Ad Code

अथ सुभाषितसंग्रहः ॥ कर्म

 


॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

कर्म

तदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च । महाभारतम् - वनपर्व - २।७४।

यह वेद का वचन है (श्रुति का उपदेश है) । काम कर पर अभिमान त्यागकर, अर्थात् मैं कर्ता हूं इस भाव को छोड़ कर ।

 

कर्म खल्विह कर्तव्यं जानताऽमित्रकर्शन ।

अकर्माणो हि जीवन्ति स्थावरा नेतरे जनाः ॥ महाभारतम् - वनपर्व - ३२।३।

हे परन्तप ! बुद्धिमान् पुरुष को कर्म करना चाहिये । कर्महीन तो वृक्षादि स्थावर ही जीते हैं ।

 

बहूनां समवाये हि भावानां कर्मसिद्धयः । महाभारतम् - वनपर्व - ३२।५१।

बहुत से कारणों के जुटने से कर्म में सफलता प्राप्त होती है । 

 

इह यत् क्रियते कर्म तत्परत्रोपभुज्यते ।

कर्मभूमिरियं ब्रह्मन् फलभूमिरसो मता ॥ महाभारतम् - वनपर्व - २६१।३५।

हे ब्राह्मण ! जो कर्म इस लोक में किया जाता है परलोक में उसे भोगा जाता है । यह कर्मभूमि है और वह फलभूमि है ।

 

न कर्मणां विप्रणाशोऽस्त्यमुत्र पुण्यानां वाप्यथवा पापकानाम् ।

पूर्व कर्तुं गच्छति पुण्यपापं पश्चात्वेनमनुयात्येव कर्ता ॥ महाभारतम् - उद्योगपर्व - २७।१०।

पुण्य अथवा पाप कर्मों का परलोक में (दूसरी योनि में जाने पर) नाश नहीं हो जाता । पुण्य, पाप तो कर्ता से पहले वहां पहुंच जाते हैं और कर्ता: पीछे ॥

 

द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा ।

गृहस्थश्च निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः ॥ महाभारतम् - उद्योगपर्व - ३३।५७।

विपरीत आचरण से दो शोभा नहीं पाते गृहस्थ जो निष्कर्मा है (काम नहीं करता) और यति (संन्यासी) जो नाना धन्धों में आसक्त है ।

 

दम्भं मोहं मत्सरं पापकृत्यं राजद्विष्टं पैशुनं पूगवैरम् । 

मत्तोन्मतैर्दुर्जनैश्चापि वादं यः प्रज्ञावान् वर्जयेत्स प्रधानः ॥ महाभारतम् - उद्योगपर्व - ३३।११५।

जो दम्भ (दिखावे के लिये धर्माचरण), मोह (अन्यथा बोध), मत्सर (दूसरों का अभ्युदय देखकर जलन), पाप कर्म, राजा के प्रति द्वेष, चुगली, बहुतों से वैर, मदिरापान किए हुए, पागल व दुर्जन के साथ संवाद नहीं करता वह सुमति पुरुष सर्वश्रेष्ठ है ।

 

किंतु मे स्यादिदं कृत्वा कि नु मे स्यादकुर्वतः ।

इति कर्माणि संचिन्त्य कुर्याद्वा पुरुषो न वा ।। महाभारतम् - उद्योगपर्व - ३४।१९।

ऐसा करने से क्या होगा, ऐसा न करने से क्या होगा इस प्रकार सोच कर कर्मों को करे या न करे ॥

 

संगृह्णीयादनुरूपान् सहायान् सहायसाध्वानि हि दुष्कराणि ॥ महाभारतम् - उद्योगपर्व - ३७।२४।

योग्य सहायकों को अपने साथ ले (अपना बनाये) । कठिन कार्य पर- सहायता से ही सिद्ध होते हैं ।

 

ददाति यत्पार्थिव यत्करोति यद्वा तपस्तप्यति यज्जुहोति ।

न तस्य नाशोस्ति न चापकर्षो नान्यस्तदश्नाति स एव कर्ता ।। महाभारतम् - उद्योगपर्व - १२३।२२।

