ओ३म् स वज्र भृद्दस्युहा भीम उग्रः सहस्रचेताः शतनिथ ऋभ्वा ।
चम्रीषो न शवसा पाञ्चजन्यो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती।।
ऋ.1।7।10।2।।
हे दुष्ट नाशक परमात्मन् ! आप (वज्रभुत्) अच्छेद्य दुष्टों के छेदक सामर्थ्य से सर्वशिष्ट हितकारक दुष्टविनाशक जो न्याय, उसको धारण कर रहे हो, “प्राणो वा वज्रः” इत्यादि शतपथादि का प्रमाण है। अत एव (दस्युहा) दुष्ट पापी लोगों का हनन करने वाले हो। (भिमः) आपकी न्याय - आज्ञा को छोड़ने वालों पर भयंकर भय देने वाले हों। (सहस्रचेताः) सहस्रो विज्ञानादि गुणवाले आप ही हो। (शतनीथः) सैकड़ो असंख्यात पदार्थों की प्राप्ति कराने वाले हो। (ऋभ्वा) अत्यन्त विज्ञानादि प्रकाशवाले हो, और सबके प्रकाशक हो तथा महान और महान् बलवाले हो। (न चम्रीषः) किसी की चमू=सेना में वश को प्राप्त नहीं होते हो। (शवसा) स्वबल से आप (पाञ्चजन्यः) पांच प्राणों के जनक हो। (मरुत्वान्) सब प्रकार के वायुओं के आधार तथा चालक हो। सो आप (इन्द्रः) इन्द्र हमारी रक्षा के लिए प्रवृत हो, जिससे हमारा कि काम ना बिगड़े।
मनुष्य इस जीवन में दुःखों से बचने लिए क्या नहीं करता अर्थात वह सब कुछ करता है जो भी यहां पृथ्वी पर स्वयं को बचाए रखने के लिए संभव होता है अर्थात सभी प्रकार के भौतिक सामग्रीयों का संग्रह औषधियों का संग्रह और जब वह सब कुछ करके हार जाता है तो अन्त में परमात्मा के शरण में जाता है परमात्मा का भी संग्रह करता है लेकिन यह कहा संभव है इस नश्वर संसार में इसलिए मनुस्य बहाने बनाता है समय बिताने के लिए बहुत सारें रास्ते निकाल लेता है जिससे झुठ का जन्म होता है, और झुठ ही मृत्यु है जीवन सिर्फ दृष्य मय नहीं है वह अदृश्य भी है जब मनुष्य रगण-रगण कर मृत्यु को उपलब्ध होता है अर्थात जब जीवन के मोह में अत्यधीक लिप्त रहता है और जब मोह से मुक्त रहता है और हस – हस कर मृत्यु को ग्रहण करता है तो मरता नहीं है यद्यपि वह मुक्त मोक्ष को उपलब्ध होता है। लेकिन जब मनुष्य दुखों को झेलते – झेलते बुरी तरह से थक कर परास्थ हो कर बेबस हो कर मृत्यु को बेहोसी में वरण करता है तो उसे पुःन जन्म लेता है और जब होस में रह कर शरिर का त्याग करता है तो उसके साथ जीवन का भयानक और दुःख मय ज्ञान रुप अनुभव साथ रहता है जिससे पुनः शरिर धारण नहीं करता है जब बहुत अधीक समय में धिरें-धिरें भुल जाता है तो फिर आता है अनुभव रुपी ज्ञान को प्राप्त करने के लिए।
ओ३म् सा मा सत्योक्तिः परि पातु विश्वतो द्यावा च यत्र ततनन्नहानि च। विशवमन्यन्नि विशते यदेजति विश्वाहापो विशवाहोदेति सूर्यः।
ऋ.7।8।12।2।।
