।। कठोपनिषद् ।।
कठोपनिषद्
प्रथमा वलल्ली
उशन् ह वे वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ।
तस्य हु नचिकेता नाम पुत्र आस ॥ १॥
अर्थ-(ह, वै) कहते हैं (वाजश्रवस:) वाजश्रवा के पुत्र (उशन)
ने फल की कामना से (सर्ववेदसम्) सब कुछ (ददौ) दान किया
(तस्य) उस का (ह) प्रसिद्ध (नचिकेता, नाम पुत्र:, आस) नचिकेता नाम वाला पुत्र था।।१॥।
तꣳ ह कुमारꣳ सन््तं दक्षिणासु।
नीयमानासु श्रद्धाऽऽविवेश सोऽमन्यत ॥ २
॥
अर्थ-(कुमारम्, सन््तम् ह) कुमार होने पर भी (तं) उसको (दक्षिणासु) दान किए हुए
पदार्थों के (नीयमानासु) विभाग करते समय (श्रद्धा) आस्तिक बुद्धि (हाविवेश)
उत्पन्न हुई, (सः, अमन्यत) वह सोचने
लगा ॥ २ |।
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा
निरिन्द्रिया:।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता
ददत् ॥ ३
अर्थ- (पीतोदका:) जो (गौएं) जल पी चुकी हैं, (जग्ध तृणा:) तृण भक्षण कर चुकी हैं,
(दुग्धदोहा:) जिनका दूध दुहा जा-चुका है, (निरिन्द्रया:)
बच्चा पैदा करने में असमर्थ
हों चुकी हैं (ता:) उन्हें (ददत्) जो दान करता है (सः) वह (अनन्दाः नाम ते लोका:) आनन्द रहित जो लोक
हैँ. (तान्) उनको (गच्छति) जाता है ॥ ३।।
व्याख्या-यह उपनिषद् एक आख्यायिका के रूप में है-- वाजश्रवा का
पुत्र नचिकेता था। उसने यम नामक एक विद्वान् व्यक्ति से शिक्षा प्राप्त की, जिस (शिक्षा) का नाम कठोपनिषद् है।
कोई-कोई व्यक्ति वाजश्रवा का अर्थ प्राण करके नचिकेता जीवात्मा” को ठहराते हैं और इस प्रकार जीवात्मा को प्राण का पुत्र बतलाकर कहते हैं
कि उसने यम (मृत्यु) से शिक्षा उपलब्ध की थी परन्तु यह अलंकार बहुत उपयुक्त नहीं
है। इसलिए हमने उपनिषद् को एक सरल आख्यायिका समझते हुए ही उसकी टीका की है। जब
वाजश्रवा ने सर्वमेध यज्ञ किया अर्थात् जो कुछ उसके पास था सब दान करने लगा,
तब स्पष्ट है कि सब चीजें अच्छी नहीं हो सकती थीं।
इसलिए उनमें कुछ चीजें निकम्मी भी थीं, जैसे बिना दूध देने या ना दे सकने वाली
गाएं। जब वाजश्रवा ने इन (निकम्मी गायों) का भी दान किया तब उसका पुत्र नचिकेता
आस्तिक बुद्धि से प्रेरित होकर सोचने लगा कि जो दानी ऐसी (निकम्मी)
वस्तुओं का दान करते हैं वे आनन्द रहित लोकों को प्राप्त होते हैं। भाव इसका यह है
कि ऐसा दान, दान नहीं किन्तु कुदान है, जिससे उसका कुछ उपकार नहीं हो सकता अपितु उस पर यह भार रूप होता है ॥१,२, ३ ।।
निघण्टु अ० २ ख० ७,
१० में वाज अन्न और श्रव: धन का नाम बतलाया गया है। स्पष्ट है कि
अन्नवान् और धनवान् जो गृहस्थ हों उनका नाम वाजश्रवा उचित रीति से हो सकता है।
जो लोग, इसका अर्थ प्राण करते हैं वे कहते हैं कि अन्न
(अन्नमयकोष) ही जिसका धन है वह प्राण है इसलिए वाजश्रवा प्राणवाचक हुआ।
“न चिकेतते विचेष्टत इति नचिकेता:।” अर्थात् जो
स्वभाव ही से पुण्य पाप (सुख-दुःख ) के प्रपञ्च से पृथक् हो
वह नचिकेता है। नचिकेता जीव होने से प्राण का पुत्र है, यह
कल्पना असंगत है। जीव-नित्य और प्राण अनित्य होने से पुत्र पिता से पहले हो जाता
है।
यम
के कई नाम उपनिषद् में लिये गए हैं। उसे मृत्यु, अन्तक,
वैवस्त आदि
कहा गया है।
स॒ होवाच पितरं तत् कस्मे मां दास्यसीतति।
द्वितीयं तृतीयं तꣳ होवाच् मृत्यवे त्वा ददामीति ॥ ४ ॥
अर्थ-(सः, ह) वह नचिकेता (पितरम्) पिता से (उवाच ) बोला- (तत्) हे तात् ! (माम्)
मुझको (कस्मै) किसे (दास्यसि) देंगे? (द्वितीयम्) दुबारा
(तृतीयम्) तिबारा कहने पर पिता ने क्रुद्ध होकर (तम्) उससे (उवाच) कहा कि
(मृत्यवे) मृत्यु के लिए (त्वा) तुझे (ददामि इति) देता हूँ ।।४ ॥
व्याख्या-नचिकेता ने सब कुछ देते हुए देखकर अपने सम्बन्ध
में पूछा कि मैं किसे दिया जाऊँगा? पिता के उत्तर न देने पर जब उसने दुबारा, तिबारा
अपना प्रश्न दुहराया तो वाजश्रवा ने अप्रसन्न होकर कहा कि तुझे मौत के हवाले करता
हूँ। उत्तर के दो अर्थ हो सकते थे। एक तो केवल अप्रसन्नता, मौत
के हवाले करना, इन शब्दों का अनिष्ट और अप्रसन्नता सूचक
होना तो स्पष्ट ही है। उत्तर का दूसरा भाव यह था कि मृत्यु नाम के किसी गृहस्थ
