 'देव! शत्रु ने निरुपाय होकर देवता की सहायता ली है और लड़ने आ रहा है। हमारा इस समय युद्ध करना ठीक नहीं होगा। दुर्ग में आश्रय लेना ही ठीक लगता है।'
राजहंस का युद्ध करना
परन्तु राजहंस नहीं माना। उसका गर्व अखर्व था । लड़ने को उठ खड़ा हुआ मानसार भी सेना संचालन करता रुद्रगदा से सज्जित होकर सहज ही मगध में घुस आया। मागध मन्त्रियों ने राजा राजहंस को किसी तरह समझा-बुझाकर अन्तःपुर की रानियों को मुख्यसेना की रक्षा में शत्रुओं से अगम्य विंध्याटवी (वन) में भिजवा दिया। विशाल सेना लेकर राजहंस ने क्रुद्ध मानसार को घेर लिया। इतना विकराल युद्ध हुआ कि आकाश के देवता भी चकित रह गए। अन्त में जय की इच्छा से मालवराज मानसार ने मगधराज राजहंस पर रुद्रगदा चलाई। राजहंस के बाणों ने गदा के टुकड़े-टुकड़े कर दिए, परन्तु पशुपति शिव के वरदान से वह अमोघ थी। आकर जब रथ पर गिरी तो राजहंस के सारथि को मारकर रथ में बैठे राजहंस को भी मूर्च्छित कर गई। सारथि के गिरते ही घोड़े रथ को ले भागे और दैवयोग से उसी वन में जा पहुँचे जहाँ रानियाँ भेजी गई थीं।
राजहंस की हार और वनवास
मालवराज मानसार मगध को जीतकर पुष्पपुर में राजा बन बैठा।
मन्त्री लोगों की, युद्ध में आहत होने से मूर्च्छा जब दूर हुई, तब आँखें खुलीं। देखा, राजा नहीं थे। वे दीन होकर रानी के पास वन में गए। रानी ने जब सारी सेना का विनाश और राजा के खो जाने का वृत्तांत सुना तो मन में प्राणत्याग करने का निश्चय कर बैठी । मन्त्रियों और पुरोहितों ने समझाया 'हे कल्याणी! राजा का मरना निश्चित नहीं है। ज्योतिषियों ने बताया है कि तुम्हारी कोख से एक शत्रुदमन वीर सुन्दर कुमार जन्म लेगा। तुम्हारा मरना उचित नहीं है।"
थोड़ी देर को रानी भी दुःख से निश्चेष्ट हो गई। पर आधी रात की नीरवता में जब सब सो गए तब अपार शोक पारावार पार करने में असमर्थ रानी शिविर पार करके एकान्त में गई। यह वही जगह थी जहाँ राजहंस के रथ के घोड़े भागने से थककर पहिए फँस जाने से रुके खड़े थे। रानी ने मृत्यु की रेखा जैसे लगने वाले एक वट वृक्ष पर अपने उत्तरीय का फन्दा टाँगकर फाँसी लगाने का यत्न किया और कोकिल के स्वर को भी तिरस्कृत करने वाले कोमल कण्ठ से करुण विलाप करने लगी 'हे कामदेव के लावण्य को पराजित करने वाले राजा! आप ही अगले जन्म में भी मेरे पति बनें।'
राजा का रक्त अधिक निकल जाने के कारण वह निश्चेष्ट हो गया था। पर चन्द्रमा की शीतल किरणों ने उसे चैतन्य कर दिया था। रानी का विलाप सुनकर राजहंस पहचान गया कि यह वसुमति की आवाज़ है। उसने मीठे स्वर से उसे पुकारा रानी घबराई - सी दौड़ी और मिलते ही मुख चन्द्रमा कमल-सा खिल उठा। उसने देर तक आँखें भरकर राजा को देखा और फिर पुरोहित, तथा अमात्यों को आवाज़ देकर राजा के पास इकट्ठा कर लिया। सब ने देव की प्रशंसा की । अमात्यों ने अभिवादन करके राजा से निवेदन किया: 'देव, लगता है घोड़े सारथी के नहीं रहने से इस रथ को वन में ले आए। '
