ब्रह्माण्ड कहाँ से आया? इससे पहले ब्रह्माण्ड कैसा था?
प्रायः लोगों के मन में एक प्रश्न रहता है कि ब्रह्माण्ड कहाँ से आया? कब से ब्रह्माण्ड का अस्तित्व है? अर्थात् जैसा की कहा जाता है की सनातन धर्म अनुसार भगवान ने संसार बनाया है, तो कब से इस ब्रह्माण्ड का अस्तित्व है, क्या यह ब्रह्माण्ड सनातन है? क्या इस ब्रह्माण्ड के पहले भी ब्रह्माण्ड का अस्तित्व था या यह ब्रह्माण्ड पहली बार बना है? इत्यादि। सबसे पहले वेद अनुसार यह समझिये की तीन नित्य (सदा से थे है और रहेंगे) तत्व है। वेद ने कहा -
एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नातः परं वेदितव्यं हि किञ्चित्।
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत्॥१२॥
- श्वेताश्वतर उपनिषद् १.१२
भावार्थ:- तीन तत्व है। अनादि (जिसका प्रारम्भ न हो), अनंत, शाश्वत (सदैव के लिए)। एक ब्रह्म, एक जीव, एक माया।
अर्थात् भगवान, जीव और माया ये सदा से थे, है, और सदा रहेंगे यह उपर्युक्त वेद मन्त्र से सिद्ध हुआ। अतएव यह माया जो ब्रह्मांड की शक्ति है या भौतिक ऊर्जा है जिससे संपूर्ण ब्रह्मांड बना है।
माया ऊर्जा के दो चरण होते हैं। इन चरणों को 'सृष्टि' और 'प्रलय' कहा जाता है। 'सृष्टि' अर्थात् प्रकट चरण है, जिसे हम वर्तमान में देख रहे हैं। इस चरण में, ब्रह्मांड का भौतिक रूप है। प्रलय का मतलब भंग हो जाना है, यह दूसरा चरण है। इस प्रलय चरण में माया अपने विराट ब्रह्माण्ड स्वरूप को समेट लेती है, और अंत में सब भगवान में मिल जाता है।
इस प्रकार चुकी न तो माया किसी दिन बनी है न भगवान और न ही आत्मा, ये सदा से थे है और रहेंगे। अतएव इनका प्रारंभ नहीं हुआ है इसलिए यह कहा गया है कि यह अनादि है। अनादि होने से यह कहा गया है कि ब्रह्माण्ड भी अनादि है। अर्थात् ब्रह्माण्ड सदा से बनते आया है सदा से नस्ट होता आया है क्योंकि इसका कारण माया है जो कि अनादि है। अतएव यह ब्रह्माण्ड सनातन है, कुछ समय के लिए अवश्य प्रलय हो जाता है, परन्तु पुनह यह प्रकट हो जाता है। इसलिए यह निष्कर्ष निकला कि जो हम वर्तमान में ब्रह्माण्ड देख रहे है यह पहली बार नहीं बना है, इससे पहले भी बना था और नस्ट हो गया था, और यह क्रम आगे भी होता रहेगा क्योंकि माया उर्जा के दो चरण है 'सृष्टि' और 'प्रलय'।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वर्तमान ब्रह्माण्ड प्रकट हुआ, वर्तमान ब्रह्माण्ड का अन्त होगा। इससे पहले एक ब्रह्माण्ड था, उसके पहले भी एक ब्रह्माण्ड था, उसके पहले भी था। जितना समय में पीछे-पीछे चलते जाएँगे, उतने ब्रह्माण्ड पाते जायेंगे। सृष्टि और प्रलय का यह जो क्रम है, इसका कोई प्रारंभ नहीं है। 'पहला ब्रह्माण्ड' नाम की कोई चीज नहीं है। भगवान ने 'पहली बार' ब्रह्माण्ड बनाया हो, ऐसा कोई ब्रह्माण्ड नहीं है। यह अनादिकाल से ब्रह्माण्ड बन रहा है, इस बार भी बना है।
वर्तमान में यह ब्रह्माण्ड जो है, इसका विनाश हो जाएगा, यानि प्रलय हो जाएगा। उस प्रलय के बाद फिर यह ब्रह्माण्ड बनेगा। और फिर दूसरी बार ब्रह्माण्ड का प्रलय होगा। फिर तीसरी बार बनेगा, उसका भी प्रलय होगा। इस प्रकार भविष्य में नया ब्रह्माण्ड बनता रहेगा, प्रलय होता रहेगा। क्या भविष्य में यह बनने-बिगड़ने का क्रम समाप्त हो जाएगा? नहीं होगा। भविष्य में कभी इसका अन्त नहीं होगा। बनता रहेगा, बिगड़ता रहेगा। इसका क्रम कभी समाप्त नहीं होगा।
