त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः
तक्षक का धन देकर काश्यप को
लौटा देना और छल से राजा परीक्षित के समीप पहुँच कर उन्हें डँसना
तक्षक उवाच
यदि दष्टं मयेह त्वं शक्तः
किंचिच्चिकित्सितुम् ।
ततो वृक्षं मया दष्टमिमं
जीवय काश्यप ॥ १ ॥
तक्षक बोला - काश्यप ! यदि
इस जगत में मेरे डँसे हुए रोगी की कुछ भी चिकित्सा करने में तुम समर्थ हो तो मेरे
डँसे हुए इस वृक्ष को जीवित कर दो ।। १ ।।
परं मन्त्रबलं यत् ते तद्
दर्शय यतस्व च ।
न्यग्रोधमेनं धक्ष्यामि
पश्यतस्ते द्विजोत्तम ॥ २ ॥
द्विजश्रेष्ठ ! तुम्हारे पास
जो उत्तम मन्त्र का बल है,
उसे दिखाओ और यत्न करो। लो, तुम्हारे
देखते-देखते इस वट वृक्ष को मैं भस्म कर देता हूँ ।। २ ।।
काश्यप उवाच
दश नागेन्द्र वृक्षं त्वं
यद्येतदभिमन्यसे ।
अहमेनं त्वया दष्टं
जीवयिष्ये भुजङ्गम ॥ ३ ॥
काश्यप ने कहा – नागराज ! यदि तुम्हें इतना अभिमान है तो इस वृक्ष को डँसो । भुजंगम!
तुम्हारे डँसे हुए इस वृक्ष को में अभी जीवित कर दूँगा ।। ३ ।।
सौतिरुवाच
एवमुक्तः स नागेन्द्रः
काश्यपेन महात्मना ।
अदशद् वृक्षमभ्येत्य
न्यग्रोधं पन्नगोत्तमः ॥ ४॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं-
महात्मा काश्यप के ऐसा कहने पर सर्पों में श्रेष्ठ नागराज तक्षक ने निकट जा कर
बरगद के वृक्ष को डँस लिया ।। ४ ।।
स वृक्षस्तेन दष्टस्तु
पन्नगेन महात्मना ।
आशीविषविषोपेतः प्रजज्वाल
समन्ततः ।। ५ ।।
उस महाकाय विषधर सर्प के
हँसते ही उसके विष से व्याप्त हो वह वृक्ष सब ओर से जल उठा ।। ५॥
तं दग्ध्वा स नगं नागः
काश्यपं पुनरब्रवीत् ।
कुरु यत्नं द्विजश्रेष्ठ
जीवयैनं वनस्पतिम् ॥ ६॥
इस प्रकार उस वृक्ष को जलाकर
नागराज पुनः काश्यप से बोला- 'द्विजश्रेष्ठ ! अब तुम यत्न करो
और इस वृक्ष को जिला दो' ।। ६ ।।
सौतिरुवाच
भस्मीभूतं ततो वृक्षं
पन्नगेन्द्रस्य तेजसा ।
भस्म सर्वं समाहृत्य काश्यपो
वाक्यमब्रवीत् ।। ७ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं— शौनकजी ! नागराजके तेजसे भस्म हुए उस वृक्षकी सारी भस्मराशिको एकत्र करके
काश्यपने कहा- ॥७॥
विद्याबलं पन्नगेन्द्र पश्य
मेऽद्य वनस्पती ।
अहं संजीवयाम्येनं पश्यतस्ते
भुजङ्गम ।। ८॥
'नागराज! इस
वनस्पतिपर आज मेरी विद्याका बल देखो। भुजंगम ! मैं तुम्हारे देखते- देखते इस
वृक्षको जीवित कर देता हूँ' ॥ ८ ॥
ततः स भगवान् विद्वान्
काश्यपो द्विजसत्तमः ।
भस्मराशीकृतं वृक्षं विद्यया
समजीवयत् ।। ९ ।
तदनन्तर सौभाग्यशाली
विद्वान् द्विजश्रेष्ठ काश्यपने भस्मराशिके रूपमें विद्यमान उस वृक्षको विद्याके
बलसे जीवित कर दिया ।। ९ ।।
अङ्कुरं कृतवांस्तत्र ततः