हे सर्वभिरक्षकेश्वर! (सा मा सत्योक्तिः) आपकि सत्य आज्ञा, जिसका हमने अनुष्ठान किया है, वह (विश्वतःपरि पातु) हमको सब संसार से सर्वथा पालन, और सब दुष्ट कामों से सदा पृथक् रक्खे, कि कभी हमको अधर्म करने की इच्छा भी न हो।(द्यावा च) और दिव्य सुख से सदा युक्त करके यथावत् हमारी रक्षा करें (यत्र) जिस दिव्य सृष्टि में (अहानि) सूर्यादि कों को दिवस आदि के निमित्त (ततनक्) आपने ही विस्तारे हैं। वहां भी हमारा सब उपद्रवों से रक्षण करो। (विश्वमन्यत्) आपसे अन्य= भिन्न विश्व अर्थात् सब जगत् जिस समय आपके सामर्थ्य से प्रलय में (निविशते) प्रवेश करता है= कार्य सब कारणात्मक होता है, उस समय में भी आप हमारी रक्षा करो। (यदेजति) जिस समय यह जगत् आपके सामर्थ्य से चलित होके उत्पन्न होता है, उस समय भी आप हमारी रक्षा करें। (विश्वाहापो विश्वाहा.) जो – जो विश्व का हन्ता = दुःख देने वाला, उसको आप नष्ट कर देओ। क्योकि आपके सामर्थ्य से सब जगत् का उत्पत्ति, स्थित और प्रलय होता है। पके सामने कोई राक्षस=दुष्टजन क्या कर सकता है? क्योंकि आप सब जगत् में उदित = प्रकाशमान हो रहे हो। सूर्यवत् हमारे हृदय में कृपा करके प्रकाशित होओ। जिससे हमारी अविद्यान्धाकारता सब नष्ट हो।
ओ३म् देवो देवानामसि मित्रो अद्भुतो वसूनामसि चारुरध्वरे।
शर्मन्त्याम तव सप्रथस्तमेऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव।।
ऋ.1।6।32।3
व्याख्यान- हे मनुष्यो ! वह परमात्मा कैसा है कि हम उसकी स्तुति करें ? हे (अग्ने) परमेश्वर ! आप (देवो देवानामसि) देवों=परमविद्वानों के भी देव=परमविद्वान् हो तथा उनको परमआनन्द देने वाले हो, तथा (मित्रः अद्भुत परम) अत्यन्त आश्चर्यरुप मित्र सर्वसुखकारक सबके सखा हो। (वसुर्वसूनामसि) पृथिव्यादि वसुओं के भी वास कराने वाले तथा (अध्वरे) ज्ञानादि यज्ञ में (चारुः) अत्यन्त शोभायमान और ज्ञानादि ऐश्वर शोभा को देने वाले हो । हे परमात्मान् ! (सप्रथस्तमे सख्ये शर्मणि तव) आपके अतिविस्तीर्ण, आनन्दस्वरुप, सखाओं के कर्म में दुःख न प्राप्त हो, और आपके अनुग्रह से हम लोगो परस्पर अप्रीतियुक्त कभी न हों।
ओ३म् मानो वधीरिन्द्र मा परा दा मा नः प्रिया भोजनानि प्र मोषीः।
आण्डा मा नो मघवञ्छक्र निर्भेन् मा नः पात्रा भेत्सहजानुषाणि।।
ऋ. 1।7।19।3।।
व्याख्यान- हे (इन्द्र) परमैश्वर्युक्तेश्वर ! (मा नो वधीः) हमारा वध मत कर अर्थात् अपने से अलग आप कभी मत गीरावै। (मा परा दाः) हमसे अलग आप कभी मत हो। (मा नः प्रिया भोजनानि प्रमोषीः) हमारे प्रिय भोगो को मत चोर, और मत चोरवावै। (आण्डा मा नः) हमारे गर्भो का विदारण मत कर। हे (मघवन्) सर्वशक्तिमान् (शक्र) समर्थ ! हमारे पुत्रों का विदारण मत कर । (मा नः पात्रा) हमारे भोजनाद्यर्थ सुवर्णादि पात्रों को हमसे अलग मत कर।( सहजानुषाणि) जो-जो हमारे सहज अनुषक्त = स्वभाव स् अनुकूल मित्र है, उनको आप नष्ट मत करो। अर्थात् कृपा करके पूर्वोक्त सब पदार्थों की यथावत् रक्षा करो।
मनुष्य कैसा है उसको व्यक्त करने के लिये यह कहानी काफी मदद् करेगी किस प्रकार एक विशाल जानवर एक बहुत कमजोर तागे की रस्सी से आजीवन बंधा रहता है|
