॥ वेद ॥ यजुर्वेद ॥>॥ अध्याय २३ ॥
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्.
सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम.. (१)
परमात्मा सोने ( हिरण्य) के गर्भ में रहे. वे सब से पहले उत्पन्न हुए. वे सब को उत्पन्न करने वाले व सब के एकमात्र पालक हैं. उन्होंने पृथ्वी व उत्तम स्वर्ग को धारण किया है. परमात्मा के अलावा अन्य किस देव के लिए हवि का विधान करें. (१)
उपयामगृहीतोसि प्रजापतये त्वा जुष्टं गृह्णाम्येष ते योनिः सूर्यस्ते महिमा.
यस्ते ऽ हन्त्संवत्सरे महिमा सम्बभूव यस्ते वायावन्तरिक्षे महिमा सम्बभूव यस्ते दिवि सूर्ये महिमा सम्बभूव तस्मै ते महिम्ने प्रजापतये स्वाहा देवेभ्यः.. (२)
हवि को प्रजापति देव हेतु उपयाम में ग्रहण किया है. यह आप का इष्ट स्थान है. हम आप को इस में ग्रहण करते हैं. यह आप का मूल स्थान है. सूर्य आप की महिमा है. दिन आप की महिमा का सूचक है. संवत्सर आप की महिमा का सूचक है. वायु आप की महिमा के सूचक हैं. अंतरिक्ष लोक आप की महिमा का सूचक है. स्वर्गलोक आप की महिमा का सूचक है. महिमाशाली प्रजापति के लिए स्वाहा. सब देवगणों के लिए स्वाहा. (२)
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैकऽ इद्राजा जगतो बभूव.
ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम... (३)
जो परमात्मा प्राण से जगत् के अधिष्ठाता हैं, जो परमात्मा जल से जगत् के अधिष्ठाता हैं, जो परमात्मा महिमाशाली हैं, जिन परमात्मा से महिमाशाली जग उत्पन्न हुआ, जो परमात्मा दोपायों व चौपायों के स्वामी हैं उन के अलावा हम किस देव के लिए हवि का विधान करें. (३)
उपयामगृहीतोसि प्रजापतये त्वा जुष्टं गृह्णाम्येष ते योनिश्चन्द्रमास्ते महिमा.
यस्ते रात्रौ संवत्सरे महिमा सम्बभूव यस्ते पृथिव्यामग्नौ महिमा सम्बभूव यस्ते नक्षत्रेषु चन्द्रमसि महिमा सम्बभूव तस्मै ते महिम्ने प्रजापतये देवेभ्यः स्वाहा.. (४)
हवि को प्रजापति के लिए उपयाम में ग्रहण किया गया है. आप प्रजापति की इष्ट है. इसीलिए आप को ग्रहण किया गया है. यही आप का मूल स्थान है. चंद्रमा आप की महिमा है. रात्रि आप की महिमा है. संवत्सर आप की महिमा है. पृथ्वी आप की महिमा है. अग्नि आप की महिमा है. नक्षत्रों में जो महिमा है, वह आप की है. चंद्रमा में जो महिमा है, वह आप की है. आप की उस महिमा के लिए स्वाहा. प्रजापति के लिए स्वाहा. देवगणों के लिए स्वाहा. ( ४ )
युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः रोचन्ते रोचना दिवि.. (५)
सूर्य जैसे स्वर्गलोक को प्रकाशित करते हैं और जैसे अपने चारों ओर के ग्रह को जोड़ते हैं, वैसे ही यजमान यज्ञ के सारे साधनों को जोड़ते हैं. (५)
युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे.
शोणा धृष्णू नृवाहसा.. (६)
मनुष्य के वाहन में घोड़े जोतने की तरह हवि ले जाने हेतु देवरथ में कामना पूरक हरि नामक घोड़े को जोतिए तथा धृष्णु नामक घोड़े को रथ में जोतने की कृपा कीजिए. (६)
यद्वातो अपो अगनीगन्प्रियामिन्द्रस्य तन्वम्.
एत स्तोतरनेन पथा पुनरश्वमावर्त्तयासि नः.. (७)
जब यह अश्व, जो वायु के समान वेगवान है, इंद्र देव के प्रिय जल को प्राप्त होता है, तब यजमानों को चाहिए कि वे अपने लिए उसी मार्ग से उस अश्व को लौटा दें. (७)
वसवस्त्वाञ्जन्तु गायत्रेण छन्दसा रुद्रास्त्वाञ्जन्तु त्रैष्टुभेन छन्दसा दित्यास्त्वाञ्जन्तु जागतेन छन्दसा.
