उक्त जल किस प्रकार का है अथवा इन्द्र और वृत्र का युद्ध कैसे होता है इसका भाव अगले मंत्र में किया गया है।
ओ३म् युष्माऽइन्द्रोवृणीत वृत्रतूर्ये यूयमिन्द्रमवृणीध्वं वृत्रतूर्ये प्रोक्षिता स्थ। अग्नये त्वा जुष्टं प्रोक्षाम्यग्नीषोमाभ्यां त्वा जुष्टं प्रोक्षामि। दैव्याय कर्मणे शुन्धध्वं देवयज्यायै यद्वोऽशुद्धाः पराजघ्नुरिदं वस्तच्छुन्धामि।। १३।।
पदार्थः- यह जै से (इन्द्रः) सूर्य्यलोक
(वृत्रतूर्य्य) मेघ के वध करने कके लिए (युष्माः) पूर्वोक्त जलों को (अवृणीत)
स्विकार करता है। जैसे जल (इन्द्रम्) वायु को (अवृणीध्वम्) स्विकार करते है वैसे
ही (युवम्) हे मनुष्यों ! तुम लोग उन जल औषधि रसों को शुद्ध करने के लिए
(वृत्रतूर्य्ये) मेघ के शिघ्र वेग में (प्रोक्षिताः) संसारी पदार्थों को सिचने
वाले जलों को (अवृणीध्वम्) स्विकार करो जैसे और जैसे जल शुद्धि (स्थ) होते है वैसे तुम भी शुद्ध हो । इसलिए मै यज्ञ
का अनुष्ठान करने वाला (दैव्याय) सब को शुद्ध करने वाले हो। (कर्मणे) उत्क्षेपण = उछालना,
अवक्षेपण = नीचे फेकना, आकुञ्चन = सिमेटना,
प्रसारण = फैलना , गमन = चलना आदि पांच प्रकार के कर्म
है उनकके और (देवयज्यायै) विद्वान् वा श्रेष्ठ गुणों की दिव्य क्रिया के लिए तथा
(अग्नेय) भौतिक अग्नि से सुख के लिए (जुष्टम्) अच्छी क्रियायों से सेवन करने योग्य
(त्वा) उस यज्ञ को (प्रोक्षामि) करता हूँ तथा (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और सोम से
वर्षा के निमित्त (जुष्टम्) प्रीति देने वाला और प्रीति से सेवने योग्य (त्वा)
उक्त यज्ञ को (प्रोक्षामि) मेघमंडल में पहुंचाता हूं। इस प्रकार यज्ञ से शुद्ध किये
हुए जल (शुन्धध्वम्) अच्छे प्रकार शुद्ध होते है । (यत्) जिस कारण यज्ञ की शुद्धि
से (वः) पूर्वोक्त जलों के अशुद्धि आदि दोष (पराजध्नुः) निवृत्ति हों (तत्) उन
जलों की शुद्धि को मै (शुन्धामि) अच्छे प्रकार शुद्ध करता हूं। यह एक अर्थ हुआ
मंत्र का दूसरा अर्थ इस प्रकार से है। हे यज्ञ करने वाले मनुष्यों ! (यत्) जिस कारण (इन्द्रः) सूर्यलोक (वृत्रतूर्य्ये) मेघ के बध के निमित्त (युष्माः) पूर्वोक्त जल और (इन्द्रम्) पवन को (अवृणीत) स्विकार करता है तथा जिस कारण सूर्य्य ने (वृत्रतूर्य्ये)मेघ की शिघ्रता के निमित्त (युष्माः) पुर्वोक्त जलों को (प्रोक्षिताः)
पदार्थों सीचने वाले (स्थ) किये है इससे (युयम्) तुम (त्वा) उक्त यज्ञ को सदा
स्विकार करके (नयत सिद्धि को प्राप्त करो । इस प्रकार हम सब लोग (दैव्याय) श्रेष्ठ कर्म
वा (देव्यज्यायै) विद्वान् और दिव्य गुणों की श्रेष्ठ क्रियायों के तथा (अग्नेय)
परमेश्वर की प्राप्ती के लिये (जुष्टम्) प्रिति कराने वाले यज्ञ को (प्रोक्षामि) मेघमंडल में पहुंचावें हे मनुष्यों! इस प्रकार तुम सब पदार्थों वा सब मनुष्यों को (शुन्धध्वम्) शुद्ध करो (यत्) और जिससे (वः) तुम लोगों के अशुद्धि आदि दोष है वे सदा (पराजघ्नुः) निवृत्त होते रहें। वैसे ही मै वेद का प्रकाश करने वाला तुम लोगों के शोधन अर्थात् शुद्धि प्रकार को (शुन्धामि)अच्छे प्रकार बढ़ाता हूं।
भावार्थः- जैसा कि पहले आया है कि जल किस
प्रकार से आकाश में गमन करता है पृथिवी से उपर अन्तरिक्ष के लिये सूर्य की किरणों
पर सवार हो कर सूर्य की किरणें उसे अपने में कितने प्रेम से स्विकार करती है ठिक
ऐसा ही जल सूर्य की किरणों के साथ करता है दोनों जैसे एक दूसरे में समा जाते है