एक आदमी कहीं से गुजर रहा था, तभी उसने सड़क के किनारे बंधे हाथियों को देखा, और अचानक रुक गया. उसने देखा कि हाथियों के अगले पैर में एक रस्सी बंधी हुई है, उसे इस बात का बड़ा अचरज हुआ की हाथी जैसे विशालकाय जीव लोहे की जंजीरों की जगह बस एक छोटी सी रस्सी से बंधे हुए हैं!!! ये स्पष्ठ था कि हाथी जब चाहते तब अपने बंधन तोड़ कर कहीं भी जा सकते थे, पर किसी वजह से वो ऐसा नहीं कर रहे थे| उसने पास खड़े महावत से पूछा कि भला ये हाथी किस प्रकार इतनी शांति से खड़े हैं और भागने का प्रयास नही कर रहे हैं ? तब महावत ने कहा, ” इन हाथियों को छोटे पर से ही इन रस्सियों से बाँधा जाता है, उस समय इनके पास इतनी शक्ति नहीं होती की इस बंधन को तोड़ सकें| बार-बार प्रयास करने पर भी रस्सी ना तोड़ पाने के कारण उन्हें धीरे-धीरे यकीन होता जाता है कि वो इन रस्सियों नहीं तोड़ सकते, और बड़े होने पर भी उनका ये यकीन बना रहता है, इसलिए वो कभी इसे तोड़ने का प्रयास ही नहीं करते है। आदमी आश्चर्य में पड़ गया कि ये ताकतवर जानवर सिर्फ इसलिए अपना बंधन नहीं तोड़ सकते क्योंकि वो इस बात में यकीन करते हैं!! इन हाथियों की तरह ही हममें से कितने लोग सिर्फ पहले मिली असफलता के कारण ये मान बैठते हैं कि अब हमसे ये काम हो ही नहीं सकता और अपनी ही बनायीं हुई मानसिक जंजीरों में जकड़े-जकड़े पूरा जीवन गुजार देते हैं। याद रखिये असफलता जीवन का एक हिस्सा है ,और निरंतर प्रयास करने से ही सफलता मिलती है. यदि आप भी ऐसे किसी बंधन में बंधें हैं जो आपको अपने सपने सच करने से रोक रहा है तो उसे तोड़ डालिए….. आप हाथी नहीं इंसान हैं।
संस्कार ही वह बंधन है कुछ कुरूप कूछ अच्छे होते है दोनों बन्धन ही है| अग्नि तेज का प्रतीक है, अग्नि एश्वर्य का प्रतिक है, अग्नि जीवन्तता का प्रतिक है | अग्नि मैं ही जीवन है , अग्नि ही सब सुखों का आधार है | अग्नि की सहायता से हम उदय होते सूर्य की भांति खिल जाते हैं , प्रसन्नचित रहते हैं | जीवन को धन एश्वर्य व प्रेम व्यवहार लाने के लिए अग्नि ऐसा करे | इस तथ्य को ऋग्वेद के ६-५२-५ मन्त्र में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : –
ओ३म् विश्वदानीं सुमनस: स्याम पश्येम नु सुर्यमुच्चरनतम | तथा करद वसुपतिर्वसुना देवां ओहानो$वसागमिष्ठ: || ऋग.६-५२-५ ||
शब्दार्थ : – (विश्वदानीम) सदा (सुमनस:) सुंदर व पवित्र ह्रदय वाले प्रसन्नचित (स्याम) होवें (न ) निश्चय से (उच्चरंतम) उदय होते हुए (सूर्यम) सूर्य को (पश्येम) देखें (वसूनाम) घनों का (वसुपति: ) धनपति , अग्नि (देवां) देवों को (ओहान:) यहाँ लाता हुआ (अवसा) संरक्षण के साथ (आगमिष्ठा:) प्रेमपूर्वक आने वाला (तथा) वैसा (करत ) करें |
