मनुष्य रूप में
देवता
एक दिन एक जिज्ञासु सत्संग के लिए महर्षि वेदव्यास के आश्रम में पहुँचे।
बातचीत के दौरान एक सद्गृहस्थ श्रद्धालु ने उनसे प्रश्न किया, महर्षि, क्या मनुष्य भी किन्हीं उपायों से देवत्व प्राप्त कर सकता है ? वेदव्यासजी ने उत्तर दिया, जो व्यक्ति अपना जीवन धर्मानुसार बिताता है, सद्गुणों -सद्वृत्तियों को अपना लेता है, वह मनुष्य रूप में देवता ही माना जाता है ।
सत्यवादी, जितेंद्रिय, दयालु, क्षमाशील, मृदुभाषी, लोभहीन, तपस्वियों व अतिथियों का सम्मान करनेवाला
व्यक्ति एक प्रकार से देवता ही तो है । जिसका जीवन सत्संग, व्रत, यज्ञ, स्वाध्याय आदि में व्यतीत होता है, जिसका प्रत्येक दिन सत्कर्मों में बीतता है, उसे मनुष्य रूपी देवता मानना चाहिए । जो मनुष्य
दुर्गुणों से मुक्त हो, नीतिशास्त्र के तत्त्व को जानने वाला हो और संतुष्ट रहता हो, वह देवस्वरूप है ।
वेदव्यासजी ने कुछ क्षण रुककर कहा, विश्वासघाती, कृतघ्न, व्रत का
उल्लंघन करनेवाला, दुराचारी, मदिरापान करनेवाला व जुआ खेलनेवाला, पाखंडियों और दुर्व्यसनियों के संग रहनेवाला
प्राणी मनुष्य के वेश में असुर है । जो दीनों और अनाथों को पीड़ा पहुँचाता है, निरीह जीव -जंतुओं की हत्या करता है, उसे पृथ्वी पर भार ही मानना चाहिए । ऐसे
दुर्गुण से युक्त व्यक्ति पृथ्वी का सर्वनाश करने के पाप के भागी बनते हैं, इसलिए सदैव सत्कर्मों में प्रवृत्त रहकर और
सदाचार का पालन करके कोई भी व्यक्ति देवत्व प्राप्त कर सकता है ।
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