कुछ समय के लिये, दोनों एक दूसरे के पुरक है यह एक अद्भुत प्रेम और स्वयं का
समर्पण है। आगे चल कर यह जल बादलों का रूप ले लेता है और इन बादलों को पुनः सूर्य
की किरणें अपने आक्रमण से बिभक्त छिन्न-भिन्न कर देता है। इसी प्रकार से हे
मनुष्यों! जैसे सूर्य अपनी
किरणों के द्वारा जल से संबन्ध बनाता है और उनको आकाश में एकत्रित करके बादलों का
रूप देता है पुनः उस बादल रूप जल के संग्रह को
एक-एक बुंद बना कर पृथिवी पर वरशा देता है। वैसा ही तुम भी करो तुम भी
सुर्य की किरणों को माध्यम बना कर अपनी श्रेष्ठ वस्तुओं को यज्ञ के द्वारा उत्पन्न
शुद्ध खुशूबुओं को आकाश में भेज कर अपने वायुमंडल शुद्ध करों जैसे सूर्य समन्दर के
जल को लवण मुक्त करके मानव समेत सभी प्राणियों के पिने योग्य बनाता है। उसी प्रकार
से यज्ञ द्वारा निकलने वाला शुद्ध गन्ध वायु में विद्यमान जहरीले तत्व को नष्ट
करता है। जिस प्रकार से सूर्य की किरणें तीब्रता से बादलों को बनाता है और उन्हे
नष्ट करता है उसी प्रकार से यह यज्ञ रूपी कर्म भी मानव के आन्तरिक जीवन के साथ
बाहरी वायुमंडल को भी शुद्ध और पवित्र करता है। जिस प्रकार से जल संसार के प्रत्येक
वस्तुओं का सिंचन करता है इसी प्रकार से तुम भी अपने यज्ञ पूर्ण कर्म के द्वारा
सभी जीव जन्तु प्राणियों का सिंचन पालन पोषण करो और इसमे निरंतर स्थित प्रज्ञ बनो।
इस सभी कार्यों को प्रीति पूर्वक करते हुए पर्मेश्वर को अपने जीवन में सिद्ध
करिये। पर्मेश्वर तुम्हारे साथ तुम्हारे प्रत्येक कर्मों के साथ विद्यमान है इसको
तुम वुद्धिमत्ता पूर्वक करों और अपने साथ सभी प्रत्येक प्राणियों के कल्याण के लिए
अपने प्रत्येक कर्म कजिये।
(इस मंत्र में लुप्तोपमालङ्कार है) परमेश्वर ने अग्नि और सूर्य को इसलिये
रचा है कि वे सब पदार्थों में प्रवेश करके उनके रस और जल को छिन्न-भिन्न कर दे
जिससे वह वायुमंडल में जाकर फिर वहां से पृथिवी पर आकर सब को शुख और शुद्धि करने
वाले है। इससे सभी मनुष्यों को उत्तम सुख प्राप्त होने के लिए अग्नि में सुगंधित
पदार्थों के होम से वायु और वृष्टि जल की शुद्धि द्वारा श्रेष्ठ सुख बढ़ाने के लिए
प्रीतिपूर्वक नित्य यज्ञ करना चाहिये जिस से इस संसार के सब रोग आदि दोष नष्ट हो
कर उस में शुद्ध गुण प्रकाशित होते रहें। इसी प्रयोजन के लिये मै ईश्वर तुम सब को
उक्त यज्ञ के निमित्त शुद्धि करने का उपदेश करता हूं कि हे मनुष्यों ! तुम लोग परोपकार करने के लिये शुद्ध करमो को नित्य किया करो तथा उक्त रीति से वायु अग्नि और जल के गुणों को शिल्पक्रिया में युक्त करके यान आदि कला यंत्र बना कर अपने पुरुषार्थ से सदैव सुखयुक्त होवो।
परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः
परोपकाराय वहन्ति नद्यः । परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकारार्थ मिदं शरीरम् ॥ परोपकार
के लिए वृक्ष फल देते हैं,
नदीयाँ परोपकार
के लिए ही बहती हैं और गाय परोपकार के लिए दूध देती हैं, (अर्थात्) यह
शरीर भी परोपकार के लिए ही है ।
आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः। परं परोपकारार्थं यो जीवति स
जीवति ॥ इस जीवलोक में स्वयं के लिए कौन नहीं जीता ? परंतु, जो परोपकार के लिए जीता है, वही सच्चा जीना है ।
राहिणि नलिनीलक्ष्मी दिवसो निदधाति दिनकराप्रभवाम् ।अनपेक्षितगुणदोषः
