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साधु, संत, सन्यासी, योगी, और ऋषि में क्या अन्तर है?


 

       साधु, संत, सन्यासी, योगी, और ऋषि में क्या अन्तर है?

हमारे समाज में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार प्रायः इन्हें एक ही समझा जाता है, यद्यपि इसमें बुनियादी भेद है, यह एक नहीं है, इनमें बुनियादी भेद है। सही तरह से ना समझने के कारण बड़े –बड़े समझदार भी इसमें भ्रमित हो जाते हैं, चलिए आज हम इस भ्रम को दूर करते हैं।

जैसा की हम सबने सुन रखा है, साधु, सन्त, सन्यासी, योगी, ऋषि इनका जब हम विश्लेषण अर्थात वर्गिकरण करण करते हैं तो इनमें हमें कई प्रकार की भिन्नता नजर आती है, शास्त्रों की मान्यता और प्रमाण से हमें जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसके माध्यम से हम यथार्थ को समझने का प्रयास करते हैं।

1.     सर्वप्रथम हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि साधु कौन हैं, और उसके क्या लक्षण हैं?

साधु संस्कृत का शब्द है, जिसका सामान्य सा अर्थ है, सज्जन साधक व्यक्ति जो साधना अर्थात जो अपने जीवन में सत्य गुणों को साधने वाला है, जो धार्मिक धर्मात्माओं के साथ सत्संग करता है, लघु सिद्धान्त कौमुदी में कहा है, साहनोति पर कार्यमिति साधुः।  अर्थात जो दूसरों का कार्य कर देता है, वह साधु है, जो सन्यास लेकर गेरुए वस्त्र को धारण करते हैं, उन्हें भी साधु कहा जाने लगा है, जब कि ऐसा नहीं है, साधु अर्थात जो साधना करता है, एक विद्यार्थी भी साधु हो सकता है, जब वह किसी प्रकार की विद्या को प्राप्त करने के लिए नियम संयम से अपने बुद्धि को विकसित करता है। साधु का मुल काम है, समाज में से व्यभिचार अज्ञान को दूर करने के लिए सद विचार का प्रसार करना और उनका पथप्रदर्शन करना और धर्म के मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्त करना अर्थात अपने मानव देह का सदुपयोग करते हुए संसार के सभी बंधनों से मुक्त होना, साधु गण साधना तपस्या करते हैं, वेदोक्त ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान जगत को देते हैं, जो ऐसा नहीं करते हैं, वह साधु नहीं ढोंगी हैं, उनसे समाज को सावधान रहना चाहिए। साधु वह है जो अपने जीवन को त्याग और वैराग्य के साथ जीते हुए, ईश्वर भक्ति में विलीन हो जाते हैं। जिस प्रकार से चीनी पानी में घुल कर पानी को मीठा कर देती है, उसी प्रकार से साधु जन संसार में रहते हुए परमात्मा में स्वयं विलीन कर संसार को सुखी और आनंदमय स्थान बनाते हैं।

2.  संत कौन है और उनके क्या लक्षण हैं?

  संत शब्द सत् शब्द के कर्ता कारक का बहुवचन है, इसका अर्थ है, विरक्त शांत चित्त वाला त्यागी पुरुष।

या जग जीवन को है, यहै फल जो छल छाड़ि भजै रघुराई।

शौधि के संत महंतनहु पदमाकर बात यहै ठहराई। -पद्माकर

ईश्वर के भक्त या धार्मिक पुरुष को भी संत शब्द की निम्न परिभाषा है।

ब्राह्मणः यति शब्दाश्व देवानां व्यक्त मुर्तः।

सम्पूज्या ब्रह्मणा होतास्तेन सन्तःप्रचक्षते।।

ब्राह्मण ग्रन्थ और वेद के शब्द ये देवताओं की निर्देशिका मुर्तियां हैं, जिनके अंतःकरण में इनके और ब्रह्म का संयोग बना रहता है, वह संत कहलाता है।

3.   सन्यासी किसे कहते हैं और उसके क्या क्षण हैं?