हे राजन् ! जो कुछ देता है, जो कुछ करता है, जो तप तपता है, जो होम करता है, उसका न तो नाश होता है और न ही वह घटता है । करने वाले को फल मिलता है किसी दूसरे को नहीं ॥

 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ महाभारतम् - भीष्मपर्व - २६/४७ ।

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, फल में कभी भी नहीं । कर्मफल तेरी प्रवृत्ति का कारण मत हो । निश्चेष्टता (कर्म न करना) में भी तेरा हठ मत हो ॥

 

न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ महाभारतम् - भीष्मपर्व - २७/५ ।

कोई भी क्षण भर के लिये भी कर्महीन नहीं रह सकता । प्रकृति हर किसी से अपने गुणों (सत्त्व, रजस्, तमस्) द्वारा वश में करके कर्म करवाती है ॥

 

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिध्येदकर्मणः ॥ महाभारतम् - भीष्मपर्व - २७।८।

शास्त्र - विहित कर्म को कर । न करने से करना अच्छा है । कर्म के बिना तो जीवन निर्वाह भी नहीं हो सकता ।

 

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् । महाभारतम् - भीष्मपर्व - ४२ । ४७ । 

प्रकृति - सिद्ध कर्म को करता हुआ पाप का भागी नहीं होता ।

 

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥ महाभारतम् - भीष्मपर्व -४२४८ 

हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! स्वभाव - नियत (पितृ-पितामह अनुक्रम से प्राप्त) कर्म का, चाहे वह दोषवान् भी हों, त्याग न करें, कारण कि सभी चेष्टाएँ दोष से घिरी हुई हैं जैसे धूंए से अग्नि ।

 

शयानं चानुशेते तिष्ठन्तं चानुतिष्ठति ।

अनुधावति धावन्तं कर्म पूर्वकृतं नरम् ॥ महाभारतम् - स्त्रीपर्व -३२

पहले किया हुआ कर्म लेटे हुए कर्ता के साथ लेट जाता है, खड़े हुए के साथ ठहर जाता है, दौड़ते हुए के साथ दौड़ता है । भाव यह है कि कर्म नित्य ही प्रत्येक अवस्था में कर्ता के साथ जुड़ा रहता है, जिस से कर्त्ता फल से छूट नहीं सकता ॥

 

प्राक् कर्मभिस्तु भूतानि भवन्ति न भवन्ति च । महाभारतम् - स्त्रीपर्व -३।१७।

पूर्व जन्म में किये हुए कर्मों के द्वारा प्राणी वृद्धि तथा ह्रास को प्राप्त होते हैं ।

 

न हि नाशोऽस्ति वार्ष्णेय कर्मणोः शुभपापयोः । महाभारतम् - स्त्रीपर्व -१८।१२।

हे वृष्णिगोत्रज (कृष्ण) पुण्य और पाप कर्मों का कभी नाश नहीं होता ।

 

यत्करोति शुभं कर्म तथा कर्म सुदारुणम् ।

तत्कर्तेव समश्नाति बान्धवानां किमत्र हि ।। महाभारतम् - शान्तिपर्व -१५३।४१ ॥

जो कुछ शुभ कर्म करता है अथवा भयानक (रौद्र, क्रूर) कर्म करता है कर्ता ही उसका फल भोगता है । बन्धुओं को उससे क्या मतलब ।

 

यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम् ।

तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुयच्छति ।। महाभारतम् - शान्तिपर्व  - १८१।१६।।

जैसे बछड़ा हजारों गौओं में अपनी मां को ढूंढकर प्राप्त हो जाता है, ऐसे पूर्वकृत कर्म कर्ता को जा मिलता । 

 

कर्मणा बध्यते जन्तु विद्यया च प्रमुच्यते ।

तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः ।। महाभारतम् - शान्तिपर्व -२४१ ॥७॥

कर्म से जीव बन्धन में आता है । (अर्थात् कर्म-फल-भोग के लिए जीव को शरीर धारण करना पड़ता है) और विद्या (आत्मज्ञान) से मोक्ष को प्राप्त होता है । अतः तत्त्वदर्शी लोग कर्म नहीं करते ।

