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जीवन जंग

     यह उस समय कि बात है जब नायक तरुण था| तरुण अवस्था यौवन का आगमन कहेंगे जब दुनिया को बदलने का जोश अपने मन माफिक जीवन जीने के लिये दुनिया को अपने अनुकुल बनाने का अकल्पनिय जज्बा होता है| जो अभी ज्वान हो रहा है वह चाहता है कि सारी बिमारयों को समाज कुरीतियों को जो भयंकर नासुर बन कर समाज को अन्दर ही अन्दर बिमारयों की तरह से खोखला कर रही है| उनको समुल उनके जड़ समेत उनका निस्त नाबुत नष्ट कर दे और समाज को इनके प्रभाव से हमेशा के लिये मूक्त कर दे| ऐसा ही कुछ हमारा नायक अपने प्रारम्भ में करना चाहता था| जो एक छोटे से व्यापारी के घर में जन्म लिया था जिसका नाम बड़े प्रेम से उसे चाहने वालो ने आर्यन रखा |

     आर्यन अर्थात जो आर्य से बना है जिसका मतलब एक श्रेष्ठ पुरुष आर्यन मतलब श्रेष्ठ व्यक्तियों का समुह, इस पृथ्वी की जो सबसे प्राचिन मानव जाती सबसे अधिक ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान सम्पन्न थी उसे लोग आर्यन कहते है जो वेदों के कर्णधार कहे जाते है | जैसा कि यजुर्वेद का एक मंत्र तैतिस अध्याय का बयासी संख्या का है वह कुछ आर्यो के बारे में बोल रहा है|

   ओ३म्  यस्यायं विश्वअ्आर्यो दासः शेवधिपाअ्अरिः|
तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत्सोअ्अज्यते रयिः||

   अर्थातः- जिसके लिये यह समग्र भुमंडल विश्व ब्रह्माण्ड बनाया गया है| वह सब धर्म युक्त गुण कर्म स्वभाव वाले पुरुष आर्य के लिए है| और जो इसके सेवा कारी दास जिसको दस्यु कहते है अर्थात जो आर्यो कि सेवा करने वाले लोग है उनके लिये है| यह सब आर्यन के समान एक मजबुत विशाल संगठन है, जो सभी प्रकार के धरोहर ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान रूपी धनों का संरक्षक रूप है अर्थात् धर्मादि कार्यो में अथवा राज कर देने में व्यय करने वाले लोग है, और जो इसके विपरित कर्म करने वाले इनके शत्रु है, जो इनसे छुप कर निश्चित रूप से भयंकर और दन्डनिय कार्य करते है उनको जो नियन्त्रित रखने के लिय् पुरुषार्थ करते है| वह जो आर्यों के साथ दुष्ट स्वभाव के साथ हिन्सक व्यवहार का प्रयोग करते है उनके साथ जो श्रेष्ठ आर्य पुरुष है वह अपने धन मान सम्मान कि रक्षा के लिये शस्त्रों को प्राप्त करके अपने शत्रु पर उसका प्रयोग करके अपने लिए और अपनो के लिये पुरुषार्थ करता है उसको हर प्रकार का ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान रूपी  त्रीगुणात्मक धन और ऐश्वर्य प्राप्त होता है|
 

  आर्यन एक महान नाम है जैसा कि वेद का मंत्र कहता है इनका जन्म एक जमिदार परिवार में हुआ, जिनके पास कई सौ एकड़ जमिन कि पुरानी परम्परा थी| पिता सूर्य के समान बहुत उग्र स्वभाव का जिसने अपने लिये एक नया व्यवसाय बनाता है परिवार की पुरानी परम्परा से हट कर अपना नया कारोबर प्रारम्भ करता है लिक से हट कर चलना जिसका स्वभाव है| माँ एक विशाल हृदय कि मालकिन पृथ्वी के समान धिर गम्भिर सब कुछ सहन बर्दास्त करके भी अपनी धुरी पर निरन्तर चलते रहना जिनका स्वभाव श्यामा है| पिता यशवन्त लम्बा तगड़ा डिल डौल वाला भुरी आखों का मालिक जो आखों से आग उगलने में माहिर है हिस्ट पुष्ट शरीर वाला , पढ़ा लिखा अग्रेजी संस्कृत का जान कार फुट डालो और राज्य करो जिनकी राजनिती है| मध्यवर्गिय समाज में जिसकी काफी अच्छी प्रतिष्ठा मान सम्मान है लोग सम्मान की दृष्टी से देखते है पुरानी इज्जत आज भी कुछ हद तक बरकरार है| यशवंत जो स्वाभिमानी, निर्भिक , और निर्द्वन्द दूसरों पर अपनी शेषी बघारना और अपना रोब जमाना बुद्धिमानी का लोहा मनवाना जिसे खुब आता है| जिस प्रकार जहां पेड़ ना रुख वहां पर रेण महापुरुष मान लिया जाता है| जिस प्रकार अन्धों में काना राजा बन जाता है उसी प्रकार से यशवन्त है|
  

 श्यामा एक सभ्य घर कि है ज्यादा पढ़ी लिखी नही है जिसका यशवन्त नाजायज फायदा उठाता है और उसका आजिवन अपने मतलब के लिये उपयोग एक सामान कि तरह करता है| श्यामा इन सब से बेखबर उसे अपना भगवान मानती है| श्यामा और यशवंत की शादी पुराने वुजुर्गो ने अपनी पुरानी रिस्तेदारी को नया रूप देने के लिये किया उसमें एक और विशाल कारण था |