भूर्भुवः स्वर्लाजी ३ ञ्छाची ३ न्यव्ये गव्य ऽ एतदन्नमत्त देवाऽ एतदन्नमद्धि प्रजापते.. (८)
हे यज्ञ रूपी अश्व! वसुगण गायत्री छंद से आप को आंजते हैं. हे यज्ञ रूपी अश्व ! रुद्रगण त्रिष्टुभ् छंद से आप को आंजते हैं. हे यज्ञ रूपी अश्व ! आदित्यगण जगती छंद से आप को आंजते हैं. भूलोक में स्थित देव से अनुरोध है कि वे इस हवि को ग्रहण करने की कृपा करें. अंतरिक्ष में स्थित देव से अनुरोध है कि वे इस हवि को ग्रहण करने की कृपा करें. स्वर्गलोक में स्थित देव से अनुरोध है कि वे इस हवि को ग्रहण करने की कृपा करें. प्रजापति में स्थित देव से अनुरोध है कि वे इस हवि को ग्रहण करने की कृपा करें. देवगण में स्थित देव से अनुरोध है कि वे इस हवि को ग्रहण करने की कृपा करें. (८)
कः स्विदेकाकी चरति क उ स्विज्जायते पुनः.
कि स्विद्धिमस्य भेषजं किम्वावपनं महत्.. (९)
कृपया बताइए कि कौन अकेला विचरता है ? कौन बारबार उत्पन्न होता है ? शीत की ओषधि क्या है ? बीज बोने के लिए कौन सा क्षेत्र सब से बड़ा है ? (९)
सूर्य एकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः .
अग्निर्हिमस्य भेषजं भूमिरावपनं महत्.. (१०)
सूर्य अकेले विचरते हैं. चंद्रमा बारबार उत्पन्न होता है. अग्नि शीत की ओषधि है. भूमि बीज बोने का सब से विशाल क्षेत्र है. (१०)
का स्विदासीत्पूर्वचित्ति: कि : स्विदासीद् बृहद्वयः.
का स्विदासीत्पिलिप्पिला का स्विदासीत्पिशङ्गिला.. (११)
यजमान पूछते हैं कि सब से पहले किस का चिंतन करना चाहिए ? सब से बड़ा कौन है ? सब से बड़ा रक्षक एवं शोभाधारक कौन है ? सब के रूपों को निगल जाने वाला कौन है ? ( ११ )
रासीत्पूर्वचित्तिरश्वऽ आसीद् बृहद्वयः.
अविरासीत्पिलिप्पिला रात्रिरासीत्पिशङ्गिला.. (१२)
स्वर्गलोक के बारे में सब से पहले चिंतन करना चाहिए. अश्व सब से विशाल है. पृथ्वी सब से बड़ी रक्षिका है. पृथ्वी सब से ज्यादा शोभा धारने वाली है. रात्रि अपने अंधेरे में सब को छिपा कर रखने वाली है. (१२)
वायुष्ट्वा पचतैरवत्वसितग्रीवश्छागैर्न्यग्रोधश्चमसैः शल्मलिर्वृद्धया.
एष स्य राथ्यो वृषा पभिश्चतुर्भिरेदगन्ब्रह्मा ऽ कृष्णश्च नोवतु नमोग्नये.. (१३)
वायु हमें परिपक्वता प्रदान करे. वायु काली गरदन वाली अग्नि दे. वटवृक्ष चमस प्रदान करे. शाल्मली वृक्ष (सेमल ) बढ़ोतरी प्रदान करे. यह शक्तिमान, सर्वव्यापक, आनंददायक है. अग्नि चारों चरणों में जीवों को पोसें व अग्नि आगमन की कृपा करें. बिना काले यानी सफेद अश्व हमारी रक्षा करने की कृपा करें. अग्नि के लिए नमस्कार. ( १३ )
स शितो रश्मिना रथः स शितो रश्मिना हय: .
स शितो अप्स्वप्सुजा ब्रह्मा सोमपुरोगव:.. (१४)
रश्मियों से यज्ञ रूपी रथ की प्रशंसा होती है. किरण रूपी घोड़ों से यज्ञ रूपी रथ की प्रशंसा होती है. जल में उत्पन्न जल में शोभा पाते हैं. ब्रह्मा की प्रशंसा सोम को आगे करने के कारण होती है. (१४ )
स्वयं वार्जिंस्तन्वं कल्पयस्व स्वयं यजस्व स्वयं जुषस्व.