परोपकारः सतां व्यसनम् ॥ दिन में जिसे अनुराग है वैसे कमल को, दिन सूर्य से पैदा हुई शोभा देता है । अर्थात् परोपकार करना तो सज्जनों का
व्यसन-आदत है, उन्हें गुण-दोष की परवा नहीं होती ।
भवन्ति नम्रस्तरवः फलोद्रमैः। नवाम्बुभिर्दूरविलम्बिनो घनाः । अनुद्धताः
सत्पुरुषाः समृद्धिभिः। स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ॥ वृक्षों पर फल आने से वे झुकते
हैं (नम्र बनते हैं); पानी में भरे बादल आकाश में नीचे आते हैं;
अच्छे लोग समृद्धि से गर्विष्ठ नहीं बनते, परोपकारियों
का यह स्वभाव ही होता है ।
श्लोकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः । परोपकारः पुण्याय पापाय
परपीडनम् ॥ जो करोडो ग्रंथों में कहा है, वह मैं आधे श्लोक में
कहता हूँ; परोपकार पुण्यकारक है, और
दूसरे को पीडा देना पापकारक है ।
जीवितान्मरणं श्रेष्ठ परोपकृतिवर्जितात् । मरणं जीवितं मन्ये
यत्परोपकृतिक्षमम् ॥ बिना उपकार के जीवन से मृत्यु श्रेष्ठ है; जो परोपकार करने के लिए शक्तिमान है, उस मरण को भी
मैं जीवन मानता हूँ ।
परोपकारशून्यस्य धिक् मनुष्यस्य जीवितम् । जीवन्तु पशवो येषां
चर्माप्युपकरिष्यति ॥ परोपकार रहित मानव के जीवन को धिक्कार है । वे पशु धन्य है, मरने के बाद जिनका चमडा भी उपयोग में आता है
परोपकार सबसे बड़ा पुण्य और परपीड़ा यानि
दूसरों को कष्ट देना सबसे बड़ा पाप है। आइये परोपकार से सम्बंधित इस कहानी को पढ़ें
और आत्मसात करें। समुद्र के किनारे एक लड़का अपनी माँ के साथ रहता था। उसके पिता
नाविक थे। कुछ दिनों पहले उसके पिता जहाज लेकर समुद्री-यात्रा पर गए थे। बहुत दिन
बीत गए पर वे लौट कर नहीं आए। लोगों ने
समझा की समुद्री तूफान में जहाज डूबने से उनकी मृत्यु हो गए होगी। एक दिन समुद्र
में तूफान आया, लोग तट पर खड़े थे।
वह लड़का भी अपनी माँ के साथ वहीं खड़ा था। उन्होंने देखा कि एक जहाज तूफान में फँस गया है। जहाज थोड़ी देर
में डूबने ही वाला था। जहाज पर बैठे लोग व्याकुल थे यदि तट से कोई नाव जहाज तक चली
जाती तो उनके प्राण बच सकते थे। तट पर नाव थी, लेकिन कोई उसे जहाज तक ले जाने का साहस
न कर सका, उस लडके ने अपनी माँ से कहा – “माँ ! मैं नाव लेकर जाऊंगा, पहले तो माँ के मन में ममता उमड़ी, फिर उसने सोचा कि एक के त्याग से इतने लोगों
के प्राण बचा लेना अच्छा है। उसने अपने पुत्र को जाने की आज्ञा दे दी। वह लड़का
साहस करके नाव चलाता हुआ जहाज तक पहुंचा, लोग जहाज से उतरकर नाव में आ गए, जहाज
डूब गया नाव किनारे की ओर चल दी सबने बालक की प्रशंसा की और उसे आशीर्वाद देने लगे
संयोग से उसी नाव में उसके पिता भी थे। उन्होंने अपने पुत्र को पहचाना लडके ने भी
अपने पिता को पहचान लिया। किनारे पहुंचते ही बालक दौड़ कर अपनी माँ के पास गया और
लिपट कर बोला – “ माँ ! पिता जी आ
गए ”माँ की आँखों में हर्ष के आँसू थे।
लोगों ने कहा – “परोपकार की भावना
ने पुत्र को उसका पिता लौटा दिया.” परोपकार से मन
को शांति और सुख मिलता है। परोपकारी व्यक्ति का नाम संसार में अमर हो जाता है।
महाराज शिवि, रन्तिदेव आदि ने
प्राणों का मोह छोड़ के परोपकार करके दिखलाया था। इसलिए वे अमर हो गए।
पुरुवंशी नरेश शिवि उशीनगर देश के राजा थे। वे बड़े दयालु-परोपकारी शरण में
आने वालो की रक्षा करने वाले एक धर्मात्मा राजा थे। इसके यहाँ से कोई पीड़ित, निराश नहीं लौटता था। इनकी सम्पत्ति
