षष्ठी वल्ली
ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थ: सनातन:।
तदेव शुक्र तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।
तस्मिललोकाः श्रिता: सर्वे तदु
नात्येति कश्चन ॥ एतद्वै तत् ॥ १ ॥
अर्थ-(ऊर्ध्व:) ऊपर (मूल:) जड़ और
(अवाक्) नीचे को (शाख:) शाखाएँ हैं जिसकी, ऐसा (एप:) यह (अश्वत्थ:) कल ही कल ठहरने वाला
[मनुष्य शरीर रूप] वृक्ष (सनातन:) [प्रवाह से नित्य है। (तद्)
उस इस वृक्ष के रचयिता] को (एव) ही (शुक्रम) जगत् का चैतन्य
कारण (तद्) उसको (ब्रह्म) सबसे बड़ा (ततू, एव) उसीको (अमृतम्) अमर (उच्यते) कहते हैं (तस्मिन्)
उसी में (सर्वे) सब (लोका:) लोक (श्रिता:) ठहरे हैं (कश्चन) कोई भी (तत्) उसका (न, अत्येति) उल्लंघन नहीं करता ।।१।।
व्याख्या-मनुष्य के शरीर में सिर जड़
स्थानी हैं और हाथ, पांव आदि शाखाओं के सदृश हैं अर्थात् वृक्षों से मनुष्य शरीर की बनावट इस
अंश में सर्वथा विपरीत हैं। इस वाक्य में शरीर को (अश्वत्थ:) कल ही कल रहने वाला
और साथ ही नित्य भी माना गया है। इसका अभिप्राय यह है कि वर्तमान मनुष्य शरीर तो
स्पष्ट ही बहुत थोड़ी देर रहने वाला है परन्तु मनुष्य योनि जो कि सृष्टि काल में
बराबर बनी रहती है और प्रलय के बाद फिर प्रकट हो जाती है, नित्य
है। इसी का नाम प्रवाह से नित्य होता है ।। १ ॥
यदिदं किञ्च जगत्सर्व॑ प्राण एजति
निःसृतम् |
महद्भयं वज़मुद्यतं य
एतद्विवुरमृतास्ते भवन्ति ॥ २ ।।
अर्थ-(यत्) जो (किञ्च) कुछ (जगत्)
ब्रह्माण्ड (इदम्) वह (सर्वम) सब (प्राणे) परमात्मा में (एजति) गतिमान् है और उसी से
(निश्सृतम्) उत्पन्न हुआ है, यह ब्रह्म
(उद्यतम्, वजम्, इव) हाथ में लिये वज्र के सदृश (महद्) महान् (भयम्) भय वाला है (ये) जो
मनुष्य (एतद्) इस पार (भवन्ति) हो जाते हैं ।।२॥
भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्य :।
भयादिन्द्रश्च॒ वायुश्च मृत्युर्धावति
पञ्चम: ॥ ३ ॥
अर्थ- ( अस्य ) इस ब्रह्म के (भयात्)
भय से (अग्नि:) अग्नि (तपति) जलती है (भयात्) भय से (सूर्यः) सूर्य (तपति) प्रकाशित होता है
(च) और (भयात्) भय से ही (इन्द्र) बिजली (च) और (वायु:)
वायु [अपना-अपना काम करते हैं] और (पञ्चम:) पांचवां (मृत्यु:) मृत्यु (धावति)
दौड़ता - अपना काम करता है ।। ३ ॥
इह चेदशकद् बोद्थुं प्राक्शरीरस्य विस्रसः।
ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ॥
४ ॥
अर्थ-(चेत्) यदि (इह) इस जन्म में
(शरीरस्थ) शरीर के (विस्रसः:) नाश होने से (प्राक्) पहले (बोद्धुम्) (ब्रह्म को)
जानने को (अशकत्) समर्थ हो (तो ठीक है, अन्यथा) (तत:) उस (न
जानने) से (सर्गेषु) रचे हुए (लोकेषु) लोकों में (शरीत्वाय) शरीर धारण करने (जन्म
मरण के चक्र में आने) के लिए (कल्पते) समर्थ होता है ॥४॥
व्याख्या-प्रथम के दो श्लोकों में यह
प्रकट किया गया है कि यह समस्त ब्रह्माण्ड, सर्वाधार होने से ब्रह्म के अन्तर्गत ही स्थित
होता हुआ अपना कार्य कर रहा है और इस जगत के प्रत्येक कार्य में जो नियम पाया जाता
