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जीवन प्रचार

न में द्वेषरागौ न लोभो न मोहो मदो नैव मात्सर्य्यमान्।
न धर्मो न चार्थे न कामो न मोक्षश्चिदानन्दरूपः शिवऽहं शिवऽहम्।।1।।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं न मंत्रो न तीर्थो नवेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनंनैव भोज्यं न भोक्ता श्चिदानन्दरूपः शिवऽहं शिवऽहम्।।2।।
न में मृत्युशंङका न में जातिभेदः पिता नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुनैंव शिष्य श्चिदानन्दरूपः शिवऽहं शिवऽहम्।।3।।

 अपनी बात को एक कहानी से आरम्भ करना चाहता हूं। एक बार कि बात है, एक बहुत बड़ा मन्दिर दक्षिण भारत में था। उसमें सैकड़ों पुरोहीत कार्य करते थे। एक रात जो मुख्य पुरोहीत था, उसके स्वप्न में परमात्मा आया और उससे कहा कि कल मैं तुम्हारें मन्दिर में आऊगा, तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार कर लिया गया है और परमात्मा अदृश्य हो गया। अगले दिन सुबह मुख्य पुरोहीत ने अपने और दूसरें सहयोगी पुरोहीतों से कहा की आज परमात्मा हम सब से मिलने के लिए आ रहा है। उसके साथी जो दूसरें पुरोहीत थे, उन्होंने कहा कि क्या बकवास करते हो कहां है परमात्मा? और उसका आना असम्भव है, क्योंकि परमात्मा नाम की कोई वस्तु है ही नहीं,, यह तो हम सब का पेसा या युं कहें कि यह तो हमारा धन्धा या व्यापार है। हम सब यह अच्छी तरह से जानते है, कि हमारी सारी प्रार्थना और उपासना तो केवल दिखावा है |यह सब तो खाली आकाश में जाकर बिलीन हो जाती है। तब उस मुख्य पुरोहीत ने जिसके स्वप्न में परमात्मा आया था | उसने कहा कि मान लो यदि परमात्मा सच में ही आ गया तो हम सब के लिये समस्या आ जायेगी, हमारा जाता हि क्या है? किसी तरह से वह सारे लोग तैयार हो जाते है| और पूरे मन्दिर को साफ-सुथरा किया गया, और सब तरफ से मन्दिर को खुब सजाया, सवांरा गया तरह-तरह के धुप अगरबत्ती फुल मालाओं से अलंकृत किया गया, और बावन प्रकार के सुस्वादु व्यजन पकवान को तैयार किया गया। जब सब कुछ तैयार हो गया तब वह सारे पुरोहीत बैठकर परमात्मा के आने का इन्तजार करने लगे। दोपहर हो गई तब तक परमात्मा का कहीं से कोई भी खबर नहीं आइ, तब मुख्य पुरोहीत ने अपने एक सेवक को बुलाया | और उससे कहा कि तुम बाहर जा कर चौरास्ते पर देख कर आवो , कि परमात्मा का कहीं कोई आने का पता है या नहीं। वह सेवक गया काफि दूर तक देख कर वापस आगया, और उसने सूचना दी की परमात्मा का कहीं भी कोई अता - पता नहीं है। इन्तजार करते हुए काफी देर हो गई , अन्त में शाम हो गई और धीरें-धीरें रात्री उतरने लगी और परमात्मा नहीं आया। जब सारे इन्तजार करते हुए निराश हो गये। तब सभी पुरोहीतों ने मिलकर मुख्य पुरोहीत का बहुत मजाक उड़ाया | और पुरोहित को बहुत बुरा-भला कहते हुए कहा अच्छा हुआ| जो हमने गांव वालों को परमात्मा के आने का समाचार नहीं बताया था| नहीं तो वह सभी गांव वाले यहां आकर  हमारा जीना मुस्किल कर देते, और सब मिल कर हम सब को पागल समझते मजाक भी उड़ाते और हमें मुर्ख कहते। इसके बाद में उन सब ने मिल भोजन किया जो परमात्मा के लिए बनाया गया था। उसके बाद सब अपने-अपने बिस्तर पर चले गए। मध्य रात्री को जब सारे पुरोहीत सो गए, तब वह मुख्य पुरोहीत अचानक जाग गया, और जोर-जोर से चिल्लाकर सभी को जगाते हुए कहने लगा की सभी लोग उठ जाओ, जिस परमात्मा का हम सब दिन भर इन्तजार कर रहे थे|  वह आ रहा है| उसके रथ के आने की आवाज मन्दिर के बाहर से आ रही है। उसकी बातें सुनकर तब दूसरें पुरोहीतों ने मिलकर उस पुरोहीत को बहुत डांटा-फटकारा और कहा मुर्ख सो जा कोई परमात्मा नहीं आ रहा है| यह आवाज तो बादल के गण-गणाने से आ रही है। फिर वह सभी सो गए, कुछ देर के बाद जब सभी सो गए, तभी उस मुख्य पुरोहीत कि फिर नीद खुल गई, और उसने कहा कि कोइ जाकर बाहर के दरवाजे को खोल कर देखे कि परमात्मा आ रहा है| उसके कदमों के आहट कि आवाज बाहर से आ रही है। इसको सुनते ही, उस मंदिर के  कुछ मजबुत पुरोंहीतों ने मिल कर उसको फिर और कड़ाई से क्रोधित होकर आग बवुला में आवेशित हुये, फिर खुब डांटा फटकारा और कहा क्या तू हम सब को पागल समझता है| क्यों हम सब से मार खाना चाहता है। दिन भर परमात्मा-परमात्मा कहता रहा, और तेरा परमात्मा नहीं आया, अब जब जमिन पर हवा के चलने की और धुल-धुसर की आवाज आ रही है, जिसे तू परमात्मा के कदमों की आहट समझता है। तू तो महा मुर्ख है अब तु सो जा, यह कह कर इस तरह से फिर उस मुख्य पुरोहित के अतिरिक्त सारे दूसरे पुरोहित पुनः अपने बिस्तर में सर्दि के समय में कापते हुये सिमट कर सो गए। जब थोड़ा समय और गुजर गया तब वहीं पुरोहीत फिर जाग गया, और उसने कहा अब मत सोओ क्योंकि परमात्मा सच में ही आ गया है। वह दरवाजा खट-खटा रहा है। तब तो आश्चर्य ही हो गया| उन सारे पुरोंहीतों ने मिलकर उस