भावार्थ :- हम सदा प्रसन्नचित रहते हए उदय होते सूर्य को देखें | जो धनादि का महास्वामी है, जो देवों को लाने वाला है तथा जो प्रेम पूर्वक आने वाला है , वह अग्नि हमारे लिए ऐसा करे | यह मन्त्र मानव कल्याण के लिए मानव के हित के लिए परमपिता परमात्मा से दो प्रार्थनाएं करने के लिए प्रेरित करता है : –
१. हम प्रसन्नचित हों
२. हम दीर्घायु हों
मन्त्र कहता है की हम उदारचित ,प्रसन्नचित , पवित्र ह्रदय वाले तथा सुन्दर मन वाले हों | मन की सर्वोतम स्थिति हार्दिक प्रसन्नता को पाना ही माना गया है | यह मन्त्र इस प्रसन्नता को प्राप्त करने के लिए ही हमें प्रेरित करता है | मन की प्रसन्नता से ही मानव की सर्व इन्द्रियों में स्फूर्ति, शक्ति व ऊर्जा आती है |
मन प्रसन्न है तो वह किसी की भी सहायता के लिए प्रेरित करता है | मन प्रसन्न है तो हम अत्यंत उत्साहित हो कर इसे असाध्य कार्य को भी संपन्न करने के लिए जुट सकते है, जो हम साधारण अवस्था में करने का सोच भी नहीं सकते | हम दुरूह कार्यों को सम्पन्न करने के लिए भी अपना हाथ बढ़ा देते हैं | यह मन के प्रसन्नचित होने का ही परिणाम होता है | असाध्य कार्य को करने की भी शक्ति हमारे हाथ में आ जाती है | अत्यंत स्फूर्ति हमारे में आती है | यह स्फूर्ति ही हमारे में नयी ऊर्जा को पैदा करती है | इस ऊर्जा को पा कर हम स्वयं को धन्य मानते हुये साहस से भरपूर मन से ऐसे असाध्य कार्य भी संपन्न कर देते हैं , जिन्हें हम ने कभी अपने जीवन में कर पाने की क्षमता भी अपने अंदर अनुभव नहीं की थी |
मन को कभी भी अप्रसन्नता की स्थिति में नहीं आने देना चाहिए | मन की अप्रसन्नता से मानव में निराशा की अवस्था आ जाती है | वह हताश हो जाता है | यह निराशा व हताशा ही पराजय की सूचक होती है | यही कारण है की निराश व हताश व्यक्ति जिस कार्य को भी अपने हाथ में लेता है, उसे संपन्न नहीं कर पाता | जब बार बार असफल हो जाता है तो अनेक बार ऐसी अवस्था आती है कि वह स्वयं अपने प्राणांत तक भी करने को तत्पर हो जाता है | अत: हमें ऐसे कार्य करने चाहिए, ऐसे प्रयास करने चाहिए, ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिए व ऐसा उपाय करना चाहिए , जिससे मन की प्रसन्नता में निरंतर अभिवृद्धि होती रहे |
मन की पवित्रता के लिए कुछ उपाय हमारे ऋषियों ने बताये हैं , जो इस प्रकार हैं : –
१.हृदय शुद्ध हो : –
हम अपने ह्रदय को सदा शुद्ध रखें | शुद्ध हृदय ही मन को प्रसन्नता की ओर ला सकता है | जब हम किसी प्रकार का छल , कपट दुराचार ,आदि का व्यवहार नहीं करेंगे तो हमें किसी से भी कोई भय नहीं होगा | कटु सत्य को भी किसी के सामने रखने में भय नहीं अनुभव करेंगे तो निश्चय ही हमारी प्रसन्नता में वृद्धि होगी |
२. पवित्र विचारों से भरपूर मन : –
जब हम छल कपट से दूर रहते हैं तो हमारा मन पवित्र हो जाता है | पवित्र मन में सदा पवित्र विचार ही आते है | अपवित्रता के लिए तो इस में स्थान ही नहीं होता | पवित्रता हमें किसी से भय को भी नहीं आने देती | बस यह ही प्रसन्नता का रहस्य है | अतः चित की प्रसन्नता के लिए पवित्र विचारों से युक्त होना भी आवश्यक है |