विद्वान् के लिए नचिकेता को देना। नचिकेता पिता की अप्रसनन्नता समझते हुए भी
दूसरे अर्थ का लेना ही अपने लिए श्रेयस्कर समझकर घर से चल दिया ।। ४ ।।
बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यम:।
किꣳ स्विद्यमस्य कर्त्तव्यं यन्ममस्य करिष्यति ॥ ५
॥
अर्थ-(बहूनाम्) बहुतों में तो (प्रथम:, एमि) मैं श्रेष्ठ हूँ और (बहूनाम्,
मध्यम: एमि) और बहुतों में मध्यम हूँ (यमस्य)
मृत्यु का (किं स्वित्) क्या (कर्त्तव्यम्) करने योग्य काम है, (यत्) जो वह (मया) मुझसे (अद्य) आज ( करिष्यति)
करावेगा ।। ५ ।।
अनुपश्य यथा पूर्व प्रतिपश्य तथाऽपरे।
सस्यमिव्र मर्त्य: पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः ॥६॥
अर्थ-(यथा) जैसे (पूर्वे) पहले “हुआ उसे” (अनुपश्य
) देख (तथा) वैसा ही (परे) आगे हुआ (प्रतिपश्य) देखें कि (मर्त्य:)
प्राणी (सस्यम् एव) न ही के सदृश (पच्यते) मरता है ओर (सस्यम् इव) धान ही के
सदृश (पुनः) फिर ( आजायते ) उत्पन्न होता है ।।६।।
व्याख्या-मृत्यु के घर जाते हुए वह ( नचिकेता ) सोचने
लगा कि मैं बहुतों (विद्यार्थियों) में तो श्रेष्ठ हूँ और बहुतों में मध्यम, नहीं मालूम यम (आचार्य) का कौन सा काम
है जो चाहे मुझे करना पड़ेगा। फिर वह सोचने लगा, कि संसार
में चाहे बीते काल पर दृष्टि डालें और चाहे आने वाले समय को देखें। यह बात तो साफ
तौर से मालूम होने लगती है कि मनुष्य धान आदि औषधियों के सदृश नष्ट हो जाता है और
उसी की तरह फिर पैदा हो जाता है ॥[५, ६ ||
नोट-मनुष्य की इस मरने-जीने की अवस्था का वास्तविक ज्ञान
प्राप्त करने के लिए ही उसने यम से तीसरा वर मांगा था।
वैश्वानर: प्रविशत्यतिथित्राहाणो गृहान्।
तस्यैता<
शान्ति कुर्वन्ति हर वैवस्व॒तोदकम्॥ ७ ॥
अर्थ-(वैवस्वत) हे विवस्वान् के पुत्र यम (गृहान्)
आपके घरों में (वैश्वानर:) एक तेजस्वी (ब्राह्मण) विद्वान् ( अतिथि:) अतिथि (प्रविशति) प्रविष्ट हुआ
है (तस्य) ऐसे
अतिथि की (सदगृहस्थ) (एताम्) इस (शान्तिम्) प्रसन्नता को (कुर्वन्ति) करते
हैं इसलिए (उदकम्, हर) जल
को (आतिथ्य के लिए) लीजिए ॥।| ७ ।।
आशाप्रतीक्षे सङ्गतꣳ सूनृतञ्चेष्टापूर्ते पुत्रपशूᳬश्च सर्वान्।
एतद् वृडःक्ते पुरुषस्याल्पमेधसो, यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणों गृहे ॥ ८
॥
अर्थ-(यस्य पुरुषस्य) जिस पुरुष के (गृहे) घर में ( ब्राह्मण:) ब्रह्मवित् अतिथि (अनश्नन्)
भूखा (वसति) रहता है (तस्य) उस (अल्पमेधस:) अल्पबुद्धि की (आशा:) ज्ञात
वस्तु की कामना, (प्रतीक्षे)
अज्ञात वस्तु की चाहना, (सङ्गतम्) सत्संग के फल, (सूनृताम्) मधुरभाषिता, (इष्ट) यज्ञादि श्रौतकर्म के
फल (आपूर्ते) तालाब आदि बनाने रूप स्मार्त कर्म के फल (पुत्रपशून) पुत्र और पशु
(एतत् सर्वान्) ये सब (वृड्क्ते) जाते रहते हैं ।। ८ ॥
व्याख्या-नचिकेता वैवस्वत (यम) के घर पहुँचा, परन्तु किसी कारणवश वह उस (नचिकेता) का
आतिथ्य न कर सका। जब नचिकेता तीन दिन उसके घर बिना किसी पूछताछ के पड़ा रहा तो
किसी धर्मज्ञ ने यम को चेतावनी दी कि नचिकेता का आतिकथ्य” करे
क्योंकि जिस गृहस्थ के घर में विद्वान अतिथि बिना आतिथ्य के रहता है उसके
पुत्रादि सभी नष्ट हो जाते हैं। उस धर्मज्ञ ने यह बात केवल डराने के लिए अत्युक्ति
से नहीं कही थी किन्तु इसमें कुछ तथ्य है। जब कोई व्यक्ति किसी का आतिथ्य नहीं
करना चाहता तो उसकी इच्छा होती है कि उसे घर से रुखसत करे और इसके लिए उसे कुछ
रुखाई से बात करनी पड़ती है। रुखाई से बात करने के फलरूप में मधुरभाषिता जाती है।
मधुरभाषिता के न रहने से कोई विद्वान् न उसके पास जाता है, न
उसे अपने पास आने देता है। इससे सत्संग भी गया और इस सत्संग के अभाव से श्रोत और
स्मार्त कर्म भी छूटे, क्योंकि बिना विद्वानों के सहयोग के
ये काम अकेले करने के नहीं हैं। विद्वानों के असहयोग से पुत्रेष्टि आदि करके पुत्र
भी पैदा नहीं कर सकता और यदि पैदा हुआ भी तो वह मूर्ख ही रहेगा जो मरने से बदतर है,
जैसा कि नीति में कहा गया है-
अजातमृतमूर्खाणां वरमाद्यौ न चान्तिमः।
सकृद्दु:खकरावाद्यावन्तिमस्तु पदे पदे ॥ _(पंचतन्त्र )
