चतुर्थ वल्ली
पराञ्चिखानि
व्यतृणत्स्वयम्भूस्तस्मात्पराड़ पश्यति नान्तरात्मन्।
कश्चिव् धीरः
प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ॥ १ ॥
अर्थ-(स्वयम्भू:) अपनी ही सत्ता से
स्थित रहने वाले (परमात्मा) ने (खानि) इन्द्रियों को (पराञ्चि) बाह्य विषयों पर गिरने वाला (व्यतृणत्)
किया है (तस्मात्) इसलिए मनुष्य (पराडः) बाह्य विषयों को
(पश्यति) देखता है (न, अन्तरात्मन्) अन्तरात्मा को नहीं
(कश्चित्) कोई (आवृत्तचक्षु:) ध्यानशील (धीरः) विवेकी पुरुष
(अमृतत्वम्) मोक्ष की (इच्छन्) इच्छा करता हुआ (प्रत्यगात्मानम् ) हृदयाकेशस्थ
आत्मा को (ऐक्षत्) देखता (साक्षात् करता) है ॥१॥
व्याख्या- इन्द्रियों का स्वभाव ही बाहर
की ओर चलने का है। फिर इनके पीछे चलकर स्पष्ट है कि कोई भी आत्तमद्र॒ष्टा नहीं बन
सकता। आत्मदर्शन भीतर घुसे बिना नहीं प्राप्त हो सकता ।। १ ॥
पराच: कामाननुयन्ति बालास्ते
मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम्|।
अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा ध्रुवमध्रुवेष्विह
न प्रार्थयन्ते ॥ २ ॥
अर्थ- जो (बाला:) अज्ञानी पुरुष
(पराच:) बाह्य (कामान्) विषयों के (अनुयन्ति) पीछे दौड़ते हैं (ते) वे (विततस्य)
फैले हुए (मृत्यो:) मृत्यु के (पाशम्) बन्धन को (यन्ति) प्राप्त होते हैं (अथ) और
(धीरा:) ज्ञानी पुरुष (श्रुवम्) निश्चल (अमृतत्वम्) मोक्ष को (विदित्वा) जान कर (इह)
संसार में (अध्रुवेषु) अनित्य पदार्थों में (न, प्रार्थयन्ते) (सुख को) नहीं चाहते ॥ २ ॥
येन रूप॑ रसं गन्धं शब्दान् स्पर्शाᳬश्च मैथुनान।
एतेनेव विजानाति किमत्र परिशिष्यते
एतद्वैतत्॥ ३ ॥
(येन) जिस (एतेन, एवं) इस ही (आत्मा की सत्ता) से मनुष्य (रूपम्) रूप, (रसम्) रस, (गन्धम्), गन्ध:,
(शब्दान्) शब्द, (स्पर्शान) स्पर्श (च) और
(मैथुनान्) विषय-भोगों को भी (विजानाति) जानता है, फिर
(अत्र) यहाँ (किम्) क्या (परिशिष्यते) बाकी रह जाता है
(एतद्, वे, तद्) यही आत्मा है ॥३ ।।
व्याख्या-- अज्ञानी पुरुष बाह्य विषयों
की ओर चलकर मृत्यु के फैले हुए जाल में फंसते हें, परन्तु जो ज्ञानी हैं वे इन
विषय-वासनाओं से अमरता की आशा नहीं करते। जिससे संसार में मनुष्य इन्द्रियों के
विषय शब्दादि का ज्ञान प्राप्त किया करता है वह आत्मा है ।। ३ ॥
स्वप्नान्तं जागरितान्तं चोभौ
येनानुपश्यति।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न
शोचति ॥ ४ ॥
अर्थ- (येन) जिससे (स्वप्नान्तम्)
स्वप्नावस्था के अन्त (च) और (जागरितान्तम्) जागृत के अन्त (उभो) इन दोनों को (अनुपश्यति) देखता
है उस (महान्तम्) सबसे बड़े (विभुम्) व्यापक (आत्मानम्)
आत्मा को (मत्वा) जानकर (धीर:) विवेकशील (न, शोचति) शोक से शोकित नहीं होता ।। ४ ।।
य इमं मध्वदं वेद आत्मानं जीवमन्तिकात्।
ईशान भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते ॥