 

नाकृत्वा लभते कश्चित् किञ्चिदत्र प्रियाप्रियम् । महाभारतम् - शान्तिपर्व -२६८३०

कोई भी बिना कर्म किए इष्ट या अनिष्ट को प्राप्त नहीं कर सकता । 

 

एकान्तिनो हि पुरुषा दुर्लभा बहवो नृप । महाभारतम् - शान्तिपर्व -३४८/६२ ।

हे राजन् ! निष्काम कर्म करने वाले भक्त विरले ही मिलते हैं ।

 

यथाच्छायातपो नित्यं सुसम्बद्धौ निरन्तरम् ।

तथा कर्म च कर्ता च सम्बद्धावात्मकर्मभिः । महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १ । ७५ ।।

जैसे छाया और धूप आपस में नित्य जुड़े हुए हैं वैसे ही कर्ता और कर्म कर्मों द्वारा जुड़े हुए हैं ।

 

स्वकर्मप्रत्ययान् लोकान्सर्वे गच्छन्ति वै नृप । महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १।८१।

राजन्, हर एक अपने कर्मो के अनुसार (भिन्न-भिन्न) लोकों को प्राप्त होता है ।

 

ओ३म् कुर्वन्नेवेह कर्माणि, जिजीविषेच्छतं समाः ।
एवं त्वयि नान्यथेतो ऽस्ति, न कर्म लिप्यते नरे ।। (यजुर्वेदसंहिता - ४०.२)
    मनुष्य इस संसार में कर्म करता हुआ ही सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करे। हे मनुष्य ! इस प्रकार कर्मानुष्ठान द्वारा अन्यों का नेतृत्व करने वाले तुझ में, कर्मों की आसक्ति उत्पन्न नहीं होगी ।

अव्यसश्च व्यचसश्च, बिलं विष्यामि मायया ।
ताभ्यामुद्धृत्य वेदमथ कर्माणि कृण्महे ।। (अथर्ववेदसंहिता - १९.६८.१)
    अव्यापक (परिच्छिन्न) जीवात्मा और व्यापक परमात्मा के रहस्य को मैं बुद्धि के द्वारा प्राप्त कर लेता हूँ। जीव और ईश्वर इन दोनों के विवेचन के साथ वेद को धारण करके फिर हम शुभ कर्मों को करते हैं ।

अक्रन् कर्म कर्मकृतः, सह वाचा मयोभुवा ।
देवेभ्यः कर्म कृत्वा ऽस्तं प्रेत सचाभुवः ।। (यजुर्वेदसंहिता - ३.४७)
    कर्म करने वाले जन सुखदायिनी वेदवाणी के चिन्तन के साथ कर्म करते हैं । हे संगठित रहने वाले सज्जनो ! देवों के लिये कर्म करके अपने मुख्य लक्ष्य को प्राप्त करो ।

इन्द्र क्रतुं न आ भर, पिता पुत्रेभ्यो यथा ।
शिक्षा णो अस्मिन् पुरुहूत यामनि, जीवा ज्योतिरशीमहि ।। (ऋग्वेदसंहिता - ७.३२.२६)
    हे ऐश्वर्यशाली परमात्मन् ! आप हमें उसी प्रकार कर्म से संयुक्त करो जैसे पिता अपने पुत्रों को कर्मयुक्त करता है । है बहुतों से पुकारे गये ईश्वर ! आप हमें जीवन-मार्ग में शिक्षित करो, जिससे हम इसी जीवन में, प्रकाश स्वरूप आपको पा सकें ।

देवस्य सवितुः सवे, कर्म कृण्वन्तु मानुषाः ।
शं नो भवन्त्वप ओषधीः शिवाः ।। (अथर्ववेदसंहिता - ६.२३.३)
    परमदेव प्रेरक परमात्मा के इस संसार में सभी मनुष्य कर्म करें । कल्याणकारी जल और औषधियाँ हमारे लिये शान्तिप्रद हों ।

