मृत्यु के बाद क्या?
मृत्यु के बाद क्या? एक ऐसा प्रश्न है जो अधिकतर मनुष्यों के समक्ष कभी-न-कभी अवश्य ही जिज्ञासु भावना जगाता है, आप विद्वानों के व्याखयानों को सुनकर हमारी श्रद्धा निमन तीन स्थितियों पर टिकी है। प्रथम सामान्य जीव सूण्डी नामक कीड़े की भाँति नया जीवन प्राप्त करते हुए ही वर्त्तमान शरीर छोड़ता है। दूसरीस्थिति उस अत्यन्त विशिष्ट जीव की है, जिसको शरीर छोड़ते हुए योग्य माता-पिता (गर्भ) की अनुपलबधता में कुछ काल प्रतीक्षा करनी होती है और तीसरीस्थिति दग्ध संस्कार योगी की शरीर छोड़ते ही मोक्षावस्था की प्राप्ति है। अब प्रथम तो हमारी इस मान्यता में जो भी दोष है, उसे प्रगट करें। हमें बतायें। दूसरे ईश्वरीय वाणी वेद हमारे लिए सर्वोपरि है। अतः यजुर्वेद अध्याय-39 का मंत्र-6 शरीर छोड़ने वाले जीव के 12 दिन का कार्यक्रम वास्तव में क्या है? समझाने की कृपा करें। मंत्र के पदार्थ के अनुसार जीव प्रथम दिन सूर्य, दूसरे दिन अग्नि को प्राप्त होता है। क्या सूर्य में अग्नि नहीं है? इसी प्रकार मंत्र का पदार्थ रहस्यमय दिखाई पड़ता है, जो स्पष्ट ही हमारी अज्ञानता के कारण है। पौराणिक बन्धु इस मंत्र को आधार मानकर देहान्त के 13 दिन बाद अपनी रस्म अदायगी करते हैं। तमसो मा ज्योतिर्गमय।
समाधान-
मृत्यु के बाद आत्मा की क्या गति होती है, हम मनुष्यों के लिए यह रहस्य तो है ही, शरीर के मरने के बाद परमेश्वर उस आत्मा को उसके कर्मानुसार कब, कितने समय में अगला शरीर देता है, यह पूर्ण रूप से तो ईश्वर ही जानता है। इस विषय में कठोपनिषद् के नायक नचिकेता ने भी आचार्य यम से पूछा था, तब आचार्य यम ने कहा था-
देवैश्त्रापि विचिकित्सितं पुरा, न हि विज्ञेयमणुरेष धर्मः।
– कठो. 1.21
पहले इस मृत्यु विषय पर विद्वानों ने भी संदेह किया था, निश्चय ही यह विषय अति सूक्ष्म गहन होने से सुगमता से जानने योग्य नहीं है। यहाँ आचार्य यम ने इस विषय को अति सूक्ष्म कहा है। तथापि इस मृत्यु के रहस्य को ऋषियों, विद्वानों ने खोलने का प्रयत्न किया है, वेद ने भी इस रहस्य का उद्घाटन किया है। इन ऋषियों व वेद की बातों को जो उनके मन्तव्य अनुसार समझ लेता है, वह अधिक-अधिक भ्रम जाल में फँ सता जाता है।
मृत्यु के बाद अगला जन्म लेने में कितना समय लगता है, इसको भी पूर्ण रूप से जानने वाला तो परमेश्वर ही है, फिर जो कुछ ऋषियों-विद्वानों से ज्ञात हो रहा है, उसक ो यहाँ लिखते हैं। यह तो शास्त्र समत है ही, जिस योगी पुरुष ने अपने अविद्या के संस्कार दग्ध कर दिये हैं उसको जन्म न मिलकर मुक्ति मिलेगी, मरने के बाद योगी की आत्मा तत्काल मोक्ष में चल जायेगा। जो ऐसे योगियों से इतर हैं, उनका जन्म कितने काल में होता है, प्रश्न तो यह बना हुआ है। इसमें हमें प्रायः जो उत्तर मिलता है, वह उपनिषद् का प्रमाणयुक्त उत्तर ‘जलायुका’ के दृष्टांत से दिया जाता है कि जैसे ‘जलायुका’ अगले भाग को उठा एक स्थान पर रख, पिछला भाग उठा लेता है, इतने समय अगले शरीर प्राप्त होने में लगता है। इस उपनिषद् की बात का विरोध वेद मन्त्र से आ रहा है, लगता है। वेद और ऋषि वचनों में प्रायः विरोध होता नहीं।