राजा ने कहा : 'सारी सेना के विनष्ट हो जाने पर उस मालवराज मानसार ने रुद्रगदा को निर्दयता से फेंक कर मारा। मैं उससे मूर्च्छित हो गया। यहाँ प्रभातकालीन वायु के लगने पर ही मेरी आँखें खुलीं ।'
मन्त्रियों ने उत्सव मनाकर आनन्द से देवताओं की आराधना की और वे राजा को शिविर में ले आए। वहाँ सारे बाण आदि राजा के शरीर से निकाल कर प्रसन्नवदन राजा की मरहम-पट्टी की गई। राजा अच्छा हो गया, परन्तु दैव ने पौरुष को असफल कर दिया था, इसलिए वह बहुत खिन्न था। अमात्यों की राय से रानी वसुमति ने राजा को समझाया। उसने कहा: 'देव! आप संसार के राजाओं में सर्वश्रेष्ठ होकर भी आज विंध्याटवी में पड़े हैं। इससे सिद्ध होता है कि लक्ष्मी पानी के बुदबुदों की की तरह है। बिजली की तरह चमककर अचानक आती है, और वैसे ही चली जाती है। सब कुछ भाग्य के बस में है। प्राचीनकाल में हरिश्चन्द्र, रामचन्द्र आदि पृथ्वीपतियों ने भी इन्द्र का सा वैभव छोड़कर, भाग्य के कारण, दुःख भोगा था। बाद में उन्होंने राज्यसुख पाया था। आप भी अब दुःख भोगकर भविष्य में राज्यसुख प्राप्त करेंगे। इसलिए दुःखों से विचलित न हों, देवता की आराधना करके समय बिताइए। '
राजहंस का वामदेव से मिलना
राजहंस ने सुना। समय पाकर वह अपनी सारी सेना लेकर तपस्वी वामदेव के पास गया। वामदेव तप से जाज्वल्यमान थे। राजा ने उन्हें अपनी इच्छा पूरी करने की सामर्थ्य से पूर्ण जाना।
चन्द्रवंशी राजा राजहंस ने मुनि को प्रणाम कर सारी विपदा सुनाई और कुछ दिन उस सुन्दर तपोवन में रहने के बाद मितभाषी राजा ने कहाः भगवन! प्रबल दैव बल से मानसार मुझे जीतकर मेरा राज्य भोग रहा है। हे लोकशरण ! करुणासिन्धु! मैं भी तप करके शत्रु को उखाड़ फेंक सकूँ, इसीलिए आपके पास नियम से रहने आया हूँ।'
त्रिकालज्ञ तपोधन वामदेव ने कहा 'मित्र! शरीर को सुखा देने वाले तप को छोड़ो। वसुमति के गर्भ से एक समस्त शत्रुविनाशक पुत्र निश्चय जन्म लेगा। अतः कुछ समय तक तुम शान्त रहो।'
उसी समय आकाशवाणी हुई 'यह सत्य है।'
तब राजा भी मुनि की बात मान गया।
राजवाहन का जन्म
गर्भ के दिन पूरे होने पर वसुमति ने अच्छे मुहूर्त में सकल लक्षणों से युक्त पुत्र को जन्म दिया। ब्रह्मतेजस से पूर्ण ब्राह्मण पुरोहित से, राजा ने अपने आभूषण और कोमल वस्त्र पहनाकर अपने सुकुमार कुमार का जातकर्म संस्कार कराया और उस शोभनीय का नाम राजवाहन रखा।
प्रमति, मित्रगुप्त, मन्त्रगुप्त और विश्रुत का जन्म
उसी समय सुमति, सुमन्त्र, सुमित्र और सुश्रुत इन चारों अमात्यों के भी चन्द्रमा जैसे सुन्दर और चिरायु पुत्र जन्मे। इनके नाम प्रमति, मित्रगुप्त, मन्त्रगुप्त और विश्रुत रखे गए। इन मन्त्रिपुत्रों के साथ खेलता हुआ राजकुमार राजवाहन बड़ा होने लगा।