अर्थात् पुत्र का पैदा न होना, पैदा होकर मर जाना ओर मूर्ख रहना-इन
तीनों में से पहले दोनों श्रेष्ठ हैं। परन्तु अन्तिम ( मूर्ख
रहना) श्रेष्ठ नहीं है। क्योंकि पहले दो से तो मनुष्य को एक ही बार दु:खी होना
पड़ता हैं परन्तु अन्त का बात से तो उसे पग-पग पर दुःख भोगना पड़ता है। अस्तु,
सन््तान के मूर्ख रहने से पशु आदि धन का संग्रह भी सम्भव नहीं। इस
प्रकार उपर्युक्त बातों के अभाव से कोई गृहस्थ न किसी वस्तु की आशा कर सकता है और
न किसी की प्रतीक्षा ॥ ७, ८ ॥
नोट-प्राचीन काल
में आतिथ्य के लिए तीन काम करने पड़ते थे- (१) अर्ध्य, पाद्य अर्थात्
सत्कारपूर्वक जल से पांव आदि धुलाना, (२) आसन को कुछ भोजन उचित वस्तु देना, (३) मधुपर्क
अर्थात् अल्पाहार ( नाश्ते) के लिए कुछ भोजन देना। इसी के लिए उस धर्मज्ञ ने जल
लाने के लिए यम को परामर्श दिया था।
तिस्त्रो रात्रीर्यदवात्सीर्गृहे मेअनश्नन्
ब्रह्मन्नतिथिर्नमस्य:।
नमस्तेऽस्तु
ब्रह्मन् स्वस्ति मे अस्तु, तस्मात् प्रति त्रीन वरान् वृणिध्व ॥९॥
अर्थ-( ब्रह्मन) हे विद्वानू (अतिथि:) अतिथि (नमस्य:) आप
सत्कार करने योग्य हैं (ते) आपके लिए (नम:) प्रणाम (अस्तु) हो (मे) मेरा (स्वस्ति) कल्याण (अस्तु) हो (ब्रह्मन्) हे ब्रह्मवित्! (यत्) जो (मे, गृहे)
मेरे घर में, (तिस्त्र:, रात्री:) तीन
रात (अनश्नन्) (आप) भूखे ( अवात्सी:) रहे हैँ (तस्मात्) इसलिए (प्रति) प्रति
रात्रि (एक के हिसाब से) (त्रीन् वरान्) तीन वरों को (वृणीष्व) स्वीकार करें ॥ ९
॥।
व्याख्या-उस धर्मज्ञ पुरुष की चेतावनी से यम सावधान होकर नचिकेता
के पास आया और अपने कल्याणार्थ, आतिथ्य न कर सकने और नचिकेता के तीन रात भूखे रहने के प्रायश्चित्त रूप
में तीन वर देने का वचन दिया ।।९।।
शान्तसङ्कल्प: सुमना यथा स्याद्वीतमन्युर्गौत्मो माभि
मृत्यो
त्वत्यसृष्टं मामपि वदेत् प्रतीत एतत् त्रयाणां प्रथमं
बरं वुणे ॥ १० ॥
अर्थ-(मृत्यो ) हे मृत्यु ! (गौतम:) मेरा पिता गौतम (मा, अभि) मरे प्रति (शान्तसङ्कल्पः:) अच्छे
विचार वाला, (सुमना:) प्रसन्नमन (वीतमन्यु:) क्रोधरहित (यथा)
जैसा पहले था, ( स्यात) होवे (त्वत् प्रसृष्टम् ) आपके भेजे
गए (मा अभि) मुझे देखकर (प्रतीत: सन्) मुझ पर विश्वास करता हुआ (वदेत) बातचीत करे (एतत्)
यह (त्रयाणाम्) तीन में से (प्रथमम) पहला (वरम्) वर (वृणे)
मांगता हूँ ।।१०।।
यथा पुरस्ताद् भविता प्रतीत औद्दालकिरारुणिर्मत्प्रसृष्ट:।
सुखꣳ रात्री: शयिता वीतमन्युस्त्वां ददृशिवान्मृत्युमुखात्पमुक्तम्
॥ ११ ॥
अर्थ-( औद्दलकि:) उद्दालकवंशी (आरुणि:) अरुण का पुत्र तेरा
पिता गौतम (यथा) जैसा (पुरस्तात) पहले था (मत्प्रसृष्ट:) मेरे भेजे हुए तुझ पर (प्रतीत:) विश्वास करने वाला ( भविता)
होगा (वीतमन्यु:) क्रोध रहित होकर (रात्री:) रात्रियों में (सुखम्) सुख से
(शयिता) सोयेगा (त्वाम्) तुझको (मृत्युमुखात्) मौत के मुँह
से (प्रमुक्तम्) छूटा हुआ (ददृशिवान्) देखेगा ।। ११ ।।
व्याख्या-नचिकेता से उसका पिता अप्रसनन्न हो ही चुका था। चाहे
पिता का क्रोध अनुचित ही था, तब भी उस काल की पितृभक्ति प्रशंसनीय थी कि नचिकेता ने सबसे पहला वर अपने
पिता की प्रसन्नता उपलब्ध करने के सम्बन्ध में ही मांगा। वर्तमान उच्छृंखलता के
काल में, दुःख है, पुत्र और पुत्रियों
को इस प्रकार की मातृ और पितृभक्ति की शिक्षा नहीं दी जाती जिसके लिए उर्दू के कवि
ने उचित ही कहा है-
पुन्नाम्नो नरकाद यस्मात् त्रायते पितर सुत:।
तस्मात् पृत्र इति प्रोक््त: स्वयमेव
स्वयम्भुवा ॥
अर्थात् नरक से जो पिता को बचाता है इसलिए स्वयं
ब्रह्मा ने उसका नाम पुत्र रखा है।
हम ऐसी कुल किताबें, काबिले जब्ती समझते हैं।
जिन्हें पढ़ करके लड़के बाप को खब्ती समझते
है।॥।
( अकबर इलाहाबादी )
अस्तु यम ने यह वर कैसे दे दिया कि उस का पिता उस से
प्रसन्न हो जाएगा। इसका उत्तर यह है कि यम को अपनी शिक्षा-पद्धति पर विश्वास था।
वह जानता था कि जब वह नचिकेता को मातृ-पितृ-भक्त और ब्रह्मज्ञानी बना देगा तब ऐसे
पुत्र से कोई पिता कैसे अप्रसन्न रह सकता है। सच तो यह है कि जब वाजश्रवा ने सुना
होगा कि उसके पुत्र ने, सबसे