उस कारण को समझने से पहले हमें पहले उस गांव के इतिहास पर थोड़ी नजर डालनी पड़ेगी यह एक छोटा सा गांव है| जहां पर जिमदारों का बोल-बाला था| पहले जब भारत में मुसलमान राज्य करते थे| उस समय वाराणसी के नजदिक उसके दक्षिण में विन्ध्य पर्वत की घाटीयों से आच्छादित जहां पर कभी मिरजाफर नाम का मुस्लिम शासक राज्य करता था| जिसके नाम पर ही उस अस्थान का नाम मिर्जापुर पड़ा था| जो कभी जंगलो से आच्छादित जंगली जातियों का जहां पर अत्यधिक बोल-बाला था| बाद में वहां पर वहां के निवासी राजा के अधिकार में आया जहां पर जमिन काफी मात्रा में थी जिसको साफ करके उपजाऊ बनाय स्थानी लोगो को साथ में लेकर जो कास्त कार बने जिनके पास जितनी अधिक जमिन थी वह उतना ही बड़ा कास्तकार या खेतिहर माना जाता था| पहले सबसे बड़ी सम्पत्ती जमिन हि माना जाता था| यह सब राजा के साथ मिल कर सभी काम करते थे| और इसका हिसाब राजा को कर स्वरूप देते थे| समय बदला भारत में अंग्रेजो का आगमन हुआ और उन्होने पूरे भारत देश पर अपना अधिकार किया और अपनि राजनितियों को लागु करके सभी राजाओं को नष्ट करके उनकी सभी जमिन का मालिक कास्तकारों को जंमिदार बना दिया और उनसे सिधा अंग्रेज अपना कर वसुलने लगे| मिर्जापुर के जिस इलाके का रहने वाला आर्यन है| वहां पर कभी जिमेदारी हुकुमत अंग्रेजो के इसारे से चलति थी और खुब खुन खराबा जमिन पर कब्जा लेने के लिये होता था| जिसमें अग्रेजो का बहुत बड़ा हाथ होता था क्योंकि इससे जमिन पर अपरोक्ष रूप से अधिकार उनका हो जाता था और उस पर अंग्रेज अपने किसी चापलुस प्यादे को बैठा कर उस सारी हजारों लाखो एकड़ जमिन पर अपना अधिकार कर लेते थे और उसका अपने मन माफिक उपयोग करते थे| ऐसे हि एक बहुत बड़े खेत के मैदान पर जो करिब दो लाख एकड़ के करिब था| जिस पर काफि मसक्त के बाद भी अंग्रेज अपना अधिकार नहीं कर पायें थे| उसके पिछे कुछ महत्त्वपूर्ण कारण थे| जिसमें से पहला कारण था कि जमिन का आधा हिस्सा अर्थात करिब एक लाख एकड़ जमिन पर्वत से सट कर विन्ध्य पर्वत की घाटी में थी जो जंगली थी काफी खतरनाक स्थान था जहां पर जाना दिन में भी अत्यधिक दुस्कर था रात में तो जाना और बच कर आना असंभव थ। ऐसे स्थान पर अंग्रेजो और उनके चमचो के लिये जाना और वहां से बच कर निकलना बहुत कठीन कार्य था कयोंकि वह इलाका दलदली था उसमें से निकलने का मार्ग बहुत दुर्गम था वहां उस समय बहुत थोड़ी सी आबादी थी जो वहा के लोकल आदिवासी और वहां का जमिदार जिसका प्रभाव अपने आदमियों पर भगवान के समान था| जिसने अपने प्रभाव और उस जमिन का उपयोग कर के जब अंग्रेजो का हमला उस इलाके पर होता, वहां के क्षेत्रिय निवासी के साथ अंग्रेजो और उनके सिपाही हवलदार चमचो को चकमा दे कर पर्वत की घाटी में जंगली इलाके में जा कर छुप जाते थे| जिस कारण अंग्रेज और उनके सैनिक कई बार उनसे मात खा चुके थे| और कितने सैनिक उस दलदली इलाके में धस कर भुखे प्यासे रहकर दम तोड़ देते थे| जिसकी वजह से वह क्षेत्र अंग्रेजो के लिये अजेय बन गया था| अंग्रेज उस इलाके पर अपना प्रभुत्त्व जमाने के लिये हर प्रकार का सड़यन्त्र निरन्तर नया - नया रचते ही रहते थे| और जिन जमिदार परिवार का उन जमिनो पर एक क्षत्र अधिकार था उनके परिवार के सदस्यों को एक-एक कर वहां के क्षेत्रिय लोगों को जमिन का लालच दे कर निरन्तर हत्या कराते रहते जो भी उस जमिदार परिवार का नया पुरुष उभरता था उसका कुछ समय में हि किसी तरह से हत्या हो जाती थी | वह क्षेत्र जो जमिन का दूसरा हिस्सा एक लाख एकड़ का था | वह उत्तर कि तरफ से गंगा नदि के किनारे से हो कर विन्ध्य पर्वत तक फैला था जो पुरब कि तरफ से पहाड़ और नदी बिलकुल सकरा था जब नदी में बाढ़ आता था तो उस क्षेत्र में आने के सभी मार बन्द हो जाता था उस समय साधन के नाम पर बैल गाड़ी और घोड़ा गाड़ी के अतिरिक्त और तिसरा साधन नाव नदी में चलती थी| बारिष के समय नाव नदी में बहाव के कारण डुबने का खतरा था जिससे बाढ़ के समय नदी में नाव नहीं चलती थी| जमिन का जो दो लाख एकड़ का मैदान है| उसके दक्षिण किनारे से पर्वतो से होकर पतली सड़क दक्षिण से हो कर पश्चिम हिस्से मैदान को एक गोल घेरे में घेरते हुये उत्तर से गंगा नदी के किनारे से होते हुए पुनः पुरब से दक्षिण पर्वत से हो कर मिर्जापुर सहर में प्रवेश करती है| जो आगे चल कर पर्वत से होकर किनारे से वाराणसि से आगे, और दुसरी तरफ लालगंज से होकर जंगली इलाके पर्वत के चढ़ाई के साथ सके रास्ते से उत्तरप्रदेश के छोड़कर मध्यप्रदेश के लिये निकल जाती है| मिर्जापुर सहर विन्ध्य पर्वत के उपर वशा है| वहां से इलहाबाद के लिये निचे मैदान के दक्षिणी सिरे से हो कर गुजरती है|

नदि को पार कर के नदी से करिब चार किलोमिटर की दूरी पर जिटी रोड है जो दिल्ली से कल्कटा को जोडंती है| जब रेलवे लाइन का जाल भारत में नहीं बिछा था यह उस समय कि बात है| क्योंकि जो इलहाबाद और वाराणसी के मध्य रेल्वे स्टेशन बनाया गया ज्ञान पुर और इलहाबाद मुगल सराय के मध्य गैपूरा रेल्वे स्टेशन यह दोनो रेल्वे स्टेशन उस दो लाख एकड़ भुमि के  दो किनारे पर एक दक्षिणी तरफ दूसरा उत्तर में नदी पार कर के बनाया गया है जिसे अंग्रेजो ने जबरजस्ती अपने अत्याचार के दम पर बनाया थ| इसमें आर्यन के पुर्वजो कि बलि चढ़ाया गया है|
इस दो लाख एकड़ भुमि को ब्रह्म पूरा के नाम से जाना जाता है अब इसका नाम करण आर्यन ने ही किया है वह यहां पर एक बिशाल भुमिगत वैदिक विश्वविद्यालय बनाना चाहता है| जो लगभग विस वर्ग किलोमिटर में फैले मैदान में अपनी जमीन पाता है| यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण मुद्दा उसके जिवन का है | यह दो लाख एकड़ का मैदान बहुत ही आश्चर्य और कौतुहल से भरा है| अंग्रेजो के बाद जब भारत आजाद हुआ तो उस जमिन को सब में बाट दिया जो जहां जो व्यक्ती जितने जमिन पर खेती करता था, उसके नाम पर उस विशेष व्यक्ती के कव्जे मे जमिन चली गई| लेकिन लड़ाइया और हत्यायों का सिल-सीलाल आज भी चलता है जिनके पास अधिक जमिन है उनका दब-दबा आज भी उस क्षेत्र पर बरकरार है| काफी समय तक जमिन का आधा भाग जो दल- दल भरा स्थान था वहां पर अब खेती होने लगी एक ही फसल की पैदावार इतनी अधिक होती है, जो कि तिन फसलों के बरा-बर है दुसरे खेत कि तूलना में है, नदी के पानी का कहर आज भी आता है अब लोग उसका उपयोग करना जान गये है| इस जमिन का एक बड़ा हिस्सा एक ऐसे व्यक्ति के कब्जे में है | जो आज भी लोगो की नजर में कांटा की तरह चुभता है| जिसे लोग बैजनाथ के नाम से जानते है उसके नौ पूत्र है सभी कि शादी हो गई है, सबकी पत्निया है और सब की संताने है| और इनका ब्यापार खेती के साथ बड़ी-बड़ी बागवानी का कारोबार पूस्तैनि सब एक साथ मिल कर देखते है | यह कहानी वर्तमान से करिब सौ से १५० साल पहले कि बात है| यह बैजनाथ ब्रह्म पूरा का एक बहुत बड़ा जिमिदार है अर्थात इसके पास आज भी कई हजार एकड़ भुमी है और इसके पास कई गाव कि मालकियत है जो इसके प्रतिद्वन्दियों के लिये बहुत बड़ा चिन्ता का विषय है| एक प्रकार से यह बैजनाथ और इसके पुत्रों का ब्रह्म पूरा के पूरे क्षेत्र में इसकी और इसके नौ बहादूर पहलवानो कि तुती बोलती है| इसका जीवन रहन सहन बिल्कुल राजा महाराज की तरह है| जिसके पास हजारों की संख्या में नौकर दाश दाशी  बहुत सारे घोड़ा हाथी और अपनी रक्षा के लिये सेना कि व्यवस्था है| रहने के लिये बिशाल भुमिगत किला बना रखा है| एक प्रकार से राजाओं के बाद बैजनाथ ने ही इस क्षेत्र पर अपना प्रभुत्त्व जमा लिया है| जिस किले पर अंग्रेज अपना अधिकार नहीं कर सके उस पर भारत सरकार की नजर चढ़ गई है|