उपहारवर्मा का लाया जाना
कुछ समय बाद एक तपस्वी राजलक्षण युक्त एक मनोहर सुकुमार कुमार को लाया । उसने उसे राजा को समर्पित करते हुए कहा हे भूवल्लभ ! मैं वन में कुश समिधा लेने गया था। वहाँ मैंने एक असहाय रोती हुई स्त्री को देखा। मैंने पूछा तुम वन में क्यों रोती हो? तब वह करकमल से आँसू पोंछ कर गद्गद स्वर से कहने लगी: मुने! कामदेव के रूप को पराजित करने वाले मिथिला के राजा अपने सारे परिवार के साथ अपने मित्र मगधराज की स्त्री के सीमंतोत्सव में सम्मिलित होने पुष्पपुर गए थे उसी बीच मालवराज ने आक्रमण करके मगध को जीत लिया। मगधराज की सहायता करते हुए मिथिला के राजा प्रहारवर्मा शत्रु द्वारा पकड़े गए। पुण्यबल से वहाँ से छूटकर बची-खुची सेना लेकर अपने नगर की ओर चल दिए। वनमार्ग में जाते समय शबरों के प्रचण्ड दल ने उन्हें घेर लिया। अन्तःपुर की स्त्रियों की रक्षा करते हुए वे किसी प्रकार बचकर निकल गए। राजा के दोनों बच्चों की धाएँ, मैं और मेरी लड़की, तेज़ी से राजा के साथ नहीं जा सकीं। तभी एक विकराल व्याघ्र आ गया। मैं भागने लगी। ठोकर खाकर गिरने से मेरे हाथ से उन जुड़वां बच्चों में से एक फिसलकर मरी हुई कपिला गाय की गोद में छिप गया। व्याघ्र क्रोध से उस मरी हुई गाय पर झपटना ही चाहता था कि शबर आ गए और उन्होंने बाण व्याघ्र को मार डाला। वे उस चंचल केश वाले बालक को उठाकर न जाने कहाँ ले गए। दूसरे बालक को लेकर मेरी लड़की न जाने कहाँ चली गई। मैं मूर्च्छित पड़ी थी। कोई दयालु चरवाहा उधर से निकला। मुझे देखकर घर ले जाकर उसने मरहम-पट्टी की मैं अब स्वस्थ हूँ। राजा के पास जाना चाहती हूँ परन्तु लड़की खो गई है, और मैं दुखियारी अब अकेली रह गई हूँ। जो कुछ भी हो, मैं अकेली स्वामी के पास जाती हूँ।
यह कहकर वह तो चली गई परन्तु मैं आपके मित्र विदेहराज की आपत्ति से दुःखी हो गया। मैं उनके वंश के नए अंकुर की खोज में चल पड़ा। यही एक दिन में एक सुन्दर चण्डिका मन्दिर में पहुँचा। वहाँ मैंने देखा कि किरात विजयोत्सव मना रहे थे। वे एक बालक की बलि देने के बारे में बातें करते हुए आपस में कह रहे थे इसे वृक्ष की शाखा से लटकाकर तलवार से काटा जाए, या बालू में गढ़ा खोद पाँव बाँधकर पैने बाण से मार दिया जाए, या कई चरणों पर भागते पिल्लों से इसे कटवाकर बलि दिया जाए। मैंने सुना और कहा हे किरात श्रेष्ठो! इस भयानक वन में मैं बूढ़ा ब्राह्मण रास्ता भूल गया हूँ। अपने बालक को छाया में सुलाकर मैं रास्ता खोजने कुछ दूर गया था कि लौटने पर मुझे वह बालक नहीं मिला। पता नहीं उसे कौन उठा ले गया। ढूंढ-ढूँढ़कर हार गया, पर उसे नहीं पा रहा हूँ। उसका मुँह देखे कितने ही दिन बीत गए। क्या करूँ? किधर जाऊँ? आप लोगों ने उसे देखा तो नहीं है।
