🙏यतपिण्डे तत ब्रह्माण्डे🙏
न में द्वेषरागौ न लोभो न मोहो मदो
नैव मात्सर्य्यमान्।
न धर्मो न चार्थे न कामो न
मोक्षश्चिदानन्दरूपः शिवऽहं शिवऽहम्।।1।।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं न
मंत्रो न तीर्थो नवेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
श्चिदानन्दरूपः शिवऽहं शिवऽहम्।।2।।
न में मृत्युशंङका न में जातिभेदः
पिता नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुनैंव शिष्य
श्चिदानन्दरूपः शिवऽहं शिवऽहम्।।3।।
आज तक जो भी ज्ञान, विज्ञान, ब्रह्मज्ञान के द्वारा जाना गया है। जिससे मानव को परमानंद की अनुभूति हुई
है। उसकी खुशबू के रूप में मैंने इस किताब को तैयार किया है। मानव आत्मा को सम्पूर्णता
की अनुभूति कैसे हुई? और वह स्वयं के जीवन को परमानंद में
कैसे बदलता है? और इसमें कुछ भी नया नहीं है। जो भी है वह
बहुत पुराना है इतना पुराना है कि लोगों के सामने, वह जब आ
कर खड़ा हो जाता है तो लोग उसको पहचाने से इनकार कर देते है। अब प्रश्न खड़ा होता
है कि वह कौन है? जिसे हम सब पहचानने से इनकार कर देते है,
या फिर इस दुनिया ने अस्वीकार कर दिया है। वह स्वयं का अस्तित्व है,
और जो भी इस अस्तित्व के पक्ष में खड़े होते है उनको इस दुनिया ने
तब तक नहीं स्वीकार किया जब तक वह शरीर साथ थे जब वह बिना शरीर के हो गए तो उनके
नाम की माला जपने लगे, और उनके नाम से पाखण्ड फैलाकर उसको धर्म
का नाम दे दिया, धर्म को मैं नहीं जानता हूं। ना मैं धर्म की
बातें ही करता हूं। मैं स्वयं को जानता हूं और उस स्वयं को जो भी जानता है वह मेरा
मित्र, सखा या मेरा अस्तित्व है और मैं उसी की बातें कर रहा
हूं। मैंने इस किताब के माध्यम से सिर्फ यह कहने का प्रयास करने का प्रयास किया है
कि जो तुम स्वयं, देखते, सुनते,
जानते, मानते, समझते,
हो वह तुम नहीं हो, तुम एक ऐसे सम्राट हो जो
सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड का स्वामी है, तुम्हारे अन्दर
अद्वितीय अद्भुत खजाना और उस पर कैसे पुनः फिर से अपना अधिकार कर के स्वयं को पूर्ण
कर सकते हैं। जो मार्ग जीवन और मृत्यु से परे जाने का है, वह
कौन सा मार्ग है? मैं मृत्यु के अन्दर किस तरह से प्रवेश
करते उसकी बातें कर रहा हूं जो अमृत का द्वार है उस पर चिन्तन, मनन, निधीध्यासन और ध्यान में उतरने उसका जीवन में
प्रयोग करके जीवन की सम्पूर्णता की उपलब्धि करने के लिए जो परम आवश्यक
महत्त्वपूर्ण चरण हैं उसपर विचार के साथ कुछ सहज प्रयोग करने के लिए प्रेरित कर
रहा हूं। जैसा कि सद्गुरुओं ने मुझसे पहले भी ऐसा कार्य करने में ही अपने जीवन
शरीर की सम्पूर्ण प्राण ऊर्जा चुका दिया है। क्योंकि वह जीवन की समग्रता, सम्पूर्णता और सहजता के साथ उसकी परिपूर्णता में स्वीकारते है और मैं उनको
पसन्द करता हूं। मृत को अमृत कैसे कर दिया है उन लोगों ने जिनको मैं जानता हूं। उस
मार्ग पर चलने की बात मेरे द्वारा की जा रही है। मानव मन को मानव मन से मुक्त करके
उसकी चेतना में कैसे तटस्थ किया जा सकता है? उसके बारे में
मैं बातें कर रहा हूं। मैं मानव को परमात्मा से एक करने कि बात करता हूं। जो आत्मा
से परे है इसका मतलब यह नहीं है की मैं परमात्मा को जानता हूं। मैं उसकी बातें
करता हूं जो मानव आत्मा से परे है और परमात्मा मानव शरीर के अन्दर है उसके