पुरोंहीत की अच्छी तरह से पिटाई कर दी| जिससे वह पुरोंहीत बुरी तरह से घायल और लहु-लूहान होगया, उसके बाद उनेमें से एक नास्तिक मारने वाले पुरोंहीतों ने कहा कि यह तो खीड़की पर हवा के टकराने की आवाज आ रही है। उसके बाद एक बार फिर चद्दर डाल कर सभी नास्तिक सगुणी पुरोहित सभी घोड़ा बेच कर सोगए। जब सुबह हुआ, तो जो मुख्य पुरोहीत था| वह जब दरवाज खोल कर बाहर आया, तो उसने देखा कि सच में परमात्मा आया था| उसके रथ के पहीये का निशान और कदमों के चिन्ह बाहर जमिन पर साफ-साफ मवजुद थे| यह देख कर वह बहुत आश्चर्य चकित हुआ| और अपनी छाती पीट कर फुट-फुट कर रोने लगा, उसको देख कर गांव वाले आ गये, और उन्होंने पूछा क्या बात है? क्यों रो रहे हैं? तो उस पुरोहीत ने कहा की परमात्मा हमारें दरवाजे पर आकर हमें बुला रहा था और हम सब घोड़ा बेच कर सो रहे थे| यह सुन सभी गांव वालों ने कहां आपने हमको क्यों नही बुलाया हमको बुलाते तो हम आकर उसका स्वात करते | यह सुनकर वह पुरोहिव मुंह निचे कर के बैठा रहा| यह देख कर वह सब अपने-अपने घर गावं वापिस चले गये।    
ऐसा सिर्फ उन पुरोहीतों के साथ नहीं हुआ हम सब के साथ भी यही हो रहा है। हम सब भी सदियों से सोने के आदि हो गए है| परमात्मा तो हम सब के हृदय में उपस्थित है | और हम सब को हर पल बुला रहा है, हम सब सोने में ही जीवन को सार्थक समझते है। स्वयं को जगाने के लिये ही यह एक प्रयास है। परमपिता परमेश्वर की असीम कृपा से यह शुभ और पवित्र दिन मुझे और आप सब को दिया है| हमारी योग्यता ही क्या थी? फिर भी उसने हम सब को हमारी योग्यता से कही अधीक दिया है, और हर क्षण बिना किसी स्वार्थ के दे रहा है। इस लिये सर्व प्रथम आदर श्रद्घा प्रेम और अहो भाग्य कृत्यज्ञता से भर कर, हम उसको नमस्कार पुर्वक हृदय से प्रणाम करते हैं। यहां इस भौतिक जगत में कुछ भी निःशुल्क नहीं मिलता है। हर वस्तु के पिछे हमारा स्वार्थ अवश्य होता है। वह स्वार्थ भौतिक, दैविक अथवा आध्यात्मिक हो सकता है| इसमें यह निश्चित है, कि हम सब का स्वार्थ मूल है, जैसा कि स्वामी तुलसी दास जी कहते है| कि 'स्वार्थ लाई करई सब प्रिती सुर नर मुनि की यही है ऋति'। अर्थात स्वार्थ के वसी भुत होकर ही यहां प्रत्येक मानव सुर अर्थात देवता मुनि भी इसी स्वार्थ के वश में होकर ही प्रत्येक कार्य का सम्पादन करते है। हम सब के सभी कार्य में वह कुछ भी हो सकता है। मानव और परमात्मा में यही मूल अन्तर है परमात्मा का स्वभाव है, सारा ज्ञान, विज्ञान, ब्रह्मज्ञान, योग, भोग ऐश्वर्य की सामग्री और सम्पूर्ण ऐश्वर्य निःशुल्क देता है| बिना किसी स्वार्थ के वशीभुत हुए निश्वार्थ और निश्पक्ष भाव वह हम सब के साथ न्याय और अपनी दया को हमारे कर्म के फल के रुप में हर समय साधारण असाधारण तरिके से प्रकट कर रहा है। उसे भी हम सब नहीं देख सकते है उसमें भी कारण है। हमारा अज्ञान और अहंकार रोड़ा अटका कर खड़ा हो जाता है। फिर भी वह शाश्वत बिना कीसि भेद भाव के है, या युं कहे सब मुफ्त में ही दे रहा है| उस पर सभी का किसी ना किसी तरह से श्रद्धा, विश्वास अडीग है, और इसमें जो मानव मन का अहम् है। वही मूल कारण है उसका अज्ञान ही है| वह अनन्त प्रकार जो दूसरों को दुःखी और तरह-तरह से परेशान करके स्वयं को उससे ज्यादा आनन्दित करने की तीब्र आकांक्षा दूसरें को कुचलने की प्रेरणा देता है| और मानव मन उसी अहम् के कारण ही स्वयं दुःखी रहता है, और दूसरों को भी दुःखी रखता है। यह सब क्यों हो रहा है इसके पिछे अपना ही अज्ञान है या युं कहे कि उसके अन्दर का जो परमात्मा उसके द्वारा दबा दिया गया है, या उसने अपनी आत्मा जिसके पिछे से परमात्मा की आवाज आ रही है| उसे हमने सुनना बन्द कर दिया है। जैसा की मन्दिर के पुजारी करते है| सिर्फ मन्दिरों के पुजारी ही ऐसा नहीं कर रहे है| उसी तरह से हम सब भी कर रहें है| क्योंकि यह मानव शरीर परमात्मा का मन्दिर है| और हम सब अपने हृदय का दरवाजा जाने कितने सदियों से बन्द करने में ही अपनी सम्पूर्ण प्राण उर्जा शक्ति को व्यय खर्च करते आ रहें है। यह एक प्रकार का सबसे बड़ा व्यापार पेसा व्यवसाय हम सब का बन गया है| जिसे सिर्फ मन्दिर के पुजारी ही नहीं कर रहे है| यद्यपि हम सब भी यहीं कर रहें है| आज के समय में पश्चिम जगत अपने चरम पर है| यह एक अति है, जिसकी वजह से उन सब का अन्तर्जगत सम्पूर्ण नष्ट हो चुका है| पुरब भी उसके आकर्षण के कारण प्रभाव में आ चुका है| इसका परिणाम मैडनेस पागलपनता कि मात्रा अत्यधीक तेजी से बढ़ रही है, और यह सब मिल कर सामुहिक आत्मघात आत्महत्या कि तैयारी में पूरी ताकत से जुटे है। इस सम्पूर्ण पृथ्वी को भौतिक स्वर्ग बना रहे है| और यह सब जिस पदार्थ से बन रहा है वह सब बारुद का ढेर है| जिससे यह सम्पूर्ण पृथ्वी राख में तब्दिल हो जायेगी जैसे कोयला जलने या भष्म होने बाद होता है। वास्तव में भस्म अंगार से बना है| 
 