एतद्दे तत् ॥५॥
अर्थ-- (य:) जो कोई (इमम्)
इस (मध्वदम्, कर्मफलभोक््ता (जीवम्) जीव के (अन्तिकात्) समीपवर्ती (भूतभव्यस्य) हुए और होने वाले जगत् के (ईशानम्) स्वामी (आत्मानम्) परमात्मा को (वेद) जानता है (तत:) उससे (न, विजुग॒प्सते) भय को प्राप्त नहीं होता (एतद्, वे
तत्) यही वह (ब्रह्म ) है ।। ५ ।।
यः पूर्वं तपसो जातमद्भ्यः पूर्वमजायत।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तं यो
भूतेभिरव्यपश्यत् ॥ एतट्ठे तत् ॥ ६ ॥
अर्थ- जीवात्मा (य:) जो (अद्भय:)
पज्चभूतों से ( पूर्वम्) पहले (अजायत) प्रकट हुआ (तपस:) प्रकाश - ज्ञान से भी (पूर्वम्) पहले (जातम्)
उत्पन्न (गुहाम्) हृदयाकाश में (प्रविश्य) प्रवेश कर
(भूतेभि:) पज्चभूतों के साथ ( तिष्ठन्तम् ) स्थित परमात्मा को (व्यपश्यत्) देखता
है (एतद्, वै, तत्) यही वह जीव है ।।६
॥
या प्राणेन सम्भवत्यदितिर्देवतामयी।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीं या
भूतेभिव्यजायत ॥ एतद्वै तत् ॥ ७ ॥
अर्थ- (या) जो (देवतामयी)
प्रकाशयुक्ता (अदिति:) अखण्डिता बुद्धि (प्राणेन) प्राण के साथ (सम्भवत्ति)
उत्पन्न होती है और (या) जो (तिष्ठन्तीमू) ठहरे हुए (गुहाम्) अन्तःकरण में (प्रविश्य)
प्रवेश कर (भूतेभि:) भूतों - शरीरादि के
साथ (व्यजायत) प्रकट होती है (एतत्, वै, तत्) यही वह (ब्रह्मज्ञान का साथन बुद्धि) है ॥ ७ ॥
अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भ इव सुभृतो
गर्भिणीभि:।
दिवे दिवे ईंड्यो जागृवद्भिर्हविष्मविभर्मनुष्येभिरग्नि:
॥ एतट्ठै तत् ॥ ८ ॥
अर्थ-(जागृवद्धि:) ज्ञानियों
(हविष्मद्धि:) कर्मकाण्डी (मनुष्येभि:) मनुष्यों से भी (अग्नि) परमात्मा (गर्भिणीभ्रि) गर्भिणी
स्त्रियों से (सुभुतः) अच्छे प्रकार रक्षित (गर्भ:, इव) गर्भ
के समान अथवा (अरण्यो:) दोनों अरणियों में (निहितः:) व्याप्त (जातवेदा:) अग्नि: के
(इब) समान (दिवे दिवे) प्रतिदिन (ईडय:) स्तुति करने के योग्य है (एतद्, वे, तत्) यही वह (ब्रह्म) है ॥८ ।।
यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छति।
तं॑ देवा: सर्वे अर्पितास्तदु नात्येति
कश्चन ॥ एतट्ठे तत् ॥ ९ ॥
अर्थ-(यत:) जहाँ से (सूर्य:) सूर्य
(उदेति) उदय होता है (च) और (यत्र, च) जहाँ (अस्तम्) अस्त (गच्छति) होता है (तम)
उस (परमात्मा) को (सर्वे, देवा:) सारे (सूर्यचन्द्रादि) देव
(अर्पिता:) प्राप्त हैं (तत्, उ) उस ब्रह्म का (कश्चन) कोई भी (न, अत्येति) उल्लंघन नहीं कर सकता (एतद्, वै, तत्) यही वह
(ब्रह्म) है ।।९ ॥
यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह।
मृत्यो: स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव
पश्यति ॥ १० ॥
अर्थ-(यत्) जो ब्रह्म (इह) यहाँ है
(तत्, एव)
वह ही (अमुत्र) वहाँ परलोक में है (यत्) जो (अमुत्र) वहाँ