अब थोड़ा बुद्धि का विषय आया है विशेष ध्यान दे कर पढ़िए - नियम क्या कहता है कि 'जिस वस्तु का आरम्भ होता है, उस वस्तु का अन्त होता है।' अब इस बात को उलटकर बोलिए। 'जिसका आरंभ नहीं होता, उसका अंत भी नहीं होता।' इस आधार पर आपने स्वीकार किया, कि सृष्टि-प्रलय का भविष्य में अन्त नहीं होगा। इस तरह दूसरी बात अपने आप सिद्ध हो गई कि 'जब अन्त नहीं है, तो आरंभ भी नहीं है।' अगर भविष्य में इस सृष्टि-प्रलय का क्रम कभी समाप्त नहीं होगा, तो भूतकाल में भी इसका आरंभ नहीं हुआ होगा। इसलिए बनने-बिगड़ने का क्रम न कभी आरम्भ हुआ, और न कभी समाप्त होगा। थोड़ा गहराई से बैठकर मनन करेंगे, तो अच्छी तरह स्पष्ट हो जाएगा।
एक उदाहरण से समझे तो जिस प्रकार ऊर्जा ना बनाई जा सकती है ना ही नष्ट की जा सकती है, उसका विभिन्न रूपों में रूपांतरित किया जा सकता हैं, यह नियम है। ठीक इसी प्रकार माया को बनाया नहीं जा सकता और न ही नष्ट किया जा सकता है, परन्तु उसे विभिन्न रूपों में रूपांतरित किया जा सकता हैं, इसलिए यह संसार नस्ट होने के बाद फिर बन जाता है।
इससे पहले ब्रह्माण्ड कैसा था?
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः॥
- ऋग्वेदः १०.१९०.३
अर्थात् जो संसार को धारण करने वाले विधाता परमेश्वर ने सूर्य, चन्द्रमा, द्युलोक, पृथिवीलोक, अन्तरिक्षलोक और अन्य लोक-लोकान्तरों को पूर्व सृष्टि में जैसे थे, वैसे ही फिर प्रकट किया है।
सर्ववेदमयेनेदमात्मनात्मात्मयोनिना।
प्रजाः सृज यथापूर्वं याश्च मय्यनुशेरते॥
- भागवत ३.९.४३
भावार्थ:- (विष्णुजी ने कहा) ब्रह्माजी! त्रिलोकी को तथा जो प्रजा इस समय मुझमें लीन है, उसे तुम पूर्व कल्प के समान मुझसे उत्पन्न हुए अपने सर्ववेदमय स्वरूप से स्वयं ही रचो।
अर्थात् विष्णुजी ब्रह्माजी से कह रहे है कि ब्रह्माण्ड को तथा उनमें जो प्रजा लीन है। (भगवान के महोदर में अनंत आत्मा है जिसे यहाँ प्रजा कहा गया है) उसे पूर्व कल्प में जो ब्रह्माण्ड था और उनमें जो आत्मा कर्म अनुसार जो कर रही थी, वैसे ही फिर ब्रह्माण्ड रच कर प्रकट कर दो।
अतएव जो ब्रह्माण्ड आपके समक्ष है वो पूर्व में जैसा था वैसा ही प्रकट किया गया है और जो आत्मा जिस शरीर को धारण कर जो कर्म किया था, वैसे ही फिर से बने ब्रह्माण्ड में कर्म-फल अनुसार उसे फिर नया शरीर मिला और वो आगे अपना कर्म कर रहा है।इसलिए कर्म-फल अनुसार कुछ आत्माओं को मनुष्य शरीर मिला वे मनुष्य बने और कुछ आत्माओं को पशु, पक्षी, जानवर का शरीर मिला, वे पशु, पक्षी, जानवर का शरीर बने।
अस्तु तो इसी प्रकार, माया सदा से 'सृष्टि' और 'प्रलय' के एक चक्र में है। भगवान माया को सृष्टि के लिए सक्रिय करते है, क्योंकि माया एक दिमागहीन, निर्जीव ऊर्जा है (और इसलिए इसे जड़ शक्ति कहा जाता है)। केवल जब भगवान माया को सक्रिय करते है तो माया ब्रह्मांड के रूप में प्रकट होती है।
