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जीवन का प्रथम अध्याय

 ज्ञान  विज्ञानं ब्रह्मज्ञान 
प्रथम अध्याय
।।त्रैतवाद साक्षी ऋतं वदिष्यामि ।।

ओ3म् त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योःमुक्षीय माऽमृतात्।।
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भुयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेयं।।

   मैं अपनी बात को एक कहानी से आरम्भ करना चाहता हूं। एक बार कि बात है एक बहुत बड़ा मन्दिर दक्षिण भारत में था। उसमें सैकड़ों पुरोहीत कार्य करते थे। एक रात जो मुख्य पुरोहीत था, उसके स्वप्न में परमात्मा आया और उससे कहा की कल मैं तुम्हारें मन्दिर में आऊगा, तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार कर लिया गया है और परमात्मा अदृश्य हो गया। अगले दिन सुबह मुख्य पुरोहीत ने अपने और दूसरें सहयोगी पुरोहीतों से कहा की आज परमात्मा हम सब से मिलने के लिए आ रहा है। उसके साथी जो दूसरें पुरोहित थे उन्होंने कहा कि क्या बकवास करते हो कहां है परमात्मा? और उसका आना असम्भव है, क्योंकि परमात्मा नाम की कोई वस्तु है ही नहीं यह तो हम सब का पेसा या युं कहें की यह तो हमारा धन्धा या व्यापार है। हम सब यह अच्छी तरह से जानते है कि हमारी सारी प्रार्थना और उपासना तो केवल दिखावा है यह सब तो खाली आकाश में जाकर बिलीन हो जाती है। उस मुख्य पुरोहित ने जिसके स्वप्न में परमात्मा आया था उसने कहा की मान लो यदि परमात्मा सच में ही आ गया तो हम सब के लिये समस्या आ जायेगी, हमारा जाता ही क्या है? किसी तरह से वह सभी लोग तैयार हो जाते है और पूरे मन्दिर को साफ-सुथरा किया गया और सब तरफ से मन्दिर को खुब सजाया, सवांरा गया तरह-तरह के धुप अगरबत्ती फुल मालाओं से अलंकृत किया गया, और बावन प्रकार के सुस्वादु व्यनजन पकवान को तैयार किया गया। जब सब कुछ तैयार हो गया तब वह सारे पुरोहीत बैठकर परमात्मा के आने का इन्तजार करने लगे। दोपहर हो गई और परमात्मा का कहीं कोई भी खबर नहीं आइ, तब मुख्य पुरोहीत ने अपने एक सेवक को बुलाया और उससे कहा कि तुम बाहर चौरास्ते पर देख कर आवो कि परमात्मा का कहीं कोई आने का पता है या नहीं। वह सेवक गया काफि दूर तक देख कर वापस आगया और उसने सूचना दी की परमात्मा का कहीं भी कोई अता-पता नहीं है। इन्तजार करते हुए अन्त में शाम हो गई धीरें-धीरें रात्री उतरने लगी और परमात्मा नहीं आया। जब सारे इन्तजार करते हुए निराश हो गये। तब सभी पुरोहितों ने मिलकर मुख्य पुरोहित का बहुत मजाक उड़ाया और बहुत बुरा-भला कहते हुए कहा अच्छा हुआ जो हमने गांव वालों को परमात्मा के आने का समाचार नहीं बताया, नहीं तो वह सभी गांव वाले हमरा सब का जीना मुस्किल कर देते और मिल कर हम सब को पागल समझते मजाक भी  उड़ाते और हमें मुर्ख कहते। इसके बाद में उन सब ने मिल कर भोजन किया जो परमात्मा के लिए बनाया गया था। उसके बाद सब अपने-अपने बिस्तर पर चले गए। मध्य रात्री को जब सारे पुरोहित सो गए, तब एक पुरोहित अचानक जाग गया और जोर-जोर से चिल्लाकर सभी को जगाते हुए कहने लगा की सभी लोग उठ जाओ जिस परमात्मा का हम सब दिन भर इन्तजार कर रहे थे। वह आ रहा है उसके रथ के आने की आवाज मन्दिर के बाहर से आ रही है। तब दूसरें पुरोहितों ने मिलकर उस पुरोहित को बहुत डांटा और कहा मुर्ख सो जा कोई परमात्मा