महिमा तेन्येन न सन्नशे.. (१५)
हे यज्ञ ऊर्जा! आप स्वयं बलवान हैं. आप अपने शरीर को फलीभूत कीजिए. आप स्वयं यज्ञ से विस्तृत होइए. आप पदार्थों से जुड़िए. उन्हें प्राणवान बनाने की कृपा कीजिए. आप की महिमा कभी भी नष्ट न हो. (१५)
न वा उ एतन्प्रियसे न रिष्यसि देवाँ इदेषि पथिभिः सुगेभिः.
यत्रासते सुकृतो यत्र ते ययुस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु .. (१६)
परम शक्ति न मरती है, न क्षीण होती है. वह देवताओं के मार्ग से जाती है. वह सुगम पथ से वहां पहुंचती है, जहां अच्छे कर्म करने वाले लोग रहते है. वहां सविता देव स्वयं इसे धारण करते हैं. (१६)
अग्निः पशुरासीत्तेनायजन्त स एतँल्लोकमजयद्यस्मिन्नग्निः स ते लोको भविष्यति तं जेष्यसि पिबैताऽ अपः.
वायुः पशुरासीत्तेनायजन्त स एतँल्लोकमजयद्यस्मिन्वायुः स ते लोको भविष्यति तं जेष्यसि पिबैताऽ अपः.
सूर्य: पशुरासीत्तेनायजन्त स एतँल्लोकमजयद्यस्मिन्त्सूर्यः स ते लोको भविष्यति तं जेष्यसि पिबैताऽ अप:.. (१७)
अग्नि रूपी पशु से देवताओं ने यजन (यज्ञ) किया. जिस में अग्नि है, वही इस लोक में जीतता है और जीतेगा. यजमान इस ज्ञान को अपनाएं. वायु रूपी पशु से देवताओं ने यज्ञ किया. जिस में वायु प्रबल है, वह जीतता है और जीतेगा. यजमान इस ज्ञान को अपनाएं. सूर्य रूपी पशु से देवताओं ने यज्ञ किया. जिस में सूर्य तत्त्व की प्रधानता होती है, वह जीतता है और जीतेगा. यजमान इस ज्ञान को अपनाएं. (१७)
प्राणाय स्वाहापानाय स्वाहा व्यानाय स्वाहा.
अम्बे अम्बिकेम्बालिके न मा नयति कश्चन.
ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम्.. (१८)
प्राण के लिए स्वाहा. अपान के लिए स्वाहा. प्राण के लिए स्वाहा. हे अंबे ! हे अंबिके ! आप हमें किसी अप्रिय स्थिति में न ले जाएं. हे अंबालिके ! आप हमें किसी अप्रिय स्थिति में न ले जाएं. ठंडी अग्नि कांपील पेड़ की समिधाओं पर पड़ी है. ठंडी अग्नि श्रेष्ठ हवियों के साथ ठंडी पड़ी हुई है. (१८ )
गणानां त्वा गणपतिहवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे निधीनां त्वा निधिपति : हवामहे वसो मम.
आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्.. (१९)
आप गणों के स्वामी हैं. हम आप गणपति का आह्वान करते हैं. आप प्रियों के बीच प्रिय हैं. हम आप प्रियपति का आह्वान करते हैं. आप निधियों के बीच प्रिय हैं.हम निधिपति का आह्वान करते हैं. जगत् को आप ने बसाया है. आप हमारे होइए. आप संसार के गर्भधारी हैं. हम आप की इस गर्भधारण क्षमता को जानें. (१९)
ता ऽ उभौ चतुरः पदः संप्रसारयाव स्वर्गे लोके प्रोर्णुवाथां वृषा वाजी रेतोधा रेतो दधातु .. (२०)
यज्ञ शक्ति और देव शक्ति दोनों से उम्मीद है कि वे अपने चारों पैरों का प्रसार करने की कृपा करें. दोनों शक्तियां स्वर्गलोक एवं पृथ्वीलोक में व्याप्त करने की कृपा करें. दोनों शक्तियां बलवान हैं. वे हमें बलशाली व वीर्यवान बनाएं. हमारे लिए शक्ति और शौर्य धारण करें. ( २०)
उत्सक्थ्या अव गुदं धेहि सम िचारया वृषन्.
य स्त्रीणां जीवभोजन :.. (२१)
हे परम शक्ति! आप दुष्टों का दमन करने वाले व शक्तिमान हैं. जो व्यक्ति स्त्रियों से अपनी आजीविका कमाते हैं, अपना भोजन पाते हैं, आप उन को प्रताड़ना दीजिए. (२१)
यकासको शकुन्तिकाहलगिति वञ्चति.