३. सद्भावना से भरपूर मन : – हमारे मन में सद्भावना भी भरपूर होनी चाहिए | जब हम किसी के कष्ट में उसकी सहायता करते है , सहयोग करते हैं अथवा विचारों से सद्भाव प्रकट करते हैं तो उसके कष्टों में कुछ कमीं आती है | जिसके कष्ट हमारे दो शब्दों से दूर हो जावेंगे तो वह निश्चित ही हमें शुभ आशीष देगा | वह हमारे गुणों की चर्चा भी अनेक लोगों के पास करेगा | लोग हमें सत्कार देने लगेंगे | इससे भी हमारी चित की प्रसन्नता अपार हो जाती है | अत: चित की प्रसन्नता के लिए सद्भावना भी एक आवश्यक तत्व है | इस प्रकार जब हम अपने मन में पवित्र विचारों को स्थान देंगे , सद्भावना पैदा करेंगे तथा हृदय को शुद्ध रखेंगे तो हम विश्वदानिम अर्थात प्रत्येक अवस्था में प्रसन्नचित रहने वाले बन जावेंगे | हमारे प्राय: सब धर्म ग्रन्थ इस तथ्य का ही तो गुणगान करते है |
गीता के अध्याय २ श्लोक संख्या ६४ व ६५ में भी इस तथ्य पर ही चर्चा करते हुए प्रश्न किया है कि मनुष्य प्रसन्नचित कब रहता है ?
इस प्रश्न का गीता ने ही उतर दिया है कि मनुष्य प्रसन्नचित तब रहता है जब उसका मन राग , द्वेष रहित हो कर इन्द्रिय संयम कर लेता है | फिर प्रश्न किया गया है कि प्रसन्नचित होने के लाभ क्या हैं ?
इसका भी उतर गीता ने दिया है कि प्रसन्नचित होने से सब दु:खों का विनाश हो कर बुद्धि स्थिर हो जाती है | अत: जो व्यक्ति प्रसन्नचित है उसके सारे दु:ख व सारे क्लेश दूर हो जाते हैं | जब किसी प्रकार का कष्ट ही नहीं है तो बुद्धि तो स्वयमेव ही स्थिरता को प्राप्त कराती है |
जब मन प्रसन्नचित हो गया तो मन्त्र की जो दूसरी बात पर भी विचार करना सरल हो जाता है | मन्त्र में जो दूसरी प्रार्थना प्रभु से की गयी है , वह है दीर्घायु | इस प्रार्थना के अंतर्गत परमपिता से हम मांग रहे हैं कि हे प्रभु ! हम दीर्घायु हों, हमारी इन्द्रियाँ हृष्ट – पुष्ट हों ताकि हम आजीवन सूर्योदय की अवस्था को देख सकें | सूर्योदय की अवस्था उतम अवस्था का प्रतीक है | उगता सूर्य अंत:करण को उमंगों से भर देता है | सांसारिक सुख की प्राप्ति की अभिलाषा उगता सूर्य ही पैदा करता है | यदि हम स्वस्थ हैं तो सब प्रकार के सुखों के हम स्वामी हैं | जीव को सुखमय बनाने के लिए प्रन्नचित होना तथा स्वस्थ होना आवश्यक है | अत: हम एसा पुरुषार्थ करें कि हमें उत्तम स्वास्थ्य व प्रसन्नचित जीवन मिले | जिसके लिये पूरुषार्थ की परम आवश्यक्ता पड़ती है| जब हर क्षण जागरुकता की एक ऐसी धारदार तलवार एक पतले तागे से उस व्यक्ति के जिवन पर लटक रही है | यह कब किस पल गिर जाये एक हवा के हल्के से झोके से वह टकरा कर गिर सकती है| उसके वस में कहां है? कि वह हवा के झोके को रोक पाए हां यह जरुर है, कि उस तलवार तक हवा को पहुचने से रोक सके, लेकिन यह