पहला यत्न उसको प्रसन्न करने के लिए ही किया, उसका क्रोध तो
इतनी ही बात से पुत्र की पितृभक्ति देखकर शान््त हो गया
होगा ॥। १०, ११ ।।
पुत्र
से इस प्रकार की भावना की आशा करके पुत्र शब्द उसके लिए बनाया गया था। पुत्र शब्द
की व्युत्पत्ति संस्कृत में कई प्रकार से की जाती है, परन्तु
भाव सबका एक सा है- (क) पुरु त्रायते, निपणीद्वा पुत् नरक: तस्मातत्त्रायत इति वा।
अर्थात् बहुत बचाता है दु:खों से (जो वह पुत्र है) अथवा (निरुक्त २/११) पुत् नाम
नरक का है उससे जो बचाता है वह पुत्र हैं। (ख) पूनाति
ऋ्रायते च स् पृत्र:। अर्थात् जो पवित्र करता है और रक्षा करता है वह पुत्र
है। (ग) मनुस्मृति ९/१३५ में लिखा है-
स्वर्गेलोके न भयं किञ्चनास्ति, न तत्र त्वं न जरया बिभेति।
उभे तीर्त्वाऽशनायापिपासे, शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥ १२॥
अर्थ-(स्वर्गेलोके) स्वर्गलोक में (किञ्चन) कुछ भी ( भयम्) भय (न, अस्ति)
नहीं है (न तत्र) न वहाँ (त्वम्) तू (मृत्यु) है और (न) कोई
(जरया) बुढापे से (बिभेति) डरता
है (अशनाया) भूख (पिपासे) और प्यास (उभे) दोनों को ( तीर्त्वा) तैरकर (शोकातिग:) शोक से रहित
मनुष्य (स्वर्गलोके) स्वर्गलोक में (मोदते) प्रसन्न रहता है ।। १२ ।।
स त्वमग्निꣳ स्वग्र्यमध्येषि मृत्यो, प्रब्रूहि तं श्रद्दधनाय महाम्।
स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्त, एतव् द्वितीयेन वृणे वरेण ॥ १३॥
अर्थ-(मृत्यो) हे मृत्यु! (स:, त्वम्) सो तू (स्वर्ग्यम्) स्वर्ग के
साधन (अग्निम्) अग्नि को (अध्येषि) जानता है ( तम्) उसे (
श्रद्द्धानाय) श्रद्धा रखने वाले ( मह्मम् ) मेरे लिए ( प्रन्नूहि
) वर्णन कर (स्वर्गलोका:) स्वर्ग प्राप्त पुरुष ( अमृतत्वम् ) अमृतत्व को
(भजन्ते) सेवा करते हैं (एतद्) यह (द्वितीयेन) दूसरे (वरेण) वर से (वृणे) मांगता
हूँ ॥ १३ ।।
प्र ते ब्रवीमि तदु मे निबोध, स्वर्ग्यमग्निं नचिकेत: प्रजानन्।
अनन्तलोकाप्तिमथो प्रतिष्ठां, विद्धि त्वमेतन्निहितं गुहायाम् ॥ १४ ॥
अर्थ-(नचिकेत:) हे नचिकेता ! (स्वर्ग्यम) स्वर्ग
प्राप्ति के साधन (अग्निम्) अग्नि को (प्रजानन्) जानता हुआ (ते) तेरे लिए (तत्)
उस को (प्रब्रवीमि) कहता हूँ (मे, निबोध) 'मेरे वचन को सुन और जान (अथ) और (त्वम्) तू
(एनम्) इस (अग्नि) को (अनन्त) विविथ (लोकाप्तिम्) लोकों
(योनियों) को प्राप्त कराने वाला (प्रतिष्ठाम्) (जगत्) की स्थिति का हेतु (गुहायाम्) हृदयाकाश में (निहितम्) स्थित (विद्धि) जान ॥ १४ ||
लोकादिमग्निं तमुवाच तस्मै, या इष्टका यावतीर्वा यथा वा।
स चापि तत्प्रत्यवदद्यथोक्तमथास्य मृत्यु: पुनरेवाह
तुष्ट: ॥ १५ ॥
अर्थ-(तस्मै) नचिकेता के लिए (लोकादिम्) सृष्टि के भी
आदि में उत्पन्न (तम्, अग्निम)
उस अग्नि को (उवाच) बतलाया (या:) जो (वा) या (यावती:) जितनी (वा यथा) या जिस
प्रकार से (इष्टका:) ईंटें चिननी चाहिए (च) और (स) उस
नचिकेता ने (अपि) भी (यथा) जिस प्रकार मृत्यु ने (उक्तम्) बतलाया या (तत्) उस को
(प्रति अवदत्) कहकर सुनाया (अथ) तब (अस्य) इस (नचिकेता) के ऊपर (तुष्ट: सन) प्रसन्न
होता हुआ (पुन: एव) फिर भी मृत्यु (आह) बोला ॥ १५।।
तमब्रवीत्प्रीयमाणो महात्मा, वरं तवेहाद्य ददामि भूय:।
तवेव नाम्ना भविताऽयमग्नि: सुङ्का चेमामनेकरूपां गृहाणं ॥ १६ ॥
अर्थ-(महात्मा) मृत्यु (प्रीयमाण:) प्रसन्न होकर (तम्)
उस नचिकेता से (अब्रवीत्) बोला-( भूय:) और भी (इह) इस (दूसरे बर के प्रसंग) में (तव) तेरे लिए
(अद्य) अब (वरम्) वर (ददामि) देता हँ (अयम्) यह (अग्नि) अग्नि (तव) तेरे (एव) ही (नाम्ना) नाम से (भविता) प्रसिद्ध होगा (च) और (इमाम) तू इस (अनेकरूपाम्) अनेक रूप वाली (सुङ्काम्) माला को (गृहाण)
ग्रहण कर ॥ १६ ।।
त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सन्धिं, त्रिकर्मकृत्तरति जन्ममृत्यू।
ब्रह्मजज्ञं देवमीड्यं विदित्वा, निचाय्येमाᳬशान्तिमत्यन्तमेति ॥ १७ ॥
अर्थ- (त्रिणाचिकेतः) तीन बार ( गे तः) (जिस अग्नि का उपदेश गचिकेता को किया गथा और
जो उसके नाम से प्रसिद्ध हुआ) उस नाचिकेत आग्नि का चयन करने वाला (त्रिभिः) तीन से