परोपकार के लिए थी। इनकी भगवान से एकमात्र कामना थी कि मैं दुःख से पीड़ित
प्राणियों की पीड़ा का सदा निवारण करता रहूँ। स्वर्ग में इन्द्र को राजा शिवि के
धर्म-कर्म से इन्द्रासन छिनने का भय हुआ। उन्होंने राजा की परीक्षा लेने, हो सके तो इन्हें धर्म मार्ग से हटाने
के लिए अपने साथ अग्निदेव को लेकर उशीनगर को प्रस्थान किया। इन्द्र ने बाज का रूप
धारण किया, अग्नि ने कबूतर का रूप बनाया। बाज ने
कबूतर का पीछा किया। बाज के भय से डरता-कांपता कबूतर उड़ता हुआ आकर राजा शिवि की
गोद में गिर पड़ा और इनके वस्त्रों में छिप गया। राजा उसे प्रेम से पुचकारने लगे।
इतने में पीछा करता हुआ बाज वहां आ पहुंचा। बाज ने कहा-‘राजन! मैं भूखा हूँ, यह कबूतर मेरा आहार है्। इसे मुझे दे
दीजिए और मुझ भूखे की प्राणरक्षा कीजिए।’ राजा ने का-‘यह कबूतर मेरी शरण में आया है। शरण में आये हुए की रक्षा
करना हमारा कर्तव्य है। मैंने इसे अभयदानन दिया है। मैं इसे किसी प्रकार तुमको
नहीं सौंप सकता हूँ।’ बाज ने कहा-‘महाराज! जहाँ शरणागत की रक्षा करना आपका
धर्म है, वहीं किसी का आहार छीनना भी तो आपके लिए
अधर्म है। यहाँ आपका धर्म है कि मुझ भूखे को आहार दें, अन्यथा मेरी हत्या का पाप आपको लगेगा।
मर जाने के बाद मेरे बच्चे भी भूखे मरेंगे, उनकी हत्या का पाप भी आपको लगेगा। अतः आप इतना अधिक पाप न
करें और मेरा आहार सौंप कर अपने धर्म का पालन करें।’ राजा ने कहा-‘मैं शरणागत को तुम्हें कदापि नहीं दे सकता। आहार के लिए
इसके स्थान पर मैं अपना मांस तुम्हें देता हूँ। तुम भरपेट खा लो।’ बाज बोला-‘मैं मांसाहारी हूँ। कबूतर का मांस या
अन्य मांस मेरे लिए समान है। आप चाहें तो कबूतर के बराबर अपना मांस मुझे दे सकते
हैं। मुझे अधिक की आवश्यकता भी नहीं है।’ राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने कहा-‘यह आपने बड़ी कृपा की। आज इस नश्वर शरीर
से अविनाशी धर्म की रक्षा हो रही है।’ राजधानी में कोलाहल मच गया। आज राजा एक कबूतर की
प्राणरक्षा के लिए अपने शरीर का मांस काटकर तराजू पर तोलने जा रहे हैं-यह देखने के
लिए नगर की सारी प्रजा एकत्रित हो गयी। तराजू मंगाया गया। एक पलड़े में कबूतर को
बैठाया गया और दूसरे पलड़े पर राजा ने अपने शरीर का मांस काट कर रखा। मांस कम पड़ा
तो और काटना पड़ा। वह भी कम पड़ गया। इस प्रकार राजा अपने शरीर का मांस काट कर रखते
गये और तराजू का पलड़ा हमेशा कबूतर की तरफ झुका रहा वह जैसे राजा का मांस पाकर
अधिकाधिक और भारी होता जा रहा था। सारी प्रजा सांस रोक, भीगे आंसूओं के साथ यह दृश्य देख रही
थी। राजा को मुखमण्डल में तो तनिक भी शिकन नहीं थी। अन्त में राजा स्वयं तराजू के
पलड़े पर बैठ गये। उसी समय आकाश से पुष्पवृष्ठि होने लगी। अन्तरिक्ष में प्रकाश
व्याप्त हो गया। दोनो पक्षी अदृश्य हो गये। उनके स्थान पर इन्द्र और अग्नि सामने
खड़े थे। सभी उन्हें आश्चर्यचकित हो देखने लगे। इन्द्र ने कहा-‘महाराज! आपकी परीक्षा के लिए मैंने बाज
का और अग्निदेव ने कबूतर का रूप धारण किया था। आप तो सच्चे धर्मात्मा निकले। आप
जैसे परोपकारी जगत की रक्षा के लिए ही जन्म लेते हैं।’ राजा शिवि तराजू से नीचे उतरे। उनका
शरीर सामान्य हो चुका था। दोनो देवता अन्तर्धान हो गये। महाराज शिवि ने परोपकार-धर्म की रक्षा की। ऐसे आदर्श
चरित्र राजा अब कहां हैं?