इसके सम्बन्ध में प्रकाण्ड विद्वान वेद और संस्कृति के महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में कुछ इस तरह से अपने विचार व्यक्त किये है कि किस प्रकार का आचरण माता और पिता को करना उचित है| और क्या अनुचित है| ईनके बिचारों को भी बिच-बिच में देखते रहेंगे जिससे जिवन का यथार्थ और जीवन को वास्तविक रुप से जिने का तरिका भी ज्ञात होता रहेगा|

ओ३म् भूर्भुवः स्व: । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।।

इस मन्त्र में जो प्रथम (ओ३म्) है उस का अर्थ प्रथमसमुल्लास में कर दिया है, वहीं से जान लेना। अब तीन महाव्याहृतियों के अर्थ संक्षेप से लिखते हैं-‘भूरिति वै प्राणः’ ‘यः प्राणयति चराऽचरं जगत् स भूः स्वयम्भूरीश्वरः’ जो सब जगत् के जीवन का आवमार, प्राण से भी प्रिय और स्वयम्भू है उस प्राण का वाचक होके ‘भूः’ परमेश्वर का नाम है। ‘भुवरित्यपानः’ ‘यः सर्वं दुःखमपानयति सोऽपानः’ जो सब दुःखों से रहित, जिस के संग से जीव सब दुःखों से छूट जाते हैं इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘भुवः’ है। ‘स्वरिति व्यानः’ ‘यो विविधं जगद् व्यानयति व्याप्नोति स व्यानः’ । जो नानाविध जगत् में व्यापक होके सब का धारण करता है इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘स्वः’ है। ये तीनों वचन तैत्तिरीय आरण्यक के हैं। (सवितुः) ‘यः सुनोत्युत्पादयति सर्वं जगत् स सविता तस्य’। जो सब जगत् का उत्पादक और सब ऐश्वर्य का दाता है । (देवस्य) ‘यो दीव्यति दीव्यते वा स देवः’ । जो सर्वसुखों का देनेहारा और जिस की प्राप्ति की कामना सब करते हैं। उस परमात्मा का जो (वरेण्यम्) ‘वर्त्तुमर्हम्’ स्वीकार करने योग्य अतिश्रेष्ठ (भर्गः) ‘शुद्धस्वरूपम्’ शुद्धस्वरूप और पवित्र करने वाला चेतन ब्रह्म स्वरूप है (तत्) उसी परमात्मा के स्वरूप को हम लोग (धीमहि) ‘धरेमहि’ धारण करें। किस प्रयोजन के लिये कि (यः) ‘जगदीश्वरः’ जो सविता देव परमात्मा (नः) ‘अस्माकम्’ हमारी (धियः) ‘बुद्धीः’ बुद्धियों को (प्रचोदयात्) ‘प्रेरयेत्’ प्रेरणा करे अर्थात् बुरे कामों से छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत्त करे।

‘हे परमेश्वर! हे सच्चिदानन्दस्वरूप! हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव! हे अज निरञ्जन निर्विकार! हे सर्वान्तर्यामिन्! हे सर्वाधार जगत्पते सकलजगदुत्पादक! हे अनादे! विश्वम्भर सर्वव्यापिन्! हे करुणामृतवारिधे! सवितुर्देवस्य तव यदों भूर्भुवः स्वर्वरेण्यं भर्गोऽस्ति तद्वयं धीमहि दधीमहि ध्यायेम वा कस्मै प्रयोजना– येत्यत्रह। हे भगवन् ! यः सविता देवः परमेश्वरो भवान्नस्माकं धियः प्रचोदयात् स एवास्माकं पूज्य उपासनीय इष्टदेवो भवतु नातोऽन्यं भवत्तुल्यं भवतोऽधिकं च कञ्चित् कदाचिन्मन्यामहे।

हे मनुष्यो! जो सब समर्थों में समर्थ सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप, नित्य शुद्ध, नित्य बुद्ध, नित्य मुक्तस्वभाव वाला, कृपासागर, ठीक-ठीक न्याय का करनेहारा, जन्ममरणादि क्लेशरहित, आकाररहित, सब के घट-घट का जानने वाला, सब का धर्ता, पिता, उत्पादक, अन्नादि से विश्व का पोषण करनेहारा, सकल ऐश्वर्ययुक्त जगत् का निर्माता, शुद्धस्वरूप और जो प्राप्ति की कामना करने योग्य है उस परमात्मा का जो शुद्ध चेतनस्वरूप है उसी को हम धारण करें। इस प्रयोजन के लिये कि वह परमेश्वर हमारे आत्मा और बुद्धियों का अन्तर्यामीस्वरूप हम को दुष्टाचार अधर्म्मयुक्त मार्ग से हटा के श्रेष्ठाचार सत्य मार्ग में चलावें, उस को छोड़कर दूसरे किसी वस्तु का ध्यान हम लोग नहीं करें। क्योंकि न कोई उसके तुल्य और न अधिक है वही हमारा पिता राजा न्यायाधीश और सब सुखों का देनेहारा है। इस प्रकार गायत्री मन्त्र का उपदेश करके सन्ध्योपासन की जो स्नान,आचमन, प्राणायाम आदि क्रिया हैं सिखलावें। प्रथम स्नान इसलिए है कि जिस से शरीर के बाह्य अवयवों की शुद्धि और आरोग्य आदि होते हैं। इस में प्रमाण-

अद्भिर्गात्रणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति।।
यह मनुस्मृति का श्लोक है।

जल से शरीर के बाहर के अवयव, सत्याचरण से मन, विद्या और तप अर्थात् सब प्रकार के कष्ट भी सह के धर्म ही के अनुष्ठान करने से जीवात्मा, ज्ञान अर्थात् पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों के विवेक से बुद्धि दृढ़-निश्चय पवित्र होता है। इस से स्नान भोजन के पूर्व अवश्य करना। दूसरा प्राणायाम, इसमें प्रमाण-
प्राणायामादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः।।
-यह योगशास्त्र का सूत्र है।

जब मनुष्य प्राणायाम करता है तब प्रतिक्षण उत्तरोत्तर काल में अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाश होता जाता है। जब तक मुक्ति न हो तब तक उसके आत्मा का ज्ञान बराबर बढ़ता जाता है।

भारत सरकार ने बैजनाथ और उसके नौ पूत्रो को मारने के लिये एक बिशाल दमन चक्र चलाया और बैजनाथ के राज्य को नष्ट करके, उसको दूसरें जो सरकार के लिये जासुसी करते थे उनको देने के लिये बैजनाथ के शत्रुओं से मिल कर और सरकारी सेना को उनके साथ कर दिया और एक गोरिल्ला युद्ध करके सरे आम कत्ल करते हुए बैज नाथ कि सेना का सर कलम कर दिया और औरौ बैज नाथ के साथ उसके पुत्र और उनकी औरतो को कत्ल कर दिया| इसके बाद बैजनाथ के भुमिगत किले को नष्ट कर दिया| जब यह सब कुछ हो रह था| उस समय बैज नाथ कि अन्तिम बहु अपने मायके वाराणसी में थी| जब उसे यह समाचार मिला तब यहां मिर्जापुर नहीं आने का फैसला किया और वहीं रह कर जीवन बसर करने लगि|

दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां च यथा मलाः।
तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्।।

यह मनुस्मृति का श्लोक है।

जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्णादि धातुओं का मल नष्ट होकर शुद्ध होते हैं वैसे प्राणायाम करके मन आदि इन्द्रियों के दोष क्षीण होकर निर्मल हो जाते हैं। प्राणायाम की विधि-

प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य। योगसूत्र।

जैसे अत्यन्त वेग से वमन होकर अन्न जल बाहर निकल जाता है वैसे प्राण को बल से बाहर पफ़ेंक के बाहर ही यथाशक्ति रोक देवे। जब बाहर निकालना चाहे तब मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच के वायु को बाहर फ़ेंक दे। जब तक मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच रक्खे तब तक प्राण बाहर रहता है। इसी प्रकार प्राण बाहर अधिक ठहर सकता है। जब गभराहट हो तब धीरे-धीरे भीतर वायु को ले के फिर भी वैसे ही करता जाय जितना सामर्थ्य और इच्छा हो और मन में (ओ३म्) इस का जप करता जाय इस प्रकार करने से आत्मा और मन की पवित्रता और स्थिरता होती है।
एक ‘बाह्यविषय’ अर्थात् बाहर ही अधिक रोकना। दूसरा ‘आभ्यन्तर’ अर्थात् भीतर जितना प्राण रोका जाय उतना रोक के। तीसरा ‘स्तम्भवृत्ति’ अर्थात् एक ही वार जहां का तहां प्राण को यथाशक्ति रोक देना। चौथा ‘बाह्याभ्यन्तराक्षेपी’ अर्थात् जब प्राण भीतर से बाहर निकलने लगे तब उससे विरुद्ध उस को न निकलने देने के लिये बाहर से भीतर ले और जब बाहर से भीतर आने लगे तब भीतर से बाहर की ओर प्राण को धक्का देकर रोकता जाय। ऐसे एक दूसरे के विरुद्ध क्रिया करें तो दोनों की गति रुक कर प्राण अपने वश में होने से मन और इन्द्रियाँ भी स्वाधीन होते हैं। बल पुरुषार्थ बढ़ कर बुद्धि तीव्र सूक्ष्मरूप हो जाती है कि जो बहुत कठिन और सूक्ष्म विषय को भी शीघ्र ग्रहण करती है। इस से मनुष्य शरीर में वीर्य्य वृद्धि को प्राप्त होकर स्थिर, बल, पराक्रम, जितेन्द्रियता, सब शास्त्रें को थोड़े हीे काल में समझ कर उपस्थित कर लेगा। स्त्री भी इसी प्रकार योगाभ्यास करे। भोजन, छादन, बैठने, उठने, बोलने, चालने, बड़े छोटे से यथायोग्य व्यवहार करने का उपदेश करें। सन्ध्योपासन जिसको ब्रह्मयज्ञ भी कहते हैं। ‘आचमन’ उतने जल को हथेली में ले के उस के मूल और मध्यदेश में ओष्ठ लगा के करे कि वह जल कण्ठ के नीचे हृदय तक पहुंचे, न उससे अधिक न न्यून। उससे कण्ठस्थ कफ और पित्त की निवृत्ति थोड़ी सी होती है। पश्चात् ‘मार्जन’ अर्थात् मध्यमा और अनामिका अंगुली के अग्रभाग से नेत्रदि अंगों पर जल छिड़के, उस से आलस्य दूर होता है जो आलस्य और जल प्राप्त न हो तो न करे। पुनः समन्त्रक प्राणायाम,मनसापरिक्रमण, उपस्थान, पीछे परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना की रीति शिखलावे। पश्चात् ‘अघमर्षण’ अर्थात् पाप करने की इच्छा भी कभी न करे। यह सन्ध्योपासन एकान्त देश में एकाग्रचित्त से करे।

   इधर बैजनाथ के जो शत्रु थे वह सब उसकी सम्पत्ती को जो पहले ललचाई नजरों से देखते थे| उनकी तो जैसे चानी हो गई उनके पास बहुत बड़ी मालकियत आ गई | लेकिन जब उन्हे यह ज्ञात हुआ की बैजनाथ कि आखिरी बहु जीन्दा है तो उनको लगा कि उनके किये धिये पर पानी फिरने वाला है| ब्रह्म पुरा में बैजनाथ का बड़ा शत्रु था वह उस क्षेत्र का मूखिया सरपंच जो सरकारी मुलाजिम था जिसके सहारे ही अंग्रजों कि भारतिय सरकार ने बैजनाथ के सामराज्य को बर्बाद किया था| उसके बाद सरकार ने बैजु कि कुल जमिन का ५० प्रतिशत अपने सैनिकों दे कर वही वशा दिया| और उस पुरे क्षेत्र को नक्सलाइट जंगली हिन्सा प्रभावित क्षेत्र घोसित कर दिया| जो जमिदारों के बिच लड़ाई झगड़ा को कम करने उसे रोकने के उद्देश से वहां पर रह कर सिहं जाती के नाम से प्रचलित हुय जो नक्सलाइट इलाके में रहकर सरकार का अपना अधिपत्य कराने में उन सब का उपयोग हमेंसा लिया जाता है, वह सब आज भी ब्रह पुरा के स्थाई निवासी बन कर रहते है , और वह क्षेत्र आज भी नक्सल प्रभावित क्षेत्र माना जाता है| पहले लड़ाईया जमिनों के लिये आपस में बाहुबली जिमदारों की आमने सामने होती थी, लेकिन अब सब कुछ छुप कर रात्री के समय छल कपट गृह युद्ध छद्मवेष में रह किया जाता है|

अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः।
सावित्रीमप्यधीयीत गत्वारण्यं समाहितः।। यह मनुस्मृति का वचन है।

जंगल में अर्थात् एकान्त देश में जा सावधान हो के जल के समीप स्थित हो के नित्य कर्म को करता हुआ सावित्री अर्थात् गायत्री मन्त्र का उच्चारण अर्थज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल चलन को करे परन्तु यह जन्म से करना उत्तम है। दूसरा देवयज्ञ-जो अग्निहोत्र और विद्वानों का संग सेवादिक से होता है। सन्ध्या और अग्निहोत्र सायं प्रातः दो ही काल में करे। दो ही रात दिन की सन्धिवेला हैं, अन्य नहीं। न्यून से न्यून एक घण्टा ध्यान अवश्य करे। जैसे समाधिस्थ होकर योगी लोग परमात्मा का ध्यान करते हैं वैसे ही सन्ध्योपासन भी किया करें। यथा सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त के पूर्व अग्निहोत्र करने का भी समय है। उसके लिए एक किसी धातु वा मिट्टी की ऊपर १२ वा १६ अंगुल चौकोर उतनी ही गहिरी और नीचे ३ वा ४ अंगुल परिमाण से वेदी इस प्रकार बनावे अर्थात् ऊपर जितनी चौड़ी हो उसकी चतुर्थांश नीचे चौड़ी रहे। उसमें चन्दन पलाश वा आम्रादि के श्रेष्ठ काष्ठों के टुकड़े उसी वेदी के परिमाण से बड़े छोटे करके उस में रक्खे, उसके मध्य में अग्नि रखके पुनः उस पर समिधा अर्थात् पूर्वोक्त इन्धन रख दे। एक प्रोक्षणीपात्र ऐसा और तीसरा प्रणीतापात्र इस प्रकार का और एक इस प्रकार की आज्यस्थाली अर्थात् घृत रखने का पात्र और चमसा ऐसा सोने, चांदी वा काष्ठ का बनवा के प्रणीता और प्रोक्षणी में जल तथा घृतपात्र में घृत रख के घृत को तपा लेवे। प्रणीता जल रखने और प्रोक्षणी इसलिये है कि उस से हाथ धोने को जल लेना सुगम है। पश्चात् उस घी को अच्छे प्रकार देख लेवे फिर मन्त्र से होम करें।

ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा। स्वरादित्याय
व्यानाय स्वाहा। भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।।

इत्यादि अग्निहोत्र के प्रत्येक मन्त्र को पढ़ कर एक-एक आहुति देवे और जो अधिक आहुति देना हो तो-

विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासवु । यद्भद्रं तन्न आ सवु ।।

इस मन्त्र और पूर्वोक्त गायत्री मन्त्र से आहुति देवे। ‘ओं’ ‘भूः’ और ‘प्राणः’ आदि ये सब नाम परमेश्वर के हैं। इनके अर्थ कह चुके हैं। ‘स्वाहा’ शब्द का अर्थ यह है कि जैसा ज्ञान आत्मा में हो वैसा ही जीभ से बोले, विपरीत नहीं। जैसे परमेश्वर ने सब प्राणियों के सुख के अर्थ इस सब जगत् के पदार्थ रचे हैं वैसे मनुष्यों को भी परोपकार करना चाहिये।
(प्रश्न) होम से क्या उपकार होता है?

(उत्तर) सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है।
(प्रश्न) चन्दनादि घिस के किसी को लगावे वा घृतादि खाने को देवे तो बड़ा उपकार हो। अग्नि में डाल के व्यर्थ नष्ट करना बुद्धिमानों का काम नहीं।