है वह नियम ईश्वर-प्रदत्त है और इस नियम को ठीक रीति से चलाने के लिए ईश्वर मानो
वज्र हाथ में लिये सदैव (नियम भंग करने वालें को दण्ड देने के लिए) तैयार रहता है।
तीसरे श्लोक में मनुष्य को चेतावनी दी गई है कि शरीर छुटने से पहले आत्मज्ञान
प्राप्त करने में समर्थ न हुआ. तो उस जन्म-मरण के चक्र में ही रहना पड़ेगा।
ईश्वरीय आज्ञाएँ दो प्रकार की होती हैं। एक वे जिन्हें ईश्वर माता, पिता तथा सखा के रूप में, कर्म-स्वातन्त्रमय के कारण
और ईश्वर-प्रदत्त मनुष्यों को अधिकार होता है कि चाहे उसका पालन करें या न करें।
(२) दूसरी आज्ञा नियम रूप में होती है कि जो जगत् और जगत्-सम्बन्धी कार्यों को
चलाने के लिए जगत में प्रचलित की जाती हैं। इन्हीं का नाम प्राकृतिक नियम (Laws
of Natur) है। ये नियम अटल होते हैं। इन्हें कोई तोड़ नहीं सकता और
इन्हीं के लिए उपनिषद् के उपर्युक्त वाक्य में (देखो श्लोक २, ३) कहा गया है कि पालन कराने के लिए ईश्वर मानो -हाथ में वज्र लिये हुए के
सद॒श है ॥ १-४ ।।
यथाऽऽदर्श तथात्मनि यथा स्वप्ने तथा
पितृलोके।
यथाऽप्सु परीव ददृशे तथा
गन्धर्वलोके छायातपयोरिव ब्रह्मलोके ॥ ५॥
अर्थ- (यथा) जैसे (आदर्श) दर्पण में
(तथा) बैसे ( आत्मनि) शुद्ध अन्तःकरण में (यथा) जैसे (स्वप्ने) स्वप्न में (तथा) वैसे (पितृलोके) पितृलोक में (यथा) जैसे (अप्सु) जलों में (परीव) सब
ओर से स्पष्ट (तथा) बैसे (गन्धर्वलोके): गन्धर्व लोक में (ददृशे) (आत्मा) देखा
जाता है, (छायातपयो:) छाया और प्रकाश के (इव) समान (ब्रह्मलोके)
ब्रह्मलोक में (देखा जाता है) ।। ५ ।।
व्याख्या-आत्मज्ञानार्थ उत्तम कर्म करते
हुए मनुष्य की प्रारम्भ से अन्त तक चार अवस्थाएँ होती हैं--
(१) श्रेष्ठ ज्ञान और
कर्मों से उसने अन्त:करण को ऐसे बना लिया है जिसमें आत्मदर्शन कर सके।
(२) सकाम कर्म करते हुए
पितृलोक (चन्द्रलोक) अर्थात् दुःख रहित, मनुष्य योनि में
जाना, जिसमें जाना स्वर्ग-प्राप्ति कहा जा सके।
(३) निष्काम कर्म करते
हुए देवयान का पथिक बनकर सूर्य 'लोक को प्राप्त कर लेना।
(4)
अन्त में सूर्यलोक के बाद ब्रह्मलोक को प्राप्त कर लेना।
इन चारों अवस्थाओं में मुमुक्षु
परमात्म-दर्शन किस प्रकार करता है इसी का विवरण इस उपनिषद् वाक्य में दिया गया
है-
(१) शुद्ध अन्तःकरण में आईने में शक्ल देखने के
सदृश।
(२) पितृलोक में स्वप्न की वस्तु देखने के सदृश।
(३) सूर्यलोक में जल के रूप में देखने की तरह और
(४) ब्रह्मलोक में स्पष्ट प्रकार से प्रकृति से
पृथक् ब्रह्म को देखता है जिस प्रकार छाया से पृथक् प्रकाश हुआ करता है
ब्रह्मलोक अर्थात् ईश्वर-प्राप्ति की विशेषता है ।।५ ॥
इन्द्रियाणां पृथग्भावमुदयास्तमयौ च
यत्।
पृथगुत्पद्ममानानां मत्वा धीरो न शोचति
॥ ६ ॥
-अर्थ-(पृथक्, उत्पद्यमानानाम्) पृथक्-पृथक् उत्पन्न
किए हुए (इन्द्रियाणाम्) इन्द्रियों के (पृथक भावम्) पृथक् भाव को (च) और (यत्)