नमस्यामो देवान्ननु बत ! विधेस्तेऽपि वशगा विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियत कर्मकफलदः ।
फलं कर्मायत्तं किममरगणैः किं च विधिना, नमस्तत् कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति ।। (नीतिशतकम् - ९५)
    हम, विद्वान् आदि देवों को नमस्कार करते हैं, किन्तु अरे ! वे भी तो विधाता के आधीन हैं । तो फिर विधाता अवश्य वन्दनीय है, किन्तु वह भी तो कर्मों के अनुरूप ही निश्चित फल देता है । इस प्रकार जब फल कर्मों के ही आधीन है (कर्मों के अनुसार ही मिलने वाला है) तो देवों और विधाता के ऊपर निर्भर न रहकर कर्मों को नमस्कार करें - कर्मों को प्रधानता दें, जिनको बदलने में विधाता भी    समर्थ नहीं है ।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस् तत्तदेवेतरो जनः ।
तस्माल्लोकस्य सिद्धयर्थ कर्त्तव्यं चात्मसिद्धये ।। (महाभा.शा. २२०)
    श्रेष्ठ मनुष्य जिस जिस कर्म को करता है, वही कर्म सामान्य मनुष्य भी करता है । अतः लोक के कल्याण के लिये और आत्मसिद्धि के लिये शुभ कर्म अवश्य करना चाहिये ।

सञ्चिन्त्य मनसा राजन् ! विदित्वा शक्यमात्मनः ।
करोति यः शुभं कर्म, स वै भद्राणि पश्यति ।। (महाभा.शा. २९१.१८)
    हे राजन् ! जो मनुष्य मन से भली प्रकार चिन्तन करके और अपने सामर्थ्य को देखकर शुभ कर्म करता है, वह भद्र का दर्शन करता है अर्थात् उसके जीवन में शुभ ही शुभ होता है ।

नाऽबीजाज्जायते किञ्चिन्नाऽकृत्वा सुखमेधते ।
सुकृतैर्विन्दते सौख्यं प्राप्य देहक्षयं नरः ।। (महाभा.शा. २९०.१२)
    बिना बीज के कुछ भी उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार बिना कर्म किये मनुष्य सुख नहीं पाता । उत्तम कर्मों से ही मनुष्य देहत्याग के पश्चात् भी सुख प्राप्त करता है ।

कर्मण्येवाऽधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।
    हे अर्जुन ! कर्म करने में ही तेरा अधिकार (स्वातन्त्र्य) है, कर्म के फल पाने में नहीं। तू कर्मफल का प्रयोजक मत बन। निकम्मेपन में तेरी रुचि कभी न होवे ।

योगस्थः कुरु कर्माणि, सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिङ्ख्योः समो भूत्वा, समत्वं योग उच्यते ।। (महाभा.भी. २६,४७.४८)
    हे अर्जुन ! तू योग में स्थित होकर, आसक्ति का त्याग करके और सफलता और विफलता में समस्थिति वाला होकर कर्मों को कर। समता का नाम ही योग है ।

नियतं कुरु कर्म त्वं, कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।
शरीरयात्रापि च ते, न प्रसिद्धयेदकर्मणः ।।
    हे अर्जुन ! तू निर्धारित कर्मों को अवश्य कर, क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना अधिक अच्छा है । कर्म न करने से तो तेरे शरीर का भी निर्वाह नहीं हो सकता ।

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र, लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय ! मुक्तसङ्गः समाचर ।। (महाभा. भी. २७.८.९)
    यज्ञनिमित्त से किये जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त जो कर्म किये जाते हैं, उनसे यह संसार बन्धन का कारण बनता है । इसलिये हे अर्जुन ! तू आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के लिये उत्तम प्रकार से कर्म कर ।

किन्नु मे स्यादिदं कृत्वा, किन्नु मे स्यादकुर्वतः ।
इति कर्माणि सञ्चिन्त्य, कुर्याद् वा पुरुषो न वा ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - ३४.१९)
    इस कर्म के करने से मुझे क्या फल मिलेगा और न करने से क्या फल मिलेगा, इस प्रकार अच्छी प्रकार विचार करके ही मनुष्य उस कर्म को करे अथवा न करे ।

