तृतीया वल्ली
ऋतं पिबन्तो स्वकृतस्य लोके गुहां
प्रविष्टो परमे परार्द्धे।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पज्चाग्नयो
ये त्रिणाचिकेता: ॥ १ ॥
अर्थ- (परमे) सर्वोत्तम (परार्द्धे)
अन्तःशरीरस्थ (गुहां) हृदयाकाश में (प्रविष्टो) स्थित (लोके) लोक में ( स्वकृतस्य)
अपने किये कर्मों के (ऋतम्) फल को (पिबन्तो) भोगते हुए (छायातपो) छाया और
प्रकाश के तुल्य (ब्रह्मविद:) ब्रह्म के जानने वाले (वदन्ति) कहते हैं (च) और (ये)
जो (त्रिणाचिकेता:) तीन बार नाचिकेत अग्नि का सेवन किये हुए (पञ्चाग्नय:) पञ्चयज्ञों के करने वाले ८ (कर्मकाण्डी) हैं वे भी ऐसा ही
कहते हैं ।। १ ॥
व्याख्या- उपनिषद् के इस वाक्य में जीव
और ईश्वर दोनों के लिए द्विवचनान्त क्रिया आदि का प्रयोग हुआ है जिसका तात्पर्य यह
है कि वे दोनों स्वतन्त्र सत्ता रखने वाले और पृथक्-पृथक् हैं। उनको हृदयाकाश
में प्रकाश और छाया की तरह स्थित बतलाते हुए दोनों का सम्बन्ध कर्म से जोड़ा गया
है। अर्थात् एक (जीव) कर्म करके फल का भुगतने वाला और दूसरा (ईश्वर) साक्षी रहकर फल का देने वाला है। जैसा ऋग्वेद
में कहा गया है--
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं
परिषस्वजाते।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्योऽभितचाकशीति ॥
अर्थात्- अपने जैसे नित्य (प्रकृति
रूप) वृक्ष पर स्थित दो (जीव और ईश्वर) हैं जिनमें से एक (जीव) वृक्ष के स्वादिष्ट
फलों को चखता है और दूसरा (ईश्वर) भोग न करता हुआ साक्षी मात्र है। उपनिषद्वाक्य
में 'पिबन्तौ'
क्रिया का प्रयोग कर्म से दोनों (ईश्वर और
जीव) का सम्बन्ध प्रकट कर देने और द्विवचन रूप में दोनों को पृथक-पृथक् कर देने
मात्र से है।॥१॥
यः सेतु॒रीजानानामक्षरं ब्रह्म यत्परम्।
अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतꣳ शकेमहि ॥ २ ॥
अर्थ- (य:) जो (ईजानानाम्) यज्ञशीलों
का (सेतु:) पुल (के समान है) (नाचिकेतम्) नाचिकेत अग्नि को (शकेमहि) हम जान सकते हैं और
(यम) जो (तितीर्षताम) तरने की इच्छा करने वालों का (अभयम्) भयरहित (पारम्) (
भवसिन्धु का) पार है, उस (परम्) सर्वोत्कृष्ट (अक्षरम्)
अविनाशी (ब्रह्म) ब्रह्म को भी (शकेमहि) जान सकते हैं ॥ २ ॥
व्याख्या -- ईश्वर जो कर्म और ज्ञान सेवन
करने वाले दोनों को पार लगाने वाला है, उसको योगी आत्मस्थ होकर जान लिया करते हैं- तमात्मस्थं
येऽनुपश्यन्ति धीरा: ॥ कठ० ५/१२
॥।
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
ब॒द्धिन्तु सारथिं विद्धि मनः
प्रग्रहमेव च ॥ ३ ॥
अर्थ-- (आत्मानम्) आत्मा को (रथिनम्)
रथी-सवार (विद्धि)
जान (तु) और (शरीरम्, एव) शरीर को ही (रथम्) रथ (जान) (तु) और (बुद्धिम) बुद्धि को (सारथिम्) सारथि (विद्धि)
जान (च) और (मन:, एव) मन को ही (प्रग्रहम)
लगाम (जान) ॥ ३ ॥
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयाᳬस्तेषु गोचरान।