आहन्ति गभे पसो निगलगलीति धारका.. (२२)
यह जल पक्षी की भांति प्रसन्नतादायी निनाद ( आवाज ) करता है. यह जल तेजोमय है. यह तेजस्वी जल कलकल निनाद करता है और शक्तिधारी है. (२२)
कोसक शकुन्तक आहलगिति वञ्चति.
विवक्षतऽइव ते मुखमध्वर्यो मा नस्त्वमभि भाषथा:.. (२३)
उपर्युक्त तेज के प्रभाव से बोलने के इच्छुक मुंह पक्षी की तरह निरंतर शब्द करते हैं. उन से निवेदन है कि वे यज्ञ के बारे में निरर्थक बात न करें. (२३)
माता च ते पिता च ते ऽ ग्रं वृक्षस्य रोहत: .
प्रतिलामीति ते पिता गभे मुष्टिमत सयत्.. (२४)
हे यजमान! आप के माता और पिता वृक्ष के आगे के भाग से ऊर्ध्व गति पाते हैं. ऊर्ध्वलोक से आप के पूर्वज बादल से वर्षा कर के शोभा बढ़ाते हुए ऐसे प्रतीत होते हैं, मानो वे कहते हैं, हम आप से प्रसन्न हैं. (२४)
माता च ते पिता च तेग्रे वृक्षस्य क्रीडत:.
विवक्षतऽइव ते मुखं ब्रह्मन्मा त्वं वदो बहु.. (२५)
आप के माता और पिता वृक्ष के आगे के भाग पर खेलते हैं. आप बोलने के अधिक इच्छुक प्रतीत होते हैं. आप अधिक मत बोलें. (२५)
ऊर्ध्वामेनामुच्छ्रापय गिरौ भार हरन्निव.
अथास्यै मध्यमेधता शीते वाते पुनन्निव (२६)
हे प्रजापति! आप इस राष्ट्र को ऊंचाइयों तक पहुंचाइए. हे प्रजापति! जैसे किसी भार को पर्वत पर पहुंचा कर (लोग) प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार हम राष्ट्र को ऊंचाई पर पहुंचा कर प्रसन्न होते हैं. जैसे ठंडी हवाओं के बीच से किसान अन्न को साफ करते हैं, उसी प्रकार प्रजापति की कृपा से हम राष्ट्र को पवित्र करें. (२६)
ऊर्ध्वमेनमुच्छ्रयतागरौ भार हरन्निव.
अथास्य मध्यमेजतु शीते वाते पुनन्निव.. (२७)
हे प्रजापति! आप इस राष्ट्र को ऊंचाइयों तक पहुंचाइए. हे प्रजापति! जैसे भार को पर्वत पर पहुंचा कर प्रसन्न होते हैं (लोग), उसी प्रकार हम राष्ट्र को ऊंचाई पर पहुंचा कर प्रसन्न होते हैं. जैसे ठंडी हवाओं के बीच से किसान अन्न को साफ करते हैं, उसी प्रकार प्रजापति की कृपा से हम राष्ट्र को पवित्र करें. (२७)
यदस्या ऽ अ हुमेद्याः कृधु स्थूलमुपातसत्. मुकाविदस्याऽजतो गोशफे शकुलाविव.. (२८)
यह यज्ञाग्नि पाप भेदक व दुष्ट नाशक है. इस यज्ञाग्नि की स्थूल पृथ्वी पर स्थापना हो जाती है तब ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि धर्म रूपी गाय के चरणों में खुरों की तरह सुशोभित होते हैं. (२८)
यद्देवासो ललामगुं प्रविष्टीमिनमाविषुः.
सक्ना देदिश्यते नारी सत्यस्याक्षिभुवो यथा.. (२९)
जब ऐसी ही (यज्ञ जैसी ) परमानंददायी गतिविधि संपन्न होती है तो उन्हें उस परम सत्य की वैसे ही अनुभूति हो जाती है, जैसे स्त्री के अंगों को देख कर स्त्री की पहचान हो जाती है. (२९)
यद्धरिणो यवमत्ति न पुष्टं पशु मन्यते.