कर्मणां तु प्रशस्तानामनुष्ठानं सुखावहम् ।
तेषामेवाननुष्ठानं, पश्चात्तापकरं मतम् ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - ३८.२३)
    उत्तम कर्मों का अनुष्ठान सुखदायी और उनका न करना पश्चात्तापकारी माना गया है । (अत: शुभकर्म अवश्य करने चाहियें)

वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा ।
सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ।। (नीतिशतकम् - ९८)
    जङ्गल में, युद्ध में, शत्रुओं के मध्य में, जलाशय में, अमि के मध्य में, महासागर में अथवा पर्वत के शिखर पर कहीं भी मनुष्य क्यों न हो और वह सोया हुआ, विक्षिप्त अथवा कठिन स्थिति में क्यों न हो, उसके पूर्व में किये हुए पुण्य कर्म उसकी सदा रक्षा करते हैं - उसकी रक्षा में कारण बनते हैं ।

भीमं वनं भवति तस्य पुरं प्रधानं, सर्वो जनः सुजनतामुपयाति तस्य ।
कृत्स्ना च भूर्भवति सन्निधिरत्नपूर्णा, यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं नरस्य ।। (नीतिशतकम् - १०३)
    जिस मनुष्य के पूर्व में किये गये पुण्यकर्म पुष्कल मात्रा में हैं, उसको भयङ्कर जङ्गल भी मुख्य नगर जैसा प्रतीत होता है, सब मनुष्य उसके साथ सज्जनता का व्यवहार करते हैं और सम्पूर्ण पृथिवी उसके लिये उत्तम रत्नों से परिपूर्ण हो जाती है ।

गुणवदगुणवद्वा कुर्वता कार्यमादौ, परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन ।
अतिरभसकृ तानां कर्मणामाविपत्तेर्, भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः ।। (नीतिशतकम् - १००)
    बुद्धिमान् मनुष्य को गुणयुक्त अथवा गुणरहित कर्म करने से पहिले, प्रयत्नपूर्वक उसके परिणाम के विषय में विचार कर लेना चाहिये। (बिना परिणाम का विचार किये) अतिशीघ्रता में किये गये कर्मों का फल हृदय को जलाने वाला, तीखा और विपत्तिकारक होता है ।

यः पश्चात् पूर्वकार्याणि, कुर्यादैश्वर्यमास्थितः ।
पूर्वं चोत्तरकार्याणि, न स वेद नयाऽनयौ ।। (वाल्मीकिरामायणम् (युद्धकाण्डम्) - ६३.५)
    जो मनुष्य अपने प्रचुर ऐश्वर्य पर अभिमान करके पहिले करने योग्य कार्यों को पीछे करता है और पीछे करने योग्य कार्यों को पहिले करता है, वह नीति और अनीति को नहीं जानता है ।

देशकालविहीनानि कर्माणि विपरीतवत् ।
क्रियमाणानि दुष्यन्ति, हवींष्यप्रयतेष्विव ।। (वाल्मीकिरामायणम् (युद्धकाण्डम्) - ६३.६)
    जो कर्म देश और काल का विचार किये बिना किये जाते हैं, वे उसी प्रकार दोषयुक्त होते हैं, जैसे असावधान ऋत्विजों के द्वारा दी गई होमाहुतियाँ ।

अवशेन्द्रियचित्तानां हस्तिस्नानमिव क्रिया ।
दुर्भगाभरणप्रायो ज्ञानं भारः क्रियां विना ।। (हितो.मि. १८)
    जिनकी इन्द्रियाँ और मन अपने वश में नहीं हैं, उनके द्वारा किये गये कर्म हाथी के स्नान के समान व्यर्थ हैं । उनके वे कर्म विधवा अथवा कुरूप स्त्रियों के द्वारा धारण किये गये आभूषणों के समान हैं । निश्चय ही कर्म के बिना तो ज्ञान भाररूप है ।