आत्पमेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिण:
॥ ४ ॥।
अर्थ--(इन्द्रियाणि) इन्द्रियों को
(हयान्) घोड़े (आहुः) कहते हैं (तेषु) उन (इन्द्रियों) में (विषयान्) शब्द स्पर्शादि को (गोचरान्) मार्ग (कहते हैं) (मनीषिण:) विचारशील पुरुष ( आत्मा, इन्द्रिय, मनोयुक्तम्)
इन्द्रिय और मन से युक्त आत्मा
को (भोक्ता) भोगने वाला (इति, आहु:) ऐसा कहते हैं ।।
४ ।।
यस्त्वविज्ञानवान् भवत्ययुक्तेन मनसा
सदा ।
तस्थेन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव
सारथे: ॥५॥
अर्थ- (यः तु) जो (अविज्ञानवान्)
अज्ञानी ( अयुक्तेन, मनसा) अनवस्थित मन से (सदा) हमेशा (युक्त) (भवति) होता है (तस्य) उसकी
(इन्द्रियाणि) इन्द्रिया (सारथे:) रथवान् के (दुष्टा;, अश्वा:
इव) दुष्ट घोडों के समान (अवश्यानि) वश में नहीं होतीं ।।५॥
यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा
सदा।
तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव
सारथे: ॥६॥
अर्थ- (तु) और (य:) जो (
विज्ञानवान्) ज्ञानी (युक््तेन, मनसा) वश में रहने वाले मन से (सदा ) सर्वदा युक्त (भवति) होता है (तस्य) उसकी (इन्द्रियाणि) इन्द्रियाँ (सारथे:) रथवान् के (सद् अश्वा:, इव) सुधरे हुए
घोडों की तरह (वश्यानि) वश में होती हैं ।। ६ ।।
यस्त्वविज्ञानवान् भवत्यमनस्कः सदाऽशुचि:।
न स तत्पदमाप्नोति संꣳसारं चाधिगच्छति ॥ ७ ॥
अर्थ-(य: तु) जो (अविज्ञानवान)
विवेक रहित. (अमनस्क:) मन के पीछे चलने वाला (सदा) हमेशा (अशुचि:)
अपवित्र (भवति) होता है (सः:) वह (तत्) उस
(पदम्) पद् को (न, आप्नोति)
नहीं प्राप्त होता (च) बल्कि (संसारम्) जन्म मरण के प्रवाह
रूपी संसारं॑ को (अधि गच्छति) प्राप्त होता है ॥७॥
यस्तु विज्ञानवान् भवति समनस्कः सदा शुचि:।
स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद्भूयो न
जायते ॥ ८ ॥
अर्थ- (तु) और (य:) जो (विज्ञानवान्)
विवेक सम्पन््न, (समनस्क:) मन को वश में करने वाला, (सदा) निरन्तर (शुचि:) शुद्ध (भवति) होता है (सः) वह (तु) तो (तत्, 'दिमू) उस पद को (आप्नोति) प्राप्त होता है (यस्मात्) जिससे ( भूय:) फिर
(न, जायते) उत्पन्न नहीं होता। ८ ।।
विज्ञानसारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान्नर:।
सोऽध्वन: पारमाप्नोति तद्विष्णोः
परम पदम्॥ ९ ॥
अर्थ-(य: तु) जो तो (नरः) मनुष्य
(विज्ञानसारथि:) विवेक रूपी सारथि वाला और (मन: प्रग्रहवान) मन की लगाम को अधि कार
में रखने वाला (सः) वह (अध्वन:) मार्ग के (पारम्) पार (विष्णो:) व्यापक ब्रह्म
के (परमम्) सर्वश्रेष्ठ (तत्) उस (पदम्) पद को (आप्नोति) प्राप्त होता है ॥ ९
।।
व्याख्या-- इन श्लोकों में एक उत्तम
अलंकार से बतलाया है कि ब्रह्मविद्या के विद्यार्थी को किस प्रकार अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों
को अपने अधिकार में रखना चाहिए जिससे वह अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सके। कोई रथ