वर्तमान काल के
लिए परहित और दयालुता का वे एक आदर्श उदाहरण हैं।
प्राचीन हिन्दी कहानी है,
अयोध्या के राजा
दिलीप बड़े त्यागी,
धर्मात्मा, प्रजा का ध्यान रखने वाले थे। उनके
राज्य में प्रजा संतुष्ट और सुखी थी। राजा को प्रौढावस्था तक भी कोई संतान नहीं
हुई। अतः एक दिन वे रानी सुदक्षिणा सहित गुरु वसिष्ठ के आश्रम में पहुंचे और उनसे
निवेदन किया कि-भगवन्! आप कोई उपाय बतायें, जिससे मुझे कोई संतान हो। गुरु वसिष्ठ ने ध्यानस्थ होकर कुछ
देखा। फिर वे बोले-राजन्। यदि आप मेंरे आश्रम में स्थित कामधेनु की पुत्री नन्दिनी
गौ की सेवा करें तो उसके प्रसाद से आपको संतान अवश्य प्राप्त होगी। राजा ने अपने
सेवकों को अयोध्या वापस भेज दिया और स्वयं रानी सुदक्षिणा सहित महर्षि के तपोवन
में गो-सेवा करने लगे। प्रतिदिन वे और सुदक्षिणा गाय की पूजा करते। राजा गाय को
चरने के लिए स्वछन्द छोड़ देते थे। वह जिधर जाना चाहती, उधर उसके पीछे-पीछे छाया की तरह रहते।
उसके जल पीने के पश्चात ही राजा जल पीते थे। उसे स्वादिष्ट घास खिलाते, नहलाते-धुलाते और उसकी समर्पित भाव से
सेवा करते। संध्या के समय आश्रम में रानी द्वार पर खड़ी उनकी प्रतिक्षा करती रहती
थी। आते ही गौ को तिलक करती,
गोदोहन के पश्चात
राजा-रानी गाय की सेवा करते,
स्थान की सफाई
करते, उसके सो जाने पर सोते और प्रातः उसके
जागने से पूर्व उठ जाते थे। इक्कीस दिन निरन्तर छाया की भांति गो-सेवा हो चुकी थी।
बाईसवें दिन जब राजा गौ चरा रहे थे तब कहीं से आकर अचानक एक शेर गाय पर टूट पड़ा।
तुरंत राजा ने धनुष-बाण चढ़ाकर सिंह को खदेड़ने का प्रयास किया। पर आश्चर्य! उनके
हाथ की अँगुलियाँ बाण पर चिपग गये। वे जड़वत देखते ही रह गये। उनके आश्चर्य की कोई
सीमा न रही जब सिंह मनुष्य की वाणी मे राजा को चकित करते हुए बोला-राजन्। तुम्हारा
बाण मुझ पर नहीं चल सकता है। मैं भगवान शंकर का सेवक कुम्भोदर हूँ। इन वृक्षों की
सेवा के लिए भगवान शिव ने मुझे यहां नियुक्त किया है और कहा है कि जो भी जीव आयेगा
वहीं तुम्हारा आहार होगा। आज मुझे यह गाय आहार मिली है, अतः तुम लौट जाओ। राजा ने कहा-‘सिंहराज! जैसे शंकर जी के प्रिय इस
वृक्ष की रक्षा करना आपका कर्तव्य है, उसी प्रकार गुरुदेव की गौ की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है।
आपको आहार चाहिए, उसके लिए मैं गौ
के स्थान पर अपना शरीर समर्पित करता हूँ। आप मुझे खाकर क्षुधा शान्त करें। गौ को
छोड़ दें। इसका छोटा बछड़ा इसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा। सिंह ने राजा को बहुत समझाया, पर राजा ने एक न सुनी। वे अस्त्र-शस्त्र
त्याग कर सिंह के समक्ष आंखे बन्द करके बैठ गये। राजा मृत्यु की प्रतिक्षा कर रहे
थे, पर उन्हें नन्दिनी की अमृतवाणी सुनाई
दी- ‘वत्स! उठो, तुम्हारी परीक्षा हो चुकी है। मैं तुम
पर प्रसन्न हूँ, वरदान मांगो’। राजा ने आंखे खोली तो सामने गौ माता
को खड़ी देखा, सिंह का कोई
अता-पता नहीं था। राजा ने वंश चलाने के लिए पुत्र की याचना की। गौ ने कहा-‘मेरा दूध दोने में दुह कर पी लो।
