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संका समाधान



 क्या एलियंस होते है? - वेद विज्ञान

एलियंस होते है? - वेद विज्ञान

    क्या एलियंस होते है? हिन्दू धर्म का एलियंस के बारे में क्या कहना है? जब लोग एलियंस की कल्पना करते हैं, तो वे आम तौर पर विज्ञान की कल्पना पर आधारित फिल्मों में जो देखते हैं उसके बारे में सोचते हैं। लेकिन, हम आपको हिंदू ग्रंथों में वर्णित सिद्धांतों के आधार पर, इस प्रश्न का उत्तर देंगे।

    हमारे पास एक पृथ्वी ग्रह और एक सौर मंडल है, और इनमें किसी न किसी शरीर में आत्माएं रहती हैं। लेकिन, क्योंकि आत्माओं की संख्या असीमित है, इस बात को वेद ने इस प्रकार कहा-

एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नातः परं वेदितव्यं हि किञ्चित्।

भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत्॥१२॥

- श्वेताश्वतर उपनिषद् १.१२

अर्थात्:- तीन तत्व है। अनादि अनंत शाश्वत। एक ब्रह्म, एक जीव, एक माया।

    तो आत्मा अनंत है। अतएव वे सभी एक ग्रह प्रणाली (one planetary system) में एक साथ मौजूद नहीं हो सकते हैं। अतएव अनंत ब्रह्माण्ड की आवश्यकता होगी।

    वेद अनुसार भगवान ने इस ब्रह्माण्ड को प्रकट किया है, पृथ्वी ग्रह पर आत्मा को मनुष्य शरीर में जन्म देने का मौका दिया। जिसका मुख्य उद्देश्य यह है कि मनुष्य कर्म कर सकें, भगवान के बारे में जानें और जिस आनंद, सुख, शांति, प्यार को चाहता है वो उसे मिल सके। अतएव भगवान ने अनंत ब्रह्माण्ड बनाये क्योंकि अनंत आत्माएं है। अगर अनंत ब्रह्माण्ड नहीं होंगे तो फिर आत्मा मनुष्य शरीर नहीं प्राप्त कर पायेगा। वेद कहता है कि एक मात्र मनुष्य शरीर में ही कर्म करने का अधिकार है। इस वक्त हम जिस ब्रह्माण्ड में है यह सबसे छोटा ब्रह्माण्ड है। इससे भी अनंत बड़े ब्रह्माण्ड है, तथा उनमें भी अनंत पृथ्वी है। इस बारे में वेद तथा पुराण इस प्रकार कहते है -

स एव काले भुवनस्य गोप्ता विश्वाधिपः सर्वभूतेषु गूढः।

यस्मिन् युक्ता ब्रह्मर्षयो देवताश्च तमेवं ज्ञात्वा मृत्युपाशांश्छिनत्ति॥१५॥

- श्वेताश्वतर उपनिषद् ४.१५

    अर्थात्:- वही समय पर समस्त ब्रह्माण्डों की रक्षा करने वाला, समस्त जगत का आधिपति (और) समस्त प्राणियों में छिपा हुआ है। जिसमें वेदज्ञ महर्षिगण और देवता लोग भी ध्यान द्वारा संलग्न हैं, उस (परमदेव परमेश्वर) को इस प्रकार जानकर (मनुष्य) मृत्यु के बंधनों को काट डालता है।

सप्तद्वीपैः सप्तनाकैः सप्तपातालसंज्ञकैः।

एभिर्लोकैश्च ब्रह्माण्डं ब्रह्माधिकृतमेव च॥१४॥

एवञ्चासंख्यब्रह्माण्डं सर्वं कृत्रिममेव च।

महाविष्णोश्च लोम्नां च विवरेषु च शौनक॥१५॥

- ब्रह्म वैवर्त पुराण खण्डः १ (ब्रह्म खण्ड) अध्याय ०७ १४-१५

    संक्षिप्त भावार्थ:- सात द्वीप, सात स्वर्ग तथा सात पाताल– इन लोकों सहित जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है, वह ब्रह्मा जी के ही अधिकार में है। शौनक! ऐसे-ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और महाविष्णु के रोमांच-विवरों में उनकी स्थिति है।