जिसमें घोडे जुते हों किस प्रकार अच्छा काम दे सकता है? जब
सवार का अज्ञानुवर्ती रथवान् हो और रथवान् के कब्जे में लगाम और घोडे लगाम के
इशारे से चलने वाले हों और घोड़े जिस सड॒क पर चलते हैं वह अच्छी और निर्दिष्ट
स्थान को ले जाने वाली हो। ठीक ऐसा ही एक रथ मनुष्य का शरीर भी है। इस रथ को भी
ऐसा ही होना चाहिए कि आत्मा के अधीन बुद्धि, बुद्धि के अधीन
मन और मन के अधिकार में इन्द्रियाँ हों। तभी यह रथ अभ्युदय और नि:श्रेयस रूप धर्म
मार्ग पर चलकर सवार को निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा देने का कारण बन सकता है। यह
शरीररूपी रथ उपर्युक्त भाँति काम दे सके इसके लिए आवश्यक है कि आत्मारूपी सवार
(मनुष्य) सावधान हो। यदि वह ज्ञानी है तो स्वयं न तो मन के पीछे चलेगा और न
इन्द्रियों को दुष्ट घोड़ों की तरह बेकाबू होने देगा।
(२) चौथे उपनिषद् वाक्य
में कर्मों का कर्ता और भोक््ता कौन है. इसका बड़ा उत्तम निर्णय किया है। उपनिषद्
ने स्थिर किया है कि आत्मा, मन और इन्द्रियाँ ये तीनों ही
मिलकर कर्त्ता और भोक्ता हैं।
सांख्यदर्शन में कहा गया है कि-
अहङ्कारः कर्त्ता न पुरुष:।
अर्थात् कर्तृत्व आत्मा में नहीं है
किन्तु अहंकार में है।
फिर गीता में कहा है-
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि
सर्वश:।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते । गीता ३/२७
अर्थात्- कर्म को प्रकृति के गुण (सत्व, रज और तम) करते हैं
परन्तु अहंकार से मूढ़ हुआ जीव अपने को कर्ता मानता है। सांख्य और गीता के इन
दोनों वाक्यों से स्पष्ट है कि दोनों ने कर्तृत्व प्रकृति में माना है परन्तु
विचारणीय बात यह है कि किस प्रकृति में इन्होंने कर्तृत्व का आरोप किया है उत्तर
साफ है कि प्रकृति के उसी भाग में चाहे वह अहंकार के रूप में हो, चाहे प्रकृति के गुणों, सत्व, रज
और तम के
रूप में हों, जो मनुष्य के शरीर के रूप में है, और जिसका सम्बन्ध किसी जीवात्मा से है. कर्तृत्व माना गया है। यदि कर्तृत्व
प्रकृति मात्र में होता तो मकानों के खम्भे आदि भी प्राणियों की तरह से चलते-फिरते
और हमसे बातचीत करते परन्तु ऐसा नहीं देखा जाता। इसलिए कर्तृत्व आत्मा से
सम्बन्धित शरीर ही में मानने के लिए विवश होना पड़ता है। उपनिषद् के उपर्युक्त वाक्य में शरीर के स्थान
में मन और इन्द्रिय कहा गया है। चाहे आत्मा से सम्बन्धित शरीर (मन+इन्द्रिय) कह
लिया जावे या आत्मा और मन, इन्द्रिय कह लिया जावे, बात दोनों अवस्थाओं में एक ही है, कर्तृत्व वहीं हो
सकता है जहाँ तीनों आत्मा, मन और इन्द्रिय इकट्ठे हों। इस
प्रकार उपनिषद् गीता तथा सांख्य के वाक्यों में संगतिकरण हो जाता है और उनमें
किसी प्रकार का विरोध नहीं रहता।
(३) शरीर को रथ कहे जाने
का अलंकार अथर्वेद में भी आया है। वहाँ कहा गया है-.
