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कठोपनिषद पञ्चम वल्‍ली सरल संस्कृत हिन्दी भाष्य

 

पञ्चम वल्‍ली

 


 

पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतस:।

अनुष्ठाय न शोचति विमुकतश्च विमुच्यते ॥ एतद्वै तत्‌॥ १ ॥

 

 

        अर्थ- (अवक्र-चेतस:) सरल चित्त वाले (अजस्य) अननुत्पन्न जीवात्मा के (एकादश द्वारम्‌) ग्यारह द्वार वाले (पुरम्‌) नगर (शरीर) को (अनुष्ठाय) अनुष्ठान करके (न, शोचति ) नहीं सोचता (च) और (विमुक्त:) मुक्त हुआ (विमुच्यते) छूट जाता है (एतद्‌, वै, तत) यही वह जीव है ॥ १ ।।

 

व्याख्या--इस शरीर को कहीं नव द्वार वाला और कहीं ग्यारह (११) द्वार वाला कहा जाता है। यहाँ २१ द्वार वाला कहा गया है। (१ सिर+ २ आँख + २ कान + २ नासिका छिद्र + १ मुख + १ नाभि + १ मल द्वार+ १ मूत्र स्थान-ये ११ द्वार हैं)। जिस समय मनुष्य इस शरीर का सदुपयोग करता है, अर्थात्‌ बुद्धि को सरल, मन को शुद्ध ओर चित्त को चंचलता रहित बनाकर समस्त इन्द्रियों पर अपना अधिकार रखता है तब यह शरीर मनुष्य के लिए सुख का साधनबनता है ओर ऐसे शरीर को उपरोक्त प्रकार से अनुष्ठान करते हुए जब वह छोडता है तो समस्त दु:खों से छूट कर मुक्‍त हो जाता है। इस प्रकार यह शरीर भी मुक्ति का साक्षात्‌ साधन है ॥१।।

सुखदो शब्द सु+ख से मिलकर बना है। सु - अच्छा + ख - इन्द्रिय अर्थात्‌ सुखनाम ही अच्छी इन्द्रियों का है। इस प्रकार दुःख (दु  बुरी + ख - इन्द्रिय) बुरी इन्द्रियों को कहते हैं।

 

हंस: शुचिषद्धसुरन्तरिक्षसब्द्ता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत्‌।

नृषद्वरसदृतसद्‌ व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्विजा ऋतम्बृहत्‌ ॥ २ ॥

 

अर्थ-(हंस:) एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने वाला जीव, (शुचिषद्‌) शुद्ध देश में स्थित, (वसुः) (योनियों में) वास करने वाला (अन्तरिक्षसद्‌) अन्तरिक्ष में रहने वाला (होता ) यज्ञकर्ता (वेदिषत्‌ ) स्थलचारी, ( अतिथि:) अतिथि के सदुश कुछ समय के लिए आने वाला, (दुरोणसत्‌) कुटी में रहने वाला, ( नृषत्‌) मनुष्य शरीरधारी, (वरसत्‌) श्रेष्ठ शरीरधारी, ( ऋतसत्‌) नियम में रहने वाला, (व्योमसत्‌) आकाश में रहने वाला (अब्जा: ) जलचर, (गोजा:) पृथ्वी में उत्पन्न होने वाला ( वृक्षादि ), (ऋतजा:) नियम से उत्पन्न होने वाला (अद्विजा:) पर्वतों में उंत्पन्न होने वाला, (ऋतम्‌, बृहत्‌ ) मर्यादाशील है ।।२॥

 

ऊर्ध्व प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति।

मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते ॥३॥

 

अर्थ- (जो साधक) ( प्राणम्‌ ) प्राण वायु को (ऊर्थ्वम्‌) ऊपर (उन्‍नयति) ले जाता है, (अपानम्‌) अपान वायु को ( प्रत्यक ) नीचे (अस्यति) फेंकता है (मध्ये) बीच (हृदयाकाश) में (आसीनम्‌) स्थित (वामनम्‌) श्रेष्ठ जीव को (विश्वे ) सम्पूर्ण

(देवा:) इन्द्रियाँ और प्राण (उपासते) सेवन करते हैं।। ३ ।।

 

अस्य विस्त्रंसमानस्य शरीरस्थस्य देहिन:।

देहाद्विमुच्यमानस्य क़िंमत्र परिशिष्यते ॥ एतद्चै तत्‌॥ ४॥।

 