सम्पूर्ण साम्राज्य का मालिक मानव है, वह नहीं जानता है
स्वयं को भूल गया है कीड़े-मकौड़े से ज्यादा स्वयं को नहीं जानता है स्वयं को नहीं
समझता है, ना मानता है। उसको फिर से याद दिलाने के लिये
आवश्यक हो गया मेरे लिए की मैं यह लेख लिखूं और वह संदेश उस अस्तित्व तक पहुंचा दू,
जो इसके लिये प्यासे है। मैं कहना चाहता हूं कि मानव जमीन पर रेंगने
वाला किड़ा नहीं है, वह अद्वितीय अदृश्य पंखों वाला
ब्रह्माण्ड का स्वामी है। उसके पास एक अदृश्य शक्ति संपन्न अद्भुत खजाना है,
उसी तरह से जैसा कि एक फकीर था जिसका कटोरा कभी भरता ही नहीं था
उसमें कुछ भी डाल दिया जाता और वह अदृश्य हो जाता था ऐसा ही स्वयं के अन्दर भी एक
अदृश्य खजाना समाया है जो कभी भी रिक्त खाली नहीं होता है। उसमें से कितना ही खर्च
करो वह और बढ़ता ही जाता है। उसी खजाने कि चाभी यह किताब है मानव जीवन में जो
अज्ञान रूपी अंधकार है जो अभी श्राप की तरह से उसके खून को चुस-चुस कर उसको मार
रहा है। तरह-तरह के विचारों के पाखंड, सिद्धान्त और
मान्यताओं से परे जो प्रकाश देने वाला सूर्य है उस सूर्य के ऊपर जो हजारों जन्मो
की धुल जम गई है। उस धुल को कैसे साफ कर सकते है? उसकी ही
बात इस लेख में कि जा रही हैं। उस दीपक में जो तेल खत्म हो गया है उसमें तेल कैसे
भर करके पुनः उसे जला कर अपने जीवन से सदा-सदा के लिये अन्धेरें को दूर करने कि
बात मैं इस किताब के माध्यम से कर रहा हूं। यह लेख मानव मात्र के उपकार और सहायता
के लिए लिखा गया है। मैंने उन सब का उपयोग किया है जो मानव को महा मानव बनाने के
लिए और उसके जीवन को परमानंद में रूपान्तरित करने की बातें करते है, चाहे वह आत्मज्ञानी हो, विज्ञानी हो या वह
ब्रह्मज्ञानी हो, क्योंकि मैं एक वैश्विक मानव हूं और
सम्पूर्ण विश्व के मानव ने जो भी आज तक कमाया या प्राप्त किया वह सब हमारे उपयोग
के लिए ही संचित किया गया है, और वही कार्य मैंने किया है।
तो मैं मानव में जो पहले से बीज रूप में विद्यमान, अज्ञान,
ज्ञान, विज्ञान, अर्न्तज्ञान,
ब्रह्मज्ञान है। उसको फिर से भूमि कैसे उपलब्ध कराकर उसको पूर्ण
रूपेण विकसित करके उसके फलों का स्वाद रस लेकर स्वयं को परम तृप्ति सदा-सदा के
लिये कर पायें, और अतृप्ति के भव सागर में जो डुब-डुब कर मर
रहे है, जिनकी सांसें घुट रही है उनके लिये यह अमृत बाण,
अमृत रस, अमृत का दरवाजा बनें यही मेरी कामना
है। जिस तरह से मेरे जीवन में प्रकाश, ज्ञान, अमृत, आनन्द के फूल खीलें, मैं
मृत्यु में डुब रहा था उससे पार जाने का ध्यान रूपी अमृत द्वार मैंने पाया,
उसी तरह से सभी को वह अमृत मार्ग उपलब्ध हो यहीं मेरी कामना है। मैं
अपनी बात उपनिषद के एक श्लोक के माध्यम से कहना चाहता हूं वह है असतो माँ सद्गमय अर्थात असत्य से सत्य की ओर और तमसो माँ ज्योर्तिगयं, तम अर्थात
अंधकार, अज्ञान, पाखण्ड से प्रकाश कि ज्योति
आनन्द की तरफ, मृत्यु माँ अमृतगमय। मृत्यु से अमृत की तरफ चलने कि अतृप्ति से तृप्ति की ओर जाने का मात्र
निमंत्रण है। जो इसके लिए तैयार है वही इसे समझ सकते है। इस किताब को मानव मन से
जो परे है उसको केन्द्र या ध्यान में रखकर निर्माण किया गया है। इसके द्वारा किसी
के मन को प्रताड़ित करने का प्रयास नहीं किया गया है, यदि
