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मेरा अगला जन्म मनुष्य के रूप में ही होना चाहिए आचार्य श्री, इसके लिए मुझे क्या करना पड़ेगा ? आज मुझे इसी पाप–पुण्य बारे कुछ प्रश्न पूछने हैं गुरुदेव ।

मेरा अगला जन्म मनुष्य के रूप में ही होना चाहिए आचार्य श्री, इसके लिए मुझे क्या करना पड़ेगा ? आज मुझे इसी पाप–पुण्य  बारे कुछ प्रश्न पूछने हैं गुरुदेव ।
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आपने सोते हुए निर्दोष कुत्ते को बिना किसी कारण के जोर का डंडा मारा, यह ’कृत–पापकर्म’ है । यह आपने 100 डिग्री का पाप कर दिया । अगले दिन उसी सोते हुए कुत्ते को आपने खुद डंडा नहीं मारा बल्कि किसी और को बोल दिया कि इस सोते हुए कुत्ते को जोर का डंडा मारो, यह ’कारित–पापकर्म’ है, क्योंकि आपने यह पाप स्वयं नहीं किया मगर किसी अन्य के माध्यम से करवाया, इसलिए आपने यह 75 डिग्री का पाप कर दिया ।  तीसरे दिन उसी सोते हुए निर्दोष कुत्ते को आपने स्वयं डंडा नहीं मारा, ना ही किसी दूसरे से डंडा मरवाया, बल्कि वहां तो पहले से ही कोई उसे डंडा मार रहा था, आपने तो बस उस डंडा मारने वाले को शाबाशी दे दी, उसका समर्थन कर दिया ,  यह आपने ’अनुमोदित–पापकर्म’ कर दिया । अनुमोदित का अर्थ है समर्थन करना । आपने ना तो खुद मारा, ना किसी से मरवाया, बस केवल पापी का समर्थन किया तो यह आपने 50 डिग्री का पाप कर दिया । 
यह डिग्री–विग्री कुछ नहीं होता, यह तो बस समझाने के लिए है कि सबसे बड़ा, मध्यम, और छोटा पाप कैसे होता है । शास्त्रों में इसे मुख्य रूप से तीन भागों में समझने के लिए बांट दिया गया । बस ये तीन याद रखो– 
1. कृत पापकर्म –खुद करना 
2. कारित पापकर्म– किसी दूसरे से करवाना
3. अनुमोदित पापकर्म– पाप करने वाले का समर्थन करना 
पुण्य कर्मों को भी ऐसे ही समझिए–
एकदम ऐसा ही आप पुण्य कर्म का समझ लीजिए ।  किसी प्यासे बुजुर्ग को स्वयं  पानी पिलाना  ’कृत–पुण्य कर्म’,  अगले दिन उसी बुजुर्ग को किसी अन्य से पानी पिलवाना  ’कारित पुण्यकर्म’, तथा उसी बुजुर्ग को तीसरे दिन ना तो स्वयं और ना किसी अन्य के माध्यम से पानी पिलाना मगर पहले से ही पानी पिला रहे किसी अन्य व्यक्ति का समर्थन करना कि शाबाश तुम तो पुण्य का कार्य कर रहे हो, इसे  ’अनुमोदित–पुण्यकर्म’ कहते हैं । 
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{{  ((  कर्मफल   व्यवस्था  ))  }}
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शिष्य :  प्रणाम गुरुदेव ।
आचार्य : आयुष्मान भव: ।
शिष्य : आपने अंत में जो अनुमोदित कर्म बताया , इसमें यदि कोई मौन रहता है तो क्या व्यवस्था है ।
आचार्य : कई बार मौन भी समर्थन जैसा ही होता है । आपके मौन से यदि दूसरों का अहित होता है तो समझें कि आप अनुमोदित–पापकर्म कर बैठे । आपने शुभकार्य का समर्थन नहीं किया और मौन रह गए तो आपको ’अनुमोदित–पुण्यकर्म का फल नहीं मिलेगा । ऐसी व्यवस्था जानें । 
शिष्य : यदि मैंने कुछ पापकर्म कर लिए और कुछ पुण्यकर्म कर लिए तो अब क्या होगा पुज्यवर आचार्य ?
आचार्य : तो  जो–जो आपने पापकर्म किए हैं उन–उनका आपको दुःख (कष्ट, दंड) भोगना पड़ेगा और जो–जो आपने पुण्यकर्म किए हैं उन–उन का आपको सुख (सुफल,आनंद) मिलेगा । 
शिष्य :  तो क्या यह सारे सुख–दुःख हमारे पाप व पुण्य कर्मों का ही परिणाम है ?