जब तक भगवान माया के इस सक्रिय चरण को बनाए रखते है, तब तक ब्रह्माण्ड अस्तित्व में रहता है। जब भगवान प्रलय करना चाहते है तो प्रलय हो जाता है और यह ब्रह्माण्ड उस वक्त नहीं रहता। परन्तु यह ध्यान रहे की 'सृष्टि' और 'प्रलय' का चक्र सदा से (अनंत काल से) चला आ रहा है और आगे भी (अनंत काल तक) चलता रहेगा।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई? - वेद अनुसार
सृष्टि की रचना कैसे हुई? - वेद
इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई, वेद अनुसार सृष्टि की रचना भगवान ने कैसे किया, और ब्रह्माण्ड के बनने का क्रम क्या है? यह प्रश्न प्रायः हिन्दू धर्म (सनातन धर्म) से पूछा जाता है। इसका उत्तर बड़ा सरल तथा वैज्ञानिक आधार पर भी है। 'हिन्दू धर्म अनुसार ब्रह्माण्ड कैसे बना' इस पर भौतिक वैज्ञानिक अगर शोध करे, तो वे शायद सिद्ध भी कर दे। सबसे पहले वेद अनुसार यह समझिये की तीन नित्य (सदा से थे है और रहेंगे) तत्व है। वेद ने कहा -
एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नातः परं वेदितव्यं हि किञ्चित्।
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत्॥१२॥
- श्वेताश्वतर उपनिषद् १.१२
भावार्थ:- तीन तत्व है। अनादि (जिसका प्रारम्भ न हो), अनंत, शाश्वत (सदैव के लिए)। एक ब्रह्म, एक जीव, एक माया।
माया ब्रह्माण्ड की शक्ति है या ऐसा भी कह सकते है की भौतिक ऊर्जा शक्ति है। जिससे यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड बना है। आत्मा का निर्माण माया से नहीं हुआ है और न ही ईश्वर से हुआ है। क्योंकि उपर्युक्त वेद मंत्र में यही कहा गया है की तीन नित्य तत्व है जो अनादि (जिसका प्रारम्भ नहीं हुआ) है। लेकिन यह अवश्य है कि आत्मा और माया की सत्ता भगवान के कारण है। इसको वेद तथा गीता ने इस प्रकार कहा -
श्वेताश्वतर उपनिषद् १.१० 'क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः' अर्थात् क्षर (माया), अक्षर (जीव) दोनों पर शासन करने वाला भगवान है। अतएव माया और जीव का भगवान अध्यक्ष है।
भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥५॥
- गीता ७.४-५
भावार्थ:- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी- इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात् मेरी जड़ प्रकृति (माया) है और हे महाबाहो! इससे दूसरी को, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा परा अर्थात् चेतन प्रकृति (आत्मा) जान।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई?
जैसा ऊपर बताया गया है कि माया भगवान की ही शक्ति है तथा वो किसी दिन बनी नहीं है और वो अनादि है, तो उसी माया की शक्ति से यह संसार प्रकट हुआ है। वैसे तो माया जड़ है अर्थात् अपने आप कुछ नहीं कर सकती। परन्तु भगवान अपनी इच्छानुसार माया को सक्रिय करदेते है। हालांकि माया एक शाश्वत ऊर्जा और भगवान की शक्ति है, इसलिए सक्रियण की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में, माया एक दिमाग रहित और निर्जीव ऊर्जा है। यह ब्रह्मांड को प्रकट करने के लिए, स्वयं को सक्रिय करने का निर्णय नहीं ले सकती है। परन्तु जब भगवान माया को सक्रिय करते है, तो अपने स्वयं के अंतर्निहित भौतिक गुणों के अनुसार - माया ब्रह्माण्ड के रूप में प्रकट होती है।
ब्रह्माण्ड के बनने का क्रम क्या है?