अर्थ-( अस्य) इस (शरीरस्थस्य) शरीर में रहने वाले (देहिन:) आत्मा के (विस्त्रंसमानस्य) विध्वंस होते हुए (देहात) शरीर से (विमुच्यमानस्य) पृथक होते हुए (अत्र) यहाँ (किम्‌) कया (परिशिष्यते) शेष रह जाता है (एतद्‌, वै, तत्‌ ) यही वह जीव है ॥ ४ ॥

न प्राणेन नापानेन मर्त्यों जीवति कश्चन।

इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ ॥ ५ ॥

 

अर्थ-(कश्चन) कोई भी मनुष्य (न प्राणेन) न प्राण से ओर (न अपानेन ) न अपान से (जीवति) जीता है (तु) किन्तु ( इतरेण) इन दोनों से भिन्‍न जीव के कारण (जीवन्ति) जीते हैं (यस्मिन) जिस जीव के ( एतौ) ये दोनों (उपाश्रितौ) आश्रित हैं ॥५ ॥

 

व्याख्या- इन चार वाक्यों में जीवात्मा का वर्णन है आवागमन में रहकर जीव अपने कर्मफलानुसार 'किन्‍्न-. भिन्न योनियों में जाया करता है। जीव जहाँ-'जहाँ रहा करता ठ्न + गिनाए उनमे से कुछेक के नाम इस वाक्य में गए हें। यहाँ जीव हंस दो दृष्टि से कहा गया है--(५) जीव भी हंस कौ तरह एक जगह से दूसरी जगह जाया करता है, (२) हश जिस प्रकार कवियों के कथनानुसार दुग्ध मिश्रित जल से दुग्ध पृथक कर लिया करता है इसी प्रकार जीव भी प्रकृति रूपी जल से ब्रह्मरूपी दुग्ध को पृथक करके हंस ही नहीं किन्तु परमहंस कहलाया करता है ॥ १ ॥

 

जीव प्राण और अपान से काम लेता हुआ शरीर के मध्य रहता है। सम्पूर्ण इन्द्रियाँ उसकी आज्ञाओं का पालन करती ।। २।।

 

जीव के शरीर छोड देने के बाद बह शरीर निकम्मा रह जाता हैं |॥३ ।।

 

शरीर में जीव के आश्वित प्राण और अपान रहते हैं और शरीर में जीव के रहने ही से उनका (तथा अन्य इन्द्रियों का) जीवन रहता है ॥४, ||

नोट-यहाँ यद्यपि प्राण और- अपान दो ही कहे गए हैं, परन्तु मुख्य प्राण १० हँ--(५) प्राण - रेचक, (२) अपान - पूरक, (३) समान - शरीर में रस पहेचाना, (४) उदान- कण्टठ से १. एक कवि ने कहा है-

 

सारं ततो ग्राह्ममपास्य फल्गु हंसैर्यथा शक्षीरमिवास्बुमध्यात्‌ ॥

 

अर्थात्‌ जैसे जल में से हंस दुग्ध निकाल लेता है इसी प्रकार बुद्धिमान सार

ग्रहण करके (फल्गु) सारहीन वस्तु को छोड़ देता है।

२. यह वाक्य चजुर्वेद का मन्त्र है और उस वेद में दो जगह १०/२४, १२/१४ में

आया हे।  

३. जीव का २४ प्रकार का सामर्थ्य है,-(१) बल, (२) पराक्रम, (३) आकर्षण,

(४) प्रेरणा, (५) गति, (६) भीषण, (७) विवेचन, (८) क्रिया, (९) उत्साह, (॰) स्मरण, (११) निश्चय, (१२) इच्छा, (१३) प्रेम, (१४) द्वेष, (५) संयोग, (१६) विभाग, ( १७) संयोजक , (१८) विभाजक , (९) भाषण, (२०) स्पर्शन, (२१) दर्शन, (२२) स्वादन, (२३) गन्ध्रग्रहण, (२४) ज्ञान! अन्नपान खींचना, (५) व्यान - समस्त शरीर में रक्त में संचारक (६) नाग = अनिश्चित के तथा दस्त का साधक, (७) कूर्म्म - पलक मारने आदि का कारण, (८) कृकल - भोजन तथा पान की इच्छा से सम्बन्धित, (९) देवदत्त जम्हाई आदि का हेतु, (१०) धनज्जय = मूर्च्छा, बेसुध होना, सोना तथा खर्राटा लेने का कारण। एक जगह लिखा भी है-

 

नागकूर्मकृकलदेवदतधनञ्जयरूपा: पञ्च वायव: एतेषां कर्माणि

च यथाक्रमं उद्गारोन्मीलनक्षुधाजननविजम्भणमोहरूपाणि।

संगतिदर्पण अध्याय 1 श्लोक 43-48 Raja Surinder Mohan Tagore’s Edition)