मनुस्मृति के अनुसार सन्यासीयों के लक्षण तथा उनकी तपश्चर्या के नियम दिये हैं, यो तो अपनी अंतिम अवस्थाओं में वर्णाश्रम धर्मों के अनुसार सभी द्विजों को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ के बाद सन्यास ग्रहण करना चाहिए, और उसका इसी प्रकार से विधान है।

वेद संन्यासिकानां तू कर्मयोगं निवोधयत। मनुस्मृति। 6.85

वेद सन्यासियों के बारे में उपदेश करते हैं, ज्ञान से ही सन्यासी जिन्होनें बाहर से सन्यस्थ चिन्ह अथवा गृहस्थ त्यागादि नहीं किया है, उसके बारे में बताते हैं, वह कर्मयोग कहता है।

सन्यासी के लिए धर्म का दशलक्षण बताते हैं-

धृतिः क्षमा दमोअस्तेय शौचमिन्द्रियनिग्रहः।

धीर्विद्या सत्यंक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। मनुस्मृति 6.92

धैर्य, दूसरों की बुराई को सहलेना, मन को रोकना, चोरी नहीं करना, शुद्ध होना, इन्द्रियों का रोकना, शास्त्र का ज्ञान, आत्मा का ज्ञान, सत्य बोलना, क्रोध ना करना यहीं धर्म के दश लक्षण हैं जिन्हें सन्यासी धारण करता है।  

अधीत्य चातुर्वतन्ते ते यान्ति परमांगतिमं।

वेदान्तं विधिवच्छरुत्वा सन्यसेदनुणोद्विजो।।

संन्यस्त सर्वकर्माणि कर्मदोषा नपानुदनम्।

नियतो वेदमम्यस्य पुत्रेश्वर्ये सुखंवसेत्।। मनुस्मृति 6. 94-95

संपूर्ण (गृहस्थ) के कर्मों का परित्याग करके, (अर्थात उनको छोड़कर बिना जाने जीवों के नाश जनित) पापों को प्राणायाम से नष्ट करता हुआ, जितेन्द्रिय हो कर वेद का अभ्यास करके पुत्र के ऐश्वर्य में वृत्ति की चिन्ता से रहित  सुख पूर्वक निवास करे।

संन्यसत्सर्वकर्मणि वेद मेकं न संन्यसेत्।

वेद संन्यासम्तः शुद्रम्तस्माद्वेदं न संन्यसतो।। मनुस्मृति 6.96

सब कामों को छोड़ दे परन्तु एक वेद को ना छोड़े क्योंकि वेद के छोड़ने से वह शुद्र हो जाता है। इसलिए वेद को ना छोड़े यह संक्षिप्त सन्यासी के लक्षण हैं।

4.   योगी कौन हैं और उसके क्या लक्षण हैं?

पतञ्जली योग दर्शन के प्रणेता है, उन्होंने योग को समझाने के लिए अपने योग दर्शन के प्रथम सूत्र में ही योग के बारे में कहा है, की अथः योगानुशासनम्। अर्थात अब योग का अनुशासन शुरु होता है, और जो पुरुष इस योग के नियम अर्थात उसके सिद्धांतों को अपने जीवन में लागू करता है वह योगी होता है।

यमनियमआसनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान समाधि क्रियायोगः।।

यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान समाधि क्रिया योग है ।। और इसी का प्रयोग करने क्रिया योग से एक पुरुष पूर्ण योगी बनता है। यहां अष्टांग योग के इस सूत्र से पतञ्जली ने यह बताया है, कि जो इस क्रिया योग को सिद्ध करता है, वहीं योगी है। समाधि जो इसकी अंतिम स्थिति है, वह प्राप्त करके एक पुरुष जो सामान्य मनुष्य था वह परमात्मा से अपने चित्त का एकाकार कर लेता है।

इसी बात को योगेश्वर श्री कृष्ण गीता में एक सुन्दर श्लोक के माध्यम से व्यक्त करते हुए कहते हैं।

युक्ताहारविहारस्य युक्तकर्मचेष्टयस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावधस्य योगो भवित्दुःखहा।।