पर्णद्वयान्वितम् ।
पलाशिनं शाखिनं च तथा
विटपिनं पुनः ।। १० ।।
पहले उन्होंने उसमेंसे अंकुर
निकाला,
फिर उसे दो पत्तेका कर दिया। इसी प्रकार क्रमशः पल्लव, शाखा और प्रशाखाओंसे युक्त उस महान् वृक्षको पुनः पूर्ववत् खड़ा कर दिया
।। १० ।।
तं दृष्ट्वा जीवितं वृक्षं
काश्यपेन महात्मना ।
उवाच तक्षको ब्रह्मन्
नैतदत्यद्भुतं त्वयि ।। ११ ।।
महात्मा काश्यपद्वारा जिलाये
हुए उस वृक्षको देखकर तक्षकने कहा- 'ब्रह्मन् ! तुम-
जैसे मन्त्रवेत्तामें ऐसे चमत्कारका होना कोई अद्भुत बात नहीं है ।। ११ ।।
द्विजेन्द्र यद् विषं हन्या
मम वा मद्विधस्य वा ।
कं त्वमर्थमभिप्रेप्सुर्यासि
तत्र तपोधन ।। १२ ।।
'तपस्याके धनी
द्विजेन्द्र ! जब तुम मेरे या मेरे जैसे दूसरे सर्पके विषको अपनी विद्याके बलसे
नष्ट कर सकते हो तो बताओ, तुम कौन-सा प्रयोजन सिद्ध करनेकी
इच्छासे वहाँ जा रहे हो ।। १२ ।।
यत् तेऽभिलषितं प्राप्तुं
फलं तस्मान्नृपोत्तमात् ।
अहमेव प्रदास्यामि तत् ते
यद्यपि दुर्लभम् ।। १३ ॥
'उस श्रेष्ठ राजासे
जो फल प्राप्त करना तुम्हें अभीष्ट है, वह अत्यन्त दुर्लभ हो
तो भी मैं ही तुम्हें दे दूँगा ।। १३ ।।
विप्रशापाभिभूते च
क्षीणायुषि नराधिपे ।
घटमानस्य ते विप्र सिद्धिः
संशयिता भवेत् ।। १४ ।।
'विप्रवर! महाराज
परीक्षित् ब्राह्मणके शापसे तिरस्कृत हैं और उनकी आयु भी समाप्त हो चली है। ऐसी
दशामें उन्हें जिलानेके लिये चेष्टा करनेपर तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी, इसमें संदेह है ।। १४ ।।
ततो यशः प्रदीप्तं ते त्रिषु
लोकेषु विश्रुतम् ।
निरंशुरिव
घर्मांशुरन्तर्धानमितो व्रजेत् ।। १५ ।।
'यदि तुम सफल न हुए
तो तीनों लोकोंमें विख्यात एवं प्रकाशित तुम्हारा यश किरणरहित सूर्यके समान इस
लोकसे अदृश्य हो जायगा' ।। १५ ।।
काश्यप उवाच
धनार्थी याम्यहं तत्र तन्मे
देहि भुजङ्गम ।
ततोऽहं विनिवर्तिष्ये
स्वापतेयं प्रगृह्य वै ।। १६ ।
काश्यपने कहा—नागराज तक्षक! मैं तो वहाँ धनके लिये ही जाता हूँ, वह
तुम्हीं मुझे दे दो तो उस धनको लेकर मैं घर लौट जाऊँगा ।। १६ ।।
तक्षक उवाच
यावद्धनं प्रार्थयसे तस्माद्
राज्ञस्ततोऽधिकम् ।
अहमेव प्रदास्यामि निवर्तस्व
द्विजोत्तम । १७ ॥
तक्षक बोला – द्विजश्रेष्ठ ! तुम राजा परीक्षित्से जितना धन पाना चाहते हो, उससे अधिक मैं ही दे दूँगा, अतः लौट जाओ ।। १७ ।।
सौतिरुवाच
तक्षकस्य वचः श्रुत्वा
काश्यपो द्विजसत्तमः ।
प्रदध्यी सुमहातेजा राजानं
प्रति बुद्धिमान् ।। १८ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं— तक्षककी बात सुनकर परम बुद्धिमान् महातेजस्वी विप्रवर काश्यपने राजा