तुम्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी।’ राजा ने कहा-‘माता! आपके दूख का प्रथम अधिकार आपके बछड़े को है। उसके
पश्चात गुरुदेव का,
उसे पूर्व व बिना
गुरुदेव की आज्ञा से मैं दुग्ध-पान नहीं कर सकता। आप क्षमा करें।’ गौमाता प्रसन्न होकर बोली-‘एवमस्तु!’ सांयकाल आश्रम में लौटकर राजा ने गुरुदेव को सारी घटना
बतायी। गुरुदेव ने गोदोहन के पश्चात अपने हाथों से राजा और रानी को आशीर्वाद के
साथ दूध पीने को दिया। गौसेवा एवं दुग्धपान के पश्चात राजा और रानी राजमहल लौट
आये। रानी गर्भवती हुई। उनके पुत्र रघु का जन्म हुआ। इन्हीं रघु के नाम पर आगे चल
कर सूर्यवंश ‘रघुवंश’ कहा जाने लगा।
भारतवर्ष नररत्नों का भंडार है । किसी
भी विषय में लीजिए,
इस देश के इतिहास
में उच्च - से - उच्च उदाहरण मिल सकते हैं । संकृति नामक राजा के दो पुत्र थे, एक का नाम था गुरु और दूसरे का रंति देव
। रंतिदेव बड़े ही प्रतापी राजा हुए । इनकी न्यायशीलता, दयालुता, धर्मपरायणता और त्याग की ख्याति तीनों लोकों में फैल गयी ।
रंतिदेव ने गरीबों को दु:खी देखकर अपना सर्वस्व दान कर डाला । इसके बाद वे किसी
तरह कठिनता से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । पर उन्हें जो कुछ मिलता था उसे स्वयं
भूखे रहने पर भी वे गरीबों में बांट दिया करते थे । इस प्रकार राजा सर्वथा निर्धन
होकर सपरिवार अत्यंत कष्ट सहने लगे । एक
समय पूरे अड़तालीस दिन तक राजा को भोजन को कौन कहे, जल भी पीने को नहीं मिला । भूख - प्यास से पीड़ित बलहीन
राजा का शरीर कांपने लगा । अंत में उनचासवें दिन प्रात:काल राजा को घी, खीर, हलवा और जल मिला । अड़तालीस दिन के लगातार अनशन से राजा
परिवार सहित बड़े ही दुर्बल हो गये थे । सबके शरीर कांप रहे थे । रोटी की कीमत
भूखा मनुष्य ही जानता है । जिसके सामने मेवे - मिष्ठानों के ढेर आगे से आगे लगे
रहते हैं, उसे गरीबों के भूखे पेट की ज्वाला का
क्या पता । रंति देव भोजन करना ही चाहते थे कि एक ब्राह्मण अतिथि आ गया । करोड़
रूपयों में से नाम के लिए लाख रुपए दान करना बड़ा सहज है, परंतु भूखे पेट का अन्न दान करना बड़ा
कठिन कार्य है । पर सर्वत्र हरि को व्याप्त देखने वाले भक्त रंतिदेव ने वह अन्न
आदर से श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणरूप अतिथि नारायण को बांट दिया । ब्राह्मण भोजन करके
तृप्त होकर चला गया । उसके बाद राजा बचा हुआ अन्न परिवार को बांटकर खाना ही चाहते
थे कि एक शुद्र अतिथि ने पदार्पण किया । राजा ने भगवान श्रीहरि का स्मरण करते हुए
बचा हुआ अन्न उस दरिद्र नारायण को भेंट कर दिया । इतने में ही कई कुत्तों को साथ
लिए एक और मनुष्य अतिथि होकर वहां आया और कहने लगा - ‘राजन ! मेरे ये कुत्ते और मैं भूखा हूं, भोजन दीजिए ।’ हरिभक्त राजा ने उसका भी सत्कार किया
और आदरपूर्वक बचा हुआ सारा अन्न कुत्तों सहित उस अतिथि भगवान के समर्पण कर उसे
प्रणाम किया । अब एक मनुष्य की प्यास बुढ सके - केवल इतना सा जल बच रहा था । राजा