(उत्तर) जो तुम पदार्थविद्या जानते तो कभी ऐसी बात न कहते। क्योंकि किसी द्रव्य का अभाव नहीं होता। देखो! जहां होम होता है वहां से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है वैसे दुर्गन्ध का भी। इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म हो के फैल के वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है।
(प्रश्न) जब ऐसा ही है तो केशर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और अतर आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा।
(उत्तर) उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि गृहस्थ वायु को बाहर निकाल कर शुद्ध वायु को प्रवेश करा सके क्योंकि उस में भेदक शक्ति नहीं है और अग्नि ही का सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके बाहर निकाल कर पवित्र वायु को प्रवेश करा देता है।
(प्रश्न) तो मन्त्र पढ़ के होम करने का क्या प्रयोजन है?
(उत्तर) मन्त्रें में वह व्याख्यान है कि जिससे होम करने में लाभ विदित हो जायें और मन्त्रें की आवृत्ति होने से कण्ठस्थ रहें। वेदपुस्तकों का पठन-पाठन और रक्षा भी होवे।
(प्रश्न) क्या इस होम करने के विना पाप होता है?
(उत्तर) हां ! क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर से जितना दुर्गन्ध उत्पन्न हो के वायु और जल को बिगाड़ कर रोगोत्पत्ति का निमित्त होने से प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है। इसलिये उस पाप के निवारणार्थ उतना सुगन्ध वा उससे अधिक वायु और जल में फैलाना चाहिये। और खिलाने पिलाने से उसी एक व्यक्ति को सुख विशेष होता है। जितना घृत और सुगन्धादि पदार्थ एक मनुष्य खाता है उतने द्रव्य के होम से लाखों मनुष्यों का उपकार होता है परन्तु जो मनुष्य लोग घृतादि उत्तम पदार्थ न खावें तो उन के शरीर और आत्मा के बल की उन्नति न हो सके, इस से अच्छे पदार्थ खिलाना पिलाना भी चाहिये परन्तु उससे होम अधिक करना उचित है इसलिए होम का करना अत्यावश्यक है।
(प्रश्न) प्रत्येक मनुष्य कितनी आहुति करे और एक-एक आहुति का कितना परिमाण है?
(उत्तर) प्रत्येक मनुष्य को सोलह–सोलह आहुति और छः–छः माशे घृतादि एक–एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिये और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है। इसीलिये आर्यवरशिरोमणि महाशय ऋषि, महर्षि, राजे, महाराजे लोग बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाय। ये दो यज्ञ अर्थात् ब्रह्मयज्ञ जो पढ़ना-पढ़ाना सन्ध्योपासन ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करना, दूसरा देवयज्ञ जो अग्निहोत्र से ले के अश्वमेध पर्यन्त यज्ञ और विद्वानों की सेवा संग करना परन्तु ब्रह्मचर्य में केवल ब्रह्मयज्ञ और अग्निहोत्र का हीे करना होता है।
ब्राह्मणस्त्रयाणां वर्णानामुपनयनं कर्तुमर्हति राजन्यो द्वयस्य वैश्यो
वैश्यस्यैवेति। शूद्रमपि कुलगुणसम्पन्नं मन्त्रवर्जमनुपनीतमध्यापयेदित्येके।
यह सुश्रुत के सूत्रस्थान के दूसरे अध्याय का वचन है। ब्राह्मण तीनों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, क्षत्रिय; क्षत्रिय और वैश्य तथा वैश्य एक वैश्य वर्ण को यज्ञोपवीत कराके पढ़ा सकता है और जो कुलीन शुभलक्षणयुक्त शूद्र हो तो उस को मन्त्रसंहिता छोड़ के सब शास्त्र पढ़ावे । शूद्र पढ़े परन्तु उस का उपनयन न करे यह मत अनेक आचार्यों का है। पश्चात् पांचवें वा आठवें वर्ष से लड़के लड़कों की पाठशाला में और लड़की लड़कियों की पाठशाला में जावें। और निम्नलिखिनियम-पूर्वक अध्ययन का आरम्भ करें|
  मुखिया जिसका वास्तविक नाम सुखनन्दन था लोग उसे मुखिया बाद में कहने लगे सम्मान की दृष्टि से उसका कोई नाम नहीं लेता था लोग उसे मुखिया ही कहते थे |उस को भी कुछ जमिन मिली सरकार कि सहायता करने के लिये, लेकिन वह इससे प्रशन्न नहीं हुआ वह चाहता था कि उसे बैजु की और जमिने मिले जिसके लिये वह एक नया सड़यन्त्र रचता है| वह चाहता है बैजनाथ जो मरने के बाद बैजु नाम से प्रसिद्ध हुआ उसकी बहु जो मायके में है, उससे वह अपने दो लड़को मुरली धर और विद्या धर में से एक बड़े लड़के मुरली धर कि शादि  करा दे जिसके लिये उसने अपने बड़े लड़के पर दबाव डालने लगा और उसे तरह- तरह कि यातनाये देने लगा| क्योंकि मुरली धर बैजु कि बहु से शादी नही करना चाहता था वह अपने पिता के निच कर्म और इस गन्दे कार्य में सहयोग नही देना चाहता था| और बैजु कि बहु को वह अच्छी तरह से जानता था कि वह उससे बहुत बड़ी और काफी समझ दार है जो उसके मां तुल्य है| जिसके लिये वह  अपने बाप के खिलाफ हो गया था| मुखिया उससे अन्दर ही अन्दर नफरत करता था| मुरलि धर एक बार मुखिया की बहु सुमित्रा के मायके में गया और उससे मिल कर अपना सारा दुखड़ और अपने बाप के कुकृत्यो का बखान करके सुमित्रा का हृदय जित लिया| सुमित्रा के पास कोई नहीं था जो उसके ससुराल की सम्पत्तीयों कि देख भाल कर सके जिसके लिये मुरलि धर काफी उपयुक्त था| लकिन वह भी मुरली धर से शादि के खिलाफ थी क्योंकि उसने मुरलि धर को जब वह छोटा था उसको अपने गोद में खिलाया था समय के साथ सब कुछ बदल गया था अब वह बिवाह नहीं करना चाहती थी| लेकिन उसने मुरली धर को अपना बेटा बना कर उसको गोद ले लिया और उसकी अपने परिचित के एक सज्जन कि लड़की से बिवाह कर कर अपनि सारी सम्पत्ती ब्रह्म पूरा की उसको देखभाल के लिये दे दिया| और वह स्वयं अपने भाई अयोद्धा प्रशाद के यहां रह कर अपना सारे करो बार पर नजर रखती थी|
षट्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवैदिकं व्रतम्।तदिर्धकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा।। मनु०।।अर्थ-आठवें वर्ष से आगे छत्तीसवें वर्ष पर्यन्त अर्थात् एक-एक वेद के सांगोपांग पढ़ने में बारह-बारह वर्ष मिल के छत्तीस और आठ मिल के चवालीस अथवा अठारह वर्षों का ब्रह्मचर्य और आठ पूर्व के मिल के छब्बीस वा नौ वर्ष तथा जब तक विद्या पूरी ग्रहण न कर लेवे तब तक ब्रह्मचर्य रक्खे।पुरुषो वाव यज्ञस्तस्य यानि चतुर्विँ्शति वर्षाणि तत्प्रातःसवनं चतुर्विंश– त्यक्षरा गायत्री गायत्रं प्रातःसवनं तदस्य वसवोऽन्वायत्ताः प्राणा वाव वसव एते हीदँ् सर्वं वासयन्ति।।१।।
तञ्चेदेतस्मिन् वयसि किञ्चिदुपतपेत्स ब्रूयात्प्राणा वसव इदं मे प्रातः– सवनं माध्यन्दिनँ् सवनमनुसन्तनुतेति माहं प्राणानां वसूनां मध्ये यज्ञो विलोप्सी– येत्युद्धैव तत एत्यगदो ह भवति।।२।।
अथ यानि चतुश्चत्वारिँ्शद्वर्षाणि तन्माध्यन्दिनँ्सवनं चतुश्चत्वा– रिंशदक्षरा त्रिष्टुप् त्रैष्टुभं माध्यन्दिनँ्सवनं तदस्य रुद्रा अन्वायत्ताः प्राणा वाव रुद्रा एते हीदँ्सर्वं रोदयन्ति।।३।।
तं चेदेतस्मिन्वयसि किञ्चिदुपतपेत्स ब्रूयात्प्राणा रुद्रा इदं मे माध्यन्दिनँ्– सवनं तृतीयसवनमनुसन्तनुतेति माहं प्राणाना रुद्राणां मध्ये यज्ञो विलोप्सी– येत्युद्धैव तत एत्यगदो ह भवति।।४।।
अथ यान्यष्टाचत्वारिंशद्वर्षाणि तत्तृतीयसवनमष्टाचत्वारिँ्शदक्षरा जगती जागतं तृतीयसवनं तदस्यादित्या अन्वायत्ताः प्राणा वावादित्या एते हीदँ्सर्वमाददते।।५।।
तं चेदेतस्मिन् वयसि किञ्चिदुपतपेत्स ब्रूयात् प्राणा आदित्या इदं मे तृतीयसवनमायुरनुसन्तनुतेति माहं प्राणानामादित्यानां मध्ये यज्ञो विलोप्सी– येत्युद्धैव तत एत्यगदो हैव भवति।।६।। -यह छान्दोग्योपनिषत् का वचन है।