    अर्थात् वेद पुराण के अनुसार, भगवान ब्रह्माण्ड का शासन करता है, जिसमें ब्रह्माण्डों की असीमित संख्या होती है जहां आत्माएं रहती हैं।

    वे आत्माएं भी वैसे ही हैं जैसे हम (आत्मा) हैं। जो आत्मा के लक्षण हममे है वही उन अनंत जीवों में भी है। जैसे जो परम सुख की इच्छा हमे है वही उनको भी है। उनके मन में वही दोष और माया के गुण हैं जो हमारे में है।

    इसका तातपर्य है कि अगर हम ब्रह्मांड में कहीं और जायेंगे, या शायद किसी अन्य पृथ्वी ग्रह पर पुनर्जन्म ले भी ले, परन्तु हमारी स्थिति बदलेगी नहीं। अर्थात् वही इच्छाओं के साथ जाएंगे, वही मन होगा और वही कर्म-फल भोगना पड़ेगा। जैसे इस पृथ्वी पर भोग रहे है।

    हमारा कहना है कि हिंदू शास्त्रों के मुताबिक, हाँ, ब्रह्माण्ड में अन्य स्थानों में आत्माएं रहती हैं। लेकिन वे आपके जैसे ही हैं और वे हमारे लिए एलियं नहीं हैं - वे हमारी तरह एक ग्रह प्रणाली 

में मौजूद हैं।


संसार क्या है? -भागवत पुराण

    यह संसार क्या है? इसका उत्तर देवताओं ने माता देवकी की गर्भ स्तुति करते वक्त, स्तुति में ही बता था। भागवत पुराण के स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय २ में इसका निरूपण है।

एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूलश्चतूरसः पञ्चविधः षडात्मा।

सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः॥२७॥

- भागवत १०.२.२७

भावार्थ:- यह संसार क्या है -

एक सनातन वृक्ष। इस वृक्ष का आश्रय है - प्रकृति।

इसके दो फल हैं - सुख और दुःख;

तीन जड़ें हैं - सत्त्व, रज और तम;

चार रस हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

इसके जानने के पाँच प्रकार हैं- श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका।

इसके छः स्वभाव हैं - पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना।

इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएँ - रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र।

आठ शाखाएँ हैं - पाँच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार।

इसमें मुख आदि नवों द्वार खोड़र हैं।

प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय - ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं।

इस संसार रूपी वृक्ष पर दो पक्षी हैं - जीव और ईश्वर।

त्वमेक एवास्य सतः प्रसूतिस्त्वं सन्निधानं त्वमनुग्रहश्च।

त्वन्मायया संवृतचेतसस्त्वां पश्यन्ति नाना न विपश्चितो ये॥२८॥

- भागवत १०.२.२८

    भावार्थ:- इस संसार रूप वृक्ष की उत्पत्ति के आधार एकमात्र आप ही हैं। आपमें ही इसका प्रलय होता है और आपके ही अनुग्रह से इसकी रक्षा भी होती है। जिनका चित्त आपकी माया से आवृत हो रहा है, इस सत्य को समझने की शक्ति खो बैठा है - वे ही उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने वाले ब्रह्मादि देवताओं को अनेक देखते हैं। तत्त्वज्ञानी पुरुष तो सबके रूप में केवल आपका ही दर्शन करते हैं।


मन और शरीर पर खाना खाने का क्या प्रभाव पड़ता है? - वेदों के अनुसार

     जो हम खाना खाते है, उसका प्रभाव हमारे मन और शरीर पर पड़ता है। चुकी मन पर प्रभाव पड़ता है इसलिए हमारे स्वभाव पर भी पड़ता है। छान्दोग्योपनिषत् ने विस्तारपूर्वक कहा