जो उनके (उदय-अस्तमयों) उदय (प्रारम्भ) और अस्त (अन्त) हें
इनको (मत्वा) जानकर (धीर:) विवेकी पुरुष (न, शोचति) शोक नहीं करता ॥ ६ ।।
व्याख्या-इन्द्रियाँ बहिर्मुखीवृत्ति के
साधन हैं। इनके द्वारा इनके विषय की ओर मनुष्य जा सकता है। इसलिए कहा गया है कि जो
मनुष्य इन्द्रियों के आत्मा से पृथक्त्व और इन्द्रियों के उदय और अस्त अर्थात्
इनके नाशवान् और उनके द्वारा प्राप्त विषय सुख के क्षणिक होने की हकीकत को समझ
लेता है तब वह दु:खों से छूट जाता है ॥६ ||
इन्द्रियेभ्य: पर॑ मनो मनसः
सत्त्वमुत्तमम।
सत्त्वादधि महानात्मा महतोड;व्यक्तमुत्तमम् ॥ ७ ॥।
अर्थ-(इन्द्रियेभ्य:) इन्द्रियों से
(मन:) मन (परम) सूक्ष्म है,
(मनस:) मन से (सत्त्वम) बुद्धि (उत्तमम्) श्रेष्ठ हे '(सत्त्वातू अधि) बुद्धि से सूक्ष्म (उसका कारण) (महानात्मा) महत्तत्व
(महत:) महत्तत्व से (अव्यक्तम्) अप्रकट (प्रकृति) (उत्तमम्)
उत्तम है ।।७ ।।
अव्यक्तात्तु पर: पुरुषो व्यापकोऽलिङ्ग एव च।
यज्ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्व॑ चर
गच्छति ॥ ८ ॥
अर्थ-(अव्यक्तात्) अप्रकट प्रकृति
से (तु) निश्चय (व्यापक:) व्यापक (च) और (अलिङ्ग) चिह्न रहित - निराकार ( पुरुष:) (एकमात्र) ईश्वर (एव) ही (पर:) सूक्ष्म है
(यत्) जिसको (ज्ञात्वा) जानकर (जन््तुः) प्राणी (दुःखों से) (मुच्यते ) छूट जाता है (च) और (अमृतत्वम्) मोक्ष को
(गच्छति ) प्राप्त होता है ॥ ८ ॥
व्याख्या-ये उपनिषद्वाक्य इससे पहले
३/१०/११ में आये हुए भावों को ही प्रकट करते हैं। इनमें कहा गया है कि मनुष्य को
अपने अन्तिम ध्येय ब्रह्म की प्राप्ति के लिए अपने अन्दर आत्मा की ओर चलना
चाहिए-इन्द्रियों से सृक्ष्म मन, मन से सूक्ष्म बुद्धि, बुद्धि से
सूक्ष्म उसका कारण महत्तत्व, महत्तत्व से सूक्ष्म अव्यक्त
प्रकृति (कारण शरीर) और प्रकृति से सूक्ष्म व्यापक और निराकार ईश्वर है। जब मनुष्य
क्रमश: उपर्युक्त भाँति भीतर चलते हुए अन्त में जाकर ईश्वर को साक्षात् कर लेता
है तब आवागमन के बन्धन से छूटकर मुक्त हो जाता है ।। ७, ८ ।।
न सन्दृशे तिष्ठति रूपमस्य न अक्षुषा
पश्यति कश्चनैनम्।
हृदा मनीषा मनसाभिकक्लूप्तो य
एतद्विद्रमतास्ते भवन्ति ॥ ९ ॥
अर्थ-(अस्य) इस (ब्रह्म) के (सन्दृशे)
समक्ष में (रूपम्) कोई रूप (न तिष्ठति) नहीं उहरता (एनम्) इसको (कश्चन) कोई भी (चक्षुषा) आँख से (न, पश्यति) नहीं
देखता (हृदा) हृदयस्थ (मनीषा) मनन करने वाली (मनसा)
बुद्धि से (अभिक्लृप्त:) प्रकाशित होता है। (ये) जो कोई (एतत्) इस (रहस्य) को (विदु:)
जानते हैं (ते) वे ( अमृता:) अमर (भवन्ति) होते हैं ।।९ ॥।
व्याख्या-प्रभु के दर्शन के लिए हृदय के
पटल खुलने चाहिएं--इन बाह्य आँखों से उसका रूप नहीं देखा जा सकता। वह प्रत्येक जगह
मौजूद है। जहाँ भी मनुष्य उसे हृदय की आँखों से देखना चाहता है, देखकर तृप्त हो जाता
है। बाह्य आँखों का वह विषय नहीं है इसलिए उनसे देखने की इच्छा व्यर्थ है। एक कवि
ने बहुत अच्छा कहा है-
