ओ३म् पृथिव्याऽअहमुदन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम्। दिवो नाकस्य पृष्टात् स्वर्ज्योतिरगाहम्।। 17,67
आवरा हूं मैं सच कहता हूं मुझे कामना थी जीने की और पाने कि यहां का वो शिखर जहां पर मेरा मुकाम मेरे लिये मेरे जीवन में निश्चित किया गया हो। लेकिन मेरी आवारगी ने मुझे वहां पहुंचा दिया जिसकी कामना मैंने कभी नहीं किया था। ऐसा नहीं है कि मैं निराश हो गया हूं। मुझे यह अद्भुत आनन्द के साथ अपार आश्चर्य हो रहा है कि मैंने स्वयं को इतना अधिक उपर उठा दिया था जहां पर शिखर है हिमालय पर्वत का जहां पर सूर्य का प्रकाश सर्व प्रथम स्पर्श के साथ आलिंगन करता है भुमि को, उस अदृश्य सत्य के जगत का प्रेम जहां से प्रारम्भ होता है जिस प्रकार से सूर्य पृथिवी से प्रेम करता है ठीक उसी प्रकार से मैं भी सब के साथ स्वयं को बहुत प्रेम करा रहा था। जिसके कारण ही मैंने इसकी हर एक नादानियों को क्षमा करता रहा जहां तक मेरे में सामर्थ था। लेकिन मुझे यह जान कर पहले से भी और अधिक अलौकिक आश्चर्य हुआ जिसको मैं हर कदम पर क्षमा कर रहा था कभी मैंने जिसको दण्ड नहीं दिया, कभी स्वयं को सुधारने का प्रयाश नहीं किया क्योंकि हमें सुधारने के लिये सारा जगत लगा हुआ था। मैंने अपने आपका सम्पूर्ण समर्पण कर दिया था इस जगत के लिये जगत ने मुझने हमेशा सुधार किया और करता रहा तब तक जब तक मैं बिल्कुल सूधर नहीं गया। इन्होंने और इस जगत ने कभी मुझे क्षमा नहीं किया इन्होंने हमारे साथ हमेंशा ऐसा व्यवहार किया जैसे यह सब केवल एक मसिन से अधिक नहीं है। सुधारने वालों में बहुत लोग अपने ही थे लेकिन वह कभी हमें अपना समझ कर नहीं सुधारा हमेशा हमें अपने से अलग ही समझा मैं तो पराया था सब के लिये सब की कामना केवल एक थी की वह हमे मिटाना चाहते थे। मैं भी उनके सहयोग में ही लगा रहा बहुत समय बद मुझे मेरें नादानियों का ज्ञान हुआ जब जमिन पर मैं आकाश से गिरा जैसा लोग कहते है की आकाश से गिरा खजुर पर लटका लेकिन मुझे तो वह खजुर भी नहीं मिला, मेरे निचे से तो सभी अपनो ने मिल कर उस जमिन को ही खिच लिया जिस पर मैं खड़ा था। मुझे यह जानकर तब ऐसा लगा की जैसे मैं आकाश में उड़ रहा हूं और मैं उड़ता रहा बिना शिकवा शिकायत या किसी गीले के तब यह आकाश ही मेरा मन मित बन गया। पृथिवी तो मेरे लिये ऐसी जगह रही कि जहां पर मैंने कभी रहने कि कलप्ना भी नहीं की थी लेकिन जब देखा कि मेरे वह लोग जिससे मैं बहुत प्रेम करता था वह लोग मुझे बुला रहे अपनी तरफ जो बहुत खुश लग रहे थे। लेकिन जब मैं उनकी तरफ आकर्सित हो कर निचे जमिन पर आया तो पता चला की यह सब लोग पंगु है इनके पास कोई पंख ही नहीं है जिससे यह सब उड़ सके यह सब तो मुझसे ईर्श्या करते थे यह सब मुझे अपने कैद में करना चाहते थे यह मेरा शोसण करने की तमन्ना रखते थे। फिर भी मैं इतना नादान था कि मेरी ज्ञान की आंखे नहीं खुली मैं बच्चों की तरह लापरवाह चंचल सरल चित्त मनुष्य के अतिरीक्त कुछ नहीं था। लेकिन इस जगत में मुझे हर प्रकार के निकृष्ट से निकृष्ट मानव मिले एक भी मनुष्य नहीं मिला जिसे मैं कह सकु की यह मुझे जानता है जबकि सामने वाला स्वयं से भी बहुत दूर था। लोग इतने कठोर कैसे हो गये? इसके पिछ क्या कारण है? जब मैंने खोज किया तो पाया की यह सब जड़ वस्तुओं के साथ रहते है इन सब का संबन्ध कठोर वस्तुओं से अधिक रहा है जिसके कारण यह सब इतने अधिक जालिम और कठोर है। मैं इन सब को कठोर से सरल तो नहीं बना सकता था। लेकिन मैंने स्वयं को इनके साथ रहने के लिये विवश किया था ऐसा भी नहीं था यह मेरी अभिलाशा थी की जीवन का यथार्थ इनके साथ बांटु और मैं किसी तरह से इन सब समझा दूं जिससे सायद इन सब के जीवन में और अधिक आनन्द हो सकें। यह मेरी कामना हमेशां से रही की मैं स्वयं को इनके जैसा कठोर और जालिम बनाने में कभी सफल नहीं हूं। इस लिये मैं हमेशा इनसे दूर ही रहा लेकिन यह सब हमारे पास ही रहे। हमेंशा कभी भी यह लोग मुझसे दूर हुए ही नहीं जैसा की यह सब हम में ही हो।