'मेरी बात सुनकर उन्होंने कहा हे द्विजश्रेष्ठ ! एक बालक यहाँ है। वही तो तुम्हारा नहीं है? हो तो तुम्हीं ले लो।'
'भगवान की दया से उन्होंने बालक मुझे दे दिया। मैंने उन्हें आशीर्वाद दिया और बालक को पानी के छींटे देकर होश में लाकर आपके निश्शङ्क अङ्क में ले आया हूँ। आप ही पिता की तरह अब इसकी रक्षा करें।'
राजा ने मित्र की विपत्ति की दारुण व्यथा को बालक का मुख देखकर दूर किया। और बालक का नाम उपहारवर्मा रखकर उसे भी वह राजवाहन की तरह पालने-पोसने लगा।
अपहारवर्मा की प्राप्ति
पर्व निकट आने पर राजा तीर्थस्थान को शबरों के ग्राम के समीप गया। वहाँ एक स्त्री की गोद में उसने एक अनुपम सुन्दर बालक देखकर कौतूहल से पूछाः 'ऐ भामिनी ! इतना सुन्दर और राजगुण सम्पन्न बालक तुम्हारे कुल में नहीं हो सकता। यह किसके नयनों का दुलारा है, तुम्हारे पास कहाँ से आया, सच सच बता दो।'
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शबरी ने प्रणाम करके लज्जा से कहा हे राजन्! जब शबर सेना हमारे गाँव के पास मार्ग से जाते इन्द्र जैसे मिथिलाधिपति को लूटकर आई थी तब मेरे पति ने इसे मुझे लाकर दिया था। मैंने ही इसे पाल-पोसकर बड़ा किया है।'
राजा ने समझ लिया कि मुनि ने जिस दूसरे बच्चे की बात कही थी, वह यही है। उसने साम-दाम से शबरी को प्रसन्न कर दिया और बालक ले आया। उसका नाम उसने अपहारवर्मा रखकर रानी को पालन करने को दे दिया।
पुष्पोद्भव का आ पहुँचना
वामदेव का एक शिष्य था। उसका नाम था सोमदेव शर्मा वह एक बालक को ले आया और राजा से बोला मैं रामतीर्थ में स्नान करके लौट रहा था तो मैंने इस गोरे बालक को गोद में लिए एक वृद्धा को देखा। मैंने उससे बड़े आदर से पूछा हे स्थविरे! तुम कौन हो और इतने कष्ट पाकर भी इस बालक को वन में लिए क्यों घूम रही हो?
वृद्धा ने कहा: 'हे मुनिवर ! कालयवन नामक द्वीप में कालगुप्त नामक एक धनिक वैश्य है। उसकी एक सुशोभना सुवृत्ता नामक लड़की है। मगध राजा के मंत्री के पुत्र रत्नोद्भव ने उससे विवाह किया। बड़ा गुणवान, सारी पृथ्वी पर घूमा हुआ रत्नोद्भव समुद्र- व्यापार करता हुआ द्वीप में पहुँच गया। श्वसुर ने उसे काफी अच्छी चीजें और धन देकर सम्मानित किया। कालक्रम से वह नताङ्गी गर्भिणी हुई। रत्नोद्भव को भाइयों को देखने की इच्छा हुई। श्वसुर को मनाकर वह इस चंचल नेत्र वाली स्त्री को साथ लेकर नौका पर सवार होकर पुष्पपुर की ओर चला दुर्भाग्य से लहरों की चोट से नाव समुद्र में डूब गई। गर्भ की पीड़ा से थकी हुई सुवृत्ता को मैं, उसकी धाय ने सम्भाला और किसी तरह एक पटरे पर चढ़ाकर तीर पहुँचा दिया। रत्नोद्भव का कुछ पता नहीं चला। प्रसव की घोर पीड़ा उठी । सुवृत्ता ने बालक को वन में ही जन्म दिया। वह अचेत सी वृक्ष की छाया में पड़ी है। पर निर्जन वन में कब तक अकेली रहेगी! मैं इसीलिए नगर का मार्ग खोजने निकली हूँ। उस बेबस के पास बच्चा छोड़ना ठीक न समझकर में कुमार को ले आई हूँ।'