नकाब” दूर है हर चन्द रूप* लैला से।
कहाँ से लाए मगर कोई दीदए मजनूं ।।
अर्थात् यद्यपि लैला के मुँह पर परदा
नहीं है परन्तु देखने के लिए तो मजनूं की आँखें चाहिएं ॥ ९ ।।
यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च॒ न विचेष्टते तामाहु: परमां
गतिम् ॥ १० ॥
अर्थ-(यदा) जब (पञ्च, ज्ञानानि) पाँच
ज्ञानेन्द्रियाँ (मनसा) मन के (सह) साथ (अवतिष्ठन्ते) ठहर
जाती हैं (च) और (बुद्धि:) बुद्धि भी (न, विचेष्टते) चेष्टा नहीं करती (ताम) उसको -(परमां
गतिम्) परम गति - जीवनमुक्तावस्था (आहु:) कहते हैं ॥ १० ॥
व्याख्या-इन्द्रियों का मन के साथ, अपना-अपना काम छोड़कर
ठहर जाना बहिर्मुखी वृत्ति का बन्द हो जाना और अन्तर्मुखी वृत्ति का जागृत हो जाना
है। इसी अवस्था का नाम उपनिषद् के शब्दों में परमगति है। परन्तु जब तक बहिर्मुखता
बन्द नहीं होती, जिज्ञासु अन्तर्मुखी नहीं हो सकता। कबीर ने
इसी उच्चभाव को अपने मोटे शब्दों में इस प्रकार प्रकट किया “भीतर के पट जब खुलें बाहर के हों बन्द” ॥ १० ॥
तां योगमिति मन्यन्ते
स्थिरामिन्द्रियकधारणाम्।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगी ही
प्रभवाप्ययौ ॥ ११ ॥
अर्थ-(स्थिराम्) स्थिरता से (ताम्) उस
(इन्द्रियधारणाम्) इन्द्रियों को रोकने को (योगम्, इति) योग (मन्यन्ते) मानते हैं (तदा) तब योगी (अप्रमत्त:) प्रमाद रहित (भवति) होता हैं (हि) निश्चय (योग:)
योग (प्रभवाप्ययौ) [शुद्ध संस्कारों का
उत्पन्न और अशुभ संस्कारों का अन्त करने वाला है ॥ ११ ॥
व्याख्या--योग की कार्य-प्रणाली यह है कि
प्रथम अभ्यासी इन्द्रियों को उनके विषयों से रोककर चित्त को एकाग्र करे। इस
एकाग्रता की उपलब्धि से योगी चुस्त और आलस्य से रहित हो जाता है। इस चित्त की
एकाग्रता के बाद जब योगी चित्त के निरोध का यत्न करता है तो अभ्यास करने से उसके
अन्दर “ऋतम्भरा'
बुद्धि की उत्पत्ति होती है। इस बुद्धि से जो संस्कार उत्पन्न होता
है वह अन्य संस्कारों का नाश कर देता है परन्तु स्वयं बना रहता है” जब अन्त में यह संस्कार भी नष्ट हो जाता है तब योग की अन्तिम (चित्त की
निरुद्ध) अवस्था प्राप्त होकर योगी को कृतकृत्य कर देती है”? उपनिषद् के इस वाक्य में (प्रभवाप्ययो) शब्द से ऋतम्भरा की उत्पत्ति और
उससे अन्य संस्कारों के नष्ट होने का संकेत किया गया है।
नेव वाच्या न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा।
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ॥ १२ ॥
अर्थ-- (न, वाचा) न वाणी से (न,
मनसा) न मन से (न,: एव) न ही चक्षुषा) आँख से
(प्राप्तुम्) प्राप्त होने (शक््य:) योग्य है (अस्ति, इति)
है, ऐसा (ब्रुवत:) कहते हुए (अभनन्यत्र) और कहाँ (तत्) वह
(कथम्) क्योंकर (उपलभ्यते) प्राप्त हो सकता है ॥ १२. 4।
अस्तीत्येवोलपलब्धव्यस्तत्त्वभावेन
चोभयो:।
अस्तीत्येवोपलब्धस्य तत्त्वभाव:
प्रसीदरति ॥ १३ ॥।
अर्थ- (उभयो:) (अस्ति, नास्ति) इन दोनों में