    एक बार कई धर्म के शास्त्रि पंडीतों का, बहुत बड़े शास्त्रार्थ का आयोजन एक सम्राट ने किया, उसको सुनने के लिए दूर-दूर से बहुत सारे लोग एकत्रित हुए, जैसा कि प्रायः हुआ करता है, वहां पर यह निर्णय होने वाला था कि परमात्मा कैसा है? और परमात्मा का स्वरूप कैसा है? जैसा की प्रायः होता है| एक धर्म पण्डीत दूसरें धर्म के विचारों से कभी सहमत नहीं होते है। ऐसा ही उन सब में भी भ्रम होने लगा, इसलिए ही यहां पृथ्वी पर सबसे लड़ाईयां और युद्ध धर्म को लेकर हुए है| और अभी भी गुरील्ला युद्ध हो रहे है। एक धर्म दूसरें धर्म को समापत्त करने के लिए अपनी पुरी ताकत को झोंक रहे है। इश्लाम का प्रचार और धर्मान्तरण, ईसाईयों का धर्रमान्तरण बरा-बर बहुत तेजी से हो रहा है। जिसके पास धन है उसी का धर्म ज्यादा फल फुल रहा है। आज ईसाईयत का राज्य करने के लिये ही इसके पिछे बहुत बड़ी मात्रा में धन और जीवन को व्यर्थ अपव्यय किया जा रहा है।

   धर्म का जो शास्त्रार्थ हो रहा था| उसमें किसी का निर्णय न होने कि स्थिति में लोग बहुत अधीक निराश हुए, और उनमें जो कुछ बुद्धिमान थे | उन्होंने धर्म और परमात्मा के विषय में अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए महात्मा बुद्ध के पास गए क्योंकि महात्मा बुद्ध उस समय अपने चरम उत्कर्श पर थे| अर्थात उनकी प्रसिद्धि उस समय चारो दिशाओ, मे बहुत अधिक व्याप्त हो रही थी।

महात्मा बुद्ध ने उन वुद्धिजीवियों को पहले शान्त हो कर सुना |और फिर अपने शिष्यों से कहा कि एक अच्छा हाथी और चार अंधे आदमीयों को लेकर आवो। फिर वह एक मस्त तन्दुरुस्त हाथी और चार अंधे आदमीयों को लेकर आए, तब महात्मा बुद्ध ने उन अंधे व्यक्तियों से कहा कि जावो हाथी को देखों , और यहां मेंरे पास आकर बताओ कि हाथी कैसा होता है? पहले अंधे आदमीयों मे से एक अंधे ने हाथी के पैरों को छुआ | और उसने आकर महात्मा बुद्ध के चरणों में झुककर कहा कि हाथी तो खम्भे की तरह होता है|  और दूसरें अंधे ने हाथी के पेट को छुआ और उसने कहा कि हाथी तो दीवाल की तरह होता है। तीसरें अंधे ने हाथी के कान को छुआ और उसने आकर सुचना दी की हाथी तो कपड़े की तरह से होते है। अन्त में चौथे अंधे ने आकर बताया कि हाथी तो रस्सी की तरह होता है| क्योंकि उसने ने हाथी के पुंछ को छुआ और कहा की हाथी तो रस्सी की तरह होती है, और वह आपस में सारें बहस करने लगे कि क्योंकि हाथी को अलग-अलग बताया जो एक दूसरें से मेल नहीं खा रहे थेे। उन सबने उस हाथी को छुकर देखा और एक दूसरें को बताने लगे कि हाथी कैसा होता है? जिसने पुछ को पकड़ा वह समझ गया कि हाथी रस्सी कि तरह होता है, और जिसने हाथी कि पैर को छुआ उसने कहा कि हाथी खम्भे कि तरह होता है| अन्त में महात्मा बुद्ध ने कहा कि प्रत्येक अंधे ने हाथी को छुआ और सबने हाथी कि व्याख्या कि लेकिन सबने गलत सुचना दि या उसके बारें में जो बताया वह अधुरा सच है, इसमें सही कौन रहा है? सब गलत है इसका मतलब यही है। सारे धर्म और उसके सारे अंध श्रद्धालु उसी प्रकार से है, और उनका परमात्मा या धर्म के विषय में वह सब उसी प्रकार से जानते समझते है| जिस प्ररकार से अंधो ने हाथी को समझा है। जिसके पास आंखें है वह किसी से नहीं पूछता है|  कि हाथी रूपी धर्म या परमात्मा क्या और कैसा है?