शूद्रा यदर्यजारा न पोषाय धनायति.. (३०)
जब हिरण खेत में घुस कर जौ ( अनाज ) खा जाता है तो किसान हिरण की पुष्टता से खुश नहीं होते बल्कि अपनी हानि से दुःखी ही होते हैं. वैसे ही कोई शूद्रा जार से ज्ञानधन पाती है तो उस का पति उस के इस तरह ज्ञान संपन्न होने से प्रसन्न नहीं होता है. (३०)
यद्धरिणो यवमत्ति न पुष्टं बहु मन्यते .
शूद्रो दर्यायै जारो न पोषमनु मन्यते.. (३१)
जब हिरण खेत में घुस कर जौ ( अनाज ) खा जाता है तो किसान हिरण की
पुष्टता से खुश नहीं होते बल्कि अपनी हानि से दुःखी ही होते हैं. वैसे ही कोई शूद्रा आर्यजन से ज्ञान पाती है तो उस का पति उस की इस ज्ञान प्राप्ति से ज्ञान पोषण को नहीं मानता. (३१ )
दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः .
सुरभि नो मुखा करत्प्र ण आयू षि तारिषत्.. (३२)
हम शक्तिशाली यज्ञ की अग्नि को विधिविधानपूर्वक संस्कार युक्त बनाते हैं. यज्ञ देव की कृपा हमारे मुखों को सुगंधमय व हमें आयुष्मान बनाए. यज्ञ देव की कृपा हमारा तारण करें. (३२)
गायत्री त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप्पङ्क्त्या सह.
बृहत् ष्णिहा ककुप्सूचीभिः शम्यन्तु त्वा.. (३३)
हे यज्ञाग्नि! हम गायत्री, त्रिष्टुप् जगती, अनुष्टुप् पंक्ति, बृहती, उष्णिक्, ककुप् छंद व सूचियों से आप को शांत करते हैं. आप शांत होने की कृपा कीजिए. (३३)
द्विपदा याश्चतुष्पदास्त्रिपदा याश्च षट्पदाः.
विच्छन्दा याश्च सच्छन्दाः सूचीभिः शम्यन्तु त्वा.. (३४)
हे यज्ञाग्नि ! जो दो, तीन, चार, छह पद वाले, छंद छंदहीन व छंद छंदयुक्त हैं, वे सूचियों द्वारा आप को शांति प्रदान करें. (३४)
महानाम्न्यो रेवत्यो विश्वा आशाः प्रभूवरी:.
मैर्विद्युतो वाचः सूचीभिः शम्यन्तु त्वा.. (३५)
हे यज्ञाग्नि ! सब प्राणियों को धारण करने वाली ऋचाएं, समस्त दिशाएं, 'महानाम्नी' देववाणियां, रेवती नमक ऋचाएं, बादलों की बिजली और श्रेष्ठ वाणियां सूचियों द्वारा आप को शांति प्रदान करें. (३५)
नार्यस्ते त्यो लोम विचिन्वन्तु मनीषया.
देवानां पत्न्यो दिश: सूचीभिः शम्यन्तु त्वा.. (३६)
हे यज्ञाग्नि ! यजमान की पत्नियां नेतृत्व करने में समर्थ हैं. हे यजमान! वे नारियां आप के लोमों को बुद्धिपूर्वक चुन कर अलग करने की कृपा करें. देवगणों की पत्नियां व दिशाएं सूची से आप को शांत करने की कृपा करें. ( ३६ )
रजता हरिणी: सीसा युजो युज्यन्ते कर्मभिः.
अश्वस्य वाजिनस्त्वचि सिमाः शम्यन्तु शम्यन्ती:.. (३७)
चांदी, सीसा और सोना विधिविधानपूर्वक यज्ञ में जोड़ा जाता है. वे इस यज्ञ की सम्यक् रूप से रक्षा करें. वे इस यज्ञ की अग्नि को सम्यक् रूप से शांत करने की कृपा करें. (३७)
कुविदङ्गयवमन्तो यवञ्चिद्यथा दान्त्यनुपूर्वं वियूय.
इहैषां कृणुहि भोजनानि ये बर्हिषो नम ऽ उक्तिं यजन्ति.. (३८)
हे सोम ! यवमान यानी जौ से पूरी तरह भरी हुई फसल को हम सब बहुत सोचविचार कर सावधानीपूर्वक काटते हैं. हम दया से परिपूर्ण आप को कुश का आसन भेंट करते हैं. आप यहां आने व भोजन करने की कृपा कीजिए. ये यजमान कुश के आसन पर बैठ कर नमस्कारपूर्वक आप के लिए यज्ञ कर रहे हैं. (३८)
कस्त्वा छ्यति कस्त्वा विशास्ति कस्ते गात्राणि शम्यति
कऽ उ ते शमिता कवि:.. (३९)
कौन आप को आजाद करता है ? कौन आप को आदेश ( उपदेश ) देता है ? कौन आप को शांत करता है ? कौन आप को सुख देता है ? विद्वान् (कवि ) परमात्मा ही यह सब करते हैं. (३९)
ऋतवस्त ऽ ऋतुथा पर्व शमितारो वि शासतु.