(सन्धिम्) मेल को (एत्य) प्राप्त होकर ( त्रीकर्मकृत) तीन
कर्म करने वाला (जन्म-मृत्यू) जन्म और मरण को (तरति) पार हो जाता है (ब्रह्मयज्ञम्)
वेद के उत्पन्न करने वाले (ईड्यम) स्तुति के योग्य ( देवम ) ईश्वर को (विंदित्वा)
जान (निचाय्य ) और निश्चय करके (अत्यन्तम्) शान्ति को (एति) प्राप्त होता है ।।
१७।।
त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा, य एवं विद्वांश्चिनुते नाचिकेतम्।
स पृत्युपाशान् पुरतः प्रणोद्य, शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥ १८ ॥
अर्थ-(य:) जो (विद्वान) (त्रिणाचिकेत:) तीन बार अग्नि का
चयन करने वाला (एतत्) इस (त्रयम्) त्रित्व को (विदित्वा) जानकर (एवम्) इस प्रकार (नाचिकेतम्) नाचिकेत
अग्नि को (चिनुते) चयन करता है (सः) वह (मृत्युपाशान्) मृत्यु की बेडियों को
(पुरत:) आगे (प्रणोद्य) काटकर (शोकातिग:) शोक से रहित होकर
(स्वर्गलोकं) स्वर्ग लोक में (मोदते) आनन्द करता है ।। १८ ॥।
व्याख्या- नचिकेता ने स्वर्ग के साधन रूप अग्नि को दूसरे वर से
जानने की इच्छा प्रकट की और यम ने उसको उस अग्नि का यथोचित उपदेश किया। वह स्वर्ग
क्या था और उसकी प्राप्ति का साधन रूप वह अग्नि क्या थी ? सकामता के साथ यज्ञादि करने से जिस
स्वर्ग की प्राप्ति का विधान ब्राह्मण तथा उपनिषद् ग्रन्थों में किया गया,
स्पष्ट है कि उस स्वर्ग के सम्बन्ध में न तो नचिकेता ने प्रश्न किया
था और न यमाचार्य ने उस स्वर्ग को प्राप्ति के साधन ही नचिकेता को बतलाये थे।
नचिकेता के प्रश्न में अभिलक्षित स्वर्ग के विशेषण दिए हैं वे ये हैं कि वहाँ जरा (
बुढ़ापा आदि) और मृत्यु नहीं है और न भूख-प्यास का वहाँ कष्ट भोगना
पड़ता है। वहाँ निर्भीकता के साथ सुखोपभोग करते हुए स्वर्गवासी अमरता का सेवन करते
हैं। यम ने उस स्वर्ग की साधन भूत जिस अग्नि का विधान किया है, उसको उसने अनेक लोकों (योनियों) को प्राप्त कराने वाला” जगत् की स्थिति का कारण और हृदयाकाश में स्थित बतलाया है। ये प्रश्नोत्तर
स्पष्ट रीति से प्रकट करते हैं कि नचिकेता ने ब्रह्मलोक (मोक्ष) प्राप्ति का साधन
पूछा था और यम ने ईश्वर-प्राप्ति का साधन उसको बतलाया है। वह स्वर्ग जो सकाम कर्म
यज्ञादि से प्राप्त हुआ करता है, वह मनुष्यों में
सर्वश्रेष्ठ (देवयोनि ) में पैदा होने से बढ़कर और कुछ नहीं , अवश्य वह देवयोनि दुःखों से रहित और उत्कृष्टतम सांसारिक सुखों से पूर्ण
होती है। इसलिए शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि “सकामजन्म
स्वर्ग” में मनुष्य स्थूल शरीर के साथ उत्पन्न हुआ करता
है।
'स ह सर्वतनूरेव यजमानोऽमुष्मिल्लोके सम्भवति।”
( शतपथ ब्राह्मण ४/६/२१/ १)
साफ जाहिर है कि स्थूल शरीर के साथ उत्पन्न होकर जरा मृत्यु, भूख, प्यासादि से
छुटकारा पा लेना सम्भव नहीं है। जो स्वर्ग प्रश्नोत्तर में पूछा और बतलाया गया है
उसकी प्राप्ति का मुख्य साधन ईश्वर-प्राप्ति ही है। हाँ, गौण
साधन उसकी प्राप्ति का भौतिक अग्नि भी हो सकता है और इसलिए यम ने ईंटों से
यज्ञकुण्ड बनाने की पूर्ण विधि भी बताई, जो ईश्वर-प्राप्ति
के साधन निश्चयात्मक ज्ञान-प्राप्ति का गौण साधन अवश्य हो
सकता है और वह इस प्रकार कि उसे सकामता दूर करके पूर्ण निष्कामता के साथ
किया जाए। निष्काम कर्म के मोक्ष के साधन होने में किसी को सन्देह हो ही नहीं
सकता। उपनिषद् के अन्त में कहे हुए शब्द कि “मृत्यु के -बन्धन से मुक्त हो और शोक रहित होकर प्राणी
स्वर्गलोक में आनन्द प्राप्त करता है।
स्पष्ट रीति से स्वर्गलोक का अभिप्राय ब्रह्मलोक प्रकट
करते हैं ॥ १२-१८ ।।
एष तेऽग्निर्नचिकेत:
स्वर्ग्यों यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण ।
एतमर्ग्नि तवैव प्रवक्ष्यन्ति जनासस्तृतीयं वरं नचिकेतो
वृणीष्व ॥ १९ ॥
अर्थ-(नचिकेत:) हे नचिकेता (एष:) यह अग्नि ( सो स्वर्ग
का साधन (ते) तेरे लिए कहा गया (यम्) जिस (द्वितीयेन) दूसरे (वरेण (एतम्) इस (अग्निम् रेण)
वर से अवृणी था:) तूने मांगा था अग्नि को (जनास:) मनुष्य (तब, एव) तेरे ही नाम से (प्रवक्ष्यन्ति) कहेंगे (नचिकेतः) हे नचिकेता !