सच्चा साधक जो जीवन को बिना किसी तैयारी के ही जीता है, जैसा हमको यह जीवन मिला है, उसको उसकी परिपूर्णता में वह पूरा स्वीकारता करता है| इसके बारें में मैं पहले से कुछ भी तैयारी नहीं करता हूं क्योंकि मैं यह जानता हूं कि यह जीवन परमात्मा का एक अद्वितीय उपहार है। मैं आने वाले कल को बिल्कुल कल के लिए खुला रखता हूं उसके लिए मेंरे पास कोई योजना या पहले से कुछ भी तय नहीं करता हूं। अगर मुझे लगता है कुछ बोलना चाहिए तो ही मैं कुछ बोलता हूं अगर नहीं लगता है कि मुझे बोलने की कोई खास जरुरी नहीं है| तो मै मौन ही रहता हूं। इसके सिवाव कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचता है| मैं वही करता हूं जो मुझसे मेंरा अस्तित्व कराता है। मैं स्वयं से कभी यह प्रश्न नहीं पूछता हूं ऐसा क्यों है? क्योंकि इस क्यों का कोई उत्तर ही नहीं है। यह सहज है, इसके साथ बहता हूं जिस प्रकार से नदी, समन्दर और बादलों पर सवार हवा बह रही है। सारे उत्तर स्वयं के बनाये गए है | और सब स्वयं को झुठा, असत्य, पाखण्डी बनाने के लिए और स्वयं के तृप्ति के लिए हैं। उसमें जीवन का सार्थक सत्य और उसकी वास्तवीकता नहीं है। सत्य कहा नहीं जा सकता, सत्य बहुत विशाल, विस्तृत व्यापक व्योंम, अज्ञेय अन्तरीक्ष की तरह है उसको जितना जान लों वह कम ही है। जिसका कोई अन्त नहीं है वह अनन्त है। जिसके लिए ही नेति-नेति अनन्त वेदानन्त कहा गया है| अर्थात जहां वेदों का अन्त होता है| वहां से वह सत्य प्रारम्भ होता है और सारे शब्द चम्मच की तरह है | जिससे हम सब समन्दर को खाली करने के लिए भागीरथी प्रयास करते है। यह कभी भी आज तक संभव नहीं हुआ है नाहीं आगे ही होगा, शब्द मात्र विशाल परम ज्ञान सत्य की कुछ हल्की सी झलक से ज्यादा कुछ नहीं है। जिस प्रकार झील के शान्त पानी में अपना चेहरा देखते है| या कांच में अपनी तस्बीर देखते। उसी प्रकार से मुर्दे शब्दों में सत्य की झलक होती है। शब्द का अर्थ यह है कि सत्य के सन्दर्रभ में नहीं से अच्छा कुछ है वह शब्द तो है। इसलिए मैं नदी की धारा के साथ बहता हूं बिना किसी प्रश्न के कि कहां जा रहा हूं क्योंकि नदी स्वयं कि लहरों से कभी नहीं पूछती है कि तुम कहां जा रहे हो? क्योंकि नदी के लिए यह प्रश्न ही ब्यर्थ है। मेंरा प्रयास है केवल चलते रहो यह चलना ही जीवन है| जो अज्ञेय है जिसे वेद यज्ञामहे कहते है। यह जीवन यज्ञ की तरह से है जो परमात्मा का दिया मानव को दिव्य आशिर्वाद उसके कल्याण के लिए है। लेकिन जब हमारी इच्छा अवरोध रुकावट बन कर खड़ी हो जाती है, तो उसमें जीवन नहीं बचता है। जीवन स्वयं में परीपूर्ण है उसका कोई लक्ष्य नहीं है और उसे बखुबी ज्ञान है कि उसे कहां जाना है उसकी मंजील क्या है? दुःख उधार है | और परमआनन्द परमात्मा स्वयं का आन्तरीक जीवन का स्वभाव शाश्वत  है।

एक बार एक जाबाज नाविक ने समन्दर में यात्रा कि, जिस समय वह समन्दर मे यात्रा कर रहा था| कि अचानक समन्दर में बहुत ही भयानक और दिल दहला देने वाला खतरनाक तुफान आ गया जिसमें वह नाविक बुरी तरह से फंस गया। नाव में समन्दर की लहरें जोर दार थपेड़े मारने लगी जो 15 से 20 फुट तक उंची थी| जिसमें नाविक को स्वयं को बचने की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी। कुछ ही देर मे यात्री के नाव के टुकड़े-टुकड़े हो कर धीरे-धीरे समन्दर में समाने लगे | और तब वह नाविक भय से आक्रान्त बेहोस हो गया। जब उसकी आंख खुली तो वह ऐसे द्विप के किनारें पर पड़ा था। जहां पर वह बिल्कुल अकेला और केवल उसका परमात्मा था। उसने परमात्मा को याद किया और अपने जीवन को बचाने के लिए उस बिरान द्विप पर भटकने लगा |कुछ दीनों में उसने स्वयं को वहां पर किसी तरह से व्यवस्थित कर लिया| और अपने लिए सुखी लकड़ी तथा घास फुस से एक झोपड़ी रहने के लिए बना लिया, और किसी प्रकार से वह वहां पर अपने जीवन को बिताने लगा। एक दिन वह रोज कि तरह जब अपने भोजन की तलास कर के वापिस आया| तो क्या देखता है? वह देखता है कि  उसकी झोपड़ी में आग लग गई है| और वह बुरी तरह से आग के लपटों में आ चुकी है, उसको बचाने से पहले उसका बसा बशाया घर उस एकान्त द्विप पर आग में भस्म हो गया। उसने परमात्मा से कहा तूने सब जान कर हमारे साथ ऐसा क्यों किया? जब वह सो कर उठा तो सबसे पहले उसने देखा कि एक जहाज उस द्विप की तरफ ही चला आ रहा है| उस जहाज की आवाज दूर से ही उसके कानों में आ रही थी। जब वह आ गए तो उसने उस जहाज के कप्तान से पहला प्रश्न किया कि तुम सब को यह कैसे ज्ञात हुआ?  कि मैं यहां पर फंसा हुआ हूं। जहाज के कप्तान ने कहा की हमें तुम्हारें धुए का सिग्नल दिखाई दिया|  जिससे हम सब समझ गए कि वहां द्विप पर जरूर कोई फंस गया है| जो हम सब की मद्त चाहता है। फिर उस नावीक ने कहा की परमात्मा का कार्य रहस्यात्मक है | वह सब जानता है, और उसे सब ज्ञात है| कि हमें किस बस्तु की आवश्यक्ता है| वह जानता है और उसको किसी ना किसी तरह से हमारें पास अवश्य ही भेजता या उपलब्ध कराता है। वह हम सब में हर पल सांशे ले रहा है| वह हम सब को एक पल के लिए भी कभी स्वयं से दूर नहीं करता है, हम सब ही अल्प बुद्धि के है | परमात्मा के विषयमें जो उसे समझने में पूर्णतः असमर्थ है। जैसा की वेद स्वयं कहता है की वह तो हिरर्णयगर्भः है | हम सब के हृदय के गर्भ में सदा से हर पल नीवास कर रहा है। वह अपनी शरीर से भी करीब अन्तरात्मा है।