संवत्सरस्य तेजसा शमीभिः शम्यन्तु त्वा.. (४०)
ऋतुएं ऋतु के अनुसार सुखदायी हों. पर्व सुखद व अनुशासन में रहें. संवत्सर के तेज से सुख मिले. शांतिदायी कर्म आप के लिए सुखद हों. (४० )
अर्धमासाः परूषि ते मासा ऽ आ च्छ्यन्तु शम्यन्त:.
अहोरात्राणि मरुतो विलिष्ट : सूदयन्तु ते.. (४१)
हे परम पुरुष! आधे माह पक्ष और मास से आयु क्षीण होती है. मरुद्गण दिनरात आप के दुःख दूर करने की कृपा करें. ( ४१ )
दैव्या अध्वर्यवस्त्वा च्छ्यततु वि च शासतु.
गात्राणि पर्वशस्ते सिमाः कृण्वन्तु शम्यन्ती:.. (४२)
इस यज्ञ के अध्वर्यु (पुरोहित) आप के दोषों का क्षय करें व आप के अनुशासन हेतु मार्गदर्शन करें. इस यज्ञ के अध्वर्यु आप के शरीर उस के जोड़ों को शक्तिमान बनाने की कृपा करें. (४२)
द्यौस्ते पृथिव्यन्तरिक्षं वायुश्छिद्रं पृणा ते.
सूर्यस्ते नक्षत्रैः सह लोकं कृणोतु साधुया.. (४३)
हे परमात्मा! आप पृथ्वीलोक (यजमान) को परिपूर्ण बनाने की कृपा करें. आप अंतरिक्षलोक के दोष दूर करें. आप अंतरिक्षलोक को परिपूर्ण बनाने की कृपा करें. आप वायुलोक के दोष दूर करने की कृपा करें. हे परमात्मा! आप वायुलोक को परिपूर्ण बनाने की कृपा करें. सूर्य नक्षत्रों के साथ इस लोक को सज्जनता से पूरित करने की कृपा करें. (४३)
शं ते परेभ्यो गात्रेभ्यः शमस्त्ववरेभ्यः.
शमस्थभ्यो मज्जभ्यः शम्वस्तु तन्वै तव.. (४४)
हे परमात्मा ! आप की कृपा से हमारे शरीर के अंग विकारहीन हो जाएं. आप की कृपा से हमारे शरीर की हड्डियां व मज्जा विकारहीन हो जाएं. आप की कृपा से हमारे सुखों का विस्तार हो जाए. (४४)
कः स्विदेकाकी चरति क उ स्विज्जायते पुनः.
कि स्विद्धिमस्य भेषजं किम्वावपनं महत्.. (४५)
कौन अकेला विचरता है ? कौन बारबार उत्पन्न होता है ? हिम की ओषधि कौन सी है ? अच्छी तरह बीज बोने का विशाल स्थान कौन सा है ? (४५)
सूर्य एकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः.
अग्निर्हिमस्य भेषजं भूमिरावपनं महत्.. (४६)
सूर्य अकेले विचरते हैं. चंद्र देव बारबार उत्पन्न होते हैं. हिम की ओषधि अग्नि है. पृथ्वी बीज बोने का विशाल स्थान है. (४६ )
कि स्वित्सूर्यसमं ज्योतिः कि समुद्रसम थं सरः.
कि स्वित्पृथिव्यै वर्षीयः कस्य मात्रा न विद्यते .. (४७)
सूर्य के समान ज्योति कौन सी है ? समुद्र के समान तालाब कौन सा है ? पृथ्वी देवी से भी अधिक वर्षों वाला ( पुराना ) कौन है ? किस की कोई मात्रा (परिमाण) नहीं है ? (४७)
ब्रह्मसूर्यसमं ज्योतिद्यौः समुद्रसम सरः.
इन्द्रः पृथिव्यै वर्षीयान् गोस्तु मात्रा न विद्यते .. (४८)
ब्रह्म देव की ज्योति सूर्य की ज्योति के समान है. स्वर्गलोक समुद्र के समान तालाब है. इंद्र देव पृथ्वी देवी से भी पुराने हैं. गौ माता का कोई परिमाण नहीं है. (४८)
पृच्छामि त्वा चितये देवसख यदि त्वमत्र मनसा जगन्थ.