आरोह इमम् अमृतं सुखं रथम् ॥ (अथर्व० ८/९/१६)
अर्थात् इस शरीर रूपी रथ पर जो अमृत
और सुख है, चढ़ो। शरीर (मनुष्य योनि) प्रवाह से नित्य है इसलिए उसे अमृत कहना ठीक
ही है। दूसरा विशेषण जो “सुख” है, बड़े महत्त्व का है।
सुख शब्द के अर्थ सु - अच्छी + खम् - इन्द्रियाँ, _ अर्थात्
शरीर रूपी रथ कैसा होना चाहिए इसको वेद ने कह दिया है कि अच्छी इन्द्रियों वाला,
तभी उससे मुमुक्षु अमरता मोक्ष और सुख (आनन्द) प्राप्त कर सकता है।
सुख और दुःख का कारण स्वयं इन्हीं शब्दों “सुख” के अन्दर मौजूद है अर्थात् यदि अच्छी इन्द्रियाँ हैं तो मनुष्य सुखी है
यदि बुरी इन्द्रियाँ हैं तो दुःखी ।। ३-९ ॥
नोट- सूक्ष्म भूत जिसकी उत्पत्ति महत्तत्व के बाद होती
है, र जिस की उत्पत्ति के बाद ही से व्यक्तित्व (Individuality) की सत्ता स्थिर होती है।
मैं और मेरे पन के भाव भी इसी अहङ्कार की उपज है।
इन्द्रियेभ्य: परा हार्था अर्थेभ्यश्च
परं मन:।
मनसश्च परा बुद्धिर्बुद्वेरात्मा महान्
पर: ॥ १० ॥
अर्थ- (इन्द्रियेभ्य:) इन्द्रियों
से (हि) निश्चय (अर्था:) शब्दादि विषय (परा:) सूक्ष्म हैं (च) और (अर्थेभ्य:)
विषयों से (मन:) मन. (परम) सूक्ष्म है (च) और (मनस:) मन से (बुद्धि:) बुद्धि (परा)
सूक्ष्म है (बुद्धे:) बुद्धि से (महानात्मा) महत्तत्व बुद्धि का कारण (पर:)
सूक्ष्म है ।।१० ।।
महतः परमव्यक्तम् अव्यक्तात्पुरूष:
पर:।
पुरुषान्न पर॑ किञ्चित्सा काष्ठा सा
परा गति: ॥ ११॥
(महत:) महत्तत्व से
(अव्यक्तम्) कारण रूप अप्रकट प्रकृति (सूक्ष्म है) (अव्यक्तात्) अप्रकट प्रकृति
से (पुरुष:) सर्वत्र परिपूर्ण ब्रह्म (पर:) सूक्ष्म है (पुरुषात्) पुरुष से (परम)
सूक्ष्म (किज्चित्, न) कुछ नहीं (सा) वही (काष्ठा) स्थिति
की शोभा है (सा) वहीं (परा, गति:) अन्तिम अवधि है ॥ ११ ॥
व्याख्या-उपनिषद् के इन वाक्यों में, मनुष्य के ध्येय
ब्रह्मविद्या की उपलब्धि के लिए, ब्रह्म का पता देते हुए
उसकी ओर चलने का निर्देश किया गया है-- आत्मा के बाहर स्थूल प्रकृति ओर अन्दर
सूक्ष्म ब्रह्म है। इसलिए स्थूल को क्रमशः छोड़ते हुए सूक्ष्मता को ओर चलने ही से
उसकी प्राप्ति हो सकती है। इन्द्रिय, उसके विषय, मन, बुद्धि, महत्तत्व और
अव्यक्त-अप्रकट प्रकृति एक-दूसरे से क्रमश: सूक्ष्म हैं। स्थूल जगत् में सबसे
अधिक सूक्ष्म प्रकृति है। प्रकृति तक मनुष्य के शरीर में जिसका नाम कारण शरीर है
पहुँचकर ब्रह्मविद्या का पथिक, अपनी आधी मंजिल (बहिर्मुखी वृ॒त्ति
की समाप्ति द्वारा) समाप्त कर लेता है। अब उसको उस कारण शरीर रूपी प्रकृति से भी
अधिक सूक्ष्म पुरुष (ब्रह्म) की ओर जीव की अन्तर्मुखी वृत्ति की जागृति के द्वारा,
चलना पड़ता है। यही मनुष्य के पुरुषार्थों की चरम सीमा है, इससे आगे अथवा इससे सूक्ष्म और कुछ नहीं है ॥ १०-११ ॥
एष सर्वेष॒ भूतेषु गूढात्मा न
प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्रयया बुद्ध्या सूक्ष्मया
सूक्ष्मदशिभिः ॥ १२॥।
अर्थ- (सर्वेषु) सब (भूतेषु)
पदार्थों में (एष:) यह (गूढात्मा) सूक्ष्म आत्मा (न, प्रकाशते) नहीं
प्रकाशित होता (तु) किन्तु (अग्रयया) तीव्र (सूक्ष्मया)
सूक्ष्म (बुद्ध्या) बुद्धि से (सूक्ष्मदर्शिभि:) सूक्ष्मदर्शियों से (दृश्यते)