(तृतीयम्) तीसरा (वर) वर (वुणीष्व) मांग ॥। १९ ॥।
येयं॑ प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं, वराणामेष वरस्तृतीय: ॥ २० ॥
अर्थ-(मनुष्ये) मनुष्य के (प्रेते) मरने पर (अयम्) यह
आत्मा (अस्ति) बाकी रहता है (इति) ऐसा (एके) कुछ लोग (च) और (न) नहीं (अस्ति) रहता
(इति) ऐसा भी (एके) कुछ लोग
मानते हैं (या) जो (इयम्) यह (विचिकित्सा) सन्देह है (त्वया) आपसे (अनुशिष्ट:)
उपदेश किया हुआ (अहम) मैं (एतत्) इसको (विद्याम्) जानूं
(वराणाम्) वरों
में (एष:) यह (तृतीयः) तीसरा (वरः) वर है ॥ २० ॥
देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा, न हि सुविज्ञेयमणुरेष धर्म:।
अन्य वर नचिकेतो वृणीष्व, मा मोपरोत्सीरति मा सृजेनम् ॥ २१ ॥
अर्थ-(पुरा) पहले (अत्र) इसमें (देव:) विद्वानों ने (अपि) भी (विचिकित्सिम्) सन्देह किया था
(हि) निश्चय (एष:) यह (धर्म:) विषय (अणु:) सूक्ष्म होने से
(सुविज्ञेयम्, न) सुगमता से जानने योग्य नहीं है (नचिकेत:)
इसलिए हे नचिकेता ! (अन्यम्) कोई और (वरम्) वर (वृणीष्व) मांग (मा) मुझको (मा) मत (उपरोत्सी:) ऋणी के तुल्य दबा (एनम्)
इस वर को (अतिसृज) छोड दे ॥ २१॥
देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल, त्वञ्च मृत्यो यन््न सुविज्ञेयमात्थ।
वक्ता चास्य त्वादृगन्यो न लभ्यो, नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित् ॥ २२ ॥
अर्थ-(मृत्यो) हे मृत्यु! (अत्र) इस विषय में (देवै:)
देवों ने (अपि) भी (विचिकित्सितं) सन्देह किया था (त्वम् च किल) और तू भी (यत्)
जो (सुविज्ञेयं न) सुगमता से जानने योग्य नहीं है ऐसा (आत्थ) कहता है परन्तु
(अस्य) इस विषय का (वक्ता) उपदेश करने वाला (त्वादृग्) तेरे तुल्य (अन्यः) और (न, लभ्य:) नहीं मिल सकता (च ) और (एतस्य ) इस वर के ( तुल्य: ) सदृश (अन्य: ) और (कश्चित) कोई (वरः न) वर
नहीं है ॥ २२ ॥
शतायुष: पुत्रपौत्रान् वृणीष्व, बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान।
भुमेर्हदायतन वृणीष्व, स्वयं चर जीव शरदों यावदिच्छसि ॥ २३ ॥
अर्थ-(शतायुष:) १०० वर्ष जीने वाले (पुत्रपौत्रात्) पुत्र और पौत्रों को
(वृणीष्व) मांग (बहून्) बहुत (पशून) पशु,
(अश्वान्) घोड़े, (हस्ति) हाथी, (हिरण्यम्) सुवर्ण, (भूमे:) पृथ्वी के (महत् बड़े,
(आयतनम्) माण्डलिक राज्य को (वृणीष्व) मांग
(स्वयं च) और तू स्वयं (यावान्) जितने (शरद:) वर्ष (इच्छसि)
इच्छा करता है (जीव) जीवित रह ।।२३।।
एतत्तुल्यं यदि मन्यसे, वरं, वृणीष्व
वित्तं चिरजीविकाञ्च।
महाभूमौ नचिकेतस्त्वमेधि, कामानां त्वा कामभाजं करोमि ॥ २४॥
अर्थ-(यदि) जो (एतत्) इस (वरम्) वर के (तुल्यम्)
तुल्य तू (मन्यसे) मानता है तो (वित्तम) धन और (चिरजीविकाम्) सदा की आजीविका को (वृणीष्व). मांग (नचिकेतः) हे नचिकेता ! (त्वम्) तू (महाभूमो) इस महान् पृथ्वी पर (एधि)
बढ़ने वाला हो (त्वा) तुझको (कामानाम्) कामनाओं का (कामभाजम्) भोग करने वाला
(करोमि) करता हूँ ॥ २४ ॥
ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके, सर्वाच् कामारश्छन्दतः प्रार्थयस्व।
इमा रामा: सरथा: सतूर्या, न हीदृशा लभनीया मनुष्येः।
आभिर्मग्रत्ताभि परिचारयस्व, नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षी: ॥ २५॥
अर्थ-(मर्त्यलोके) संसार में (ये, ये, कामा:) जो जो कामनाएँ (दुर्लभा:) दुर्लभ हैं
(सर्वानु) उन सब (कामान) कामनाओं को (छन्न्दत:) यथेष्ट ( प्रार्थयस्व ) मांग
(इमा:) ये (सरथा:) रथों, सहित (
सतूर्या:) बाजों के साथ (रामा:) प्मणीय स्त्रियाँ हैं (आभिः:) इन ( मत्प्रत्ताभि)
मेरी दी हुई (स्त्रियों)
से (परिचासयस्व) अपनी सेवा करा। (हि) कि (इंदृशा:) ऐसी
युवतियाँ (मनुष्यै:) साधारण मनुष्यों से (न लम्भनीया:) प्राप्त होने योग्य नहीं
हैं। (नचिकेत:) हे नचिकेता (मरणम्) मौत को (मा) मत
(अमनुप्राक्षी:) पूछ ।। २५ ।।
व्याख्या-नचिकेता का तीसरा प्रश्न आत्मा की अमरता से सम्बन्धित
था। आस्तिक और नास्तिक संसार में सदा से रहते चले आये हैं। आस्तिक का सिद्धान्त है
कि जीवात्मा अमर है और शरीर नष्ट होने के साथ वह नष्ट नहीं होता किन्तु आवागमन के
द्वारा एक को छोडकर दूसरी योनियों में आया-जाया करता है। परन्तु नास्तिकवाद यह है
कि शरीर के मेल का परिणाम आत्मोत्पत्ति है और इसीलिए शरीर के नष्ट होने के साथ वह
भी नष्ट हो जाता है। नचिकेता एक नवयुवक ब्रह्मचारी था। इस प्रकार का सन्देह उसे हो