नहीं आ रहा है, यह आवाज तो बादल के गण-गणाने से आ रही है। फिर वह सभी सो गए, कुछ देर के बाद जब सभी सो गए तभी एक दूसरें पुरोहीत कि नीद खुल गई, और उसने कहा की कोइ जाकर दरवाजे को खोलें परमात्मा आ रहा है उसके कदमों की आहट आवाज आ रही है। फिर कुछ मजबुत पुरोंहीतों ने मिल कर उसको खुब डांटा फटकारा और कहा क्या तू हम सब को पागल समझता है क्यों हम सब से मार खाना चाहता है। दिन भर परमात्मा-परमात्मा कहता रहा और तेरा परमात्मा नहीं आया, अब जब जमिन पर हवा के चलने की और धुल-धुसर की आवाज आ रही है, जिसे तू परमात्मा के कदमों की आहट समझता है। तू तो महा मुर्ख है सो जा, इस तरह से फिर सारे सो गए। जब थोड़ा समय और गुजर गया तब एक पुरोहीत फिर जाग गया और उसने कहा अब मत सोओ क्योंकि परमात्मा सच में ही आ गया है। वह दरवाजा को खट-खटा रहा है। तब तो आश्चर्य ही हो गया, उन सारे पुरोंहितों ने मिलकर उस पुरोंहित की अच्छी पीटाई कर दी वह पुरोंहित बुरी तरह से घायल लहु-लूहान हो गया, तब मारने वाले पुरोंहीतों ने कहा कि यह तो खीड़की पर हवा के टकराने की आवाज आ रही है। उसके बाद एक बार फिर चद्दर डाल कर घोड़ा बेच कर सब सो गए। जब सुबह हुई तो जो मुख्य पुरोहित था वह जब दरवाज खोल कर बाहर आया तो उसने देखा की सच में परमात्मा आया था उसके रथ के पहीये का निशान और कदमों के चिन्ह मवजुद थे यह देख कर वह बहुत आश्चर्य चकित हुआ, और अपनी छाती पीट कर फुट-फुट कर रोने लगा, उसको देख कर गांव वाले आ गये और उन्होंने पूछा क्या बात है? क्यों रो रहे हैं? तो उस पुरोहित ने कहा की परमात्मा हमारें दरवाजे पर आ कर हमें बुला रहा था और हम सब घोड़ा बेच कर सो रहे थे, वह वापिस चला गया। ऐसा सिर्फ उन पुरोहीतों के साथ नहीं हुआ हम सब के साथ भी यही हो रहा है। हम सब भी सदियों से सोने के आदि हो गए हैं परमात्मा तो हम सब के हृदय में उपस्थित है और हम सब को हर पल बुला रहा है, हम सब सोने में ही जीवन को सार्थक समझते है। स्वयं को जगाने के लिये ही यह एक प्रयास है। परमपिता परमेश्वर की असीम कृपा से यह शुभ और पवित्र दिन मुझे और आप सब को दिया हमारी योग्यता ही क्या थी? फिर भी उसने हम सब को हमारी योग्यता से कही अधीक दिया है, और हर क्षण बिना किसी स्वार्थ के दे रहा है। इस लिये सर्व प्रथम आदर, श्रद्घा, प्रेम और अहो भाग्य कृत्यज्ञता से भर कर उसको नमस्कार प्रणाम करते हैं। यहां इस भौतिक जगत में कुछ भी निःशुल्क नहीं मिलता है। हर वस्तु के पिछे हमारा स्वार्थ अवश्य होता है। वह स्वार्थ भौतिक, दैविक अथवा आध्यात्मिक हो सकता है यह निश्चित है, कि स्वार्थ मूल है, जैसा कि स्वामी तुलसी दास जी कहते है कि स्वार्थ लाई करई सब प्रिती सुर नर मुनि की यही है ऋति। अर्थात स्वार्थ के वसी भुत होकर ही यहां प्रत्येक मानव सुर अर्थात देवता मुनि भी इसी के वश में होकर ही प्रत्येक कार्य का सम्पादन करते है. हम सब के सभी कार्य में स्वार्थ मिला है वह कुछ भी हो सकता है। मानव और परमात्मा में यही मूल अन्तर है परमात्मा का स्वभाव है, सारा ज्ञान, विज्ञान, योग, भोग की सामग्री और सम्पूर्ण ऐश्वर्य निःशुल्क देता है बिना किसी स्वार्थ के वशीभुत हुए निश्वार्थ और निश्पक्ष भाव वह हम सब के साथ न्याय और अपनी दया को प्रकट कर रहा है। उसे भी हम सब नहीं देख सकते है उसमें भी कारण है। हमारा अज्ञान और अहंकार रोड़ा