अन्नमशितं त्रेधा विधीयते तस्य यः स्थविष्ठो

धातुस्तत्पुरीषं भवति यो मध्यमस्तन्माꣳसं

योऽणिष्ठस्तन्मनः॥

- छान्दोग्योपनिषत् ६.५.१

    भावार्थ :- खाया हुआ अन्न तीन भागों में विभक्त हो जाता है। उसका जो अत्यंत स्थूल भाग होता है वह मल बन जाता है, जो मध्य भाग है वह रस बन जाता है, जो सूक्ष्म भाग है वह मन बन जाता है।

अन्नमय हि सौम्ममन:।

- छान्दोग्योपनिषत् ६.५.४

भावार्थ :- मन अन्नमय (अन्न से बना) है।

    अर्थात् जो भोजन आप खाएंगे उसका प्रभाव मन पर पड़ेगा। इसलिए अन्न की शुद्धता से मन की शुद्धता होती है।

    आहार का उद्देश्य मन को, स्वादेन्द्रिय को तृप्त करना नहीं है, वरन् उसका जीवन की गतिविधियों से गहरा सम्बन्ध है। जिस व्यक्ति का जैसा भोजन होगा उसका आचरण भी तदनुकूल होगा। आहार शुद्धि की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुये छान्दोग्योपनिषत् में लिखा है -

आहार सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा

स्मृतिः स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:

- छान्दोग्योपनिषद्‌ ७.२६.२

    भावार्थ :- जब भोजन शुद्ध होता है, तो मन शुद्ध हो जाता है। जब मन शुद्ध होता है तो मन निर्मल और निश्चयी बनता है। पवित्र और निश्चय मन के द्वारा मनुष्य मोक्ष प्राप्त करते हैं।

शुद्ध दिमाग वाले लोग शुद्ध भोजन पसंद करते हैं।

    अस्तु, यह वेदों का मत है मनुष्य के आहार पर। लेकिन वेद ने सभी को छूट दी है कि जो वो चाहें वो कर सकता है। अतएव आप को शुद्ध शाकाहारी (सात्विक) आहार लेना है या शाकाहारी (राजसी) आहार लेना है या मांसाहारी व वाशी शाकाहारी (तामसी) आहार लेना है यह आप पर निर्भर करता है।

    सात्विक, राजसी तथा तामसी आहार के बारे में अधिक जानने के लिए पढ़े शाकाहार या मांसाहार? वेद और गीता में भोजन के बारे में क्या कहा?

शाकाहार या मांसाहार? वेद और गीता में भोजन के बारे में क्या कहा?

     विश्व में सभी लोग इस बात पर चर्चा करते है कि शाकाहारी रहना सही है, मांसाहारी रहना सही है या दोनों? वेद क्या कहता है और गीता में कृष्ण ने क्या कहा शाकाहारी और मांसाहारी भोजन के बारे में?

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।

सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥

- गीता १७.२

    भावार्थ :- श्री कृष्ण ने कहा - देहधारी जीव द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार उसकी श्रद्धा तीन प्रकार की हो सकती है - सतोगुणी, रजोगुणी अथवा तमोगुणी।

    यह संसार भी इन तीन गुण की माया (त्रिगुणात्मक माया) से बना है। अतएव इस संसार में तीन प्रकार के भोजन भी होंगे।

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।

यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु॥

- गीता १७.७

    भावार्थ :- श्री कृष्ण ने कहा - यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति जो भोजन पसन्द करता है, वह भी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का होता है। यही बात यज्ञ, तपस्या तथा दान के लिए भी सत्य है। अब उनके भेदों के विषय में सुनो।

सात्विक आहार

आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।

रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥

- गीता १७.८

    भावार्थ :- श्री कृष्ण ने कहा - जो भोजन सात्त्विक व्यक्तियों को प्रिय होता है, वह आयु बढ़ाने वाला, जीवन को शुद्ध करने वाला तथा बल, स्वास्थ्य, सुख तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है। ऐसा भोजन रसमय, स्निग्ध (चिकने), स्वास्थ्यप्रद तथा हृदय को भाने वाला होता है।