हन्त त इद प्रवश्ष्यामि गुद्मं ब्रह्मा सनातनम्‌।

यथा च्व मरणं प्राप्य आत्मा भवत्ति गौतम ॥ ६ ॥

 

अर्थ-( गौतम) नचिकेता ! (हन्त) प्रसन्‍्नतापूर्वक (ते) तेरे लिए. (इदम्‌) इस (गुह्मम्‌) अप्रकट (सनातन) अनादि (ब्रह्म ) विद्या को (प्रवक्ष्यामि) कहुँगा (च) और (यथा) जैसे (मरणम्‌) मृत्यु को (प्राप्य) प्राप्त होकर (आत्मा) जीवात्मा (भवति) होता है ॥६ ।।

 

योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिन:।

स्थाणुमन्येनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्‌ ॥ ७ ॥

 

अर्थ-( अन्ये) कोई (देहिन:) जीव (शरीरत्वाय) शरीर धारण करने के लिए (योनिम्‌) जंगम योनियों को (प्रपद्यन्ते) प्राप्त होते हैं (अन्ये) और कोई (स्थाणुम्‌) स्थावर योनियों को (अनुसंयन्ति) जाते हैं (यथाकर्म) अपने-अपने कर्म (यथाश्रुतम) अपने-अपने ज्ञान के अनुसार ।। ७ ।।

 

व्याख्या-इतनी भूमिका के बाद यम अब नचिकेता के तीसरे प्रश्न का उत्तर देता है। नचिकेता का तीसरा प्रश्न यह था कि मरने के बाद जीव बाकी रहता है या शरीर के साथ वह भी नष्ट हो जाता है? इसका उत्तर यम ने दिया कि मरने के बाद जीव अपने कंर्मानुसार जंगम और स्थावर योनियों को आप्त हुआ करता है, अर्थात्‌ बाकी रहता है। शरीर के साथ नष्ट नहीं हो जाता ॥।६, ७ ।।

 

य एष सुप्तेषु जागर्ति कामं कामं पुरुषों निर्मिमाण:।

तदेव शुक्र तद्‌ ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।

तस्मिल्लोकाः श्रिता: सर्वे तदु नात्येति कश्चन॥ एतद्वैतत्‌ ॥ ८ ॥ .

 

अर्थ-(य:) जो (एष:) यह (पुरुष:) सबमें व्याप्त (परमेश्वर) (काम काम) यथेच्छ (निर्मिमाण:) (ब्रह्माण्ड को) रचता हुआ (सुप्तेष) सोए हुए (जीवों में) (जागर्ति) जागता है (तद्‌, एव) वही (शुक्रम्‌) पवित्र (तद्‌ ब्रह्म) वही सबमें बड़ा (तद्‌, एव) वही (अमृतम्‌) अमर (उच्यते) कहा जाता है (तस्मिन्‌) उसी (ब्रह्म) में (सर्वे लोका:) सब लोक (श्रिता:) ठहरे हुए (तद्‌, उ) उसका (कश्चन) कोई भी (न अत्येति) उल्लंघन नहीं कर सकता (एतद्‌, वै, तत्‌) यही वह ब्रह्म है ।। ८ ।।

 

व्याख्या-मनुष्य चाहे सो जाए या मूर्छित हो जाए अथवा किसी प्रकार से अपने होश में न रहे तब भी उसके शरीर में व्यापक ईश्वर जागता रहता है और यथेच्छ रचना करता रहता है। यही शुक्र, ब्रह्या और अमृत है, समस्त ब्रह्माण्ड उसी के आश्रित है। कोई भी प्राणी उसके नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकता ।। ८ ।।

 

अग्निर्यथेको भुवनं प्रविष्टो रूप॑ रूप॑ प्रतिसूपो बभूव।

एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूप॑ प्रतिसूषपो बहिश्चा ॥ ९ ॥|

 

अर्थ- (यथा) जैसे (एक:, अग्नि:) एक अग्नि ( भुवनम) लोक-लोक में (प्रविष्ट:) व्याप्त हुआ (रूपं रूपम्‌) प्रत्येक रूपवान्‌ वस्तु के (प्रतिरूप:) तुल्य रूप वाला(बभूव) हो रहा है (तथा) वैसे ही (एक:) एक (सर्वभूतान्तरात्मा) सबका अनन्‍्तर्यामी परमात्मा (रूपम्‌, रूपम्‌) प्रत्येक रूप के (प्रतिरूप:) सदुश रूप वाला है (च) परन्तु (बहि:) वह इन सबसे पृथक्‌ ही है ॥९ ।।