( तत्त्वभावेन तत्व की भावना से (अस्ति) है (इति) ऐसा (एव) ही (उपलब्धव्य:) जानने वाले का (तत्त्व-भाव:) तत्त्त भाव” (प्रसीदरति) प्रसन्न होता है ॥ १३ ॥
शरीर
इन्द्रिय और आत्मा का समूह “तत्त्वभाव' शब्द से अभिप्रेत है।
व्याख्या-यंहाँ तक पहुँचने के बाद
नचिकेता को फिर एक सन्देह उत्पन्न होता है और यमाचार्य उसको निवृत्त करते हैं।
शंका-जब ईश्वर वाणी, मन, चक्षु (आदि किसी भी इन्द्रिय) से प्राप्त नहीं
हो सकता हे तो फिर उसकी सत्ता स्वीकार करके उसे किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं समाधान--अस्ति और नास्ति इन दोनों में से ईश्वर
की सत्ता के सम्बन्ध में अस्ति कहने वाले ही की बुद्धि आदि निर्मल होकर उसकी
प्राप्ति का साधन बन जाती है ॥ १२, १३ ॥
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिता:।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते
॥ १४ ॥।
अर्थ-(यदा) जब (सर्वे) सब (कामा:)
वासनाएँ (ये) जो (अस्य) इस पुरुष के (हृदि) हृदय में (श्रिता:) रहती हैं। (प्रमुच्यन्ते) छूट जाती
हैं (अथ) तब (मर्त्य:) मनुष्य (अमृत:)
मुक्त (भवति) होता है (अत्र) और (ब्रह्म) ब्रह्म को (समुश्नते) प्राप्त होता है।। १४
॥
यदा सर्व प्रभिद्यन्ते हृदयस्थेह
ग्रन्थय:।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम्
॥ १५ ॥
अर्थ-(यदा) जब (इह) यहाँ (हृदयस्य)
हृदय को (सर्वे)
सब (ग्रन्थय:) गांठें (प्रभिद्यन्ते) खुल जाती हैं (अथ) तब (मर्त्य:) मनुष्य
(अमृत:) मुक्त (भवति) होता हे
(एतावत्) इतना ही अनुशासनम् (शास्त्र का) उपदेश
है ।। १५ ॥।
व्याख्या- उपनिषद् को समाप्त करते हुए
अन्त की बातें ही अन्त में कही जाती हैं- जब चित्त के आश्रित वासनाएँ नष्ट हो जाती
हैं और मनुष्य निष्काम हो जाता है तब मृत्यु के बन्धन से मुक्त होकर ईश्वर को
प्राप्त कर लिया करता है। उपनिषद् कहती है कि शास्त्र इतना ही उपदेश कर सकता है
अर्थात् यह शास्त्र का उपदेश किस प्रकार सार्थक हो सकता है इसके लिए जिज्ञाजु को
विशेषज्ञों का सहारा पकड़ना चाहिए। यह बतलाना शास्त्र की सीमा से बाहर की बात है || १४, ९५ ||
शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां
मूर्द्धानमभिनि:सृतैका।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्वङ्ङन्या
उत्क्रमणे भवन्ति ॥ १६॥
अर्थ-(हृदयस्य) हृदय की (शतम्, एका च) एक सौ (नाड्य:) नाडियाँ हैं (तासाम्) उनमें से (एका) एक (मस्तिष्क में
(अभिनिःसृता) जा निकली है (तया) उस नाड़ी के साथ (ऊर्ध्वम्)
ऊपर से (आयन्) निकलता हुआ (जीवात्मा) (अमृतत्वम्) मोक्ष को (एति) प्राप्त होता
है (अन्या:) अन्य (१०० नाडियों द्वारा प्राण के साथ) (उत्क्रमणे) निकलने पर (
विष्वड्ः ) विविध (गति) ( भवन्ति) होती हैं ॥ १६ ॥
व्याख्या--जब मनुष्य उपनिषद् में दी
हुई शिक्षाओं के अनुकूल आचरण करके जीवनमुक्त हो जाता है तब उसका आत्मा इस शरीर से
किस प्रकार निकलता है यह बताया जाता है- हृदय से निकलकर जो १०१ नाडियाँ समस्त शरीर