जाना सवा भाविक था और उसी सन््देह की निवृत्ति के लिए उसने यम से यह तीसरा प्रश्न
किया था। यम ने पहले वरों की तरह इसका उत्तर न देकर क्यों नचिकेता को अनेक प्रकार
के प्रलोभन देकर इस प्रश्न का उत्तर देने से अपने को बचाना चाहा? इसका कारण यह है कि प्राचीन पद्धति यह
थी कि आत्मविद्या सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर केवल उन्हीं व्यक्तियों को दिये जाते
थे जिनको आचार्य इस विद्या के जानने का पात्र समझा करते थे। नचिकेता इस विद्या के
प्राप्त करने का अधिकारी है या नहीं, इसी को जानने के लिए,
उसकी परीक्षा लेने के उद्देश्य ही से , इसी
प्रकार के प्रलोभन उसे दिए गए थे और जब बह प्रलोभनों में न आकर परीक्षोत्तीर्ण हुआ
तो यम ने उसे अपेक्षित शिक्षा दी।
यम ने जो प्रलोभन नचिकेता को दिये थे। उनमें उसने सौ
वर्ष जीने वाले पुत्र पौत्रों को देने की बात कही तथा माण्डलिक राज्य देने का
प्रलोभन भी उसे दिया था। यम के लिए किस अकार यह सम्भव था कि वह इन दिये गये
प्रलोभनों की पूर्ति करता, यह
'सन्देह है जो उपनिषद् के पढ़ने वालों के हृदयों में प्राय:
उठा करता है। इसका समाधान यह है-(१) योगदर्शन में कहा गया है कि जो मनुष्य सत्य की
सिद्धि कर लेता है उसकी वाणी में अमोघता आ जाती है अर्थात् ऐसी सिद्धि प्राप्त होती
है वह जो कुछ भी कह देता है वह सत्य हो जाता है।” सम्भव है
कि यम ऐसी ही सिद्धि प्राप्त योगी हो। दूसरी बात माण्डलिक राज्य देने के सम्बन्ध
में यह कहा जा सकता है कि सम्भव है कि जनक और अजातशनत्रु आदि की तरह आत्मज्ञानी
होने के सिवाय यम समृद्धिशाली भी हो और ऐसी हालत में उसके लिए यह सर्वथा सम्भव था
कि वह नचिकेता को अपने राज्य का कोई भाग दे डालता यदि नचिकेता प्रलोभन में आ जाता।
एक बात और भी इस सम्बन्ध में कही जाती है और वह यह है कि यम ने दूसरे वर “ईश्वर प्राप्ति” के सम्बन्ध में, जो ब्रह्मविद्या का गहनतम प्रश्न है, नचिकेता को
ननु-नच किये बिना ही उसका उत्तर दे दिया, परन्तु जीवात्मा का वर्णन करने में इस
प्रकार की परीक्षा लेना क्यों आवश्यक समझा? इसका उत्तर यह
है कि यम को दूसरे वर के सम्बन्ध में नचिकेता को स्थूल विवरण दे देने के सिवाय कुछ
सूक्ष्म रहस्य उद्घाटित नहीं करने थे। इसलिए कि वह उपनिषद् का मुख्य प्रश्न नहीं
परन्तु तीसरा प्रश्न उपनिषद् का मुख्य प्रश्न है ओर इसमें यम को ब्रह्मविद्या का
हृदय खोलकर नचिकेता के सम्मुख रखना था। इसलिए ऐसा करने से पूर्व उसने नचिकेता की
परीक्षा ले लेनी आवश्यक समझी और इसीलिए उसने उसे तरह-तरह के प्रलोभन दिये ।|
१९-२५ ।।
श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत् सर्वेन्द्रियाणां
जरयन्ति तेज: ।
अपि सर्व जीवितमल्पमेव तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥ २६ ॥
अर्थ-( अन्तक) हे मृत्यु! (यद्) यह (श्वोभावा:) कल ही कल, (मर्त्यस्य) मनुष्य की (सर्वेन्द्रयणाम्)
समस्त इन्द्रियों के (एतत्) इस (तेज) का (जरयन्ति) नाश कर देती (सर्वम्) सब (अपि) भी (जीवितम्)
जीवन (अल्प एव) थोड़ा ही है। (इसलिए
मनुष्य) (तव, एव) तेरे ही (मृत्यु के ही) (वाहा:) वाहन रहें
और (नृत्यगीते) नाचना गाना भी (तव) तेरा ही रहा ॥ २६ ।।
न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म
चेत्त्वा।
जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वरस्तु में वरणीय: स॒ एव ॥
२७ ॥
अर्थ-(मनुष्य:) मनुष्य (वित्तेन) धन से (न) नहीं (तर्पणीय:) तृप्त होता (चेत्) जो (त्वा)
तुझ को (अद्राक्षम ) हमने देखा तो (वित्तम) धन को (लप्स्यामहे) प्राप्त होंगे। (यावत्) जब तक (त्वम्) तू (ईशिष्यसि) चाहेगा (जीविष्याम:) जीवेंगे। इसलिए
(मे) मुझको (वर:) वर (तु) तो (सः, एव) वह ही (वरणीय:) मांगना
है ।। २७ ।।
व्याख्या-नचिकेता यम के दिए हुए प्रलोभनों में नहीं आया, उसने साफ यम से कह दिया कि जिस वस्तु
धनादि से मनुष्य की कभी तृप्ति ही नहीं होती उसे तुझसे मांगकर में क्या करूंगा।
इसके सिवाय मनुष्य यदि पूर्ण आयु को भी प्राप्त कर लेवे तब भी तो वह केवल १०० वर्ष
का समय, आत्मज्ञान प्राप्ति के फल की अपेक्षा बहुत थोडा है
और फिर उस आयु के समाप्त होने पर मनुष्य को मौत के फन्दे में फंसना पड़ता है।
इसलिए क्यों न वह ज्ञान प्राप्त किया जाबे जिससे अमरता का जीवन प्राप्त हो सके और
वह (नचिकेता) मौत के फन्दे से भी छूट सके। मनुस्मृति २/६४ में लिखा है--
न जातु काम: कामानांमुपभोगेन शाम्यति। :.