उसको पीना ही चाहते थे कि अकस्मात एक चाण्डाल ने आकर दीन स्वर से कहा - ‘महाराज ! मैं बहुत ही थका हुआ हूं, मुझ अपवित्र मनुष्य को पीने के लिए
थोड़ा सा जल दीजिए ।’ उस चाण्डाल के
दीन वचन सुनकर और उसे थका हुआ जानकर राजा को बड़ी दया आयी और उन्होंने ये अमृतमय
वचन कहे - ‘मैं परमात्मा से
अणिमा आदि आठ सिद्धियों से युक्त उत्तम गति या मुक्ति नहीं चाहता, मैं केवल यहीं चाहता हूं कि मैं ही सब
प्राणियों के अंत:करण में स्तित होकर उनका दु:ख भोग करूं, जिससे उन लोगों का दु:ख दूर हो जाएं ।’ ‘इस मनुष्य के प्राण जल बिना निकल रहे हैं, यह प्राणरक्षा के लिए मुझसे दीन होकर जल
मांग रहा है, इसको यह जल देने
से मेरे भूख, प्यास, थकावट, चक्कर,
दीनता, क्लांति, शोक,
विषाद और मोह आदि
सब मिट जाएंगे ।’ इतना कहकर
स्वाबाविक दयालु राजा रंतिदेव ने स्वयं प्यास के मारे मृतप्राय रहने पर भी उस
चाम्डाल को वह जल आदर और प्रसन्नतापूर्वक दे दिया । ये हैं भक्त के लक्षण ! फल की
कामना करनेवालों को फल देनेवाले त्रिभुवननाथ ब्रह्मा, विष्णु और महेश ही महाराज रंतुदेव की
परीक्षा लेने के लिए माया के द्वारा क्रमश: ब्राह्मणादि रूप धरकर आये थे । अब राजा
का धैर्य और उसकी भक्ति देखकर वे परम प्रसन्न हो गये और उन्होंने अपना अपना यथार्थ
रूप धारण कर राजा को दर्शन दिया । राजा ने तीनों देवों का एक ही साथ प्रत्यक्ष
दर्शन कर उन्हें प्रणाम किया और उनके कहने पर भी कोई वर नहीं मांगा, क्योंकि राजा ने आसक्ति और कामना
त्यागकर अपना मन केवल भगवान वासुदेव में लगा रखा था । यों परमात्मा के अनन्य भक्त
रंतिदेव ने अपना चित्त पूर्णरूप से केवल ईश्वर में लगा दिया और परमात्मा के साथ
तन्मय हो जाने के कारण त्रिगुणमयी माया उनके निकट स्वप्न के समान लीन हो गयी ।
रंति देव के परिवार के अन्य सब लोग भी उनके संग के के प्रबाव से नारायण परायण होकर
योगियों की परम गति को प्राप्त हुए ।
भावनगर के राजा एक बार गर्मियों के दिनों में
अपने आम के बागों में आराम कर रहे थे और वह बहुत ही खुश थे की उनके बागों में बहुत
अच्छे आम लगे थे और ऐसे ही वो अपने खयालों में खोये हुए थे । तब वहाँ से एक ग़रीब
किसान गुज़र रहा था और वह बहुत भूखा था, उसका परिवार पिछले दो दिन से भूखा था तो उसने देखा की क्या
मस्त आम लगे है अगर मैं यहाँ से कुछ आम तोड़ कर ले जाऊँ तो मेरे परिवार के खाने का
बंदोबस्त हो जाएगा । यह सोच कर वह उस बाग़ में घुस गया उसे पता नहीं था की इस बाग़
में भावनगर के राजा आराम कर रहे हैं वो तो चोरी छुपे घुसते ही एक पत्थर उठा कर आम
के पेड़ पे लगा दिया और वह पत्थर आम के पेड़ से टकराकर सीधा राजाजी के सर पे लगा। राजाजी
का पूरा सर खून से लत पथ हो गया और वो अचानक हुए हमले से अचंभित थे और उन्हें यह
समझ ही नहीं आ रहा था की आखिर उनपर हमला किसने किया । राजा ने अपने सिपाहियों को
आवाज़ दी तो सारे सिपाही दोड़े चले आयें और राजाजी का यह हाल देख उन्हें लगा की किसी
ने राजाजी पे हमला किया है तो वह बागीचे के चारों तरफ आरोपी को ढूढ़ने लगे । इस शोर
