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यजुर्वेद प्रथम अध्याय एकादश मंत्रभाष्यः-

यजुर्वेद प्रथम अध्याय एकादश मंत्रभाष्यः-

     यज्ञशाला आदिक घर कैसे बनाने चाहिए इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया गया है।   
         म् भूताय त्वा नारातये स्वरभिविख्योषं दृहँ हन्तां दुर्य्याः पृथिव्यामुर्वन्तरिक्षमन्वेभि। पृथिव्यास्त्वा नाभौ सादयाभ्यदित्याउपस्थेग्नेहव्यँ रक्ष।।११।।
         पदार्थः- मैं जिस यज्ञ को (भूताय) प्राणियों के सुख तथा (अरातये) दारिद्रय आदि दोषों के नाश के लिए (आदित्या) वेदवाणी वा विज्ञानप्रकाश के (उपस्थे) गुणों में (सादयामि) स्थापना करता हूं और (त्वा) उसकी कभी (न) नहीं छोड़ता हूं। हे विद्वान लोगों ! तुम को उचित है कि (पृथिव्याम्) विस्तृत भुमि में (दुर्य्या) अपने घर (दृंहन्ताम) बढ़ाने चहियें ! मैं (पृथिव्याः) (नाभौ) पृथिवी के बिच में जिन गृहों में (स्वः) जलआदि  सुख के पदार्थों को ( अभिविख्येषम्) सब प्रकार से देखू और (उर्वन्तरिक्षम्) उक्त पृथिवी में बहुतसा अवकाश दे कर सुख से निवास करने योग्य स्थान रच कर (त्वा) आपको (अन्वेमि) प्राप्त होता हूं। हे (अग्ने) जगदिश्वर ! आप (हव्यम) हमारे देने लेने योग्य पदार्थों की (रक्ष) सर्वथा रक्षा कीजिये।।
           भावार्थः- इश मंत्र में श्लेषालङ्कार है और ईश्वर ने आज्ञा दि है कि हे मनुष्य लोगों ! मै तुम्हारी रक्षा इसलिए करता हूं कि तिम पृथिवी पर सभी प्राणियों को सुख पहुचाओ तथा तुमको योग्य है कि वेद विद्या धर्म का अनुष्ठान और अपने पुरुषार्थ द्वारा विविध पिरका के सुख बढ़ाने चाहिए। परमेश्वर द्वारा रचित भूताय अर्थात पंच तत्व पृथिवी , जल, अग्नी, वायु, और आकाश जो प्राणियों को सुख देने के प्रमुख कारण  मानव शरिर इसको तुम कभी भी ऐसे ही स्वतन्त्र मत छोड़ो इसका सही शास्त्रोक्त विधी विधान से सुसज्जीत करके इससे अपने हर प्रकार की दरिद्रता आदि दोषों को दूर करने के लिए यथा योग्य उपयोग किजीये। स्वयं के अस्तित्व को ऐश्वर्यशाली बनाने के लिए जल आदि शुद्ध पदार्थो से इसको निरन्तर स्वच्छ और निर्मल करते हुए अच्छी प्रकार से इसकी देख भाल किजीये।  और इसका निरन्तर विकाष करते रहें अर्थात हर प्रकार के ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान का अर्जन करके इसको हर प्रकार से शक्ति सम्पन्न किजीये। यह तुम्हारे आत्मा के लिये तुम्हार सबसे बहुमूल्य घर के समान है इसके अन्दर तुम निवास करके ही तुम अपने सभी मनोरथों को सिद्ध कर सकते हो क्योकि शरीर के अन्दर जो अवकाश रिक्त स्थान है उसमें मन अपने सहयोगी  इन्द्रियों के साथ निवाश करता है। यह शरीर ही तुम्हारी पृथिवी के समान है और इसके केन्द्र में तुम इसकी नाभी के उपर तुम स्थापित हो या स्थित हो वेद ज्ञान को धारण करने वाले आदित्य सूर्य के समान तुम आत्मा प्रकाशरूप अपनी किरणों को सम्पूर्ण पृथिवीरूप अपनी शरीर में फैला रहे हो। इस प्रकार से स्वयं को जानकर विद्वानों की तरह मुझे ज्ञान से प्राप्त करके जो मै सभी उर्जावों का प्रमुख स्रोत अग्नि रूप तुम आत्मा मे विद्यमान हूं अपना सर्वस्व मुझमें समर्पण करके अपनी हर प्रकार से निरन्तर रक्षा करों।