अटका कर खड़ा हो जाता है। फिर भी वह शाश्वत बिना किसी भेद भाव के है, या युं कहे सब मुफ्त में ही दे रहा है उस पर सभी का किसी ना किसी तरह से श्रद्धा विश्वास अडीग है, और इसमें जो मानव मन का अहम् है। वही मूल कारण है उसका अज्ञान ही है जो दूसरों को दुःखी और तरह-तरह से परेशान करके स्वयं को उससे ज्यादा आनन्दित करने की तीब्र आकांक्षा दूसरें को कुचलने की प्रेरणा देता है और मानव मन उसी अहम् के कारण ही स्वयं दुःखी रहता है और दूसरों को भी दुःखी रखता है। यह सब क्यों हो रहा है इसके पिछे अपना ही अज्ञान है या युं कहे कि उसके अन्दर का जो परमात्मा है वह उसके द्वारा दबा दिया गया है, या उसने अपनी आत्मा जिसके पिछे से परमात्मा की आवाज आ रही है उसे उसने सुनना बन्द कर दिया है। जैसा की मन्दिर के पुजारी करते है सिर्फ मन्दिरों के पुजारी ही ऐसा नहीं कर रहे है उसी तरह से हम सब भी कर रहें है क्योंकि यह मानव शरीर परमात्मा का मन्दिर है और हम सब अपने हृदय का दरवाजा जाने कितने सदियों से बन्द करने में ही अपनी सम्पूर्ण प्राण उर्जा शक्ति को व्यय खर्च कर रहें है। यह एक प्रकार का सबसे बड़ा व्यापार, पेसा, व्यवसाय है जिसे सिर्फ मन्दिर के पुजारी ही नहीं कर रहे है यद्यपि हम सब भी यहीं कर रहें है आज के समय में पश्चिम जगत अपने चरम पर है यह एक अति है जिसकी वजह से उन सब का अन्तर्जगत सम्पूर्ण नष्ट हो चुका है पुरब भी उसके चपेट प्रभाव में आ चुका है इसका परीणाम मैडनेस पागलपनता कि मात्रा अत्यधीक तेजी से बढ़ रही है, और यह सब मिल कर सामुहिक आत्मघात, आत्महत्या की तैयारी में पूरी ताकत से जुटे है। इस सम्पूर्ण पृथ्वी को भौतिक स्वर्ग बना रहे है और यह सब जिस पदार्थ से बन रहा है वह सब बारुद का ढेर है जिससे यह सम्पूर्ण पृथ्वी राख में तब्दिल हो जायेगी जैसे कोयला जलने या भष्म होने के बाद होता है।
   एक बार कई धर्म के शास्त्रि पंडीतों का एक बहुत बड़े शास्त्रार्थ का आयोजन एक सम्राट ने किया, उसको सुनने के लिए दूर-दूर से बहुत सारे लोग एकत्रित हुए जैसा की प्रायः हुआ करता है, वहां पर यह निर्णय होने वाला था कि परमात्मा कैसा है, और परमात्मा का स्वरूप कैसा है? जैसा की प्रायः होता है एक धर्म पण्डीत दूसरें धर्म के विचारों से कभी सहमत नहीं होते है। ऐसा ही उन सब में भी होने लगा, इसलिए ही यहां पृथ्वी पर सबसे ज्यादा लड़ाईयां और युद्ध धर्म को लेकर हुए है, और अभी भी गुरील्ला युद्ध हो रहे है। एक धर्म दूसरें धर्म को समापत्त करने के लिए अपनी पूरी ताकत को झोंक रहे है। इश्लाम का प्रचार और धर्मान्तरण, ईसाईयों का धर्रमान्तरण बरा-बर बहुत तेजी से हो रहा है। जिसके पास ज्यादा धन है उसी का धर्म ज्यादा फल फुल रहा है। आज ईसाईयत का राज्य करने के लिये ही इसके पिछे बहुत बड़ी मात्रा में धन और जीवन को व्यर्थ में खर्च किया जा रहा है।
  धर्म का जो शास्त्रार्थ हो रहा था उसमें किसी का निर्णय न होने की स्थिति में लोग बहुत अधीक निराश हुए, और उनमें जो कुछ बुद्धिमान लोग थे उन्होंने धर्म और परमात्मा के विषय में अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए महात्मा बुद्ध के पास गए, क्योंकि महात्मा बुद्ध उस समय अपने चरम पर थे अर्थात उनकी प्रसिद्धि बहुत थी।