कैसे संभव है? कि कोई मनुष्य इस पृथ्वी पर बिना हवा के जी सके| एक तरफ तलवार का भय दुसरा हवा का भय तिसरा हवा के बिना जीवन कि कल्पना करना असंभव है| यह एक ऐसे मानव जीवन की कथा है, जो हर समय भयंकर संकट और मुसिबत परेसानियों से घिरा रहता है फिर भी वह सब को मात दे कर जीवन को जीता है और अमृत जैसे रस का पान करता है| यह वह जानता कहां है? कि उसका अगला पल उसके लिये कौन सि? महान परेशानी भयानक रूप संकट लेकर आयेगा, और ऐसी संभावना में जीवन का निर्वाह करना कितना कठिन और अनोखा रोमांचित करने वाला होगा इसकी कल्पना करना भी संभव नही है| क्योंकि कल्पना हम उसकी कर सकते है| जिसको हमने अपने जीवन में कभी अनुभव किया हो, जिसका हम सबने कभी अपने जीवन में अनुभव नही किया है उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते है| मान लिजिये आप समन्दर के अन्दर बिना हवा के जिन्दा रह सकते है, मनुष्य के लिये यह संभव नहीं है मछलिया फिर भी पानीवमें जीवीत रहती हैं| जिस तरह बिना पनी के मछलियों का जीवन होता है उसी प्रकार का जीवन हमारे नायक का है|
देश के प्रसिद्द उद्योगपति , कर्मयोगी एवं देशभक्त स्वर्गीय घनश्यामदास बिड़ला ने अत्यंत मार्मिक पत्र अपने पुत्र श्री वसंतकुमार बिड़ला को अब से ७८ वर्ष पूर्व लिखा था जो आज भी प्रासंगिक हैं और देश के बड़े बड़े उद्योगपतियों एवं नौकरशाहों के लिए प्रेरणास्रोत्र हैं|
यह जो लिखता हूँ उसे बड़े होकर और बूढ़े होकर भी पढना. अपने अनुभव की बात करता हूँ. संसार में मनुष्य जन्म दुर्लभ हैं, यह सच बात हैं| और मनुष्य जन्म पाकर जिसने शारीर का दुरुपयोग किया, वह पशु हैं| तुम्हारे पास धन हैं, तंदरुस्ती हैं, अच्छे साधन हैं| उनका सेवा के लिए उपयोग किया तब तो साधन सफल हैं| अन्यथा वे शैतान के औजार हैं| तुम इतनी बातों का ध्यान रखना कि
धन का मौज- शौक में कभी उपयोग न करना| धन सदा रहेगा भी नहीं, इसलिए जितने दिन पास में हैं, उसका उपयोग सेवा के लिए करो| अपने ऊपर कम से कम खर्च करो, बाकि दुखियों का दुःख दूर करने में व्यय करो| धन शक्ति हैं, इस शक्ति के नशे में किसी के साथ अन्याय हो जाना संभव हैं, इसका ध्यान रखो| अपनी संतान के लिए यही उपदेश छोड़कर जाओ| यदि बच्चे ऐश- आराम वाले होंगे तो पाप करेंगे और हमारे व्यापार को चौपट करेंगे| ऐसे नालायकों को धन कभी न देना| उनके हाथ में जाये इससे पहले ही गरीबों में बात देना| तुम यही समझना की तुम इस धन के ट्रस्टी हो| तुम्हारा धन जनता की धरोहर हैं| तुम उसे अपने स्वार्थ के लिए उपयोग नहीं कर सकते| भगवान को कभी न भूलना वह अच्छी बुद्धि देता हैं| इन्द्रियों पर काबू रखना, वर्ना ये तुम्हें डूबा देंगी| नित्य नियम से व्यायाम करना| भोजन को दवा समझकर खाना, इसे स्वाद के वश होकर मत खाते रहना| यह जिवन कि शिक्षा एक बाप अपने अमिर बेटे को देता है| और अमिर व्यक्ती कैसा हो?