अब हम सब इस मंत्र में धीरे-धीरे उतरते हैं इसमें काफी सुक्ष्म और गुढ़ अर्थ छुपा है। जैसा कि यजुर वेद के महामृत्युञ्जय मंत्र में कहा जा रहा है| कि ओ३म् यह परमात्मा का मुख्य नाम है। जैसा की महर्षि दयानन्द जी कहते है। जो अ, उ, म, तीन अक्षर हैं, वे मिलकर एक समुदाय बनाते है इस परमेंश्वर के बहुत नाम है, जैसा की अकार से वीराट, अग्नी और विश्वादि, उकार से हिरण्यर्गभ, वायु और तैजसादि, मकार से ईश्वर, आदित्य और प्रज्ञादि नामों का वाचक और ग्राहक हैं। उसका ऐसा ही वेदादि सत्यशास्त्रों में स्पष्ट व्याख्यान किया गया है। प्रकरणानुकूल ये सब नाम परमेंश्वर के ही है।

जैसा की स्वयं महर्षि दयानन्द कह रहे है जो संस्कृत और वेदों के प्रकाण्ड विद्वान हो चुके है जिन्होनें वेदों का भाष्य किया जो विश्व में अपना एक नम्बर का अस्थान रखता है। वह कह रहें है की वेदादि जो सम्पूर्ण विश्व का सबसे प्राचिन ग्रन्थ है| वह जो ब्रह्म लिपी में हैं जिनमें ना कुछ जोड़ा जा सकता ना ही कुछ घटाया ही जा सकता है। वेद अपने आप में अद्वतिय और अपने को अदृश्य में व्यक्त करते है| उनकी जड़े अदृश्य में विद्यमान हैं। स्वामि दया नन्द सरस्वती कह रहे है कि मैं जो कह रहा हूं वह सब सत्यशास्त्रों में व्याख्यान किया गया है। अकार, उकार और मकार यह परमात्मा के विषेश गुण और स्वभाव की चर्चा करते है बतलाते है| ब्याख्या या परीभाषा करते है| अाकार का सिधा सा अर्थ है आकार देने वाला, उकार का मतलब है, उपकार दूसरों का कल्यान करने वाला, मकार का मतलब है सबका कल्यान करने वाला, सबका सही सत्य न्याय करने वाला दण्ड देने वाला मारने वाला है|  और यही मुख्यतः तीन सत्तायें है | जिसे त्रैतवाद कहते है, ईश्वर, जीव, प्रकृत यही मूल तीन तत्व है। जिसे वैज्ञानिक इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्युट्रान कहते है| और इसको ही पौराणीक काल में ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहते है |और इसको ही जब दर्शनों को लिखा गया तो वैषेशीक दर्शन कार कणाद सत्, रज, तम कह रहे है | और इन्हीं तीन विषय को ध्यान में रख कर वेदों को परमात्मा द्वारा रचा गया वह मानव तन की सहायता से तैयार किया गया है परमात्मा मानव शरीर में प्रकट हुआ। जिसे त्रयी विद्या के नाम से जानते है, अर्थात ज्ञान, कर्म, उपासना, ज्ञान का मतलब सिर्फ जानकारी से नहीं है जैसा की इन्फारमेंसन नालेज है आज इसकी बहुत मांग हैं और इसी को ज्ञान समझा जा रहा है।

   जीवन रहस्य एक आत्म कथा यह एक ऐसे व्यक्ति कि आत्म कथा है जो ना पूर्ण रुपेण जीन्दा ही है ना हि पूर्ण रूपेण मरा ही है एक दर्र और मार्मिक व्यथा और जीवन का यथार्थ है| अर्थात एक ऐसा व्यक्ति जो मानसिक चिन्तन के दबाव के कारण बिमार है, या अस्वस्थ है| उसकी बिमारी उसे ज्ञात नही है, वह अन्जाने में ही जीवन को जी रहा है| कुछ समय के उपरान्त उसे अपने असाध्य रोग का भी ज्ञान होता है| जैसे जिवन में अगले पल क्या होगा? कुछ निश्चित नहीं है| कब मृत्यु का बुलावा आ जाये कब जीवन में कौन सा? महान ऐश्वर्य मिल जाये यह कौन जानता है? अगली कौन सी घटना जीवन को किस दिशा में लेकर परवान चढ़ती है| यह दम घोट जीन्दगी को जीने वाला ऐसा मानव है, जिसको कुछ भी ज्ञात नहीं है| उसका जीवन साक्षात मृत्यु का जीवन है, अर्थात जो मृत्यु को जी रहा है| लोग जीवन को जीते है, वह मृत्यु को जीता है|

एक राजा था। उसने परमात्मा को खोजना चाहा। वह किसी आश्रम में गया। उस आश्रम के प्रधान साधु ने कहा, "जो कुछ तुम्हारे पास है, उसे छोड़ दो। परमात्मा को पाना तो बहुत सरल है। राजा ने यही किया। उसने राज्य छोड़ दिया और अपनी सारी सम्पत्ति गरीबों में बांट दी। वह बिल्कुल भिखारी बन गया, लेकिन साधु ने उसे देखते ही कहा, "अरे, तुम तो सभी कुछ साथ ले आये हो!"

