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आत्मा की सत्ता व स्वरूप।



 🚩‼️ओ3म्‼️🚩

🕉️🙏नमस्ते जी

दिनांक - 25 अगस्त 2025 ईस्वी

दिन - - सोमवार 

    🌒 तिथि-- द्वितीया ( 12:34 तक चतुर्थ तृतीया )

🪐 नक्षत्र - - उत्तराफाल्गुन (27:50 तक हस्त उत्पाद)

पक्ष - - शुक्ल 

मास - - भाद्रपद 

ऋतु - - शरद 

सूर्य - - दक्षिणायन 

 🌞 सूर्योदय - - प्रातः 5:56 पर दिल्ली में 

🌞सूरुष - - सायं 6:50 पर 

🌒चन्द्रोदय--7:39 पर 

🌒 चन्द्रास्त - - 20:01 प्रति 

 सृष्टि संवत् - - 1,96,08,53,126

कलयुगाब्द - - 5126

सं विक्रमावत - -2082

शक संवत - - 1947

दयानन्दबद - - 201

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🚩‼️ओ3म्‼️🚩

 🔥आत्मा की सत्ता व स्वरूप।

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  एक व्यक्ति का कहना है कि 'मैं हूं'। यहां 'मैं' का प्रयोग शरीर के लिए नहीं आध्यात्म के लिए होता है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि शरीर के लिए कोई 'मैं' का प्रयोग नहीं होता, बल्कि 'मेरा शरीर' का अर्थ होता है।

   सांख्य शास्त्र के रचयिता महर्षि कपिल ने अन्य प्रकार से इस बात को बताया है―

   प्रधानसृष्टि: पार्थं स्वतोऽप्यभोकत्रत्वात् उष्ट्रकुन्कुमवहनवत्।

   अर्थात- प्रकृति से परे जगत् आत्मा के लिए ही है, प्रकृति के स्वयं भोक्ता न होने से, उंट के द्वारा केशर धोए जाने के समान।

ऊँट केशर को अपने लिए नहीं, मार्केटप्लेस के लिए स्टॉक लेना है। इसी प्रकार प्रकृति से बना जगत आपके लिए न तो सपने, न ही सपनों के लिए होता है।

   कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च।―(सांख्य 1/109)

'और मोक्ष के लिए उत्सुकता से।'

दु:ख की अत्यंत निवृत्ति को मोक्ष कहते हैं। दु:खों से बचने के लिए जो प्रवृत्त होता है वह आत्मा का ज्ञानी है।

   स्थिर देह को यदि चेतन मन लिया जाए, तो आत्मा के साथ संवाद की क्या आवश्यकता है? इस संकट का समाधान करते हुए सूत्रधार कहते हैं―

  न सांसिद्धिकं चैतन्यं प्रत्येकदृष्टे:।

―(सां0 3/20)

'हर भूतकाल में न देखें जाने से भौतिक तत्त्व में स्वभावत: चैतन्य नहीं है।'

   पंचमहाभूतों के समागम में खुद का नहीं पाया जाता, अत: पंचमहाभूतों के समागम में अपने का तो सवाल ही नहीं। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि कुछ भौतिक तत्त्वों से कोई भी तत्व स्वयं उत्पन्न नहीं हो सकता। इससे पता चलता है कि मनुष्य का अपना कोई अधिकार नहीं है। यदि पंचमहाभूतों को चेतन माना जाए, तो इसके क्या परिणाम होंगे, इस विषय में महर्षि कपिल कहते हैं―

   प्रपंचमरणद्यभावश्च।―(3/21)

'समस्त जड़ जगत् और मरांडी का अभाव होना चाहिए।'

यदि पंचमहाभूतों को चेतन माना जाए, तो फिर संपूर्ण जगत में जड़ता नहीं रहनी चाहिए, संपूर्ण जगत में जड़ता नहीं रहनी चाहिए; लेकिन ऐसा अनुभव नहीं आता. यदि पंचमहाभूतों को चेतन माना जाए, तो उनके प्रभाव जो शरीर में हैं, उन्हें कभी मरना नहीं चाहिए। लेकिन हम शरीर की मृत्यु देखते हैं। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि स्वतंत्र पंचमहाभूतों का धर्म नहीं है, यह कोई अन्य तत्त्व का धर्म है जिसे आत्मा कहते हैं।

   न्यायदर्शन में आचार्य गौतम ने आत्मा की नित्यता के विषय में निम्नलिखित युक्तियाँ प्रस्तुत की हैं―

  पूर्वाभ्यस्तस्मृत्युबन्धाजतस्य हर्षभयशोकसंप्रतिपत्ते:।

―(न्याय 3/1/19)

पहले अभ्यास की हुई स्मृति की धारणा उत्पन्न होने से हर्ष, भय, शोक की प्राप्ति होने से आत्मा नित्य है।

जो बच्चा अभी पैदा हुआ है उसे हर्ष, भय और शोक आदि से युक्त देखा जाता है। ये हर्ष, भय और शोक पूर्वजन्म में अभ्यास की हुई स्मृति के बोध से ही उत्पन्न होते हैं।

   प्रेत्याहारभ्यासकृतात् स्थिर्याभिलाषात्।

―(न्याय 3/1/22)

मार्कर पूर्वाभ्यासकृत दूध का अभिलाषी होने से आत्मा नित्य है।

बच्चा पैदा होने पर ही माँ के स्तनों का पान करना प्रतीत होता है। इस जन्म में तो अभी उसने शराब पीने का अभ्यास ही नहीं किया। इससे पता चलता है कि आपके पूर्वजन्म में भोजन का अभ्यास है।