आचार्य : बिलकुल, और सुनो, इसमें रत्तीभर भी गड़बड़ की गुंजाइश नहीं है । एक कतरा सुख और दुःख, कम या ज्यादा होने की कोई भी संभावना नहीं है । जो आपने पाप किया, उसका दंड आपको मिलेगा, चाहे इस जन्म में मिले या अगले जन्म में मिले । इसी तरह जो पुण्य , चाहे वह छोटा सा भी पुण्यकर्म है वह आपने किया तो आपको उसका सुख, उसका उत्तम फल मिलेगा ही मिलेगा ।  वह ईश्वर यदि ऐसा ना करे तो वह न्यायकारी नहीं बल्कि अन्यायकारी सिद्ध होता है । उसकी व्यवस्था वाला न्याय एकदम निष्पक्ष है ।
 शिष्य : कितने पुण्य कर्म करने से अगला जन्म मनुष्य के रूप में मिल सकता है ?
आचार्य : जब पुण्य कर्मों और पाप कर्मों की मात्रा बराबर होती है तो मनुष्य को अगला जन्म भी मनुष्य के रूप में ही मिलता है । यदि पापकर्म पुण्यकर्मों से ज्यादा हुए तो मनुष्य को विभिन्न जीव–जंतुओं के रूप में जन्म लेना पड़ता है । जैसे ही फिर से वह अपने पाप कर्मों का इतना  फल भोग चुका होता है कि उसके पापकर्म पुण्यकर्मों के बराबर रह जाएं तो उसे फिर से मानव जन्म मिलता है ।
शिष्य : इस पृथ्वी पर हजारों खरब जीव–जंतु हैं , यदि उनमें से आधों के भी पापकर्म और पुण्यकर्म बराबर हो जाएं तो इस पृथ्वी पर मनुष्यों की जनसंख्या तो हजारों गुणा बढ़ जाएगी ?
आचार्य :  इस समस्त सृष्टि में ऐसी–ऐसी अरबों–खरबों पृथ्वियां हैं जहां मनुष्य रहते हैं और हमारी पृथ्वी की तरह या इससे कुछ भिन्न जीवन हैं । वहां पर भी अगला जन्म हो सकता है । यह सब व्यवस्था सर्वशक्तिमान ईश्वर के अधीन है ।
 शिष्य : यदि मुझे कोई दुःख होता है तो क्या वह मेरे कर्मों का फल है ?
आचार्य :  बिलकुल , इस व्यवस्था में रत्तीभर भी गड़बड़ की गुंजाइश नहीं है । आपने जो पाप किया, वह छोटा हो या बड़ा, आपको उसकी सजा अवश्य मिलेगी । इसी तरह आपने जो चाहे छोटा सा भी पुण्य किया तो उसका फल, उसका सुख आपको अवश्य मिलेगा ।  यह सारी व्यवस्था सर्वव्यापक ईश्वर देखता है और सबको न्यायपूर्ण फल देता है ।
शिष्य : कोई शराबी कार चालक मुझे टक्कर मारकर भाग जाए तो यह पाप तो उसने किया और सजा मुझे मिल गई ? मैं घायल हो जाऊंगा, कुछ महीने कष्ट भोगूंगा, मर भी सकता हूं ।  वह शराबी कार चालक तो भाग गया । यह कैसा न्याय हुआ आचार्यवर ?
आचार्य :   वह कार चालक फलदाता नहीं है, फलदाता तो ईश्वर है इसलिए उस कार चालक ने कृत पापकर्म किया, उसके कोष (खाते में) वह पाप जुड़ गया । यदि वह पकड़ा गया और न्यायालय ने उसे दंडित किया तो उसका कोष (खाता) से वह पाप कम हो जाएगा । यदि न्यायालय ने कम दंड दिया तो उसी हिसाब से आपके कोश में से  पाप भी कम होगा । रही बात आपकी – आपने कोई पाप नहीं किया मगर सजा बड़ी मिल गई ?  इससे आपका जो पाप कर्मों का कोष (खाता) था उसमें से उतने ही दुःख जो आपको मिलने थे वो कम हो जाएंगे क्योंकि आप तो पहले ही दुःख भोग चुके हो ।  ऐसे ही सब व्यवस्था न्यायकारी प्रभु के अधीन है । जो बिल्कुल शुद्ध, स्पष्ट और न्यायसंगत है ।
 शिष्य : आचार्य श्री ! शुभ कर्म और अशुभ कर्म कौन से होते हैं ?
आचार्य : जिन–जिन कर्मों से मनुष्य समेत सभी जीवधारियों को सुख पहुंचता हो वे सब शुभकर्म हैं, पुण्य कर्म हैं , इसके विपरित सब अशुभ और पाप कर्म हैं ।
शिष्य :  क्या सभी कर्मों का फल हमें तुरंत मिल जाता है ?