उपनिषद् वाली बात को जिस रूप में रखा जाता है, जिसको मैं भी रखता हूँ, रखता रहता हूँ, यह बात विचारणिय तब लगी जब श्रद्धेय आचार्य सत्यजित् जी का समाधान पढ़ा, यह समाधान अधिक संगत लगता है। उस समाधान को यहाँ आचार्य श्री की पुस्तक ‘‘जिज्ञासा समाधान’’ में से लेकर लिखते हैं- ‘‘वृहदारण्यक उपनिषद के जिस अंश का प्रश्न में उल्लेख किया गया है, वह 4.4.3 पर है। तृण जलायुका एक प्रकार कीड़ा होता है, जो बिना पैर वाला होता है। वह एक तिनके (डाली आदि) से दूसरे तिनके (डाली आदि) पर जाते समय अपने अग्र (मुख) भाग को उठाकर, इधर-उधर घुमा कर, उपयुक्त स्थान प्राप्त होने पर अग्रभाग को दूसरे तिनके पर टिका देता है व उसी के आधार से अपने पिछले भाग को, पिछले तिनके से उठा कर दूसरे तिनके पर ले आता है। इस प्रकार वह दो तिनकों के बीच के भाग को पार करता है।’’
इस तृण जलायुका की तरह आत्मा को भी बताया गया। पहले तिनके की तरह पिछले जन्म (शरीर) को व दूसरे तिनके की तरह अगले जन्म (शरीर) को बताया गया है। दृष्टान्त का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि आत्मा भी जब तक दूसरे जन्म (शरीर) का आधार नहीं बना लेता, तब तक पिछला जन्म (शरीर) नहीं छोड़ता। किन्तु यह बात पूरी तरह घट नहीं सकती। अतः तात्पर्य यह लिया जाता है कि आत्मा पूर्व शरीर को छोड़कर तत्काल दूसरा शरीर धारण कर लेता है।
प्रश्नकर्त्ता के मन में यही निष्कर्ष है। इस निष्कर्ष का यजु. 39.6 महर्षि दयानन्द के भाष्य से विरोध दिख रहा है, क्योंकि वहाँ जीव को कुछ काल भ्रमण करके जन्म लेने की बात कही गई है।
प्रश्नकर्त्ता ने लिखा है ‘‘वैदिक मान्यता के अनुसार मृत्यु के उपरान्त तुरन्त पुनर्जन्म हो जाता है।’’ उनका ‘वैदिक मान्यता’ का तात्पर्य आर्यसमाज में सुनी जाने वाली मान्यता लेना चाहिए, जिसे वे वैदिक मान्यता कह रहे हैं। जब स्पष्ट ही वेद मंत्र व उसपर महर्षि के भाष्य से जीव का कुछ काला्रमण ज्ञात हो रहा है, तो यही वैदिक मान्यता कहलायेगी, न कि ‘तृणजलायुका’ दृष्टान्त से लिया गया तात्पर्य। साक्षात् ‘वेद’ से जानी गई बात उपनिषद् ‘ब्राह्मण’ से जानी गई बात से निश्चय ही बलवान् होती है। यही ‘वैदिक मान्यता’ कही जा सकती है।
अब ‘तृणजलायुका’ वाले दृष्टान्त को समझना आवश्यक है, जिससे कि स्पष्ट हो सके कि वेद व उपनिषद् (ब्राह्मण) में विरोध है या नहीं। दृष्टांत का एक अंश ही दार्ष्टान्त में घटता है, पूरा नहीं। जो अंश संगत होता है, वहीं लागू किया जाता है, असंगत अंश नहीं।
दृष्टांत का ‘स्वकर्तृत्व=कीड़े का स्वयं दूसरे तिनके पर जाना’ अंश आत्मा पर लागू नहीं होता, क्योंकि एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना पूर्णतया ईश्वर पर आधारित है, आत्मा की यह सामर्थ्य नहीं कि वह स्वयं के यत्न से दूसरे शरीर में जा सके।
दृष्टांत का यह अंश भी आत्मा पर लागू नहीं होता ‘दोनों तिनकों पर एक ही काल में कीड़े का स्पर्श’ ‘तृणजलायुका’ जब एक तिनके से दूसरे तिनके पर जाती है, तब एक क्षण ऐसा भी आता है, जब उसका अगला भाग दूसरे तिनके पर व पिछला भाग पहले तिनके पर टिका रहता है। आत्मा चूंकि अणु स्वरूप एकादेशी है, अतः एक ही काल में उसका एक छोर पिछले शरीर में व दूसरा छोर अगले शरीर में नहीं रह सकता। कोई कहे कि आत्मा खींच कर लबी हो जाती हो, तो ऐसा भी असंभव है, क्योंकि आत्मा अपरिणामी है, उसमें ऐसा बदलाव नहीं हो सकता, जैसा रबर, इलास्टिक आदि में होता है।
दृष्टांत का तात्पर्यांश ‘जीव तत्काल दूसरा शरीर धारण करता है’ भी मान्य नहीं हो सकता क्योंकि यह वेद के विपरीत होगा।