देखा जाता है ।।१२।।
यच्छेद्वाङ् मनसि प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान
आत्मनि।
ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त
आत्मनि॥ १३ ॥
अर्थ- (प्राज्ञ:) ज्ञानी पुरुष
(मनसि) मन में (वाक्) वाणी को (यच्छेत्) जोड़े (तत्) उस
मन को (ज्ञाने, आत्मनि) ज्ञान के साधन बुद्धि में (यच्छेत)
ठहराये (ज्ञानम) बुद्धि को (महति आत्मनि) महत्तत्व में (नियच्छेत) युक्त करें (तत)
उस महत्तत्व को (शान्ते, आत्मनि) प्रशान्त आत्मा में (
यच्छेत् ) ठहरा देवे ॥ १३ ॥
व्याख्या- इस सूक्ष्म पुरुष को, जिसका उपनिषद्वावाक्य
संख्या १०, १९ में वर्णन हुआ है, कोई
भी व्यक्ति जगत् के स्थूल पदार्थों में इन्द्रियों द्वारा नहीं देख सकता इसका साक्षात्कार
सूक्ष्मदर्शी जिज्ञासु अपनी बुद्धि को अत्यन्त सूक्ष्म निर्मल बना कर (अनन््तर्मुखी
वृत्ति की जागृति द्वारा) ही साक्षात् कर सकता है, उसकी ओर
चलने अर्थात् अन्तर्मुखी वृत्ति के जागृत करने का मार्ग बाहर से भीतर की ओर चलना
है जिसका क्रम यह है कि वाणी (आदि समस्त इन्द्रियों) को जिज्ञासु मन में लगा देवे
जिससे इस प्रकार भीतर चलने से वे बाहर अपने विषयों की ओर न जा सकें, मन को अपने से सूक्ष्म बुद्धि में लगाये, बुद्धि को
अपने कारण महत्तत्व में लगा देवे और इस बुद्धि के कारण महत्तत्व को आत्मा में लगा
देवे। आत्मा में उसके लगाने का अभिप्राय यह है कि अब अन्तर्मुखी वृत्ति जागृत हुई और
आत्मा बाहर का काम बन्द करके आत्मसाक्षात्कार में लग गया ।। १२-१३ ।।
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्प वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग
पथस्तत्कवयों वदन्ति ॥ १४॥
अर्थ-(उत्तिष्ठत) उठो (जाग्रत) जागो
( वरान) इष्ट इच्छाओं को (प्राप्य) प्राप्त होकर (निबोधत) जानो (निशिता) तेज
(दुरत्यया) अति कठिन ( क्षुरस्य, धारा) छुरे की धार के समान (कवय:) सूक्ष्मदर्शी लोग (तत्)
उस (पथ:) मार्ग को (दुर्गमू) कठिनता से प्राप्त होने योग्य
(वदन्ति) कहते हैं ।। १४ ।।
व्याख्या-यह आत्म-साक्षात्कार का मार्ग
अत्यन्त कठिन है इसीलिए आत्मदर्शी लोग इस मार्ग को छरे की धार पर चलने के सदृश
बतलाते हैं। इसी उद्देश्य से इस उपनिषद्वाक्य | में जिज्ञासु को सावधान होकर कार्य करने की
चेतावनी दी गई है ।। १४ ।।
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनाद्यनन्त महतः परं ध्रुवं निचाय्य त॑
मृत्युमुखात्प्रमु॒च्यते ॥ १५ ॥
अर्थ-(यत्) जो (ब्रह्म) (अशब्दम्)
शब्द नहीं, जो कान से जाना जावे, ( अस्पर्शम्) स्पर्श नहीं,
जो त्वचा से ग्रहण जाये, (अरूपम् ) रूप नहीं,
जो आँख से देखा जा सके (तथा) इसी प्रकार
(अरसम्) रस नहीं, जो जिह्ना से चखा जा सके (च ) और (
अगन्धवद् ) गन्ध वाला नहीं, जो नाक से सूंघा जा सके। (
अव्ययम् ) अविनाशी ( नित्यम्) सदा एकरस (अनादि) अनुत्पन्न
(अनन्तम्) सीमा रहित (महतः परम) महत्तत्व से भी सूक्ष्म (ध्रुवम) अचल है ( तम्)
उसको (निचाय्य) निश्चयात्मक रीति से जानकर (मृत्यु) मौत के (मुखात् ) मुख से (प्रमुच्यते) छूट जाता है।। १५ ।।
व्याख्या- ईश्वर की उपासना दो प्रकार की
है- ( १ ) सगुणोपासना,