   राजा की समझ में कुछ भी नहीं आया, पर वह बोला नहीं। साधु ने आश्रम के सारे कूड़े-करकट का फेंकने का काम उसे सौंपा। आश्रमवासियों को यह बड़ा कठोर लगा, किन्तु साधु ने कहा, "सत्य को पाने के लिए राजा अभी तैयार नहीं है और इसका तैयार होना तो बहुत ही जरुरी है।"

कुछ दिन और बीते। आश्रमवासियों ने साधु से कहा कि अब वह राजा को उस कठोर काम से छुट्टी देने के लिए उसकी परीक्षा ले लें। साधु बोला, "अच्छा!"

   अगले दिन राजा अब कचरे की टोकरी सिर पर लेकर गाव के बाहर फेंकने जा रहा था तो एक आदमी रास्ते में उससे टकरा गया। राजा बोला, "आज से पंद्रह दिन पहले तुम इतने अंधे नहीं थे।"

   साधु को जब इसका पता चला तो उसने कहा, "मैंने कहा था न कि अभी समय नहीं आया है। वह अभी वही है।"

  कुछ दिन बाद फिर राजा से कोई राहगीर टकरा गया। इस बार राजा ने आंखें उठाकर उसे सिर्फ देखा, पर कहा कुछ भी नहीं। फिर भी आंखों ने जो भी कहना था, कह ही दिया।

   साधु को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने कहा, "सम्पत्ति को छोड़ना कितना आसान है, पर अपने को छोड़ना कितना कठिन है।"

   तीसरी बार फिर यही घटना हुई। इस बार राजा ने रास्ते में बिखरे कूड़े को बटोरा और आगे बढ़ गया, जैसे कुछ हुआ ही न हो। उस दिन साधु बोला, "अब यह तैयार है। जो खुदी को छोड़ देता, वही प्रभु को पाने का अधिकारी होता है।"सत्य को पाना है तो स्वयं को छोड़ दो।'मैं' से बड़ा और कोई असत्य नहीं है। मैं से बड़ी और कोई भूल नहीं। प्रभु के मार्ग में वही सबसे बड़ी बाधा है। जो उस अवरोध को पार नहीं करते, सत्य के मार्ग पर उनकी कोई गति नहीं होती।

सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते।
वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकाञ्चनसर्पिषाम्।। मनु०।।

   संसार में जितने दान हैं अर्थात् जल, अन्न, गौ, पृथिवी, वस्त्र, तिल, सुवर्ण और घृतादि इन सब दानों से वेदविद्या का दान अतिश्रेष्ठ है। इसलिये जितना बन सके उतना प्रयत्न तन, मन, धन से विद्या की वृद्धि में किया करें। जिस देश में यथायोग्य ब्रह्मचर्य विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार होता है वही देश सौभाग्यवान् होता है।

  जीवन एक ख्वाब दर्द का, एकान्त नरबस टिस सिसकियों से भरा मार्मिक बेदना का स्पन्दन, अथाह समन्दर और यातनाओ का सुन्दर स्वप्न महल, घुटन का अनचाहा अहसास बेवसी का ताण्डव करता भुखा दानव मानव रुप भेड़ियों में, मनुष्य असहाय क्योंकि मनुष्य के पास जो भी है| वह कम ही है उसके अन्दर सिर्फ जीने की ख्वाइस का सागर ही नही है, यद्पी मरने के लिये विशाल अंतरिक्ष भी है। यह जीवन अद्भुत रहस्य का आकाश जैसा है। भोग विलास के लिये सभी कालिप्निक रेत का महल और सड़ने गलने कि हाड़ मान्स कि कंकाल रुपी शरीर है| जिस में हर तरफ भयंकर बिमारियों का अंकुरण हो रहा है । यह सब देख कर सिवाय आश्चर्य और अलौकिक अनुभुतियों के अभुतपुर्व अनुकरणिय आनन्द की अनुकम्पा के लिए धन्यवाद की लालसा| सायद वह इस को स्विकार करें इसमें भी स्वयं को संका है| क्योकि वह महान न्याय कर्ता दयालु अजर अमर निर्भय सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक सर्वान्तरयामी सर्वज्ञ है।

ओ३म् यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः ।
ब्रह्मराजन्याभ्या शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय ।।

      परमेश्वर कहता है ! कि (यथा) जैसे मैं (जनेभ्यः) सब मनुष्यों के लिये (इमाम्) इस (कल्याणीम्) कल्याण अर्थात् संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी (वाचम्) ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का (आ वदानि) उपदेश करता हूं वैसे तुम भी किया करो।