ब्रह्मचर्य तीन प्रकार का होता है कनिष्ठ-जो पुरुष अन्नरसमय देह और पुरि अर्थात् देह में शयन करने वाला जीवात्मा, यज्ञ अर्थात् अतीव शुभगुणों से संगत और सत्कर्त्तव्य है इस को अवश्य है कि २४ वर्ष पर्यन्त जितेन्द्रिय अर्थात् ब्रह्मचारी रह कर वेदादि विद्या और सुशिक्षा का ग्रहण करे और विवाह करके भी लम्पटता न करें तो उसके शरीर में प्राण बलवान् होकर सब शुभगुणों के वास कराने वाले होते हैं।।१।। इस प्रथम वय में जो उस को विद्याभ्यास में सन्तप्त करे और वह आचार्य वैसा ही उपदेश किया करे और ब्रह्मचारी ऐसा निश्चय रक्खे कि जो मैं प्रथम अवस्था में ठीक-ठीक ब्रह्मचर्य से रहूँगा तो मेरा शरीर और आत्मा आरोग्य बलवान् होके शुभगुणों को बसाने वाले मेरे प्राण होंगे। हे मनुष्यो तुम इस प्रकार से सुखों का विस्तार करो, जो मैं ब्रह्मचर्य का लोप न करू।।२४ वर्ष के पश्चात् गृहाश्रम करूंगा तो प्रसिद्ध है कि रोगरहित रहूँगा और आयु भी मेरी ७० वा ८० वर्ष होगी।।२।।
मध्यम ब्रह्मचर्य-यह है जो मनुष्य ४४ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रह कर वेदाभ्यास करता है उसके प्राण, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण और आत्मा बलयुक्त होके सब दुष्टों को रुलाने और श्रेष्ठों का पालन करनेहारे होते हैं।।३।। जो मैं इसी प्रथम वय में जैसा आप कहते हैं कुछ तपश्चर्या करूं तो मेरे ये रुद्ररूप प्राणयुक्त यह मध्यम ब्रह्मचर्य सिद्ध होगा। हे ब्रह्मचारी लोगो! तुम इस ब्रह्मचर्य को बढ़ाओ। जैसे मैं इस ब्रह्मचर्य का लोप न करके यज्ञस्वरूप होता हूँ और उसी आचार्यकुल से आता और रोगरहित होता हूँ जैसा कि यह ब्रह्मचारी अच्छा काम करता है वैसा तुम किया करो।।४।।
उत्तम ब्रह्मचर्य-जव वर्ष पर्यन्त का तीसरे प्रकार का होता है। जैसे ४८ अक्षर की जगती वैसे जो ४८ वर्ष पर्यन्त यथावत् ब्रह्मचर्य करता है उसके प्राण अनुकूल होकर सकल विद्याओं का ग्रहण करते हैं।।५।। आचार्य और माता पिता अपने सन्तानों को प्रथम वय में विद्या और गुणग्रहण के लिये तपस्वी कर और उसी का उपदेश करें और वे सन्तान आप ही आप अखण्डित ब्रह्मचर्य सेवन से तीसरे उत्तम ब्रह्मचर्य का सेवन करके पूर्ण अर्थात् चार सौ वर्ष पर्यन्त आयु को बढ़ावें वैसे तुम भी बढ़ाओ। क्योंकि जो मनुष्य इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर लोप नहीं करते वे सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होते हैं।।६।।
चतस्रोऽवस्थाः शरीरस्य वृद्धिर्यौवनं सम्पूर्णता किञ्चित्परिहाणिश्चेति।
आषोडशाद् वृद्धिः। आपञ्चविशतेर्यौवनम्। आचत्वारिशतः सम्पूर्णता। ततः किञ्चित्परिहाणिश्चेति।
पञ्चविशे ततो वर्षे पुमान् नारी तु षोडशे।
समत्वागतवीर्यौ तौ जानीयात्कुशलो भिषक्।।
-यह सुश्रत के शरीरस्थान का वचन है।
इस शरीर की चार अवस्था हैं। एक (वृद्धि) जो १६वें वर्ष से लेके २५वें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की बढ़ती होती है। दूसरा (यौवन) जो २५ वें वर्ष के अन्त और २६वें वर्ष के आदि में युवावस्था का आरम्भ होता है। तीसरी (सम्पूर्णता) जो पच्चीसवें वर्ष से लेके चालीसवें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की पुष्टि होती है। चौथी (किि ञ्चत्परिहाणि) तब सब सांगोपांग शरीरस्थ सकल धातु पुष्ट होके पूर्णता को प्राप्त होते हैं। तदनन्तर जो धातु बढ़ता है वह शरीर में नहीं रहता, किन्तु स्वप्न, प्रस्वेदादि द्वारा बाहर निकल जाता है वही ४० वां वर्ष उत्तम समय विवाह का है अर्थात् उत्तमोत्तम तो अड़तालीसवें वर्ष में विवाह करना।
मुखिया जो अब बैजु के बाद सबसे ताकत वर और क्षेत्र में सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति के रूप में उभरा | उसके पास वह सब कुछ था जिसको एक बड़ा आदमी पुराने समय में मानते थे कई सो एकड़ भुमि नौकर चाकर हाथी घड़े  इत्यादि फिर भी वह मुरलि का शत्रु बन गया था| जब उसे पता चला कि मुरली बैजु की समपत्ती की देख भाल करता है और उसमें से अपने भाई विद्या धर और अपने बाप को कुछ भी नहीं देता है| जबकि मुखिया उस पर अपना अधिकार चाहता था | मुखिया काफी ताकत वर था उसने ६० साल की उम्र में जब अपनी पत्नी और मुरलिधर, विद्या धर की मां को मुरलीधर के घर भेजा| क्योंकि मुरलिधर अब पुराने गांव की बैजु की हवेली जो वैजू ने अपनी बहु सुमित्रा को मुह दिखाई मे दिया था| सुमित्रा तो वहां रहती नहीं थी उसनें यह हवेलि मुरलिधर को दे दिया था| जब मुखिया ने अपने घर से बेदखल कर दिया था | क्योकि मुरलि ने उसके खिलाफ हो कर अपना बिवाह कर लिया था| अब मुरली अपनि पत्नी शर्मिला और चार बेटे माता शंकर, हरिशंकर, रमाशंकर, दयाशंकर, और एक बेटी करुणा के साथ उसमें रहता था| जहां पर समझाने के लिये उसकी मां गई और उसने कहा कि वह अपने भाई विद्या धर को भी जमिन पर कब्जा दे, और बैजु कि समपत्ती मे अपने भाई को भी समान हिस्सा में बटवारा करें | लेकिन वह अपनी मां को यह कह कर मुरलि धर ने वापिस लौटा दिया, कि अभी तो यह सारी जमिन सुमित्रा मां कि है उनके मर्जी के खिलाफ मै कुछ नहीं कर सकता मुझे माफ करो| यह सुन कर उसकी मां शकुन्तला अपने घर वापिस आ गई|  और सब कुछ मुखिया से बताया जिससे मुखिया बहुत अधिक क्रोधित हो गया और आपे से बाहर हो कर बहुत अधिक मार दिया अपनी पत्नी शकुन्तला को रात्री का समय था कोई घर पर उस समय नही था| विद्या धर भी उस समय अनाज कि विक्री हुई थी उसके पैसै के लिये व्यापारी से पैसे लेने के लिये शहर गया था| जब वह शहर से वापिस आया और अपनी मां को दयनिय हालत में देख कर जो अब बिस्तर पर काफी बिमार थी| जिसके लिये उसने वैद्य को बुलाया लेकिन बिमारी गहरी होती गई, जिसके कारण कुछ महिने में वह इस नस्वर संसार से एक दिन सुबह वह प्रस्थान कर गई|
(प्रश्न) क्या यह ब्रह्मचर्य का नियम स्त्री वा पुरुष दोनों का तुल्य ही है।
(उत्तर) नहीं, जो २५ वर्ष पर्यन्त पुरुष ब्रह्मचर्य करें तो १६ वर्ष पर्यन्त कन्या। जो पुरुष तीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रहै तो स्त्री १७ वर्ष, जो पुरुष छत्तीस वर्ष तक रहै तो स्त्री १८ वर्ष, जो पुरुष ४० वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य करे तो स्त्री २० वर्ष, जो पुरुष ४४ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य करे तो स्त्री २२ वर्ष, जो पुरुष ४८ वर्ष ब्रह्मचर्य करे तो स्त्री २४ चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य सेवन रक्खें अर्थात् ४८ वें वर्ष से आगे पुरुष और २४ वें वर्ष से आगे स्त्री को ब्रह्मचर्य न रखना चाहिये परन्तु यह नियम विवाह करने वाले पुरुष और स्त्रियों का है जो विवाह करना ही न चाहैं वे मरणपर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकते हों तो भले हीे रहैं परन्तु यह काम पूर्ण विद्या वाले जितेन्द्रिय और निर्दोष योगी स्त्री और पुरुष का है। यह बड़ा कठिन काम है कि जो काम के वेग को थाम के इन्द्रियों को अपने वश में रखना।
ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च। सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च। तपश्च
स्वाध्यायप्रवचने च। दमश्च स्वाध्यायप्रवचने च। शमश्च स्वाध्यायप्रवचने च।
अग्नयश्च स्वाध्यायप्रवचने च। अग्निहोत्रं च स्वाध्यायप्रवचने च। अतिथयश्च
स्वाध्यायप्रवचने च। मानुषं च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रजा च स्वाध्यायप्रवचने
च। प्रजनश्च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रजातिश्च स्वाध्यायप्रवचने च।
-यह तैत्तिरीयोपनिषत् का वचन है।