    आहार (भोजन) का उद्देश्य आयु को बढाना, मस्तिष्क को शुद्ध करना तथा शरीर को शक्ति पहुँचाना है। ऐसे भोजन दीर्घायु को बढ़ावा देते हैं। प्राचीन काल में विद्वान् पुरुष ऐसा भोजन चुनते थे, जो स्वास्थ्य तथा आयु को बढ़ाने वाला हो, यथा दूध के व्यंजन (पनीर, दही इत्यादि), दाल, चीनी, सेम, चावल, गेहूँ, फल, तरकारियाँ (सब्जियां) और अन्य शाकाहारी भोजन शामिल हैं। ऐसे भोजन रसदार, प्राकृतिक रूप से स्वादिष्ट, हल्के और फायदेमंद हैं।

    उपर्युक्त भोजन सात्विक गुण व्यक्तियों को अत्यन्त प्रिय होते हैं क्योंकि ये सात्विक आहार है, इनमे अधिक मिर्च, मसाला इत्यादि नहीं होता। यह भोजन उपभोग के लिए नहीं बनते। अन्य कुछ पदार्थ, जैसे भुना मक्का तथा गुड़ स्वयं रुचिकर न होते हुए भी दूध या अन्य पदार्थों के साथ मिलने पर स्वादिष्ट हो जाते हैं। तब वे सात्विक हो जाते हैं। यह शुद्ध शाकाहारी भोजन (सात्विक भोजन) मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन के लिए भी अनुकूल होते है।

राजसी आहार

कट्‌वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।

आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥

- गीता १७.९

    भावार्थ :- श्री कृष्ण ने कहा - अत्यधिक तिक्त, खट्टे, नमकीन, गरम, चटपटे,शुष्क तथा जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होते हैं। ऐसे भोजन दुख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले हैं।

    जब शाकाहारी भोजन कड़वा, अत्यधिक खट्टा, नमकीन, गर्म, शुष्क, अत्यधिक मिर्च, चीनी, नमक अर्थात् अधिक मसाले आदि के साथ पकाया जाता है तो वे राजसी बन जाते हैं। क्योंकि राजसी गुण वाली चीजें उपभोग के लिए होती है। ऐसे भोजन बीमार स्वास्थ्य और निराशा उत्पन्न करते हैं। यह भोजन खाने में अच्छा तो लगता है लेकिन इसका परिणाम समय-समय पर रोगों के रूप में प्रकट होता है।

तामसी आहार

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।

उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥

- गीता १७.१०

    भावार्थ :- श्री कृष्ण ने कहा - खाने से तीन घंटे पूर्व पकाया गया, स्वादहीन, वियोजित एवं सड़ा, जूठा तथा अस्पृश्य वस्तुओं से युक्त भोजन उन लोगों को प्रिय होता है, जो तामसी होते हैं।

    तामसी भोजन अशुद्ध व वासी होता है वह संदूषण या रोग को बढ़ाने वाला होता है। खाने के तीन घंटे पूर्व बना कोई भी भोजन (भगवान् और सिद्ध गुरु (महापुरुष) को अर्पित (जूठन) प्रसाद को छोड़कर) तामसी माना जाता है। बिगड़ने के कारण उससे दुर्गंध आती है, जिससे तामसी लोग प्रायः आकृष्ट होते हैं। मशरूम, शराब, प्याज, लहसुन आदि, सभी पैकेट में बंद भोजन इस तामसी श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। यहाँ तक की अशुद्ध भोजन अर्थात् तामसी भोजन में सभी प्रकार के मांस उत्पादों को शामिल किया जाता है। अतएव मांसाहार तामसी भोजन है।

    अस्तु, वेद में सब कुछ लिखा है। लेकिन वेद कहता है कि जो आपका उद्देश्य हो, उसके अनुसार वेद ज्ञान को प्राप्त कर उस ओर चलो। अतएव गीता ने सात्विक आहार, राजस आहार और तामस आहार के बारे में आपको बता दिया है। जिसे आप शुद्ध शाकाहारी, शाकाहारी और मांसाहारी व वासी शाकाहारी के रूप में समझइये। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप क्या चाहते है।

    यह ध्यान रहे कि जो आप खाते हैं, उसका प्रभाव आपके मन और क्रिया पर पड़ता है। वेद कहता है जो कुछ हम खाते है उसका प्रभाव हमारे मन पर और हमारे व्यवहार पर पड़ता है। 