   जीवन रहस्य वास्तव में रहस्य ही है| यह जीवन का सितारा कहीं दूर आकाश के अंतिम छोर से आता है यदि वह किसी काल्पनिक या यथार्थ  का लोक है तो वहां से आ रहा है| इस पृथ्वी पर जो थोड़ा समय सभी जीवो मिला, और जीवन को बनाए रखने के लिए जो शरीर और आत्मा के साथ संघर्ष हुआ| उसी संघर्ष की दर्द भरी रूह की बेबूझ पहेली कि दास्ता है| जिसे व्यक्त करने का प्रयास इसमें किया गया है | वर्णित रूह की दास्ता अभिव्यक्ति और कल्पना कि अलौकिक आकांक्षा से बाहर रहस्य की महिमा की तरफ संकेत, एक छोटा सा इसारा मात्र है| जैसे किसी ने चाँद की तरफ देखकर इसारे के लिए अपनी उंग्ली उठा दि हो, जैसे किसी ने सूर्य के प्रकाश को समझाने के लिए एक छोटा सा दिपक जला दिया हो, या फिर जैसे किसी कवी ने किसी की आखों को सागर के समान उपमा दे दिया हो, या फिर जैसे किसी ने पत्थल में परमात्मा को देख लिया हो, ऐसा ही कुछ यहां पर किसी व्यक्ति के जीवन से प्रकट हो रहा है|
   जिवन का कौन सा पल जीवन का आखिरी पल बन जाए जीवन का भरोषा नहीं है, मृत्यु पर अधिक भरोषा उसका बढ़ता जा रहा है| यह मै नही जीवन का अनुभव कहता है| जो जीवन ब्रह्माण्ड को लांघ कर समन्दर, रेगिस्तान, मरुस्थल, ग्रह, नक्षत्र , अन्तरिक्ष , आकाश , पृथ्वी , पर्वत, पठार सारे चिन्तन के रस को निचोण कर जो जीवन बना है| और अदृश्य रूप से सब में समा कर जो सब कि चेतना बन कर धड़क रहा हा है| जीवन आखिर क्या है? एक दर्द भरी दास्ता एक अनचाही रूह की प्यास या गमगिन क्लेशों की भरमार जीन्न की बोतल है| या एक सुन्दर अप्सरा है| या यह केवल इन सब का मिला जुला रूप जैसे इन सब का मात्र संमोहन एक खतरनाक आकर्षण एक दुःख भरा स्वप्न है | जिसे जितना ही पिता या जिता गया उतना ही इसका नसा आकर्षण खत्म होता गया, और वह घड़ी आ गई, जब जीवन का संमोहन छुट गया | बचा जीव पुनः उसी आकाश में विलिन हो गया जहां से आया था | एक स्वप्न जिसमें यथार्थ का श्रम जिस घटना ने नायक के सम्पूर्ण जीवन को एक नई दिशा दे दिया| या युं कहें जो मृत्यु में डुब ही चुका था| वह जीवन रस का स्वाद चखने को मजबुर कर दिया गया| यह उसकी विवशता नहीं है| यद्यपि इसे वह अलौकिक आनन्द की अनुकम्पा कहता है| एक आदमी के जीवन कि कुछ ऐसी घटनाएँ घटती हैं| जो कभि एक खतरनाक डकैत रहता है| आगे चल कर वह एक महान कवी बनता है| और दुनिया को जीने के लिए एक नए मार्ग को देता है| जो परम भक्ती के मार्ग के रूप में जाना जाता है| उन्हें कौन नही जानता? इस मृत्यु लोक में महान कवी बाल्मिकी की बात यहाँ कि जा रही है| जिन्होंने रामायण जैसे संस्कृत के महा काव्य को रच कर,  संसार को एक अद्वितिय अद्भुत ज्ञान का कोश दिया है| जिसके लिये यह संसार हमेसा उनका यश गाता रहेगा| ऐसा हि कुछ हमारे नायक के साथ होता है| वह एक श्रेष्ठ कवी तो नहीं बनता है| लेकिन वह एक मानव बनने का प्रयास करता है | तो इस तरह से यह कहानी या आत्म कथा एक मानव बनने की कथा है| यह कह सकते है| एक साधारण सा व्यक्ति एक महामानव कैसे बनता है? यह मानव पशु से मनुष्य बनने की यात्रा का नाम है| जैसे समय और परिस्थिती को झेलते हुये जब मनुष्य टुट जाता है| बेसहारा होकर असहाय इस खतरनाक जानवरों से भरे संसार में और तब उसमें एक नया जुनुन, जीने के लिए एक नई आशा की किरण का एक नया सबेरा जीवन के एक नये अद्भुत अतुलनिय ऐश्वर्य के प्रकाश के साथ अद्वितिय नव मार्ग का आर्भिभाव होता है| जो घटनाए छोटी- छोटी कड़ियों के रुप में आकर एक महान जीवन संग्रह का रूप ले कर नायक की जीवन रेखा बन जाती है| यह मार्ग बहुत सचेत सावधान होकर चलने के लिए बाध्य करता है| जिसके लिये चुनौतीयों को पूर्ण रूपेड़ स्विकार कर के आगे एक- एक कदम बढ़ते हुए चलना है| फुक- फुक कर पैर रखना है| जिस प्रकार से एक योद्धा संग्राम युद्ध में विरता और साहस से भर कर खड़ा होता है| लड़ने के लिये , ठिक उसी प्रकार से,  लेकिन जो हमारा नायक है| वह बिना किसी तैयारी के जीवन युद्ध के संग्राम में लड़ने के लिये उपस्थित होता है| क्योकि यह एक वास्तविक जिवन कि साक्षात तस्विर है| यह किसी फिल्मी जीवन की तरह नहीं है| यह जीवन का नग्न सत्य है| क्योंकि जिवन किसी को तैयार होने का मौका नहीं देता है, यदि कहें की जीवन तैयार होने का मौका देता है| तो फिर आज भी लोग इस संसार में मरते हुए क्यों दिखाई देते है? इसका मतलब यहीं है| कि सारी तैयारी मरने के लिये कि जाती है| कि हम सब आराम से मरे, इसलिये हम सब तैयारी उसी विषय का अध्यन करते है| क्योंकि जीने के लिये किसी तैयारी कि आवश्यक्ता नहीं है| जिस मार्ग पर थोड़ा सी आसावधानी या लापरवाही हुई, जो जीवन को हमेंसा के लिये समाप्त करने के लिये पर्याप्त सबब बन जाता है| जीवन जीने वाले दो प्रकार के होते है | एक तो वह जो सभी सुविधाओं से समपन्न हो कर जीवन को जीते है| जो काफी सम्पन्न हैं, यद्यपी उनकी संख्या बहुत कम है| लेकिन फिर भी संसार के अधिकांस भागों पर वह अपना अधिकार करते है| जिन्हे हम सब सबसे विकसित श्रेष्ठ आधुनिक सभ्य कहते है| और उनको अपना आदर्श मान कर उनका आजीवन अनुकरण करते है| जो सबसे अधिक भोग विलास का उपयोग करते हैं| दूसरे वह है, जो अभी पूर्ण सुख सुबिधा सम्पन्न नहीं है| जो अभी स्वयं को सुख सुविधा सम्पन्न करने के लिये संघर्ष रत है| जिनकी संख्या सर्वाधिक है| यह सारे दास के समान है, इनके दम पर दुनिया लग-भग ८०% श्रम का कार्य सफलता से रोज सफल किया जाता है| यह दोनों दो प्रकार के मनुष्य हैं, एक तिसरे प्रकार के मनुष्य होते है, जिसमें हमारा नायक आता है | क्योकि वह दोनों प्रकार के मनुष्यों किसी ना किसी प्रकार से जुणा है, वहो दोनो प्रकार के मनुष्यों से उसको अपने जन्म के साथ ही अपनो के द्वारा संघर्ष करना पड़ता है| वह मध्य श्रेणी का पुरुष है| अपने जीने के लिए इसलिये मै कहता हुं कि हमारा नायक किसी प्रकार के बिना तैयारी के जीवन संग्राम में उपस्थित होता है|