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः। आकाशाद्वायुः।
वायोरग्निः । अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी।
पृथिव्या ओषधयः। ओषधीभ्योन्नम्। अन्नात्पुरुषः।
स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः। तस्येदमेव शिरः।
अयं दक्षिणः पक्षः। अयमुत्तरः पक्षः।
अयमात्मा। इदं पुच्छं प्रतिष्ठा।
तदप्येष श्लोको भवति॥१॥
- तैत्तिरीयोपनिषद् २. १
आकाश फिर वायु फिर अग्नि फिर जल फिर पृथ्वी फिर औषधियाँ फिर औषधियों से अन्न उत्पन्न हुआ।
भावार्थ:- निश्चय ही (सर्वत्र प्रसिद्ध) उस, इस परमात्मा से (पहले पहल) आकाश तत्व उत्पन्न हुआ, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, (और) जल तत्व से पृथ्वी तत्व उत्पन्न हुआ, पृथ्वी से समस्त औषधियाँ उत्पन्न हुई, औषधियों से अन्न उत्पन्न हुआ, अन्न से ही (यह) मनुष्य शरीर उत्पन्न हुआ, वह यह मनुष्य शरीर, निश्चय ही अन्न-रसमय है, उसका यह (प्रत्यक्ष दीखने वाला सिर) ही (पक्षी की कल्पना में) सिर है, यह (दाहिनी भुजा) ही, दाहिनी पंख है, यह (बायीं भुजा) ही बायाँ पंख है, यह (शरीर का मध्यभाग) ही, पक्षी के अङ्गों का मध्यभाग है, यह (दोनों पैर ही) पूँछ एवं प्रतिष्ठा है, उसी के विषय में यह (आगे कहा जाने वाला) श्लोक है।
इस मंत्र में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के साथ मनुष्य के ह्रदय रूप गुफा का वर्णन करने के उद्देश्य से पहले मनुष्य शरीर की उत्पत्ति का प्रकार संछेप में बताकर उसके अंगों की पक्षी के अंगों के रूप में कल्पना की गयी है। इस मंत्र का भाव यह है कि परमात्मा से पहले आकाश तत्व उत्पन्न हुआ। आकाश से वायु तत्व, वायु से अग्नि तत्व, अग्नि से जल तत्व और जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई। पृथ्वी से नाना प्रकार की औषधियाँ-अनाज के पौधे हुए और औषधियों से मनुष्यों का आहार अन्न उत्पन्न हुआ। उस अन्न से यह स्थूल मनुष्य शरीर उत्पन्न हुआ। अन्न के रस से बना हुआ यह जो मनुष्य शरीर है, उसकी पक्षी शरीर के रूप में कल्पना की गयी है। उपर्युक्त वेद मंत्र में पृथ्वी जल से उत्पन्न होने की बात संछेप में कही गयी है। पृथ्वी का प्राकट्य विस्तार से ऋग्वेद में इस प्रकार कहा है -
भूर्जज्ञ उत्तानपदो भुव आशा अजायन्त। - ऋग्वेदः १०.७२.४
भावार्थ:- पृथ्वी सूर्य से उत्पन्न होती है।
अस्तु, तो भगवान की प्रेरणा से यह ब्रह्माण्ड बनता और प्रलय होता है। यह ब्रह्माण्ड का प्रलय बिलकुल ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति के विपरीत होता है। अर्थात् प्रलय का कर्म - पृथ्वी जल में विलीन हो गयी, जल अग्नि में, अग्नि वायु में, वायु आकाश में और आकाश भगवान में। अंत में केवल भगवान ही रहते है। आत्मा भगवान के महोदर में रहती है तथा माया जड़ के समान हो जाती है।
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