   महात्मा बुद्ध ने उन वुद्धिजीवियों को पहले शान्त हो कर सुना और फिर अपने शिष्यों से कहा की एक अच्छा हाथी और चार अंधे आदमीयों को लेकर आवो। फिर वह एक मस्त तन्दुरुस्त हाथी और चार अंधे आदमीयों को लेकर आए, तब महात्मा बुद्ध ने उन अंधे व्यक्तियों से कहा कि जावो हाथी को देखों और यहां मेंरे पास आकर बताओ की हाथी कैसा होता है? पहले अंधे आदमी ने हाथी के पैरों को छुआ और उसने आकर कहा हाथी तो खम्भे की तरह होता है, और दूसरें अंधे ने हाथी के पेट को छुआ और उसने कहा कि हाथी तो दीवाल की तरह होता है। तीसरें अंधे ने हाथी के कान को छुआ और उसने आकर सुचना दी की हाथी तो कपड़े की तरह से होते है। अन्त चौथे अंधे ने आकर बताया की हाथी तो रस्सी की तरह होता है क्योंकि उसने ने हाथी के पुंछ को छुआ और कहा की हाथी तो रस्सी की तरह होती है, और वह आपस में सारें बहस करने लगे। क्योंकि सबने हाथी को अलग-अलग बताया जो एक दूसरें से मेल नहीं हो रहा था। उन सबने उस हाथी को छु कर देखा और सब एक दूसरें को बताने लगे कि हाथी कैसा होता है? जिसने पुछ को पकड़ा वह समझ गया कि हाथी तो रस्सी कि तरह होता है, और जिसने हाथी कि पैर को छुआ उसने कहा कि हाथी खम्भे कि तरह होता है अन्त में महात्मा बुद्ध ने कहा कि प्रत्येक अंधे ने हाथी को छुआ और सबने हाथी कि व्याख्या कि या उसके बारें में बताया इसमें सही कौन रहा है? इसका मतलब है। सारे धर्म और उसके सारे अंध श्रद्धालु उसी प्रकार से है, और उनका परमात्मा या धर्म के विषय में उसी प्रकार से जानते समझते जिस प्रकार से अंधो ने हाथी को समझा है। जिसके पास आंखें है वह किसी से नहीं पूछता है कि हाथी रूपी धर्म या परमात्मा क्या और कैसा है?
   मैं जीवन को बिना किसी तैयारी के ही जीता हूं जैसा हमको यह जीवन मिला है, उसको उसकी परीपूर्णता में पूरा स्वीकारता हूं इसके बारें में मैं पहले से कुछ भी तैयारी नहीं करता हूं क्योंकि मैं यह जानता हूं कि यह जीवन परमात्मा का एक अद्वितीय उपहार है। मैं आने वाले कल को बिल्कुल कल के लिए खुला रखता हूं उसके लिए मेंरे पास कोई योजना या पहले से कुछ भी तय नहीं करता हूं। अगर मुझे लगता है कुछ बोलना चाहिए तो ही मैं कुछ बोलता हूं अगर नहीं लगता है कि मुझे बोलने की कोई खास जरुरी नहीं तो मैं मौन ही रहता हूं। इसके सिवाय कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचता है मैं वहीं करता हूं जो मुझसे मेंरा अस्तित्व कराता है। मैं स्वयं से कभी यह प्रश्न नहीं पूछता हूं ऐसा क्यों है? क्योंकि इस क्यों कोई उत्तर ही नहीं है। यह सहज है, बहता हूं जिस प्रकार से नदी, समन्दर और बादलों पर सवार हवा बह रही है। सारे उत्तर स्वयं के बनाये गए है और सब स्वयं को झुठा, असत्य, पाखण्डी बनाने के लिए और स्वयं की तृप्ति के लिए हैं। उसमें जीवन का सार्थक सत्य और उसकी वास्तवीकता नहीं है। सत्य कहा नहीं जा सकता, सत्य बहुत विशाल, विस्तृत व्यापक व्योंम, अज्ञेय अन्तरीक्ष की तरह है उसको जितना जान लों वह कम ही है। जिसका कोई अन्त नहीं है वह अनन्त है। जिसके लिए ही नेति-नेति अनन्त वेदान्त कहा गया है अर्थात जहां वेदों का अन्त होता है वहां से वह प्रारम्भ होता है और सारे शब्द चम्मच की तरह है जिससे हम सब समन्दर को खाली करने के लिए भागिरथी प्रयास करते है। यह कभी भी आज तक संभव नहीं हुआ है नाहीं आगे ही होगा, शब्द मात्र विशाल परम ज्ञान सत्य की कुछ हल्की सी झलक से ज्यादा कुछ नहीं है। जिस