     ओ३म् उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम् ।
उतो त्वस्मै तन्वं१ वि सस्रे जायेव पत्य उशती सुवासाः ।।
– ऋ मं० १०। सू० ७१। मं० ४।।

जो अविद्वान् हैं! वे सुनते हुए नहीं सुनते, देखते हुए नहीं देखते, बोलते हुए नहीं बोलते । अर्थात् अविद्वान् लोग इस विद्या वाणी के रहस्य को नहीं जान सकते है| किन्तु जो शब्द अर्थ और सम्बन्ध का जानने वाला है| उस के लिये विद्या-जैसे सुन्दर वस्त्र आभूषण धारण करती है, अपने पति की कामना करती हुई स्त्री अपना शरीर और स्वरूप का प्रकाश पति के सामने करती है| वैसे विद्या विद्वान् के लिये अपने स्वरूप का प्रकाश करती है, अविद्वानों के लिये नहीं।

    यह आत्म कथा वास्तव में एक यात्रा वृतान्त भी है| क्योंकि नायक एक जगह रह कर जीवन व्यतित नहीं कर पाता है| उसकी जीवन नाव सफर भव सागर रुपी संसार में समय और परिस्थिती के साथ उसे निरन्तर यात्रा के साथ भौतिक उथल-पुथल पर रखती है| जिसमें वह जो अच्छा बुरा अनुभव करता है| उस सब का संकलन भी है| नायक किसी एक समाज विशेष या जाती विशेष नहीं है| यह हर तरह के व्यक्तियों के साथ रहा है| कुछ तो बहुत गरिब है कुछ बहुत अमिर है कुछ इन दोनों के मध्य है| जिसकी यह आत्म कथा है| वह भी एक मध्य श्रेणी के मनुष्यों के मध्य से आता है| लेकिन इसे हर तरह के व्यक्तियों के साथ कुछ समय बिताने का समय मिलता है| दुनिया को चलाने वालों में है, इसमें पारिवारिक सामाजिक सांसारिक और आत्मिक, शारिरीक सभी प्रकार के जीवन का संग्रह है| इसमें जीवन के एक ऐसे पक्ष पर ध्यान को आकर्षित किया गया है| जो प्रायः देखने में नही आते है | ऐसे व्यक्तियों के जीवन पर प्रक|श डाला गया है| जो हमेशा इस संसार में हासियें पर रहते है| जैसे वह लड़का जो समय से पहले घर से बाहर रहने के लिए विवस रहता है| जबकी प्रायः उस उम्र के लड़के घर पर रह कर शिक्षा को ग्रहण करते हैं | या जीवन को खेल कुद मौज- मस्ती - सैर सपाटा और माँ बाप के साथ रह कर उनके लाड़ प्यार का उपभोग करते है| जैसा कि मंत्र कहता है।

ओ३म् जातवेदसे सुनवाम सोम मरातीयतो नि दहाति वेदः।
स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यन्गिः।।
ऋगवेद. 1।7।7।1।।








भुमिका
ओ३म् बण्महाँ२अ्असि सूर्य बड़ा दित्य महाँ२अ्असि| महस्ते सतो महिमा पनस्यतेअ्द्धा देव महाँ२अ्असि||
     परमेश्वर जो आप महान सर्वशक्तिमान सूर्य चरा-चर जगत के प्रकाश पुन्ज अन्तर्यामी ईश्वर! जिस कारण आप महान सत्य विराट महत्त्वादि गुण युक्त अविनाशीस्वरुप है, जिससे अनन्त ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान युक्त सबसे बड़े पुज्य हो, सत्य स्वरुप महान अजेय सर्वज्ञ मान कर आपकी महिमा का जो लोगों के द्वारा स्तुती किये जाते हो, हे दिव्य गुण कर्म स्वभाव युक्त परम प्रतापी परमेश्वर जिससे आप सर्वाधिक प्रसिद्ध महान सर्वव्यापक हैं इसलिये आप ही हमारे लिये उपासना के परम योग्य है||
ओ३म् ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्| तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्|| ओ३म् कुर्वन्नेवेह कर्माणि जीजिविषेच्छतँ समाः| एवं त्वयि नान्यथेतोअ्स्ति न कर्म  लिप्यते नरे||

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