परीक्षित्के विषयमें कुछ देर ध्यान लगाकर सोचा ।। १८ ।।
दिव्यज्ञानः स तेजस्वी
ज्ञात्वा तं नृपतिं तदा ।
क्षीणायुषं पाण्डवेयमपावर्तत
काश्यपः ।। १९ ॥
लब्ध्वा वित्तं
मुनिवरस्तक्षकाद् यावदीप्सितम् ।
निवृत्ते काश्यपे तस्मिन्
समयेन महात्मनि ।। २० ।।
जगाम तक्षकस्तूर्णं नगरं
नागसाह्वयम् ।
अथ शुश्राव गच्छन् स तक्षको
जगतीपतिम् ।। २१ ।।
मन्त्रैर्गदैर्विषहरे
रक्ष्यमाणं प्रयत्नतः ।
तेजस्वी काश्यप दिव्य
ज्ञानसे सम्पन्न थे। उस समय उन्होंने जान लिया कि पाण्डववंशी राजा परीक्षित्की आयु
अब समाप्त हो गयी है,
अतः वे मुनिश्रेष्ठ तक्षकसे अपनी रुचिके अनुसार धन लेकर वहाँसे लौट
गये। महात्मा काश्यपके समय रहते लौट जानेपर तक्षक तुरंत हस्तिनापुर नगरमें जा
पहुँचा। वहाँ जानेपर उसने सुना, राजा परीक्षित्की मन्त्रों तथा
विष उतारनेवाली ओषधियोंद्वारा प्रयत्नपूर्वक रक्षा की जा रही है ।। १९ - २१६ ॥
सौतिरुवाच
स चिन्तयामास तदा मायायोगेन
पार्थिवः ।। २२ ।।
मया वञ्चयितव्योऽसौ क उपायो
भवेदिति ।
ततस्तापसरूपेण प्राहिणोत् स
भुजङ्गमान् ।। २३ ।।
फलदर्भोदकं गृह्य राज्ञे
नागोऽथ तक्षकः ।
उग्रश्रवाजी कहते हैं— शौनकजी ! तब तक्षकने विचार किया, मुझे मायाका आश्रय
लेकर राजाको ठग लेना चाहिये; किंतु इसके लिये क्या उपाय हो?
तदनन्तर तक्षक नागने फल, दर्भ (कुशा) और जल
लेकर कुछ नागोंको तपस्वीरूपमें राजाके पास जानेकी आज्ञा दी ।। २२-२३ ।।
तक्षक उवाच
गच्छध्वं यूयमव्यग्रा राजानं
कार्यवत्तया ॥ २४ ॥
फलपुष्पोदकं नाम
प्रतिग्राहयितुं नृपम् ।
तक्षकने कहा—तुमलोग कार्यकी सफलताके लिये राजाके पास जाओ, किंतु
तनिक भी व्यग्र न होना। तुम्हारे जानेका उद्देश्य है - महाराजको फल, फूल और जल भेंट करना ।। २४६६ ।।
सौतिरुवाच
ते तक्षकसमादिष्टास्तथा
चक्रुर्भुजङ्गमाः ।। २५ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं— तक्षकके आदेश देनेपर उन नागोंने वैसा ही किया ।। २५ ।।
उपनिन्युस्तथा राज्ञे
दर्भानापः फलानि च ।
तच्च सर्वं स राजेन्द्रः
प्रतिजग्राह वीर्यवान् ।। २६ ।।
वे राजाके पास कुश, जल और फल लेकर गये। परम पराक्रमी महाराज परीक्षित्ने उनकी दी हुई वे सब
वस्तुएँ ग्रहण कर लीं ।। २६ ।।
कृत्वा तेषां च कार्याणि
गम्यतामित्युवाच तान् ।
गतेषु तेषु नागेषु
तापसच्छद्मरूपिषु ।। २७ ।।
अमात्यान् सुहृदश्चैव
प्रोवाच स नराधिपः ।
भक्षयन्तु भवन्तो वै
स्वादूनीमानि सर्वशः ।। २८ ।
तापसैरुपनीतानि फलानि सहिता
मया ।
ततो राजा ससचिवः
फलान्यादातुमैच्छत ।। २९ ।।
तदनन्तर उन्हें पारितोषिक
देने आदिका कार्य करके कहा- 'अब आपलोग जायँ ।' तपस्वियोंके वेषमें छिपे हुए उन नागोंके चले जानेपर राजाने अपने