कोई भी स्वयं को ऐसा महसूस करता है तो वह स्वयं मानव मन और मृत्यु के पंजे में
फंसा हुआ है वह हाड़-मांस या मिट्टी का ढेर ही स्वयं को समझता है, और वह स्वयं को वास्तविक रूप से नहीं जानता है। वह स्वयं को जाने यहीं इस लेख
का मूल उद्देश्य है।
हम शरीर नहीं हैं इसके स्वामी, राजा, या सम्राट हैं। इस शरीर को ब्रह्माण्ड कहा गया है। यत पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे, ऐसा वैज्ञानिकों का भी मानना है जो इस
शरीर में है वही इस बृहत ब्रह्माण्ड में भी विद्यमान उपस्थित है अन्तर मात्र
मात्रा का है जिससे रेत का एक कण बना है उसी से विश्व के विशाल पर्वत और हिमालय भी
बना है इस तरह से यह सिद्ध हो रहा है कि जिससे मानव शरीर बनी है उसी से यह बाहरी बृहत
ब्रह्माण्ड भी बना है, मैं वहीं बोल रहा हूं जो सिद्धों ने
बोला है जैसा कि कबीर कहते हैं की मैं तो बांस कि बाँसुरी हूं, मेरे द्वारा बोलने
वाला तो कोई और है। बांस की बांसुरी तो खुद बोलती ही नहीं है उसको बजाने वाला मानव
शरीर में अदृश्य आत्मा है जो फुंक पर फुंक मार रहा है जिसके द्वारा ही यह शरीर बज
रही है। वेद का मंत्र साफ-साफ कह रहा है कि मैं शरीर नहीं हूं। इससे अलग इसका
स्वामी इसका राजा हूं, अर्थात जितना मानव मन अपने शरीर को
जानता है उतना ही उसके बाहर परमात्मा के ब्रह्माण्डिय शरीर को भी जानता है,
और जो स्वयं को सिर्फ शरीर तक ही जानता है वही वैज्ञानिक है,
लेकिन यहां पर जो बातें कि जा रही है उसे वैज्ञानिक भी नहीं जानते
है। जैसा कि चाईना का सद्गुरु लाओत्सो कहता है मन को बस में करने का मतलब है की
तुमने ब्रह्माण्ड को बस में कर लिया। आगे वेद स्वयं कहता है आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म, अर्थात तू स्वयं अमृत ज्योति रस से
परिपूर्ण ब्रह्म है।
एक दिन एक युवा साधु अपनी यात्रा करते हुए एक
नदी के किनारे आ गया, और नदी बहुत बड़ी थी उसका पाट थोड़ा लम्बा,
वह विचार करने लगा की किस तरह से इस नदी को पार किया जाये यह विचार
करते हुए वही नदी किनारे बैठकर वह किसी नाव के आने का इन्तजार करने लगा। वह साधु
बहुत समय तक नाव को देखता रहा शाम होने लगी और नाव कहीं नहीं दिखाई दे रही थी।
वहां नाव के आने की कोई सम्भावना भी नहीं दिखाई दे रही थी। ज्यों-ज्यों शाम हो रही
थी उसी तरह से धीरे-धीरे उसके सामने बहुत बड़ी कठिनाई आ रही थी। उसको कोई समाधान
नहीं दिखाई दे रहा था। तभी उसने सूर्य को अस्त होते देखा जिसकी सुनहरी लालिमा
सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने आगोश में समेट रही थी। अचानक उसकी नजर नदी के दूसरे किनारे
पर पड़ी तो वह देख कर आश्चर्यचकित हुआ। उस तरफ अपने समय का एक महान रहस्य दर्शी
गुरु सम्मानित सन्त अपनी साधना में लीन थे। वह युवा साधु जब दूसरे किनारे पर बैठे
हुए सन्त को देखा तो उसका कुछ हौसला बढ़ा और उसने बहुत तेज चिल्लाकर नदी के दूसरे किनारे
पर बैठे हुए सन्त को बुलाया और उससे पूछा गुरुदेव क्या आप मुझे भी नदी के पार आने
का कोई रास्ता बता सकते है।
नदी के दूसरे किनारे पर बैठे हुए रहस्य दर्शि गुरु ने कुछ देर तक चिन्तन
किया और उसको ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा मेरे पुत्र तुम तो पहले से ही नदी के
दूसरे किनारे पर हो।
आचार्य मनोज
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