परलोक में) है (तत्) वही (अनु, इह) यहाँ है (य:) जो (इह) इस ब्रह्म में (नाना इव) भिन्नता की सी (पश्यति) दृष्टि करता है (स:)
वह (मृत्यो:) मृत्यु से (मृत्युम्) मृत्यु को (आप्नोति) प्राप्त होता है ।। १० ।।
मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किञ्चन।
मृत्यो: स मृत्युं गच्छति य इह नानेव
पश्यति ॥ १५ ॥
अर्थ-(इदम्) यह ब्रह्म (मनसा, एवं) मन (आन्तरिक साधनों)
से ही (आप्तव्यम्) प्राप्त होने योग्य हैँ, (इह (ब्रह्म ) में (नाना) भेदभाव (किञ्चन) कुछ भी (न अस्ति) नहीं है (य:) जो
कोई (इह) इस ब्रह्म में (नाना, इव) 'भिन्नता
की सी (पश्यति) दृष्टि करता है (सः) वह (मृत्यो:) मृत्यु से (मृत्युम्) मृत्यु को
(गच्छति) प्राप्त होता हैं ।। ११ ॥
अङ्गुष्ठमात्र: पुरुषो मध्य आत्मनि
तिष्ठति।
ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते ॥
एतद्दे तत् ॥ १२॥
अर्थ-( भूत, भव्यस्य) हुए और होने
वाले (जगत्) का (ईशान:) अध्यक्ष (पुरुष:) पूर्ण परमात्मा (अङ्गुष्ठमात्र:)
अंगूठे के बराबर हृदयाकाश में रहने वाला ( आत्मनि) जीवात्मा के (मध्ये) मध्य में
(तिष्ठति) रहता है (तत:) उस (के ज्ञान) से (न, विजुगुप्सते) कोई ग्लानि को नहीं पाता (एतद्,
वै, तत्) यही वह ब्रह्म है।। १२ ।।
अङ्गष्ठमात्र: पुरुषो ज्योतिरिवाऽधूमक:।
ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ एव: ॥
एतट्ठे तत् ॥ १३।।
अर्थ- (अङ्गष्ठमात्र:) अंगुष्ठ मात्रा
वाले हृदयाकाश में. रहने वाला (पुरुष:) परिपूर्ण (ब्रह्म) (अधूमक:) धूम्र (विकार) _ रहित (ज्योति: इव)
ज्योति के समान (भूतभव्यस्य) हुए और होने वाले (संसार) का (ईशान:) स्वामी है (स:,
एव) वही (अद्य) आज (सः, उ)
वही (श्व:) कल है (एतद्, वै तत) यही वह ब्रह्म है ।। १३ ।।
यथोदकर दुर्ग वृष्टं पर्वतेषु विधावति।
एवं धर्मान्पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति
॥ १४॥।
अर्थ-(यथा) जेसे (दुर्गे) विषम देश
में (वृष्टम्) बरसा हुआ (उदकम्) जल (पर्वतेषु) नीची जगहों की ओर (विधावति) बहता है (एवम्)
इसी प्रकार (धर्मान्) गुणों को (गुणी से) (पृथक्) पृथक (
पश्यन्) देखता हुआ (तान्, एवं) उन्हीं गुणों के (अनु
विधावत्ति) पीछे दौड॒ता है ।। १४ ।।
यथोदक शुद्धे शुद्धमासिक्तं तादुगेव
भवति।
एवं मुनेर्लिजानत आत्मा भवति गौतम ॥ १५
॥।
अर्थ- हे (गौतम) नचिकेता ! (यथा)
जैसे (शुद्धे) स्वच्छ (सम) देश में (शुद्धम्) स्वच्छ (उदकम्) जल (आसिक्तम्) सींचा हुआ
(तादृक् एव) बैसा ही (भवति) होता है (एवम्) इसी प्रकार (विजानत:) ज्ञानी (मुनेः)
मननशील (मनुष्य) का (आत्मा) आत्मा (भवत्ति) हो जाता है ॥ १५।।
व्याख्या- इन उपनिषद्वाक्यों में ब्रह्म
का निरूपण किया गया है। जिनके भली-भाँति समझ लेने से ब्रह्म की कुछ महिमा समझी जा
सकती है। उनका संक्षिप्त रीति से यहाँ वर्णन किया जाता है-
जिसकी महिमा से मनुष्य जागृत और स्वप्न