येषु विष्णुस्त्रिषु पदेष्वेष्टस्तेषु विश्वं भुवनमा विवेशाँ ३.. (४९)
हे देवसखाओ! हम जिज्ञासु हैं. हम मन से आप से पूछते हैं कि क्या विष्णु ने अपने तीन पैरों में विश्व के सभी भुवनों को समा लिया ? क्या तीनों लोक विष्णु के पैरों में (की परिधि में) समा गए. यदि आप इस बात को जानते हैं तो हमें बताने की कृपा कीजिए. (४९)
अपि तेषु त्रिषु पदेष्वस्मि येषु विश्वं भुवनमा विवेश.
सद्यः पर्येमि पृथिवीमु॒त द्यामेकेनाङ्गेन दिवो अस्य पृष्ठम्.. (५०)
जिन में सारे विश्व के भुवन समा गए, उन तीनों पैरों में भी मैं ही हूं. पृथ्वीलोक के ऊपर जो लोक है, उसे मैं इस एक मन रूपी अंग से जान जाता हूं. स्वर्गलोक के आधार पर लोक है. उसे मैं इस एक मन रूपी अंग से जान जाता हूं. (५०)
केष्वन्तः पुरुष ऽ आ विवेश कान्यन्तः पुरुषे अर्पितानि.
एतद्ब्रह्मन्नुप वल्हामसि त्वा कि स्विन्नः प्रति वोचास्यत्र.. (५१)
किस के अंतस्तल में परम पुरुष आ कर रमण करता है ? परम पुरुष के अंतस्तल में किन वस्तुओं को अर्पित किया जाता है ? हे ब्राह्मण! हम यजमान यह जानने के इच्छुक हैं. आप कृपया हमारी इन जिज्ञासाओं को वाणी प्रदान करने की कृपा कीजिए. (५१ )
पञ्चस्वन्तः पुरुष ऽ आ विवेश तान्यन्तः पुरुषे अर्पितानि.
एतत्त्वात्र प्रतिमन्वानो अस्मि न मायया भवस्युत्तरो मत्.. (५२)
आप यह मानते हैं कि आप यह नहीं जानते. अतः मैं माया से अर्थात् आप को मायापूर्वक प्रत्युत्तर देता हूं कि परम पुरुष पांच महाभूतों व पांच तन्मात्राओं में रमण करता है. परम पुरुष को पांच महाभूत व तन्मात्राएं अर्पित हैं. (५२)
का स्विदासीत्पूर्वचित्ति: कि : स्विदासीद् बृहद्वयः.
का स्विदासीत्पिलिप्पिला का स्विदासीत्पिशङ्गिला .. (५३)
हे अध्वर्युगण ! सब से पहले क्या जानना चाहिए ? सब से बड़ा पक्षी कौन सा है ? सब से अद्भुत रूप वाला कौन है ? वह कौन है, जो सब रूपों को निगल जाता है. (५३)
द्यौरासीत्पूर्वचित्तिरश्वऽ आसीद् बृहद्वयः.
अविरासीत्पिलिप्पिला रात्रिरासीत्पिशङ्गिला.. (५४)
सब से पहले स्वर्गलोक को जानना चाहिए. सब से बड़ा पक्षी अग्नि रूपी अश्व है. पृथ्वी सब से अधिक रूपों को निगलने वाली है. रात्रि सभी रूपों को निगल जाने वाली होती है. (५४)
का ईमरे पिशङ्गिला का ईं कुरुपिशङ्गिला.
कऽ ईमास्कन्दमर्षति कऽ ईं पन्थां वि सर्पति.. (५५)
तेईसवां अध्याय कौन रूपों को निगल जाती है ? कौन शब्द सहित सारे रूपों को निगल जाती है ? कौन उछल उछल कर चलता है ? कौन सरकसरक कर चलता है ? (५५)
अजारे पिशङ्गिला श्वावित्कुरुपिशङ्गिला.
ऽ आस्कन्दमर्षत्यहि: पन्थां वि सर्पति.. (५६)
हे अध्वर्युओ! माया सब को निगलती है. वही विचित्र रूपों में शब्द को निगल जाती है. खरगोश उछलता है. विशेषतया सांप मार्ग पर सरकसरक कर चलता है. (५६)
कत्यस्य विष्ठाः कत्यक्षराणि कति होमासः कतिधा समिद्ध:.