    अब दूसरा पक्ष मंत्र का मैं अग्ने परमेश्वर ! संसारी जीवों के सुख के लिए तथा  तुम्हारी हर प्रकार कि अर्थात शारिरीक मानसिक आध्यात्मिक दरिद्रता के विनाश और दान आदि धर्म करने के लिए और जो तुम्हारा सुख स्वरुप है उसके सम्पूर्ण प्रकाश के लिए तुम्हारें सम्पूर्ण घर आदि पदार्थ और उनमे रहने वाले परिवार मनुष्य आदि प्राणीयों को वृद्धि को प्राप्त करने के लिए और पृथिवी अन्तरिक्ष के मध्य में सुन्दर खाली आकाश में अपने रहने के लिये नविनतम् स्वर्ग जैसे राज्य कि स्थापना करों , और पृथिवी के अन्दर उसकी गर्भ में अर्थात जमिन के अन्दर बिशाल आराम दायक रहने योग्य सब सुविधा ऐश्वर्य शाली घर मकान किला बना कर उसमें निवाश करों  इस तरह से मै तुम्हारा कभी त्याग नहीं करता हूं सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी मुझको प्राप्त करों। और इस का हर किसी को ज्ञान देकर लोगों को भी सुखी और समृद्ध करो।                 
     मन की चंचलता और लोलुपता प्रसिद्ध है। अनियंत्रित मन अल्हड़ बछड़े की तरह डडडड खाड़-खंडकों में कूदता-फाँदता रहता है। उसकी इन गतिविधियों के कारण मनुष्य का सारा जीवन ही अव्यवस्थित हो जाता है। आकाँक्षाऐं बहुत, कामनाऐं असीम, पर दृढ़ता और तत्परता जरा भी नहीं, ऐसी मनोभूमि उपहासास्पद ही होती है। उसमें असन्तोष ही असन्तोष भरा रहता है। उन्नतिशीलों को देखकर ईर्ष्या बढ़ती है, अपने दुर्भाग्य पर रोना आता है, असफलता का दोष किसी किसी पर थोपते रहने की विडम्बना चलती रहती है पर इनसे काम तो कुछ नहीं बनता। मन की असंस्कृत स्थिति एक ऐसी कमी है जिसकी पूर्ति संसार की और किसी भी वस्तु से नहीं हो सकती। इस कमी के रहते हुए हर व्यक्ति ओछा-छछोरा, अविवेकी, असंयमी, बाल-बुद्धि, अविकसित और हर क्षेत्र में असफल ही रहता है।
    एकाग्रता का प्रतिफल मनोमय-कोश की साधना का उद्देश्य स्वर्ग, मुक्ति या सिद्ध चमत्कारों की खोज करना ही नहीं वरन् व्यावहारिक जीवन को सुसंयत और सुविकसित बनाना है। मन की शक्ति उस जल प्रपात की तरह है जो साधारणतः यों ही मुद्दतों से गिरता और बहता रहता है, पर यदि उसी से पनचक्की या बिजली बनाने का कार्य किया जाय तो आश्चर्यजनक लाभ प्राप्त होने की सुविधा बन जाती है और वह निरर्थक दीखने वाला झरना बहुत लाभदायक एवं उपयोगी सिद्ध होता है। मन में जो प्रचण्ड शक्ति भरी है उसका महत्व जिनने जान लिया वे अपना सारा ध्यान मन को नियंत्रित करने में लगाते हैं। उसकी चंचलता को रोकते और