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वेदों में निरपराधों के प्राणों की रक्षा












वेदों में निरपराधों के प्राणों की रक्षा

अनागोहत्या वै भीमा कृत्ये मा नो गामश्वं पुरुरषं वधीः ।

-अथर्वेद (१०/१/२९)

१. निरपराधी का वध करनेवाला भयंकर है। तू हमारे गाय, घोड़े और मनुष्यों का वध मत कर।

२. अधा मन्ये श्रते अस्मा अधायि वृषा चोदस्व महते धनाय। मा नो अकृते पुरुहूत योनाविन्द्र क्षुध्यद्भ्य वय आसुतिं दाः ।।

-ऋग्वेद (१/१०४ /७)

न्यायाधीश आदि राजपुरुषों को चाहिए कि जिन्होने अपराध न किया हो उन प्रजाजनों को कभी ताड़ना न करे। सदा इनसे राज्यकर लेवे तथा इनको अच्छी प्रकार पाल और उत्रत कर विद्या और पुरुषार्थ के बीच प्रवृत्त कराकर आनन्दित करावें । सभापति आदि के इस सत्य काम को प्रजाजनों को सदैव मानना चाहिए।

३. मा नो वधीरिन्द्र मा परा दा मा नः प्रिया भेजनानि प्र मोषीः। आण्डा मा नो मघवञछक्र निर्भेन्मा नः पात्रा भेत्सहजानुषाणि ।।

-ऋग्वेद (१/१०४/८)

हे सभापति! तू अन्याय से किसी को न मारके, किसी भी धार्मिक सज्जन से विमुख न होकर, चोरी-चकारी आदि दोष रहित होकर जैसे परमेश्वर दया का प्रकाश करता है वैसे ही अपने राज्य के काम में प्रवृत्त हो। ऐसे वर्ताव के बिना प्रजा राजा से सन्तुष्ट नहीं हो पाती।

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