उत्तर :  नहीं , कुछ कर्मों का फल अभी और कुछ का अगले जन्मों में भोगना पड़ता है ।  कुछ जो कर्म हमने लाखों जन्मों पूर्व किसी एक मनुष्य जन्म में कोई कर्म किया हो तो करोड़ों वर्ष बाद भी उसका फल मिल सकता है, और मिलता भी है । तभी तो सामान्य बोलचाल में लोग कह देते हैं कि जाने किस जन्म का किया पाप सामने आ गया और आज यह दुःख मुझे देखना पड़ा । 
शिष्य :  आपकी इन सब बातों का प्रमाण क्या है आचार्य श्रेष्ठ ?
आचार्य :  ऋषियों के वचन, वेदों के सिद्धांत, उपनिषदों के कथन और इन सबके तथ्यगत उद्धरण इसके प्रमाण हैं जिनकी एक–एक मंत्र को संख्या और पृष्ठ संख्या सहित मैं आपके सामने प्रस्तुत कर सकता हूं। 
शिष्य : किस कर्म का क्या और कितना फल मिलेगा , क्या यह भी वर्णित हैं ?
आचार्य : नहीं ,   यह व्यवस्था ईश्वराधीन है ।  किस कर्म का क्या फल देना और कब देना है यह सब ईश्वर जानता है ।
शिष्य : यह कैसी व्यवस्था है आचार्य जी, एक बालक को तो अच्छा परिवार, धन, अच्छे शिक्षक और पूरा वातावरण जन्म से ही मिल जाता है और दूसरा बालक जन्म से ही झोपड़ी में पैदा होता है जिसे रोटी के भी लाले पड़े रहते हैं । इस झोपड़ी वाले से क्या उम्मीद करें कि  यह  इस ’कर्मफल’ व्यवस्था को जान पाएगा । 
आचार्य :  मनुष्य का आत्मा शुभ और अशुभ का स्वाभाविक ज्ञान रखना है । शुभ कार्य करते हुए आनंद और उत्साह उत्पन्न होता है, जबकि अशुभ कार्य करते हुए हृदय में भय और चिंता का भाव उत्पन्न होता है । रही बात निर्धन परिवार में जन्म लेने और सद्ज्ञान से दूर होने की तो कर्मफल व्यवस्था अटल है, जो पाप कर्म किए है उनके दंड से छुटकारा किसी भी उपाय से संभव नहीं है । इसी तरह शुभ कर्मों का फल भी अवश्य ही मिलता है । ज्ञान से दूरी कर देना भी दंड का एक रूप है । 
शिष्य : जैसे मैंने गिलास लेकर पानी पिया, तो क्या ऐसे साधारण कर्मों का भी लेखा–जोखा प्रभु रखते हैं ?
आचार्य : नहीं , क्योंकि इसका कोई प्रयोजन नहीं , इसलिए केवल शुभ व अशुभ कर्मों का ही लेखा–जोखा प्रभु रखते हैं ।
शिष्य :  क्या प्रभु ये सब बातें कहीं लिखकर रखते हैं ?
आचार्य : नहीं, इसकी जरूरत नहीं । सर्वशक्तिमान प्रभु सबकुछ अपनी व्यवस्था से संभालते हैं । उनको कहीं लिखने की जरूरत नहीं होती । इसके बावजूद भी कहीं किसी गड़बड़ की जरा सी भी संभावना कभी नहीं होती । 
शिष्य : जब कोई मनुष्य पाप कर्म करता है तो प्रभु उसे रोकते क्यों नहीं है । 
आचार्य :  मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है और प्रभु का काम कर्मों के फल देना है । दोनों अपने–अपने कार्यों को कुशलता से करते हैं ।  जैसा कर्म वैसा फल । 
शिष्य : आज तो आपने इस सद्ज्ञान से अपने शिष्य की आत्मा को प्रकाशित कर दिया गुरुवर । आनन्द की वर्षा कर दी । प्रणाम गुरुदेव ।
आचार्य : आयुष्मान भव: । ऐसा नहीं है । आपके शुभकर्मों के परिणाम स्वरूप प्रभु ने आपका मुझसे मिलन करवाया । प्रेरणा दी, यह सद्ज्ञान भी उन्हीं पुण्यकर्मों से मिलता है ।  माध्यम चाहे कोई भी हो । प्रभु पिता ही हमें उत्तम कार्यों के लिए प्रेरित करते हैं, और सबको प्रेरित करते हैं । मैंने आपको जो ""कृत कर्म"",  ""कारित कर्म""   और  ""अनुमोदित कर्म"" के रूप वाला विश्लेषण समझाया है, शास्त्रों में इससे भी सूक्ष्म वर्गीकरण है ।  इस शास्त्रोक्त ""कर्मफल"" व्यवस्था को यदि देश के विद्यालयों में पढ़ाया जाए तो समाज अपराध मुक्त हो जाए और चहुओर सुख ही सुख हो जाए ।  वैदिक ज्ञान के बिना संसार सुख–शांति की कल्पना भी नहीं कर सकता ।
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