 

वायुर्यथैकी भुवनं प्रविष्टो रूप॑ रूपं प्रतिरूपो बभूव।

एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं सूपं प्रतिस्त्पो बहिश्च ॥ १० ॥

 

 अर्थ-(यथा) जिस प्रकार (एक: वायु:) एक ही वायु (भुवनम्‌) लोक में (प्रविष्ट:) फैला हुआ (रूपं रूपम्‌) प्रत्येक रूप के (प्रतिरूप:) तुल्य रूप वाला (बभूव) हो रहा है (तथा) वैसे ही (एकः) एक (९सर्वभूतान्तरात्मा) सब भूतों में व्याप्त ईश्वर (रूपम्‌ रूपम्‌) प्रत्येक के (प्रतिरूप:) तुल्य रूप वाला है (च) किन्तु (बहि:) रहता वह सबसे पृथक्‌ ही है।। १५०।।  

सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषै :।

एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदख:खेन बाह्य: ॥ १९ ॥

 

अर्थ- (यथा) जैसे (सूर्य:) सूर्य (सर्वलोकस्य) समग्र संसार की (चंक्षुः) आँख है परन्तु (चाक्षुषै:) आँखों के (बाह्यदोषै:) बाह्य दोषों से (सर्वभूतान्तरात्मा) सब व्यापक परमात्मा (लोक-दुःखेन) संसार के दुःख से (न, लिप्यते) लिप्त नहीं होता किन्तु (बाह्य:) उनसे पृथक ही रहता है ।।१५।।

 

व्याख्या-- उपनिषद्‌ के इन तीन वाक्‍्यों में ब्रह्म व्यापकत्व का बड़ा सुन्दर वर्णन है--अग्नि और वायु जगत में परिपूर्ण हैं और ये जिस वस्तु के भीतर होते हैं उसी: के आकार में दिखाई देते हैं। जैसे प्रकाश या वायु एक घर में हैं तो घर के आकारवत्‌ ही दिखाई देते हैं यदि किसी पात्र घडे आदि में हैं तो उसी की तरह नजर आने लगते हैं, इसी तरह से ब्रह्म जगत्‌ में अपने व्यापकत्व से जिस वस्तु में रहता है उस-उस बस्तु के तुल्य रूप वाला होता है। परन्तु उस वस्तु से सदैव पृथक रहता है। न ब्रह्म उसमें लिप्त होता है न वह वस्तु ब्रह्म में लिप्त हो सकती है। इसी लिप्त न होने की बात को स्पष्ट करने के लिए एक और उपमा दी गई है कि आँखों में देखने की योग्यता सूर्य से आती है। इसलिए कहा गया है कि समस्त लोक का चक्षु होते हुए भी जिस प्रकार सूर्य आँखों के बाह्य विकारों से पृथक्‌ रहता है उसी प्रकार जगत्‌ पिता संसार की निकृष्ट से निकृष्ट वस्तु में व्याप्त होते हुए भी, उसके समस्त विकारों से पृथक्‌ रहता है ॥९, १०, ११।।  

 

 

एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एक॑ रूपं बहुधा यः करोति।

तमात्मस्थं येडनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्‌ ॥ १२ ॥

 

अर्थ-(एक:) एक (वशी) सबको वश में रखने वाला (सर्वभूतान्तरात्मा) सबका अन्वर्यामी (य) जो (एक रूप) एक रूप वाली (प्रकृति) को (बहुधा) बहुत प्रकार का (करोति) करता है (ये) जो (धीरा:) 2 धीर पुरुष (तम्‌) उस (आत्मस्थम्‌) जीवात्मा में स्थित (परमात्मा) को (अनुपश्यन्ति) देखते है (तेषाम्‌) उनको, (शाश्वतम्‌) चिरकाल तक रहने वाला ( सुखम्‌) सुख (प्राप्त होता है) (इतरेषाम्‌ न) अन्यों को नहीं ॥ १२॥

नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामे को बहूनां यो विदधाति कामान्‌।

तमात्मस्थं येनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्ति: शाश्वती नेतरेषाम्‌ ॥१३॥

 

अर्थ-(नित्यानाम्‌) नित्य (पदार्थों) में (नित्य:) नित्य (चेतनानाम्‌) चेतनों में (चेतन:) चेतन (बहूनाम्‌) बहुतों में (एकः:) एक है (य:) जो [जीवों के प्रति] (कामान्‌)