तभी वन में एक जंगली हाथी दिखाई पड़ा। उसे देखकर वह वृद्धा डर के मारे बालक छोड़कर भाग गई। मैं एक लता के पत्तों में छिपकर बैठ गया। ऊँचे हाथी ने सूण्ड फैलाकर उस बच्चे को ज्योंही खाने के पत्तों की तरह उठाना चाहा कि भयंकर गर्जन करता हुआ एक सिंह उसी समय उसपर वेग से झपटा। हाथी ने डरकर बच्चा ऊपर उछाल दिया। किन्तु बालक का भाग्य अच्छा था। उसे धरती पर गिरने के पहले ही एक ऊँचे वृक्ष की शाखा पर बैठे बन्दर ने फल समझकर पकड़ लिया और फल न देखकर एक मोटी डाल पर रख दिया। बालक स्वस्थ था। सारे झटके झेल गया। सिंह तो हाथी को मारकर चला गया। मैं भी लताकुञ्ज से निकला और इस तेजस्वी बालक को नीचे उतारा। वन में ढूँढ़ने पर भी वह स्त्री नहीं मिली। तब मैंने बालक को गुरु को समर्पित किया। उन्हीं की आज्ञा से अब उसे आपके पास लाया हूँ।'
राजा ने सोचा कि भाग्य भी विचित्र है। सब मित्रों पर एकसाथ ही आपत्ति आई। रत्नोद्भव का जाने क्या हुआ होगा। जो हो। उसने बालक का नाम पुष्पोदभव रखा और सुश्रुत को सारी कथा सुनाई और उसको उसके छोटे भाई का लड़का सौंप दिया।
यक्षी का अर्थपाल को पहुँचाना
कुछ दिन बीते कि रानी वसुमति पति के पास आई तो छाती से एक बच्चा लगा लाई । राजा ने पूछा 'यह कहाँ मिला?'
रानी ने कहा हे राजन! रात एक दिव्य वनिता मेरे सामने आई और उसने इस बालक को मेरे सामने रखकर, मुझे सोते से जगाकर विनीत भाव से कहा देवी! मैं मणिभद्र यक्ष की पुत्री तारावली हूँ। तुम्हारे मन्त्री धर्मपाल के पुत्र कामपाल की स्त्री हूँ। यक्षेश्वर ने आज्ञा दी है, इसीलिए आपके पुत्र राजवाहन की सेवा करने को मैं इसे लाई हूँ। यह राजवाहन समुद्रों से घिरी पृथ्वी का अधिपति होगा। इसलिए तुम मेरे कामदेव जैसे सुन्दर बालक का पालन करो, यह राजवाहन की सेवा करेगा।
'मेरे नेत्र आश्चर्य से खुले रह गए। मैंने बड़े आदर से उस सुलोचना यक्षी का सत्कार किया। तभी वह अदृश्य हो गई।'
राजहंस को इससे बड़ा आश्चर्य हुआ कि कामपाल ने यक्ष कन्या से सम्बन्ध कर लिया। फिर मित्रों का मनोरंजन करने वाले सुमन्त्र अमात्य को बुलाकर बालक को उसे सौंप दिया। इस बालक का नाम अर्थपाल रखा गया।
सोमदत्त का आना
वामदेव के आश्रम में एक और भी शिष्य था। वह भी एक दिन बहुत ही अपरूप सुन्दर बालक ले आया और राजा राजहंस से बोला 'हे देव! मैं राजतीर्थ में स्नान करने गया था। वहाँ मैंने इस चंचल बालक को गोद में लिए एक वृद्धा को रोते देखा। मैंने उससे पूछा : हे स्थविरे! तुम कौन हो? क्यों रोती हो? यह सुन्दर बालक किसका है? वन में क्यों आई हो ?