   महर्षि गौतम ने न्याय-दर्शन में आत्मा की सिद्धि के विषय में निम्नलिखित युक्तियाँ निकालीं―

   दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थगृहात्।

―(न्याय 3/1/1)

'दर्शन और स्पर्श से एक ही अर्थ का ग्रहण होना आत्मा शरीर से भिन्न है।'

  जिस विषय को हम आँख से देखते हैं उसी को त्वचा से स्पर्श भी करते हैं। नींबू को देखकर रसाना में पानी भर जाता है। यदि इन्द्रियाँ ही चेतन होती हैं तो ऐसी कदापि नहीं हो सकती, क्योंकि एक के देखे हुए अर्थ का दूसरे को कभी स्मरण नहीं होता। फिर से एक नजर देखें विषय का जिह्वा वा त्वचा से क्यों किया जाता है अनुभव? जब हम इंद्रिय के अर्थ को दूसरी इंद्रिय से ग्रहण करते हैं तो इससे यह सिद्ध होता है कि उस अर्थ के ग्रहण में इंद्रिय का स्वातंत्र्य नहीं है, आपका अतिरिक्त ग्रहिता कोई और है जिसे आत्मा कहती है। यह बात महर्षि कणाद ने वैशेषिक शास्त्र में कही है―

   इन्द्रियार्थप्रसिद्धिरिन्द्रियार्थेभ्योऽर्थन्तरस्य विकास:।

―(वै0 3,1,2)

इन्द्रियों के अर्थों से अन्य अर्थ (आत्मा) का साधक है।

  नाक से सूंघकर जिह्वा से चखना, आंख से देखना त्वचा से छूना, और कान से सुनी हुई वस्तुओं को ग्रहण करना आत्मा को सिद्ध करता है।

   इस तर्क के खंडन में यह तर्क दिया जाता है कि आँख और कान आदि इन्द्रियों के रूप और शब्द आदि विषय तो निश्चित हैं जो इन्द्रियों के ग्रहण होते हैं, तो फिर आत्मा के जादू की क्या आवश्यकता है? इसके उत्तर में महर्षि गौतम ने कहा है कि इन्द्रियों के विषयों की निश्चितता ही आत्मा की सत्ता का प्रमाण है कि वह इन्द्रियों के विषयों से अपने-अपने विषयों को ग्रहण करती है, अपनी भिन्न नहीं।

  आचार्य गौतम ने आत्मा की सिद्धि में दूसरी युक्ति दी है―

  शरीरदाहे पातकाभावात् ।―(न्याय 3/1/4)

'शरीर को जलाने में पाप नहीं होता।'

यह सिद्ध होता है कि आत्मा शरीर से अलग हो जाती है। इस पर सच कहा गया है कि आत्मा के शरीर में होने से शरीर में कोई पाप नहीं होता है।

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💐🙏आज का वेद मंत्र 💐🙏

🌷ओ3म् शं नो धाता शमु धृत नो अस्तु श न उरुचि भवतु स्वधाभि:। शं रोदसि बृहति शं नो अदृ: शं नो देवानां सुहावनि सन्तु। (ऋग्वेद 7|35|3)

💐अर्थ:- सबका संरक्षण तथा धारण करने वाले हारा भगवान हमारे लिए शांति प्रदान करने वाले हो, पृथ्वी अमृतमय अनादि भिक्षुओं के साथ शांति प्रदान करने वाले हो, व्यापक अंतरिक्ष एवं भूमि हमारे लिए शांति प्रदान करने वाले हो, हो मेघ व हमें शांति प्रदान करने वाले हो तथा देवों-विद्वानों के सुंदर स्तुति ज्ञान हमारे लिए शांति प्रदान करने वाले हो।

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 🔥विश्व के एकमात्र वैदिक पंचांग के अनुसार👇

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 🙏 🕉🚩आज का संकल्प पाठ 🕉🚩🙏

(सृष्टयादिसंवत-संवत्सर-अयन-ऋतु-मास-तिथि-नक्षत्र-लग्न-मुहूर्त) 🔮🚨💧🚨 🔮

ओ3म् तत्सत् श्री ब्राह्मणो दये द्वितीये प्रहर्धे श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वते मन्वन्तरे अष्टविंशतितम कलियुगे

कलिप्रथमचरणे 【एकवृन्द-शन्नवतिकोति-अष्टलक्ष-त्रिपञ्चाष्टसहस्र- षड्विंशत्य्युत्तरशतमे ( 1,6,08,53,126 ) सृष्ट्यबडे】【 द्वयशीत्युत्तर-द्विशहस्त्रतमे (2082) वैक्रमब्दे 】 【 मदद्विशतीतमे ( 201) दयानन्दबदे, काल-संवत्सरे, रवि-दक्षिणायणे, शरद-ऋतौ, भाद्रपद-मासे, शुक्ल-पक्षे, द्वितीयायन

 तिथौ, उत्तराफाल्गुन 

 - नक्षत्रे, सोमवासरे, शिव-मुहूर्ते, भूर्लोके जम्बूद्वीपे, आर्यावर्तान्तर गते, भारतवर्षे भरतखंडे...प्रदेशे.... प्रदेशे...नगरे...गोत्रोत्पन्न....श्रीमान् .(पितामह)... (पिता)...पुत्रोऽहम् (स्वयं का नाम)...आद्य श्याम वेलायम् सुख शांति अतिहितार्थ, आत्म कल्याण, रोग, शोक, निवारणार्थ च यज्ञ कर्मकारणय भवन्तम् वृणे

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