    भगवान राम का जन्म कब और किस युग में हुआ? - वैदिक व वैज्ञानिक प्रमाण

    वैदिक प्रमाण द्वारा राम का जन्म

    राम का जन्म त्रेता युग में हुआ था। आदिकाव्य वाल्मीकीय रामायण में राम-जन्म के सम्बन्ध में निम्नलिखित वर्णन उपलब्ध है:-

नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु।

ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह॥1.18.9॥

    अर्थात् चैत्र मास की नवमी तिथि में, पुनर्वसु नक्षत्र में, पाँच ग्रहों के अपने उच्च स्थान में रहने पर तथा कर्क लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति के स्थित होने पर (श्रीराम का जन्म हुआ)।

राम का जन्म त्रेता के अंत में हुआ था। वाल्मीकि जी लिखते है,

हत्वा क्रूरम् दुराधर्षम् देव ऋषीणाम् भयावहम्।

दश वर्ष सहस्राणि दश वर्ष शतानि च॥१-१५-२९॥

    भावार्थ - देवताओं तथा ऋषियों को भय देने वाले उस क्रूर एवं दुर्घर्ष राक्षस का नाश करके मैं ग्यारह हजार वर्षों तक इस पृथ्वी का पालन करता हुआ मन्युष्य लोक में निवास करुँगा। अर्थात राम 11000 वर्षों तक पृथ्वी पर रहे।

    युग, वैदिक धर्म (हिन्दू धर्म) सभ्यता के अनुसार, एक निर्धारित संख्या के वर्षों की कालावधि है। ब्रह्माण्ड का काल चक्र चार युगों के बाद दोहराता है। जिसमे चार युग होते है। यह चारो योग में कुल कितने समय होते है इस बारे में हमने अपने लेख में बता दिया है। अवश्य पढ़े हिन्दू वैदिक चार युग का कुल समय।

    कलि युग - 432,000 मानव वर्ष का होता है। अभी-अभी कृष्ण द्वापर में हुए है। द्वापर युग - 864,000 मानव वर्ष का होता है। जब कृष्ण संसार से प्रस्थान किये तो कलियुग का प्रारम्भ हुआ। आज से लगबघ 5100 वर्ष पहले कृष्ण प्रस्थान किये थे। और जब राम संसार से प्रस्थान किये तब द्वापर युग प्रारंभ हुआ।

    अतएव द्वापर 8,64,000 वर्ष का होता हैं। राम का जन्म त्रेता युग में अर्थात द्वापर से पहले हुआ था। राम रहे है 11000 वर्ष फिर द्वापर युग के अंत से अबतक कलियुग का 5100 वर्ष बीत चूका है। अतएव द्वापर युग के 8,64,000 वर्ष + राम रहे 11000 वर्ष + द्वापर युग के अंत से अबतक 5100 वर्ष बीत चुके है तो कुल हुआ 880100 वर्ष।

    अतएव वेदों पुराणों के ज्ञान अनुसार राम का जन्म आज से लगभग 880100 वर्ष पहले हुआ है।

    राम के जन्म-समय पर आधुनिक वैज्ञानिक शोध

    मराठी शोधकर्ता विद्वान डॉ० पद्माकर विष्णु वर्तक ने एक दृष्टि से वैदिक राम जन्म के समय को संभाव्य माना है। उनका कहना है कि वाल्मीकीय रामायण में एक स्थल पर विंध्याचल तथा हिमालय की ऊँचाई को समान बताया गया है।

    विंध्याचल की ऊँचाई 2467 फीट है तथा यह प्रायः स्थिर है, जबकि हिमालय की ऊँचाई वर्तमान में 29,029 फीट है तथा यह निरंतर वर्धनशील (वर्धमान) है। दोनों की ऊँचाई का अंतर 26,562 फीट है। विशेषज्ञों की मान्यता के अनुसार 100 वर्षो में हिमालय 3 फीट बढ़ता है। अतः 26,562 फीट बढ़ने में हिमालय को करीब 8,85,400 वर्ष लगे होंगे। अतः अभी से करीब 8,85,400 वर्ष पहले हिमालय की ऊँचाई विंध्याचल के समान रही होगी, जिसका उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में वर्तमानकालिक रूप में हुआ है। इस तरह डा० वर्तक को एक दृष्टि से यह समय संभव लगता है, परंतु उनका स्वयं मानना है कि वे किसी अन्य स्रोत से राम के जन्म के समय की पुष्टि नहीं कर सकते हैं।