मन्त्रियों और सुहृदोंसे कहा - 'ये सब तपस्वियोंद्वारा लाये
हुए बड़े स्वादिष्ठ फल हैं। इन्हें मेरे साथ आपलोग भी खायँ।' ऐसा कहकर मन्त्रियोंसहित राजाने उन फलोंको लेनेकी इच्छा की ।। २७–२९ ।।
विधिना सम्प्रयुक्तो वै
ऋषिवाक्येन तेन तु ।
यस्मिन्नेव फले
नागस्तमेवाभक्षयत् स्वयम् ।। ३० ।।
विधाताके विधान एवं महर्षिके
वचनसे प्रेरित होकर राजाने वही फल स्वयं खाया, जिसपर तक्षक नाग
बैठा था ।। ३० ।।
ततो भक्षयतस्तस्य फलात्
कृमिरभूदणुः ।
ह्रस्वकः
कृष्णनयनस्ताम्रवर्णोऽथ शौनक ।। ३१ ।।
शौनकजी! खाते समय राजा के
हाथमें जो फल था,
उससे एक छोटा-सा कीट प्रकट हुआ। देखने में वह अत्यन्त लघु था,
उसकी आँखें काली और शरीर का रंग ताँबे के समान था ।। ३१ ।।
सतं गृह्य नृपश्रेष्ठः
सचिवानिदमब्रवीत् ।
अस्तमभ्येति सविता विषादद्य
न मे भयम् ।। ३२ ।।
नृपश्रेष्ठ परीक्षितने उस
कीड़ेको हाथमें लेकर मन्त्रियोंसे इस प्रकार कहा - 'अब | सूर्यदेव अस्ताचलको जा रहे हैं; इसलिये इस समय मुझे
सर्पके विषसे कोई भय नहीं है ।। ३२ ।।
सत्यवागस्तु स मुनिः
कृमिर्मां दशतामयम् ।
तक्षको नाम भूत्वा वै तथा
परिहृतं भवेत् ॥ ३३ ॥
'वे मुनि सत्यवादी
हों, इसके लिये यह कीट ही तक्षक नाम धारण करके मुझे डँस ले।
ऐसा करने से मेरे दोषका परिहार हो जायगा ।। ३३ ।।
ते चैनमन्ववर्तन्त मन्त्रिणः
कालचोदिताः ।
एवमुक्त्वा स राजेन्द्रो
ग्रीवायां संनिवेश्य ह ।। ३४ ।।
कृमिकं प्राहसत् तूर्णं
मुमूर्षुर्नष्टचेतनः ।
प्रहसन्नेव भोगेन तक्षकेण
त्ववेष्ट्यत ॥ ३५ ॥
तस्मात् फलाद् विनिष्क्रम्य
यत् तद् राज्ञे निवेदितम् ।
वेष्टयित्वा च वेगेन विनद्य
च महास्वनम् ।
अदशत् पृथिवीपालं तक्षकः
पन्नगेश्वरः ।। ३६ ॥
कालसे प्रेरित होकर
मन्त्रियोंने भी उनकी हाँ में हाँ मिला दी । मन्त्रियोंसे पूर्वोक्त बात कह कर
राजाधिराज परीक्षित् उस लघु कीटको कंधेपर रखकर जोर-जोर से हँसने लगे। वे तत्काल ही
मरनेवाले थे;
अतः उनकी बुद्धि मारी गयी थी। राजा अभी हँस ही रहे थे कि उन्हें जो
निवेदित किया गया था उस फलसे निकलकर तक्षक नागने अपने शरीरसे उनको जकड़ लिया। इस
प्रकार वेगपूर्वक उनके शरीरमें लिपटकर नागराज तक्षकने बड़े जोरसे गर्जना की और
भूपाल परीक्षित्को डँस लिया ।। ३४–३६ ।।
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि
आस्तीकपर्वणि तक्षकदंशे त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके
अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें तक्षक दंशनविषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ४३ ।।
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