हविषा कृष्णवर्त्मेब भूय एवाऽमभिवर्धते ॥
महाभारत में भी (देखो अ० ७५/१५९) यह श्लोक आया है। राजा
ययाति, शुक्राचार्य के झाष-
से सट्मओ जाता है कि बूढ़ी हो गया परन्तु फिर शुक्र की-कृपा से उसका बुढ़ापा जवानी
बदल गया और उस (ययाति) ने प्रसिद्ध कथानुसार- बहुत वर्ष तक इस नई जवानी का उपयोग
किया। अन्त में उसने उपर्युक्त वाक्य कहकर प्रकट कर दिया कि “मनुष्य की कामनाएं भी करने से तृप्त नहीं होतीं किन्तु जैसे अग्नि की
ज्वाला घृत डालने से बढ़ती हैं इसी प्रकार कामनाएँ भोग करने से और 'भी अधिक बढ़ जाती हैं। इसलिए नन्रिकेता ने यम के प्रस्तावित भोगमय जीवन को
पसन्द नहीं किया। ।।२६, २७।।
अजीर्यताममृतानामुपेत्य जीर्यन्मर्त्य: क्वध:स्थः
प्रजानन।
अभिध्यायन् वर्णरतिप्रमोदानतिदीर्घे जीविते को रमेत ॥
२८ ॥
अर्थ-(अजीर्यताम्) बुढापे से जीर्ण न होने वाले (अमृतानाम् ) मुक्त पुरुषों को (उपेत्य)
प्राप्त होकर (क्वधःस्थः) पृथ्वी के अधोभाग में स्थित (मर्त्य:) मनुष्य (जीर्यन)
शरीर के नाश का अनुभव करता हुआ (वर्ण) सुन्दरवर्ण (रति) और स्त्री प्रसंग से हुए
(प्रमोदान) सुखों का (अभिध्यायन्) विचार करता हुआ (क:) कौन (प्रजानन्) जानता
हुआ। (अति) बडे (दीर्घे) लम्बे (जीविते) जीवन में (रमेत) रमण
करे ।। २८ ॥
यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो, यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत।
योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो नान््यं तस्मान्नचिकेता
वृणीते ॥ २९ ॥
अर्थ-(मृत्यो) हे मृत्यु! (यस्मिन) जिस (विषय) में (इदम्) यह (कि मरने के बाद आत्मा रहता है
या नहीं) (विचिकित्सन्ति) सन्देह करते हैं (यत्) जो (महति)
महान् (साम्पराये) परमार्थ दशा में (प्राप्त होता है) (तत्)
उसको (न: ब्रूहि) हमारे लिए कह (य:) जो (अयम्) यह (गृढम )
सूक्ष्म (वर:) वर (अनुप्रविष्ट:) मेरे मन में समाया हुआ है (तस्मात्)
उसे (अन्यम्) भिन्न वर (नचिकेता न व॒णीते ) नचिकेता नहीं चाहता ॥ २९ ।।
व्याख्या-ऐसे सूक्ष्म विषयों के जानने वाले, दुष्प्राप्य हुआ करते हैं। इसलिए यम से
नचिकेता ने कहा कि तेरे जैसे आत्मज्ञानी को प्राप्त होकर मैं किसलिए क्षणिक
सांसारिक विषय भोग के सुख की इच्छा करूँ। विषय सुख की निःसारता का प्रत्यक्ष
प्रमाण यह है कि कोई भी वस्तु उदाहरण के लिए थोड़ी सी शक्कर, स्वाद लेने के अभिप्राय से, जुबान पर रखो, जुबान पर रखते ही उसका स्वाद आ जायेगा। अब कोई यदि इस उद्देश्य से कि वह
स्वाद बराबर आता रहे, शक्कर को न खाकर जुबान ही पर रखा रहने
दे तो अब उसको स्वाद नहीं आता। हाँ, शक्कर की दूसरी मात्रा
को जुबान पर फिर रखने से अवश्य स्वाद आ जायेगा। परन्तु स्वाद आने के बाद उसी शक्कर
ही को कितनी ही देर जुबान पर रखने से फिर स्वाद नहीं आता। इसीलिए आतत्मज्ञानी
स्त्री-पुरुष सांसारिक विषय सुख को निस्सार कहते और मानते हैं ॥२८, २९॥
॥ प्रथमा वलल्ली समाप्त ॥
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