में फैलती हैं उनमें से एक सुषुम्णा नाम वाली नाडी, जो शरीर में इडा और पिंगला के मध्य रहती
है, मूर्धा में जा निकली है। मुक्त जीव का आत्मा इसी नाड़ी
के द्वारा शरीर से निकल कर देवयान (मोक्षमार्ग) का पथिक बन जाता है और जो प्राणी
ऐसे हैं कि उन्हें मुक्ति से भिन्न फल प्राप्त होने वाले हैं उनका जीव इस
सुषघुम्णा नाड़ी से नहीं निकलता किन्तु शरीर के दूसरे छिंद्रों से निकल जाया करता
है ॥ १६ ॥
अङ्गुष्ठमात्र: पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये
सन्निविष्ट:।
तं स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मुञ्जादिवेषीकां
धैर्येण।
तं विद्याच्छुक्रममृतं तं विद्याच्छुक्रममृतमिति
॥ १७ ॥
अर्थ-(अन्तरात्मा) शरीर के भीतर
(जीव ( अङ्गष्ठमात्र:)
अंगूठे के बराबर हृदयाकाश में रहने वाला (सदा) सदैव (जनानाम्)
मनुष्यों के (हृदये) हृदय में (सन्निविष्ट:) प्रविष्ट है
(तम्) उस का (धैर्येण) धैर्य से (मुञ्जात) मुञ्ज से
(ईषीकाम) सींक की (इव) तरह (स्वात्) अपने (शरीरात्) शरीर से
(प्रवृह्त) निकाले (तम उस को (अमृतम्) न मरने वाला (शुक्रम्) पवित्र (विद्यात्)
जाने ।। १७।।
व्याख्या-मुक्त जीव के लिए यह शिक्षा दी
गई है कि जीवात्मा को, जो सदैव अंगूठे की
मात्रा वाले हृदयाकाश में रहा करता है, इस शरीर से जिस
प्रकार मूंज की तीली (सींक) निकाली जाती है उसी प्रकार धैर्य
के साथ इस शरीर से निकाले और उस जीव को पवित्र और अमर समझे क्योंकि यह कहा गया है
कि यह उपदेश केवल मुक्त जीवों के लिए है। इसका कारण यह हे कि केवल मुक्त जीव ही
का अधिकार है जो अपने आत्मा को अधिकार के साथ शरीर से निकाल सके। अन्य गतियों को
प्राप्त प्राणियों के जीव को सूक्ष्म शरीर के बन्धन में होकर उसी के साथ निकलना
पड़ता है। अस्तु उपनिषद् वाक्य के अन्तिम वाक्य का दुबारा पाठ
ग्रन्थ की समाप्ति का सूचक है ।। १७ ।।
मृत्युप्रोक्तां नचिकेताऽथ लब्ध्वा विद्यामेतां योगविधिञ्च
कृत्स्नम।
ब्रह्मप्राप्तो विरजोऽभभूद्विमृत्युरन्योऽप्येवं यो विदध्यात्ममेव ॥ १८
॥
अर्थ-(अर्थ) यह (मृत्युप्रोक्ताम)
मृत्यु से कही गई (एतां) इस (विद्याम्) विद्या को (च) और (कृत्स्नम्) समस्त (योगविधिम्) योगविधि को (लब्ध्वा) प्राप्त होकर (नचिकेत:) नचिकेता (ब्रह्म
प्राप्त) ब्रह्म को प्राप्त हुआ और (विरज:) निर्मल (विमृत्यु:) मृत्यु भय से रहित
(अभृत्) हुआ। (अन्य:) अन्य (अपि) भी (यः) जो (अध्यात्मम्, एव)
आत्मा सम्बन्धी विद्या को (एवं, विद) इस प्रकार जानता है
(मुक्त
हो जाता हे) ।। १८ ।।
व्याख्या-उपनिषद् को समाप्त करने के
बाद फल श्रुति के तौर पर उपनिषद्कार लिखते हैं कि यम के उपदेश को नचिकेता ने ग्रहण
कर और उसके अनुकूल आचरण कर पाप रहित होकर ब्रह्म को प्राप्त किया। अन्य नर-नारी भी
जो इस उपदेश के अनुकूल आचरण करेंगे ब्रह्म को प्राप्त कर सकेंगे ॥ १८ ॥
॥ षष्ठी वलल्ली तथा ग्रन्थ समाप्त ।।
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