'बुढ़िया ने यह सुनकर हाथों से आँसू पोंछकर, मुझे शोक निवारण करने में समर्थ जानकर कहा हे ब्राह्मणपुत्र ! राजहंस के मन्त्री सितवर्मा का छोटा पुत्र सत्यवर्मा तीर्थयात्रा की अभिलाषा से विदेश गया था। किसी अग्रहार' में काली नामक किसी ब्राह्मण कन्या से विवाह करके रहा। जब उससे सन्तान नहीं हुई तो उसने उस काली की स्वर्ण जैसे रंग की बहिन गौरी से विवाह किया। उससे एक लड़का हुआ। काली ईर्ष्या से जल उठी। वह मुझे बालक के साथ बहाने इस नदी के पास लाई और इसमें धक्का देकर चली गई। मैंने एक हाथ से बालक को पकड़ा और दूसरे से तैरती रही धारा में बहता एक पेड़ मेरे हाथ में पड़ गया। मैं भी बहाव में पड़ गई। पर उस वृक्ष पर एक साँप बैठा था, जिसने मुझे डस लिया । वृक्ष यहीं आकर किनारे से लग गया। मैं किनारे पर चढ़ आई। पर अब विष चढ़ रहा है और मैं मर जाऊँगी। तब इस बालक को वनपशुओं से कौन बचाएगा। यही सोचकर रो रही हूँ।
'बमुश्किल इतना कह पाई कि विष पूरा चढ़ जाने से पृथ्वी पर गिर पड़ी। मुझे दया आई पर मैं मन्त्र नहीं जानता था अतः असमर्थ रह गया। जब तक वन की बूटी खोजकर ला सका, वह मर गई । उसका अग्निसंस्कार करके बालक की मैंने रक्षा की। परन्तु सत्यवर्मा की चर्चा में मैं उससे उसके अग्रहार का नाम नहीं पूछ सका था। खोजना असम्भव जानकर मैं इसे आपके ही अमात्य का लड़का है, आप ही रक्षा करेंगे, ऐसा सोचकर आपके पास ले आया हूँ।
सत्यवर्मा की असली हालत का पता नहीं लगा। राजा इससे दुःखी हुआ। राजा ने उस बालक का नाम सोमदत्त रखकर उसे उसके ताऊ सुमति मन्त्री के हाथों सौंप दिया। भाई के बेटे को भाई-सा ही जानकर सुमति बहुत प्रसन्न हुआ।
लालन-पालन और शिक्षा
इस प्रकार दसों बच्चे इकट्ठे हो गए, दैव ने उन्हें मिला दिया। राजवाहन उनके साथ खेलने लगा। राजवाहन तरह-तरह के वाहनों पर चढ़ने में निपुण हो गया। उसका क्रमशः चौल और उपनयन आदि संस्कार हुआ। फिर उसने सब लिपियाँ सीख लीं। सब देशों की भाषाओं में वह पण्डित हो गया। षडङ्गवेद, काव्य, नाटक, आख्यानक, आख्यायिका, इतिहास, चित्रकला, पुराण, धर्म, शब्द (व्याकरण), ज्योतिष, मीमांसा, तर्क तथा कौटिल्य और कामन्दकीय नीतिशास्त्र की निपुणता, वीणा आदि सब वाद्यों को बजाने का कौशल, संगीत साहित्य में मनोहरता लाना, मणिमन्त्र, औषधि आदि के माया-प्रपंच आदि में प्रसिद्धि, हाथी घोड़ों पर चढ़ने का कौशल, तरह-तरह के हथियार चलाने का यश, जूआ और चोरी आदि छल विद्याओं में प्रौढ़ता को वह आलस्य रहित होकर प्राप्त कर गया।
कुमारों का युवक होना
आचार्यों से यों पढ़ता हुआ जब वह युवक हो गया तो उसके साथ के सन्नद्ध कुमारों का देखकर राजा राजहंस प्रसन्न हो उठा। उसने सोचा कि अब वह शत्रुओं से अजेय हो गया था। उसको परमानन्द होने लगा।
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