    डॉ० पी० वी० वर्तक के शोध के अनेक वर्षों के बाद (2004 ईस्वी से) 'आई-सर्व' के एक शोध दल ने 'प्लेनेटेरियम गोल्ड' सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके श्री राम का जन्म 10 जनवरी 5114 ईसापूर्व में सिद्ध किया। उनका मानना था कि इस तिथि को ग्रहों की वही स्थिति थी जिसका वर्णन वाल्मीकीय रामायण में है। परंतु यह समय काफी संदेहास्पद हो गया है।

    'आई-सर्व' के शोध दल ने जिस 'प्लेनेटेरियम गोल्ड' सॉफ्टवेयर का प्रयोग किया वह वास्तव में ईसा पूर्व 3000 से पहले का सही ग्रह-गणित करने में सक्षम नहीं है। वस्तुतः 2013 ईस्वी से पहले का ग्रह-गणित करने हेतु यह सॉफ्टवेयर सक्षम ही नहीं था। इस गणना द्वारा प्राप्त ग्रह-स्थिति में शनि वृश्चिक में था अर्थात उच्च (तुला) में नहीं था। चन्द्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में न होकर पुष्य के द्वितीय चरण में ही था तथा तिथि भी अष्टमी ही थी।

    बाद में अन्य विशेषज्ञ द्वारा ejplde431 सॉफ्टवेयर द्वारा की गयी सही गणना में तिथि तो नवमी हो जाती है परन्तु शनि वृश्चिक में ही आता है तथा चन्द्रमा पुष्य के चतुर्थ चरण में। अतः 10 जनवरी 5114 ईसापूर्व की तिथि वस्तुतः श्रीराम की जन्म-तिथि सिद्ध नहीं हो पाती है।

    वैज्ञानिक आज कुछ कहते है तो कल कुछ कहते है। आज ये सही है तो कल ये सही है, इन वैज्ञानिको के शोध में ही एकता नहीं है। वैज्ञानिको का जो भी मत हो, लेकिन राम का जन्म वेदों पुराणों के ज्ञान अनुसार आज से लगभग 880100 वर्ष पहले हुआ है।

    सूतक और पातक क्या हैं? जन्म मृत्यु के बाद क्यों लग जाता है?

    सूतक क्या है?

    सन्तान का जन्म होने के पश्चात् जो घर वालों को कुछ दिनों के लिए कर्म धर्म का पालन करना वर्जित होता है। जैसे पूजा करना, अन्य दान करना इत्यादि। इसी को नाम सूतक है। इसे राजस्थान में ‘सावड़’ कहते हैं। महाराष्ट्र में ‘वृद्धि’ कहते हैं तथा उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा आदि में ‘सूतक’ नाम से ही जाना जाता है।

पातक किसे कहते हैं?

    जिस तरह जन्म के समय परिवार के सदस्यों पर सूतक लग जाता है उसी तरह परिवार के लिए सदस्य की मृत्यु के बाद सूतक का लग जाता है, जिसे पातक भी कहा जाता है। लेकिन जन्म-मरण दोनों को ‘सूतक’ शब्द से भी जाना जाता है। गरुण पुराण में सूतक शब्द नहीं प्रयोग करते हुए पातक शब्द का प्रयोग कर दिया गया। तब से लोग सूतक और पातक को अगल अलग मानने लगे। वास्तव में ये दोनों एक है क्योंकि दोनों (जन्म-मरण) में कर्म-धर्म का पालन नहीं किया जाता।

    गरुण पुराण के अनुसार जब भी परिवार के किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो घर के सदस्यों को पुजारी को बुलाकर गरुण पुराण का पाठ करवा कर पातक के नियमों को समझना चाहिए। गरुण पुराण के अनुसार पातक लगने के १३वें दिन क्रिया कर के उस दिन ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए। इसके बाद मृत व्यक्ति की सभी नई-पुरानी वस्तुओं (सामान), कपड़ों को गरीब और असहाय व्यक्तियों में बांट देना चाहिए।

    जन्म पर सूतक में क्या होता है?