ये पढ़ने पढ़ाने वालों के नियम हैं। (ऋतं०) यथार्थ आचरण से पढ़ें और पढ़ावें, (सत्यं०) सत्याचार से सत्यविद्याओं को पढ़ें वा पढ़ावें, (तपः०) तपस्वी अर्थात् धर्मानुष्ठान करते हुए वेदादि शास्त्रें को पढ़ें और पढ़ावें, (दमः०) बाह्य इन्द्रियों को बुरे आचरणों से रोक के पढ़ें और पढ़ाते जायें, (शमः०) अर्थात् मन की वृत्ति को सब प्रकार के दोषों से हटा के पढ़ते पढ़ाते जायें, (अग्नयः०)
आहवनीयादि अग्नि और विद्युत् आदि को जान के पढ़ते पढ़ाते जायें, और (अग्निहोत्रं०) अग्निहोत्र करते हुए पठन और पाठन करें करावें, (अतिथयः०)
अतिथियों की सेवा करते हुए पढ़ें और पढ़ावें, (मानुषं०) मनुष्यसम्बन्धी व्यवहारों को यथायोग्य करते हुए पढ़ते पढ़ाते रहैं, (प्रजा०) अर्थात् सन्तान और राज्य का पालन करते हुए पढ़ते पढ़ाते जायें, (प्रजन०) वीर्य की रक्षा और वृद्धि करते हुए पढ़ते पढ़ाते जायें, (प्रजातिः०) अर्थात् अपने सन्तान और शिष्य का पालन करते हुए पढ़ते पढ़ाते जायें।
यमान् सेवेत सततं न नियमान् केवलान् बुधः।
यमान्पतत्यकुर्वाणो नियमान् केवलान् भजन्।। मनु०।।
यम पांच प्रकार के होते हैं-
तत्रहिसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।। योगसूत्र।।
अर्थात् (अहिसा) वैरत्याग, (सत्य) सत्य मानना, सत्य बोलना और सत्य ही करना, (अस्तेय) अर्थात् मन वचन कर्म से चोरीत्याग, (ब्रह्मचर्य) अर्थात् उपस्थेन्द्रिय का संयम, (अपरिग्रह) अत्यन्त लोलुपता स्वत्वाभिमानरहित होना, इन पांच यमों का सेवन सदा करें । केवल नियमों का सेवन अर्थात्-
शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।। योगसूत्र।।
(शौच) अर्थात् स्नानादि से पवित्रता (सन्तोष) सम्यक् प्रसन्न होकर निरुद्यम रहना सन्तोष नहीं किन्तु पुरुषार्थ जितना हो सके उतना करना, हानि लाभ में हर्ष वा शोक न करना (तप) अर्थात् कष्टसेवन से भी धर्मयुक्त कर्मों का अनुष्ठान (स्वाध्याय) पढ़ना पढ़ाना (ईश्वरप्रणिधान) ईश्वर की भक्तिविशेष में आत्मा को अर्पित रखना, ये पांच नियम कहाते हैं। यमों के विना केवल इन नियमों का सेवन न करे किन्तु इन दोनों का सेवन किया करे। जो यमों का सेवन छोड़ के केवल नियमों का सेवन करता है वह उन्नति को नहीं प्राप्त होता किन्तु अधोगति अर्थात् संसार में गिरा रहता है।
कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहस्त्यकामता।
काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः।। मनु०।।
अर्थ-अत्यन्त कामातुरता और निष्कामता किसी के लिये भी श्रेष्ठ नहीं, क्योंकि जो कामना न करे तो वेदों का ज्ञान और वेदविहित कर्मादि उत्तम कर्म किसी से न हो सकें। इसलिये-
स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।
महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः।। मनु०।।
अर्थ-(स्वाध्याय) सकल विद्या पढ़ते-पढ़ाते (व्रत) ब्रह्मचर्य्य सत्यभाषणादि नियम पालने (होम) अग्निहोत्रदि होम, सत्य का ग्रहण असत्य का त्याग और सत्य विद्याओं का दान देने (त्रैविद्येन) वेदस्थ कर्मोपासना ज्ञान विद्या के ग्रहण (इज्यया) पक्षेष्ट्यादि करने (सुतैः) सुसन्तानोत्पत्ति (महायज्ञैः) ब्रह्म, देव, पितृ, वैश्वदेव और अतिथियों के सेवनरूप पञ्चमहायज्ञ और (यज्ञैः) अग्निष्टोमादि तथा शिल्पविद्याविज्ञानादि यज्ञों के सेवन से इस शरीर को ब्राह्मी अर्थात् वेद और परमेश्वर की भक्ति का आधाररूप ब्राह्मण का शरीर बनता है। इतने साधनों के विना ब्राह्मणशरीर नहीं बन सकता।
  मुखिया ने थोड़े समय जब रिस्ते विद्याधर के विवाह के आने लगे, जिससे वह उसकी शादी कर दि और कुछ साल में विद्या धर के भी चार पुत्र हुये एक पुत्र सुबेदार, पहली पत्नी से उसके बाद दुसरी पत्नी से और केशव, बुटी, हीरा लाल और दो पुत्रीयां हो गई जिससे विद्या धर ने भी ने अपने पिता मुखिया से दर किनारा कर लिया उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दैता था वह अपने परिवार में हि खोया रहता था| यह बात मुखिया को पसन्द नहीं आती थी, इसलिये उसने भी अपनी दूसरी शादी ६५ साल कि अवस्था में कि जिससे उसने बहुत बहादुर ताकत वर चार पुत्र और दो पुत्रियों को पैदा किया| और विद्या धर को अपनी जमीन का कुछ हिस्सा दे कर अपने से अलग कर दिया| और सड़यन्त्र करा कर के मात्र ३५ साल की उम्र में मुरली धर की हत्या करा दिया| तब तक मुरली के चार लड़के छोटे थे वह सब कुछ देख भाल नहीं कर सकते सारी बैजु की सम्पत्ती की इसलिये मुखिया उन सब की देखभाल परोक्ष रूप से करने वाला बन कर एक बार पुनः ब्रह्म पूरा में हाबी हो गयां अपने आताताई चार पुत्रों की सहयाता से जिसके साथ चार पुत्र मुरली के भी हो गये और चार विद्या धर के इस तरह से बारह युवा थे सब एक से बढ़ कर एक शुरमा और योद्धा किस्म के पुरुष थे| जिसमें मुखिया चार पुत्र और आठ उसके दो पुत्रो के पुत्र थे| इस तरह से एक बार पुरा ब्रह्म पूरा क्षेत्र पर मुखिया का एक क्षत्र प्रभुत्त्व हो गया जैसा कि मुखिया चाहता था लेकिन अभी बैजु कि जमिन पर नाम उसकी बहु सुमित्रा का ही बोलता था|
इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु ।
संयमे यत्नमातिष्ठेद्विद्वान् यन्तेव वाजिनाम्।। मनु॰।।
अर्थ-जैसे विद्वान् सारथि घोड़ों को नियम में रखता है वैसे मन और आत्मा को खोटे कामों में खैंचने वाले विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के निग्रह में प्रयत्न सब प्रकार से करें। क्योंकि-
इन्द्रियाणां प्रसंगेन दोषम् ऋच्छत्यसंशयम् ।
सन्नियम्य तु तान्येव ततः सिद्धि नियच्छति।। मनु०।।
अर्थ-जीवात्मा इन्द्रियों के वश होके निश्चित बड़े-बड़े दोषों को प्राप्त होता है और जब इन्द्रियों को अपने वश में करता है तभी सिद्धि को प्राप्त होता है।
वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।
न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धि गच्छन्ति कर्हिचित्।। मनु०।।
जो दुष्टाचारी-अजितेन्द्रिय पुरुष हैं उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को नहीं प्राप्त होते।
वेदोपकरणे चैव स्वाध्याये चैव नैत्यके।
नानुरोधोऽस्त्यनध्याये होममन्त्रेषु चैव हि।।१।। मनु०।।
नैत्यके नास्त्यनध्यायो ब्रह्मसत्रं हि तत्स्मृतम्।
ब्रह्माहुतिहुतं पुण्यम् अनध्यायवषट्कृतम्।।२।। मनु०।।
वेद के पढ़ने-पढ़ाने, सन्ध्योपासनादि पञ्चमहायज्ञों के करने और होममन्त्रें में अनध्यायविषयक अनुरोध (आग्रह) नहीं है क्योंकि।।१।। नित्यकर्म में अनध्याय नहीं होता। जैसे श्वासप्रश्वास सदा लिये जाते हैं बन्ध नहीं किये जाते वैसे नित्यकर्म प्रतिदिन करना चाहिये; न किसी दिन छोड़ना क्योंकि अनध्याय में भी अग्निहोत्रदि उत्तम कर्म किया हुआ पुण्यरूप होता है। जैसे झूठ बोलने में सदा पाप और सत्य बोलने में सदा पुण्य होता है। वैसे हीे बुरे कर्म करने में सदा अनध्याय और अच्छे कर्म करने में सदा स्वाध्याय ही होता है।।२।।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्द्धन्त आयुर्विद्या यशो बलम्।। मनु०।।
जो सदा नम्र सुशील विद्वान् और वृद्धों की सेवा करता है, उसका आयु, विद्या, कीर्ति और बल ये चार सदा बढ़ते हैं और जो ऐसा नहीं करते उनके आयु आदि चार नहीं बढ़ते।
अहिसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम्।
वाक् चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता।।१।।
यस्य वाङ्मनसे शुद्धे सम्यग्गुप्ते च सर्वदा।
स वै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपगतं फलम्।।२।। मनु०।।
विद्वान् और विद्यार्थियों को योग्य है कि वैरबुद्धि छोड़ के सब मनुष्यों के कल्याण के मार्ग का उपदेश करें और उपदेष्टा सदा मधुर सुशीलतायुक्त वाणी बोले। जो धर्म की उन्नति चाहै वह सदा सत्य में चले और सत्य हीे का

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