ओ३म् भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि। ओ३म् भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि।।´
ऋग्वेद (4/32/20-21)
हे लक्ष्मीपते ! आप दानी हैं, साधारण दानदाता ही नहीं बहुत बड़े दानी हैं।
आप्तजनों से सुना है कि संसार भर से निराश होकर जो याचक आपसे प्रार्थना करता है, उसकी पुकार सुनकर उसे आप आर्थिक कष्टों से मुक्त कर देते है। उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।14।। -कठोपनिषद् (कृष्ण यजुर्वेद)
अर्थ : (हे मनुष्यों) उठो, जागो (सचेत हो जाओ)। श्रेष्ठ (ज्ञानी) पुरुषों को प्राप्त (उनके पास जा) करके ज्ञानप्राप्त करो। त्रिकालदर्शी (ज्ञानी पुरुष) उस पथ (तत्वज्ञान के मार्ग) को छुरे की तीक्ष्ण (लांघने में कठिन) धारा के (के सदृश) दुर्गम (घोर कठिन) कहते हैं।
प्रथमेनार्जिता विद्या द्वितीयेनार्जितं धनं। तृतीयेनार्जितः कीर्तिः चतुर्थे किं करिष्यति।।
अर्थ : जिसने प्रथम अर्थात ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्या अर्जित नहीं की, द्वितीय अर्थात गृहस्थ आश्रम में धन अर्जित नहीं किया, तृतीय अर्थात वानप्रस्थ आश्रम में कीर्ति अर्जित नहीं की, वह चतुर्थ अर्थात संन्यास आश्रम में क्या करेगा?
।।विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।रुग्णस्य चौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च।।
अर्थात : प्रवास की मित्र विद्या, घर की मित्र पत्नी, मरीजों की मित्र औषधि और मृत्योपरांत मित्र धर्म ही होता है।
असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय।।
अर्थात : हे ईश्वर (हमको) असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। उक्त प्रार्थना करते रहने से व्यक्ति के जीवन से अंधकार मिट जाता है। अर्थात नकारात्मक विचार हटकर सकारात्मक विचारों का जन्म होता है
सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।19।। (कठोपनिषद -कृष्ण यजुर्वेद)
अर्थात : परमेश्वर हम शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें। उक्त तरह की भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है।
ओ३म मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा। सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।।2।। (अथर्ववेद 3.30.3)
अर्थात : भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें। उक्त तरह की भावना रखने से कभी गृहकलय नहीं होता और संयुक्त परिवार में रहकर व्यक्ति शांतिमय जीवन जी कर सर्वांगिण उन्नती करता रहता।
ओ३म यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा विभेः।।1।।- अथर्ववेद
अर्थ : जिस प्रकार आकाश एवं पृथ्वी न भयग्रस्त होते हैं और न इनका नाश होता है, उसी प्रकार हे मेरे प्राण! तुम भी भयमुक्त रहो। अर्थात व्यक्ति को कभी किसी भी प्रकार का भय नहीं पालना चाहिए। भय से जहां शारीरिक रोग उत्पन्न होते हैं वहीं मानसिक रोग भी जन्मते हैं। डरे हुए व्यक्ति का कभी किसी भी प्रकार का विकास नहीं होता। संयम के साथ निर्भिकता होना जरूरी है। डर सिर्फ ईश्वर का रखें।
अलसस्य कुतः विद्या अविद्यस्य कुतः धनम्। अधनस्य कुतः मित्रम् अमित्रस्य कुतः सुखम्।।
अर्थ : आलसी को विद्या कहां, अनपढ़ या मूर्ख को धन कहां, निर्धन को मित्र कहां और अमित्र को सुख कहां।