कर्मफलों को (विदधाति) विधान करता-देता हैँ (तम्‌) उस (आत्मस्थम्‌) जीवात्मा में स्थित [परमात्मा] को (यें) जो ( धीरा:) ध्यानशील (अनुपश्यन्ति) देखते हैं (जान जाते हैं) (तेषाम) उनको (शाश्वती) चिरस्थायिनी (दीर्घकालीन) (शान्ति:) शान्ति प्राप्त होती है (इतरेषाम्‌ न) अभन्यों (अज्ञानियों) को नहीं ।। १३ ।।

 

व्याख्या-उपनिषद्‌ के इन वाक्‍यों में ईश्वर की सगुणोपासनावर्णित है। इन वाक्यों में ईश्वर के सत्तात्मक गुणों का वर्णन है। ईश्वर एक है, सब को वश में रखने वाला और समस्त भूतों में आत्मा के सदृश व्यापकत्व से मौजूद है और एक प्रकृति से जगत्‌ की असंख्य रचनाएँ करता है, नित्यों का नित्य और चेतनों का चेतन है। ऐसे असंख्य गुणों से भूषित ईश्वर के गुणों को जब मुम॒क्षु अपने हृदय में धारण कर लेता है और अन्तर्मुखी होकर आत्मसात्‌ करता है जब उसे चिरकाल तक रहने वाला सुख और शान्ति प्राप्त होती है।

 

तदेतदिति मनन्‍्यन्तेनिर्देश्यं परमं सुखम।

कथं नु तद्दिजानीयां किमु भांति विभाति वा॥ १४ ॥

 

 निर्गुणोपासना इसी उपनिषद्‌ के ३-१५ में वर्णित है। वहाँ उस वाक्य की व्याख्या को देखो।  

 

अर्थ-जिंस (परमम्‌) महान (सुखम्‌) सुख रूप (परमात्मा) को (तत) वह (एतत्‌) यह (इति) ऐसा है (अनिर्देश्यम) अंगुली उठाकर बताने के अयोग्य (मन्यते) मानते हैं (तम्‌) उस को (कथम्‌, नु) कैसे (विजानीयाम्‌) जानूं कि वह (किम) किस प्रकार (भाति) प्रकाशित होता (वा) (विभाति) प्रकाशित करता है।  १४ ।।  

न तत्र सूर्यो भाति न.चन्द्रतारक॑ नेमा विद्युतो भान्ति कुतोयमग्नि:।

तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ १५॥

 

अर्थ-(तत्र) उस (ब्रह्म) में (सूर्य:) सूर्य (न, भाति) नहीं प्रकाशित होता (न, चन्द्रतारकम्‌) न चन्द्रमा और तारे (इमा:) और ये (विद्युतः) बिजली भी (न, भान्ति) वहाँ नहीं चमकती फिर (अयम्‌) यह (अग्नि:) अग्नि वहाँ (कुत:) कहाँ से (प्रकाशित हो सकती है) किन्तु (तम्‌) उस (एवं) ही के (भान्तम्‌) प्रकाशित होने से (सर्वम्‌) ये सब (सूर्यादे) (अनुभाति) पीछे से प्रकाशित होते हैं (तस्य) उसके (भासा) प्रकाश से (इदम्‌) यह (सर्वम्‌) सब (विभाति) प्रकाशित होता है ॥ १५ ॥

 

व्याख्या-ब्रह्म सम्बन्धी बहुत सा उपदेश सुनने के बाद नचिकेता को यह सन्देह उत्पन्न होता है कि जब ईश्वर को निर्देश करके बतलाने के अयोग्य कहा जाता है तब यह कैसे माना जाए कि वह प्रकाशित होकर सबको प्रकाशित करता है।

इस सन्देह के निवारणार्थ उत्तर देता है कि वहाँ (जहाँ ब्रह्म साक्षात्‌ हुआ करता है) सूर्य , चन्द्र, तारे, विद्युत्‌ और अग्नि का अकाश निष्फल है, कुछ काम नहीं दे सकता। इसलिए इनमें से किसी के प्रकाश में इसे (ईश्वर को) देखने की इच्छा करना व्यर्थ है। हकीकत यह है कि उसी के प्रकाशित होने और उसी दिये हुए थोड़े प्रकाश से किस प्रकार उस महान्‌ और जैण ज्योति:पुज्ज को कोई देख सकता है ? किसी कवि जो बहुत अच्छा कहा है--

 

इस ससीम हैं सीमित साधन धर सकते हैं।

क्योंकर उनसे असीम की नाप तोल कर सकते हैं ॥

 

॥ पंचमी वल्ली समाप्त ॥

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