    किसी के जन्म होने पर परिवार के लोगों पर १० दिन के लिए सूतक लग जाता है। इस दौरान परिवार का कोई भी सदस्य धार्मिक कार्य नहीं करता है। जैसे मंदिर नहीं जाना, पूजा-पाठ नहीं करना। इसके अलावा बच्चे को जन्म देने वाली स्त्री का रसोईघर में जाना या घर का कोई काम करना वर्जित होता है। जब घर में हवन हो जाए उसके बाद वो काम कर सकती है।

    जन्म के पश्चात सूतक का वैज्ञानिक तर्क

    आजकल हर घर की महिलाओं को परिवार के सदस्यों की जरूरतों को पूरा करना होता था। लेकिन बच्चे को जन्म देने के बाद महिलाओं का शरीर बहुत कमजोर हो जाता है। इसलिए वो काम करने की स्थिति में नहीं होती। इसलिए उन्हें हर संभव आराम की जरूरत होती है। इसलिए सूतक के नाम पर इस समय उन्हें आराम दिया जाता था ताकि वे अपने दर्द और थकान से बाहर निकल पाएं।

    चार वर्ण के लिए सूतक अलग-अलग माना गया है।

    जैसा की आप जानते है की जन्म देने के बाद महिलाओं का शरीर बहुत कमजोर हो जाता इसीलिए चार वर्ण में सूतक के दिन भी अलग-अलग है। जैसा की हम जानते है कि ब्राह्मण स्त्री को कम काम है इसलिए ब्राह्मण के लिए यह समय १० दिन का। क्षत्रिय स्त्री क्योंकि वो महारानी होती है इसलिए क्षत्रिय के लिए १५ दिन। वैश्य (व्यापारी) स्त्री के लिए २० दिन और क्योंकि शूद्र (श्रमिक) स्त्री ज्यादा काम करती है के लिए ३० दिन का होता था।

बच्चे को संक्रमण का खतरा

    जब बच्चे का जन्म होता है तो उसके शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास भी नहीं हुआ होता। वह बहुत ही जल्द संक्रमण के दायरे में आ सकता है, इसलिए १०-३० दिनों की समय में उसे बाहरी लोगों से दूर रखा जाता था, उस बच्चे को घर से बाहर नहीं लेकर जाया जाता है। कुछ लोग सूतक को एक अंधविश्वास मानते है लेकिन इसका उद्देश्य स्त्री के शरीर को आराम देना और शिशु के स्वास्थ्य का ख्याल रखने है।

    मृत्यु के पश्चात सूतक या पातक का वैज्ञानिक तर्क

    किसी लंबी और घातक बीमारी या फिर दुर्घटना की वजह से या फिर वृद्धावस्था के कारण व्यक्ति की मृत्यु होती है। कारण चाहे कुछ भी हो लेकिन इन सभी की वजह से संक्रमण फैलने की संभावनाएं बहुत हद तक बढ़ जाती हैं। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि दाह-संस्कार के पश्चात स्नान आवश्यक है ताकि श्मशान घाट और घर के भीतर मौजूद कीटाणुओं से मुक्ति मिल सके।

    इसके अलावा उस घर में रहने वाले लोगों को संक्रमण का वाहक माना जाता है इसलिए १३ दिन के लिए सार्वजनिक स्थानों से दूर रहने की सलाह दी गई है। जैसा की हम जानते है कि हवन करने से वातावण शुद्ध होता है यह तो वैज्ञानिक भी मानते है। इसलिए घर में हवन होने के बाद, घर के भीतर का वातावरण शुद्ध हो जाता है, संक्रमण की संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं, जिसके बाद ‘पातक’ की अवधि समाप्त होती है।


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