( २ ) निर्गुणोपासना। इनमें से सगुणोपासना वह है
जिसमें प्रभु के सत्तात्मक दिव्य गुणों को धारण करके मुमुक्षु (मोक्ष का इच्छुक )
ईश्वर के समीप होकर” आनन्द प्राप्त करता है और निर्गुणोपासना
वह है जिसके द्वारा मनुष्य ईश्वर के निषेधात्मक गुणों को, अपने
भीतर से निकालकर मौत के बन्धन से छूट जाता है। यह उपनिषद्वाक्य निर्गुणोपासनापरक
है। इसीलिए इसमें ईश्वर के शब्द रहित, स्पर्शरहित, रूप रहित अविनाशी, रसना रहित, गन्धरहित,
अनादि अनन्तादि निषेधात्मक गुणों का वर्णन करते हुए शिक्षा दी गई है
कि इनका निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त करके मुमुक्षु अपने को मृत्यु के मुख से बचा
लेवे। यदि ईश्वर को केवल निर्गुण माना जावे तो उपासक के पास से कुछ जा तो सकता है
परन्तु उसके पल्ले कुछ नहीं पड् सकता। एक कवि ने क्या अच्छा कहा है-
गर हुस्न न हो इश्क भी पैदा
नहीं होता।
बुलबुल गुले तसवीर पै शैदा
नहीं होता ॥ १५ ॥
नाचिकेतमुपाख्यानं मृत्युप्रोक्तं
सनातनम।
उक्त्वा श्रुत्वा च मेधावी ब्रहलोके
महीयते ॥ १६ ॥
सगुणोपासना का अभिप्राय जानने के लिए
देखो इसी उपनिषद् की पाँचवीं
वेलली का वाक्य ११ व्याख्या सहित।
_
अर्थ- (नाचिकेतम्) नचिकेता से ग्रहण किये गये (
मृत्युप्रोक्तम्) मृत्यु से उपदेश किये गये (सनातनम्) पुराने (उपाख्यानम) आख्यान को (उक्त्वा) कह कर (च) और ( श्रु॒त्वा)
सुन कर (मेधावी) विवेकी पुरुष (ब्रह्मलोके) ब्रह्म के पद में (महीयते) बडाई पाता
है।। १६।।
ये इमं परम गुह्यं श्रावयेद्
ब्रह्मसंसदि।
प्रयत: श्राद्धकाले वा तदानन्त्याय कल्पते
तदानन्त्याय कल्पते ॥ ९७॥
अर्थ-(य:) जो कोई (प्रयत:) सावधान
होकर (इमम्) इस (परमम्) अत्यन्त (गुह्यम्) गुप्त शिक्षा को (ब्रह्मसंसदि )
विद्वानों की सभा में (वा)
या (श्राद्धकाले) श्रद्धा से किये जाने वाले कार्यों के समय में (श्रावयेत्)
सुनाये (तत्) वह ( आनन्त्याय) असीम फल की प्राप्ति के लिए
(कल्पते ) समर्थ होता है ।। १७ ।।
व्याख्या-ये वाक्य, ग्रन्थ की समाप्ति पर
फलश्रुति के सदृश्य प्रयुक्त हुए वाक्यों की तरह के प्रतीत होते हैं। 'प्रयत:' को 'प्रेत्य' अथवा ' प्रेत” जिस धातु स बने
हैं उसी धातु से बना बतलाकर कुछ विद्वान उसके अर्थ “मरते
समय! करते हैं। उनका कहना हैं कि यह समय छल और दम्भ से रहित होने का समय होता है।
इसमें मनुष्य के मुख से वही बातें निकलती हैं जो उसने इससे पूर्व के जीवन में को
होती हैं। इसलिए यह मरने का समय श्रद्धा - सच्चाई के धारण करने से श्रद्धाकाल भी
कहा जाता है। भाव यह है कि जब मरने वाले की यह अवस्था आ जाये तब उसे यम का उपदेश
किया हुआ नचिकेता का उपाख्यान सुनाना चाहिये जिससे मृत्यु की वास्तविकता का ज्ञान
प्राप्त करके वह उसके भय से स्वतत्त्र हो जावे। कुछ इसी प्रकार की ध्वनि पारस्कर
गृह्यसृत्र के इस वचन से निकलती है-
“यमगाथां मान्यतो यमसूक्तञ्च
जपन्त इत्येके ॥” (का० कण्डिका १०, सूत्र ९) अर्थात्
कुछ विद्वान् अन््त समय यम की गाथा गायन करते और यमसूक्त को जपते हैं। यह कथन
भी स्वीकार किया जा सकता है ॥ १६, १७।।
॥ तृतीया वल्ली समाप्त ॥
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