अवस्थाओं को बार-बार प्राप्त करता है। उस महान् और व्यापक ब्रह्म को जानकर मनुष्य
दुःखों से छूटता है ।। ४।।
इस कर्म भोक्ता जीव के समीपवर्ती
ब्रह्म को जो समस्त भूतों और भविष्यत् का स्वामी है, जानकर मनुष्य निर्भीक
हो जाता है ।।
जीवात्मा, जो भौतिक शरीर की
उत्पत्ति से भी पहले से स्थित है, जब वह अन्तर्मुखी वृत्ति
वाला होकर हृदयस्थित परमात्मा का साक्षात् कर लेता है तो उसे प्रकट हो जाता है कि
यही वह प्रिय देव है जिसका प्राप्त करना इष्ट था।।६॥
जब योगी की ब्रह्म प्राप्ति की साधिका
बुद्धि, प्रकाशमयी
और एकरस रहने वाली होकर हृदय में प्रकट होने वाली हो जाती है तभी वह आत्मा की अन््तर्मुखी
वृत्ति के जागृत करने का कारण बन जाती है ॥७ ॥
अरणियों में अग्नि जिस प्रकार छिपी
रहती है और जिस प्रकार माता के गर्भ की रक्षा करती है उसी प्रकार ब्रह्म को हृदय
में स्थित समझ और उसे अपना प्रेमपात्र बनाकर ज्ञानकाण्डी और कर्मकाण्डी, कोई क्यों न हो,
प्रत्येक को, प्रतिदिन स्तुति करनी चाहिए ॥ ८
॥
सूर्यादिे का उदय व अस्त होना ईश्वर
सत्ता के कारण है ऐसे ब्रह्म का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता ॥ ९ ।।
लोक-परलोक सब जगह एक ही ब्रह्म का
साम्राज्य है। जो कोई एक जगह के ब्रह्म को और, और जगह के ब्रह्म को दूसरा समझता है, ऐसा अज्ञानी पुरुष मृत्यु के बन्धन से मुक्त नहीं होता ।। १० ।।
वह ब्रह्म अन्तर्मुखी होने ही से
प्राप्त होता है। उसमें किसी को भिन्नता (देखो श्लोक १०) नहीं देखनी चाहिए ।। ११ ।।
अंगूठे के बराबर मात्रा वाले हदयाकाश
में स्थित जीव के मध्य ब्रह्म का निवास है (अर्थात् यही स्थान है जहाँ ब्रह्म का
साक्षात्कार हुआ करता है) उस ब्रह्मज्ञान को पाकर मनुष्य सदैव प्रसन्न रहता है ॥
१२ ।।
उपर्युक्त अंगुष्ठ मात्रा वाले हृदय
में रहने वाला विकाररहित ज्योति के सदृश ब्रह्म सबका स्वामी और सदैव एक रस रहने वाला
है ॥ १३ ।।
गुण और गुणी में समवाय (नित्य)
सम्बन्ध होता है। अर्थात् गुणी से गुण और गुण से गुणी पृथक नहीं हो सकता।
इसी नियम के अनुसार ईश्वर के जग रचना
आदि गुण भी ईश्वर से पृथक नहीं हो सकते। जहाँ जग रचना आदि गुण हों वहाँ ईश्वर को
सत्ता मानना अनिवार्य है। परन्तु जो ईश्वर के गुण (धर्म) जग रचना:-आदि को तो मानते
हैं और स्वीकार करते हैं किन्तु रचा हुआ जगत् मौजूद है परन्तु उसके रचयिता की
सत्ता स्वीकार नहीं करते,
उपनिषद् कहती हे कि ऐसे लोग उन धर्मों के पीछे दौड़ते अर्थात् जागृत
में ही भटकते रहते हैं ।। १४ ।।
जल जिस स्थान में होता है उसी के सदृश
दिखाई दिया करता है। यदि गोल हौज में है तो गोल, यदि विषमकोंण सरोवर में है तो वैसा ही
होकर दिखाई दिया करता है। यम नचिकेता से कहता है कि इसी प्रकार समता प्राप्त कर
ज्ञानी का आत्मा हो जाया करता है ॥ १५ ॥
चतुर्थी वल्ली समाप्त ॥
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know