एकाग्रता को बढ़ाते हैं। अच्छे नम्बरों से ऊँचे डिवीजनों से पास होने वाले विद्यार्थी, महत्वपूर्ण अन्वेषण करने वाले वैज्ञानिक मेधावी वकील, डाक्टर, इञ्जीनियर और कारीगर एकाग्रता के बलबूते पर ही गौरवान्वित होते हैं। कवि, लेखक, चित्रकार, गायक, कलाकारों में जो प्रतिभा दीख पड़ती है वह उनकी तन्मयता का ही प्रतिफल है। कुशल व्यापारी अपने कारोबार में अपने को घुला देता है। लक्ष को वही बेध पाता है जिसे अर्जुन की तरह बाण की नोंक और चिड़िया का मस्तक ही दिखाई देता है। भक्त और साधकों को अपने इष्टदेव में तन्मय हो जाने पर ही साक्षात्कार का लाभ मिलता है। समाधि और कुछ नहीं चित्त को एकाग्र करने की परिपूर्ण सफलता का ही दूसरा नाम है। मन ही मित्र, मन ही शत्रुः- गीता में कहा गया है कि वश में किया हुआ मन ही अपना मित्र और अव्यवस्थित चित्त ही अपना सबसे बड़ा शत्रु है। जिसने अपने आपको जीत लिया वह तीनों लोक जीत लेने के समान विजयी माना जाता है। आध्यात्मिक और भौतिक विभूतियाँ इस संसार में इतनी अधिक हैं कि ध्यानपूर्वक देखने से यह दुनिया जादू की नगरी जैसी प्रतीत होती है। परमात्मा की इस पुण्य वाटिका में खिला हुआ हर पुष्प उसका कोई भी पुत्र बेरोकटोक प्राप्त कर सकता है पर साथ ही यह प्रतिबन्ध लगा हुआ है कि मनस्विता की नाप-तौल के आधार पर ही यहाँ ऊँचे स्तरों तक प्रवेश मिलता है। जिस प्रकार सिनेमा में अधिक दाम का टिकट खरीदने वाले को अधिक सुविधा की सीट मिलती है, वैसे ही ईश्वर के इस जादू नगरी खेल में अधिक आनन्ददायक अनुभूतियाँ उन्हें मिलती हैं जिनके पास अधिक मनस्विता संग्रह होती है। मन का ही साम्राज्य इस सारे चेतना जगत पर छाया हुआ है। ऋषियों के आश्रमों में उनकी प्रचण्ड विचार धारा से प्रभावित होकर डग मग डग मग डडड  है। युग पुरुष अपने संकल्प बल से संसार की विचारा धारा ही बदल डालते हैं। स्वामि दयान्नद, भगवान बुद्ध, ईसामसीह आदि महापुरुषों ने कितने अधिक लोगों का जीवन बदल डाला यह किसी से छिपा नहीं है। मनोमय-कोश से अगला प्राणमय कोश है। कई स्थानों पर पहले प्राणमय-कोश और फिर मनोमय कोश का उल्लेख मिलता है। इस क्रम भेद में उलझने से कोई लाभ नहीं। थाली में आये हुए पदार्थों में से पहले दाल खावें या शाक यह प्रश्न अभिरुचि और सुविधा से सम्बन्धित है। कोई सैद्धान्तिक इसका महत्व नहीं है। इस प्रकार मनोमय और प्राणमय कोश के आगे पीछे वाले क्रम को कोई महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। मन की शक्ति से प्राण की शक्ति अधिक एवं सूक्ष्म है। यह शरीर का एक अंग मात्र है, उसे ग्यारहवीं इन्द्रिय कहा गया है। पर प्राण इससे भिन्न, इससे प्रबल और इससे सूक्ष्म है। इसलिए हमने महत्व की दृष्टि से मन के बाद प्राण की शिक्षा देने का क्रम अपनाया है।
   

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