शराबे को देखकर ग़रीब किसान समझ गया की कुछ गड़बड़ हो गई वो डर के मारे भागने लगा,
सिपाहियों ने जैसे ही इस ग़रीब किसान को भागते देखा तो वह
सब भी उसके पीछे भागने लगे और उसे दबोच लिया । इस ग़रीब किसान को सिपाहियों ने
पकड़कर कारागार में दाल दिया और उसको दूसरे दिन दरबार में पेश किया,
दरबार पूरा भरा हुआ था और सबको यह मालूम हो चुका था की इस
इंसान ने राजाजी को पत्थर मार था, सब बहुत गुस्से में थे और सोच रहे थे की इस गुनाह के लिए
उसे मृत्युदंड मिलना चाहिए । सिपाहियों ने इस ग़रीब किसान को दरबार में पेश किया
और राजा ने उससे सवाल किया की तू ने मुझ पर हमला क्यों किया? ग़रीब किसान डरते डरते बोला माई बाप मैंने आप पर हमला नहीं
किया है मैं तो सिर्फ आम लेने आया था । मैं और मेरा परिवार पिछले दो दिनों से भूखे
थे इस लिए मुझे लगा की अगर यहाँ से कुछ फल मिल जाए तो मेरे परिवार की भूख मिट
सकेगी । यह सोचकर मैंने वह पत्थर आम के पेड़ को मार था मुझे पता नहीं था की आप उस
पेड़ के नीचे आराम कर रहे थे और वह पत्थर आपको लग गया । यह सुनकर सभी दरबारी बोलने
लगे अरे मूर्ख तुझे पता है तू ने कितनी बड़ी भूल करी है तू ने इतने बड़े राजा के सर
पे पत्थर मारा है अब देख क्या हाल होता है तेरा । राजाजी ने सभी दरबारीयों को शांत
रहने को कहा और वह बोले भला अगर एक पेड़ को कोई पत्थर मरता है और वह फल दे सकता है
तो मैं तो भावनगर का राजा हूँ मैं इसे दंड कैसे दे सकता हूँ । अगर एक पेड़ पत्थर
खाकर कुछ देता है तो मैंने भी पत्थर खाया है तो मेरा भी फ़र्ज़ है की मैं भी इस
ग़रीब इंसान को कुछ दूँ और उन्होंने अपने मंत्री को आदेश दिया की जाओ और हमारे
अनाज के भंडार से इस इंसान को पूरे एक साल का अनाज दे दो । यह फैसला सुनकर सभी
दरबारी चकित हो उठे, उन्हें तो लग रहा था की इसे दंड मिलेगा लेकिन राजाजी की दया,
प्रेम और न्याय देखकर सभी दरबारी राजाजी के प्रशंसक बन गए ।
वह ग़रीब किसान भी राजाजी की दया और उदारता देख अपने आंसू नहीं रोक पाया और
भावनात्मक हो कर राजाजी के सामने झुक कर कहने लगा धन्यभाग है इस भावनगर के जिसे
इतना परोपकारी, दयालु
राजा मिला और पूरे दरबार में राजा का जय कार नाद गूँजने लगा ।
कैसे होंगे वो राजा जिन्होंने
पत्थर खाकर भी एक ग़रीब व्यक्ति की पीड़ा, व्यथा समझ पाए, उसके दर्द को जी पाए और उसकी मदद कर पाए । धन्य है वह
राजाजी जिन्होंने दया प्रेम और उदारता के साथ न्याय किया और दया का एक अनोखा प्रतीक पेश किया । आज
के इस युग
मैं हम सब विकसित तो हो गए, हम सब कहने को तो बुद्धिमान भी बन गए, हमने संसाधन भी इकट्ठा कर लिए लेकिन अगर हमारे अंदर वह
राजाजी जैसे भाव नहीं है दया नहीं है प्रेम नहीं है फिर तो यह सब बेकार का है इस भाव के
बिना हम आज भी जंगली जानवर के समान है । हम ऐसे महान दयावान राजा को तहे दिल से
प्रणाम करते है और सभी लोगों से भावभीनी अपील करते है की अपने दिल में दया, प्रेम और परोपकार की भावना जगाए रखे और सही अर्थों में सफल
मानव बने ।
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