अब जिज्ञासा होगी कि फिर उपनिषद् में इस दृष्टान्त को क्यों दिया है? इस दृष्टान्त की दार्ष्टान्त (जीव का एक शरीर छोड़, दूसरा शरीर धारण करना) से क्या समानता है? यहाँ तृणजलायुका के व्यवहार में एक विशेषता है-वह पिछले तिनके आधार पर अगले तिनकों को प्राप्त करती है, अर्थात् दूसरे तिनके को प्राप्त करने का आधार पिछला तिनका होता है। इसी तरह जीव के साथ भी समझना लागू करना चाहिए। जीव के अगले जन्म का आधार उसका पिछला जन्म (मनुष्य शरीर) होता है, क्योंकि वहीं उसने जा कर्म किये थे, उन्हीं कर्मों के आधार पर अगला जन्म मिलता है। पुनः जिज्ञासा होगी- जीव मनुष्येतर शरीरों से भी तो अन्य शरीरों में जाता है। तो इसका समाधान है कि वहाँ भी पिछले मनुष्येतर शरीर को भोगने के बाद जो कर्म बचे, उनमें से कुछ आधार पर ही अगला जन्म मिलेगा। अतः मनुष्येतर शरीर (उसमें बचे बिना भोगे कर्म) भी अगले जन्म का आधार बन सकता है।
तृणयलायुका के दृष्टांत में यह भी विशेषता है कि वह अगले तिनके (आधार) पर पहुँचकर पिछले भाग के समेट लेता है, उसका पूरा पिछला भाग अगले तिनके पर आ जाता है। इसी प्रकार जब जीव अगले शरीर में जाता है, तो उसके पिछले शरीर (जन्म) के ज्ञान, कर्म और वासना भी साथ में आते हैं। पिछले जन्म में जैसे शरीर छूट जाता है, वैसे ये ज्ञान कर्म व वासना नहीं छूटते। इसकी पुष्टि इस बृहद्धा. 4.4.3 से पूर्व 4.4.2 के अन्त से होती है। वहाँ लिखा है-
‘ ‘तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च।’’
तृण जलायुका दृष्टांत वाले बृहदारण्यक के वाक्य 4.4.3 में लिखा है-
‘‘तद्यथा तृणयलायुका………आत्मानमुपसंहरति
एवमेवात्मा………..आत्मानमुपसंहरति।’’
जैसे तृणजलायुका अपने को समेट लेती है (अगले तिनके पर) वैसे आत्मा (जीवात्मा) भी अपने को अगले शरीर में समेट लेता है। यहाँ वस्तुतः ‘अपने को समेट लेने’ की समानता दिखाई गई है, न कि कोई अन्य समानता। आत्मा के साथ सूक्ष्म शरीर रहता है। वह ज्ञान, वासना, कर्माशय आदि का आधार होता है। आत्मा इन सबके साथ ही अगले शरीर में पहुँचता है। अतः आत्मा का अपने को समेट लेना, माना जा सकता है।
एक और दृष्टि से इसे देख सकते हैं। जीव की जैसी प्रवृत्ति, कर्म, संस्कार इच्छा होती है, उसी के अनुसार उसे अगला शरीर मिलता है। जो कामनाएँ शेष हैं, उनका उठना कीड़े के मुख उठने जैसा समझा जा सकता है। मुख उठाकर जहाँ जायेगा, वहीं पिछला भाग भी उठकर चला जायेगा। जैसी कामना-वासना-इच्छा जीव की होगी, उसी के अनुसार उसके कुछ कर्मों से उसे नया जन्म (शरीर) मिल जायेगा। पिछले जन्म के आधार पर नया जन्म मिलना वैसे ही है जैसे कीड़ा पिछले तिनके के आधार पर अगले तिनके को प्राप्त करता है।
सारांश यह है कि जीव अपनी वासनाओं का जैसा विस्तार करता है, उसके अनुसार ईश्वर उसे अगला जन्म दे देता है। कर्माशय भी इसका आधार बनता है। बिना कर्म के या कर्म के विपरीत जन्म नहीं होता। अतः तृण जलायुका वाले कथन का यह तात्पर्य नहीं कि ‘‘जीव का अगला जन्म तत्काल होता है। वेद के आधार पर हमें जानना चाहिए कि जीव कुछ दिन भ्रमण करके पूर्वकृत् कर्मानुसार अगला शरीर (जन्म) धारण करता है।’’
साभार जिज्ञासा समाधान-आचार्य सत्यजित्।
इस पूरे समाधान में आचार्य श्री ने बड़े स्पष्ट रूप से विस्तारपूर्वक उपनिषद् के वास्तविक रहस्य व वेद की मान्यता को रखा है। वेदानुसार जीव कुछ काल-दिन भ्रमण कर अगला जन्म प्राप्त करता है। यह कदापि सिद्ध नहीं है कि वह जीव कुछ दिन तक भटकता रहता है, वह तो परमेश्वर की व्यवस्था व आधार से भ्रमण करता है। इन दिनों के परिभ्रमण को देख, पौराण्कि लोग जो तेरह दिनों तक उस जीव की शान्ति के लिए अनुष्ठान करते हैं, यह सब उनकी अज्ञानता व स्वार्थ सिद्धि करना है। इसलिए इस प्रकार के अनुष्ठान में अपना सामर्थ्य नष्ट न करना चाहिए। परमेश्वर की व्यवस्था में जो आत्मा है, उसके लिए हम कुछ कर भी नहीं सकते। अस्तु।
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