प्रकार झील के शान्त पानी में अपना चेहरा देखते है या कांच में अपनी तस्बीर देखते। उसी प्रकार से मुर्दे शब्दों में सत्य की झलक होती है। शब्द का अर्थ यह है सत्य के सन्दर्भ में नहीं से अच्छा कुछ है शब्द तो है। इसलिए मैं नदी की धारा के साथ बहता हूं बिना किसी प्रश्न के कि कहां जा रहा हूं क्योंकि नदी स्वयं कि लहरों से कभी नहीं पूछती है कि तुम कहां जा रहे हो? क्योंकि नदी के लिए यह प्रश्न ही ब्यर्थ है। मेंरा प्रयास है केवल चलते रहो यह चलना ही जीवन है जो अज्ञेय है जिसे वेद यज्ञामहे कहते है। यह जीवन यज्ञ की तरह से है जो परमात्मा का दिया मानव को दिव्य आशिर्वाद उसके कल्याण के लिए है। लेकिन जब हमारी इच्छा अवरोध रुकावट बन कर खड़ी हो जाती है, तो उसमें जीवन नहीं बचता है। जीवन स्वयं में परिपूर्ण है उसका कोई लक्ष्य नहीं है और उसे बखुबी ज्ञान है कि उसे कहां जाना है उसकी मंजील क्या है? दुःख उधार है और परमानन्द परमात्मा स्वयं का आन्तरीक जीवन का स्वभाव है।
   एक बार एक जाबाज नाविक समन्दर में यात्रा कि अचानक समन्दर में बहुत ही भयानक और दिल दहला देने वाली खतरनाक तुफान आगया जिसमें वह नाविक बुरी तरह से फंस गया। नाव में समन्दर की लहरें जोर दार थपेड़े मारने लगी जो 15 से 20 फुट तक उंची थी जिसमें नाविक को बचने की कोई उम्मीद नहीं था। नाव के टुकड़े-टुकड़े होकर धीरे-धीरे समन्दर में समाने लगी और वह नाविक बेहोंस हो गया। जब उसकी आंख खुली तो वह ऐसे द्विप के किनारें पड़ा था। जहां पर वह बिल्कुल अकेला और केवल उसका परमात्मा था। उसने परमात्मा को याद किया और अपने जीवन को बचाने के लिए उस बिरान द्विप पर भटकने लगा कुछ दीनों में उसने स्वयं को वहां पर किसी तरह से व्यवस्थित कर लिया और अपने लिए सुखी लकड़ी तथा घास फुंस से एक झोपड़ी रहने के लिए बना लिया वहां पर अपने जीवन को बिताने लगा। एक दिन वह रोज कि तरह जब अपने भोजन की तलास कर के वापिस आया तो क्या देखता है कि उसकी झपड़ी में आग लग गई है और वह बुरी तरह से आग के लपटों में आ चुकी है, उसको बचाने से पहले उसका बसा बशाया घर उस एकान्त द्विप पर आग में भस्म हो गया। उसने परमात्मा से कहा तूने सब जान कर ऐसा क्यों किया? जब वह सो कर उठा तो सबसे पहले उसने देखा कि एक जहाज उस द्विप की तरफ ही चला आ रहा है उस जहाज की आवाज दूर से ही उसके कानों में आ रही थी। जब वह आ गए तो उसने उस जहाज के कप्तान से पहला प्रश्न किया की तुम सब को यह कैसे ज्ञात हुआ की मैं यहां पर फंसा हुआ हूं? जहाज के कप्तान ने कहा की हमें तुम्हारें धुए का सिग्नल दिखाई दिया जिससे हम सब समझ गए कि वहां द्विप पर जरूर कोई फंस गया है जो हम सब की मद्त चाहता है। फिर उस नावीक ने कहा की परमात्मा का कार्य रहस्यात्मक है वह सब जानता है, और उसे सब ज्ञात है की हमें किस बस्तु की आवश्यक्ता है वह जानता है और उसको किसी ना किसी तरह से हमारें पास अवश्य ही भेजता या उपलब्ध कराता है। वह हम सब में हर पल सांशे ले रहा है वह हम सब को एक पल के लिए भी स्वयं से कभी दूर नहीं करता है, हम सब ही अल्प बुद्धि है जो उसे समझने में पूर्णतः असमर्थ है। जैसा की वेद स्वयं कहता है की वह तो हिरर्णयगर्भः है हम सब के हृदय के गर्भ में सदा से हर पल निवास कर रहा है। वह अपनी शरीर से भी करीब है।
   

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