यज्ञस्य त्वा विदथा पृच्छमत्र कति होतार ऽ ऋतुशो यजन्ति.. (५७)
इस यज्ञ में कितने अन्न हैं ? इस यज्ञ में कितने अक्षर हैं ? होम कितने ( प्रकार के) होते हैं ? समिधाएं कितने ( प्रकार की ) होती हैं ? आप यज्ञ (विद्या) को विशेष प्रकार से जानते हैं. हम आप से यह जानना चाहते हैं कि प्रत्येक ऋतु में कितने होता यज्ञ करते हैं. (५७)
षडस्य विष्ठाः शतमक्षराण्यशीतिर्होमाः समिधो ह तिस्रः.
यज्ञस्य ते विदथा प्र ब्रवीमि सप्त होतार ऽ ऋतुशो यजन्ति.. (५८)
इस यज्ञ में छह प्रकार के अन्न हैं. इस यज्ञ में सौ अक्षर हैं. अस्सी प्रकार के होम होते हैं. समिधाएं तीन प्रकार की होती हैं. प्रत्येक ऋतु में सात होता यज्ञ करते हैं. (५८)
को अस्य वेद भुवनस्य नाभिं को द्यावापृथिवी अन्तरिक्षम्.
कः सूर्यस्य वेद बृहतो जनित्रं को वेद चन्द्रमसं यतोजा... (५९)
कौन है, जो इस लोक की नाभि को जानता है ? कौन है, जो स्वर्गलोक को जानता है ? कौन है जो अंतरिक्षलोक को जानता है ? कौन है, जो सूर्य की उत्पत्ति को जानता है ? कौन है, जो चंद्रमा की उत्पत्ति को जानता है ? (५९)
वेदाहमस्य भुवनस्य नाभिं वेद द्यावापृथिवी अन्तरिक्षम्.
वेद सूर्यस्य बृहतो जनित्रमथो वेद चन्द्रमसं यतोजा... (६०)
मैं (परमात्मा ) इस लोक की नाभि को जानता हूं. मैं स्वर्गलोक को जानता हूं. मैं अंतरिक्षलोक को जानता हूं. मैं सूर्य व चंद्र देव की उत्पत्ति को जानता हूं. (६०)
पृच्छामि त्वा परमन्तं पृथिव्याः पृच्छामि यत्र भुवनस्य नाभिः .
पृच्छामि त्वा वृष्णो अश्वस्य रेतः पृच्छामि वाचः परमं व्योम.. (६१)
हम यजमान पृथ्वी के परम अंत से पूछते हैं. हम यजमान लोक की नाभि से पूछते हैं. हम यजमान आप से पूछते हैं कि घोड़ों के वीर्य का बल कौन है. हम यजमान पूछते हैं कि वाणी का परम व्योम क्या है ? ( ६१ )
इयं वेदिः परो अन्तः पृथिव्याऽ अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः .
अयं सोमो वृष्णो अश्वस्य रेतो ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम.. (६२)
यह वेदी पृथ्वी का परम अंत है. यह यज्ञ की नाभि है. यह सोम अश्व के वीर्य का बल है. ब्रह्मा वाणी का परम व्योम है. (६२)
सुभूः स्वयम्भूः प्रथमोन्तर्महत्यर्णवे.
दधे ह गर्भमृत्वियं यतो जातः प्रजापति:.. (६३)
परमात्मा स्वयं उत्पन्न होने वाले हैं. उन्होंने सारे संसार को उपजाया है. सर्वप्रथम उन्होंने महान् अर्णव (समुद्र) में गर्भ धारा. उस गर्भ से प्रजापति ब्रह्मा उत्पन्न हुए. (६३)
होता यक्षत्प्रजापति ॐ सोमस्य महिम्नः.
जुषतां पिबतु सोम होतर्यज.. (६४)
होता ने महिमाशाली सोम से प्रजापति का यजन किया. प्रजापति से निवेदन है कि प्रजापति उस सोमरस को पीने की कृपा करें. आप होताओं से भी निवेदन है कि आप भी ऐसा ही यजन करने की कृपा करें. (६४)
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा रूपाणि परि ता बभूव.
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वय स्याम पतयो रयीणाम्.. (६५)
हे प्रजापति! आप के अलावा कोई दूसरा उतने विश्व रूपों वाला नहीं हो सकता. हम जिस कामना से यज्ञ करते हैं, हमारी वह कामना पूर्ण हो. हम धनों के स्वामी हो जाएं. (६५)
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