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपु:। नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।
अर्थात् : मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही (उनका) सबसे बड़ा शत्रु होता है। परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा) कोई अन्य मित्र नहीं होता,क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता।
: ।।शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।। -उपनिषद्
अर्थ : शरीर ही सभी धर्मों (कर्तव्यों) को पूरा करने का साधन है।
अर्थात : शरीर को सेहतमंद बनाए रखना जरूरी है। इसी के होने से सभी का होना है अत: शरीर की रक्षा और उसे निरोगी रखना मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है। पहला सुख निरोगी काया।
ओ३म ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत। (सामवेद 11.5.19)
अर्थ : ब्रह्मचर्य के तप से देवों ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की।
अर्थात : मानसिक और शारीरिक शक्ति का संचय करके रखना जरूरी है। इस शक्ति के बल पर ही मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है। शक्तिहिन मनुष्य तो किसी भी कारण से मुत्यु को प्राप्त कर जाता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ और इसके महत्व को समझना जरूरी है।
गुणानामन्तरं प्रायस्तज्ञो वेत्ति न चापरम्। मालतीमल्लिकाऽऽमोदं घ्राणं वेत्ति न लोचनम्।।
अर्थ : गुणों, विशेषताओं में अंतर प्रायः विशेषज्ञों, ज्ञानीजनों द्वारा ही जाना जाता है, दूसरों के द्वारा कदापि नहीं। जिस प्रकार चमेली की गंध नाक से ही जानी जा सकती है, आंख द्वारा कभी नहीं।
येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।
अर्थ : जिसके पास विद्या, तप, ज्ञान, शील, गुण और धर्म में से कुछ नहीं वह मनुष्य ऐसा जीवन व्यतीत करते हैं जैसे एक मृग।
अर्थात : जिस मनुष्य ने किसी भी प्रकार से विद्या अध्ययन नहीं किया, न ही उसने व्रत और तप किया, थोड़ा बहुत अन्न-वस्त्र-धन या विद्या दान नहीं दिया, न उसमें किसी भी प्राकार का ज्ञान है, न शील है, न गुण है और न धर्म है। ऐसे मनुष्य इस धरती पर भार होते हैं। मनुष्य रूप में होते हुए भी पशु के समान जीवन व्यतीत करते हैं।
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्। वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।।
अर्थ : अचानक (आवेश में आकर बिना सोचे-समझे) कोई कार्य नहीं करना चाहिए, कयोंकि विवेक शून्यता सबसे बड़ी विपत्तियों का घर होती है। (इसके विपरीत) जो व्यक्ति सोच-समझकर कार्य करता है, गुणों से आकृष्ट होने वाली मां लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है।
ओ३म् भुमिका समाप्त
ओ३म् विश्वेषामदितिर्यज्ञियानां विश्वेषामतिथिर्मानुषाणाम्| अग्निर्देवानामवअ्अावृणानाः सुमृडीको भवतु जातवेदाः||
हे सभा पते! आप सब पूजा सत्कार के योग्य विद्वानों के बिच में अखण्डित बुद्धि वाले सब मनुष्यों में पूजनिय रक्षा आदि को अच्छे प्रकार स्विकार करते हुये सुन्दर सुख देने वाली विद्या और योग के अभ्यास से प्रसिद्ध बुद्धि वाले तेजस्वी राजा के समान हूजिये||
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