आदेयस्य प्रदेयस्य कर्त्तव्यस्य च कर्मणः ।
क्षिप्रमक्रियमाणस्य कालः पिबति तद्रसम् ।। (हितो.सु.१४६)
    लेने योग्य वस्तु, देने योग्य वस्तु और करने योग्य कर्म को यथासमय शीघ्रता से न लिया जाय, न दिया जाय और न किया जाय तो (समय बीतने पर) उनके सार को समय पी जाता है अर्थात् वे निस्सार हो जाते हैं ।

क्वचिद् भूमौ शय्या क्वचिदपि च पर्यङ्कशयनं, क्वचिच्छाकाहारी क्वचिदपि च शाल्योदनरुचिः ।
क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो, मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम् ।। (नीतिशतकम् - ८२)
    कर्म करने को उद्यत व्यक्ति, कहीं तो भूमि को शय्या बना लेता है और कहीं पलंग पर सोता है; कहीं कच्चे शाक खा लेता है और कहीं बढ़िया भात से तृप्त होता है; कहीं चिथड़े से शरीर ढक लेता है और कहीं उत्तम वस्त्र धारण करता है; इस प्रकार वह मनस्वी व्यक्ति कार्यमध्य में आने वाले न दुःखों को गिनता है और न सुखों को।

अवश्यमेव भोक्तव्यं, कृतं कर्म शुभाऽशुभम् ।
नाऽभुक्तं क्षीयते कर्म, कल्पकोटिशतैरपि ।। (अत्रिस्मृतिः)
    किये गये शुभ या अशुभ कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है । किया कर्म, बिना भोगे, करोड़ों वर्ष तक भी मिटता नहीं है ।

भाग्यवैषम्यदोषेण, पुरस्ताद् दुष्कृतेन च ।
मयैतत् प्राप्यते सर्वं, स्वकृतं ह्युपभुज्यते ।। (वाल्मीकिरामायणम् (युद्धकाण्डम्) - ११३.९)
    भाग्य की विषमता रूपी दोष से और पूर्व में किये दुष्टकर्मों के कारण मुझे (अपहरण तथा रामवियोग आदि) दुःख प्राप्त हुए हैं । यह निश्चय है कि मनुष्य अपने किये हुए कर्म का ही फल भोगता है । (सीता के वचन)

यदाचरति कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।
तदेव लभते भद्रे ! कर्त्ता कर्मजमात्मनः ।। (वाल्मी. अयो.)
    हे कल्याणि सीते ! मनुष्य शुभ या अशुभ जैसा भी कर्म करता है, उसी अपने किये का वह फल भोगता है ।

अवश्यमेव लभते, फलं पापस्य कर्मणः ।
भर्त्तः ! पर्यागते काले, कर्त्ता नास्त्यत्र संशयः ।।
    हे पतिदेव रावण । कर्मकर्ता अपने किये पाप कर्म का फल, समय आने पर अवश्य ही पाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है (रावणपत्नी मन्दोदरी का वचन) ।

शुभकृच्छु भमाप्नोति, पापकृत् पापमश्नुते ।
विभीषणः सुखं प्राप्तस्, त्वं प्राप्तः पापमीदृशम् ।। (वाल्मीकिरामायणम् (युद्धकाण्डम्) - १११.२५,२६)
    शुभकर्म करने वाला शुभफल (सुख) पाता है, पाप करने वाला पापफल (दुःख) पाता है । विभीषण ने (शुभ कर्म का फल) सुख पाया है और तूने (रावण ने) यह पापफल (दुःख) पाया है । (रावणपत्नी के वचन)

अचोद्यमानानि यथा पुष्पाणि च फलानि च ।
स्वं कालं नातिवर्त्तन्ते तथा कर्म पुरा कृतम् ।। (महाभा.शा. १८१.१२)
    जैसे फूल और फल (प्रत्यक्षतः) बिना किसी के प्रेरणा किये ही अपने काल का अतिक्रमण नहीं करते (अपितु यथासमय फूलते और फलते हैं) वैसे ही पूर्व में किये कर्म भी (यथासमय अवश्य फलित होते हैं) ।
 

Post a Comment

0 Comments

Ad Code