अर्थात युक्त आहार विहार शारीरिक व्यायाम युक्त सही उपयुक्त कर्म करता हुआ, पर्याप्त निद्रा का ग्रहण करता हुआ, योग क्रियाओं का अभ्यास करता हुआ, योगी संसार के शरीर के दुःख, मन के दुःख, आत्मा के दुःख से मुक्त हो जाता है।

5.   अब पाँचवी कोटि का जो मनुष्य है जिसे ऋषि कहते हैं वह कौन है, उसके लक्षण क्या है उसको समझते हैं।

ऋषि अर्थात द्रष्टा भारतीय परंपरा श्रुति ग्रन्थों को दर्शन करने यानी यथावत समझ पाने वाले जनों को ऋषि कहा जाता है।    

ऋषि वह विशिष्ट जन हैं जो अपनी विलक्षण एकाग्रता के दम पर गहन ध्यान के माध्यम से विलक्षण शब्दों के दर्शन किये हैं, और उनके गूढ़ अर्थों को जाना है, जो मनुष्य ही नहीं जगत के सभी प्राणी मात्र के कल्याण के लिए हैं,  ध्यान में देखे हुए विलक्षण शब्दों को लिख कर प्रकट किया है, जिसके लिए वेद स्वयं उद्घोष करते हुए कहते हैं।–

ऋषयों मन्त्र द्रष्टारः न तु कर्तारः।। अर्थात ऋषियों ने मन्त्र को देखा है, वह स्वयं मन्त्र को बनाने वाले नहीं है, वह मन्त्र को रचने वाले नहीं है, वह मन्त्र के साक्षात्कर्ता हैं। मन्त्र को बनाने वाला ईश्वर परमात्मा है, इसिलिए किसी मंत्र के जप से पहले उसका विनियोग अवश्य बोला जाता है।

उदाहरणार्थ- अस्य श्री ओमकार स्वरूप परमात्मा गायत्री छंद परमात्मा ऋषिः अन्तर्ययामी देवताप्रीत्यर्थे आत्माज्ञान प्राप्त्यार्थे जपे विनियोगः।

ऋषि शब्द की व्यत्पत्ति ऋष शब्द है, जिसका अर्थ देखना या दर्शन करना है, या दर्शन शक्ति है, ऋषियों के द्वारा प्रकाशित ग्रन्थों को आर्ष ग्रन्थ कहते हैं, जो इसी मुल से बना है, इसके अतिरिक्त दृष्टि (नजर) जैसे शब्द इसी मुल से हैं।

सप्तऋषि आकाश में हैं, और हमारे कपाल में भी हैं, ऋषि आकाश अंतरिक्ष और शरीर तीनों में हैं, महर्षि भारद्वाज ऋग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा कहे गये हैं, इस मण्डल के 765 मन्त्र इनके द्वारा साक्षात्कार किया गया है, अथर्वेद के 23 मन्त्र भी इनके द्वारा साक्षात्कार किए गये हैं। वैदिक ऋषियों में भारद्वाज ऋषि का अत्यन्त उच्च स्थान है, भारद्वाज ऋषि के पिता वृहस्पति और माता ममता थी इनके दश पुत्र सभी मंत्र द्रष्टा हुए थे, एक पुत्री भी थी जिसने रात्रि सूक्त का साक्षात्कार किया था। 

 आशा करता हूं की हमारा यह लेखा आपके ज्ञान का विस्तार करेगा।

हमारी संस्था मुफ्त में अपने सभी कार्यक्रम समाज के और मानव जाती के कल्याणा के लिए करती है, कृपया वेदों के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए और हमारे विद्यालय की मुलभुत गरीब असहाय बच्चों की शिक्षा के लिए उनके खाने कपड़े दवाईयों के लिए आवास के लिए हमारे लेख को पढ़ें और अपनी तरफ से केवल 100 रूपए के सहयोग राशी का अवश्य दान करें, हमारे उत्साह को बढ़ाने के लिए क्योंकि यह कार्य बहुत परिश्रम का है, इसमें हम आपके सहयोग की जरूरत है।

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धन्यवाद

   मनोज पाण्डेय

अध्यक्ष ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान वैदिक विद्यालय

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