क्या यह संभव है? कि मैं उनसे दूर रहा और वह सब हमारे पास ही रहे कभी हमसे दूर ही नहीं हुए। साधरणतः ऐसा नहीं होता है लेकिन यह हमारे साथ हुआ क्योंकि मैं अपने अन्तर आकाश में उड़ता रहा और इनसे बहुत दूर रहा स्वयं में इनका कोई गुण नहीं आया मैं निर्दोष ही बना रहा। और यह सभी दोष युक्त बने रहे और मुझे अपने जैसा मसीन ही समझते रहे और जब भी मैं उनके पास पहूंचा जैसे समन्दर के पास हवा पहुचती है जैसे पर्वत पर वारिष की बुदें आकाश से पहुचती है। जैसे सागर में नदियां पहुचती है या जैसे कोई हिंसक जानवर किसी साकाहारी जानवर पर आक्रमड़ करने के लिये पहुंचता है उसे आहार बनाने के लिये। वह सब हमारे साथ एेसा व्यवहार किये जैसे कि मैं एक मसिन ही हूं उनके जैसा जिसके अन्दर कोई संबेदनशिलता सहानभुती प्रेम अलौकिक आनन्द नहीं है। लेकिन मेरे साथ ऐसा बिल्कुल नहीं था मैं किसी को मसिन नहीं समझता था सब को मानव समझता था। यही मेरा दोष था यही मेरी कमजोरी थी यहीं मेरी लचारी वेवशी थी जिसके कारण वह सब हर कदम पर सफलता के सिखर पर पहुंचते रहे। और मैं हमेंशा एक कदम और अंधेरी गर्त की धाटियों में उतरता रहा इस आशा से की कभी तो कोई एक आयेगा जो मुझे मेरी इस बहादूरी और हौशला कलयाण के मार्ग पर चलने के लिए मेरे साथ होगा और मेरे उत्साह बढ़ायेगा, लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ पहले लोग मेरे साथ कुछ दूर तक चलने वाले लोग थे लेकिन जब उन्हें ज्ञान हुआ की मैं अंधेरी घाटियों में यात्रा निरंतर कर रहा हूं। तो वह लोग पहले से अधिक मेरे दुश्मन और मेरे जान के शत्रु बन गये। मैं अकेला ही चलता रहा जब मैं काफी दूर निकल आया संसारी लोगों से और संसारी अक्सर मेरे दुश्मन बन गये। तो मुझे एक रास्ता मिला जो अनन्त की तरफ जाता है मैं उस रास्ता पर और आगे ही बढ़ता रहा, एक समय हमारे जीनेदगी में ऐसा भी आया जब यह हमारी शरीर ही हमारे विपरित कार्य करने लगी अर्थात अब शत्रुओं में एक जो हमारा सबसे बड़ा और गहरा सगा मित्र मेरी शरीर थी। वह भी मेरे खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया। अर्थात वह मुझे तरह - तरह के यातनायें देने के साथ मेरा हर प्रकार से शोषण शरीरिक मानसिक और अध्यात्मिक तरह से करने लगी। और हर कदम पर यह सिद्ध करने का प्रयाश करने लगी की मैं तुम्हारा अन्त कर दूगी। तब मुझे ज्ञान हुआ कि समस्या जितनी गहरी मैं समझता था वह तो बहुत छोटी थी यद्यपी समस्या बहुत खतरनाक है। पहले मै समझता था की यहां सिर्फ हमारा परिवार हमारे मां बाप ही हमारे सबसे बड़े शत्रु है जिसके कारण मैं ने वह हर प्रयाश किया जिससे मै उनसे बहुत दूर हो सकु और उनका हमारें जीवन के साथ किसी प्रकार का संबन्ध ना हो वह हमें किसी प्रकार से प्रभावित ना कर सके। और ऐसा करने में सफल भी रहा कुछ ही समय में परिश्रम करके ऐसा रास्ता निकाल लिया जिससे हमारे मां बाप का अधिकार हमारें उपर कम रहने लगा वह चाह कर भी हमारें साथ कुछ नहीं कर सकते थे। आगे चल कर मेरा संबन्ध समाज से हुआ मुझे ऐसा लगा की यह समाज गंदा है जो मेरे साथ अन्याय कर रहा इसको भी हमने छोड़ने का निश्चय किया और उसमें भी मेरे कुछ पुरुषार्थ और परिश्रम के कारण मुक्ती मिल गई मै अपने समाज परिवार से बहुत दूर निकल गया जहां ना हमारा परिचित समाज था ना हि हमारे परिवार कि बंदिशे ही थी। मै स्वतन्त्र था। अब मेरा मालिक मैं था। मैं चाहुं तो स्वयं का कल्याण करु या स्वयं का संहार करु इसको ना कोई देखने वाला था ना कोई टोकने वाला ही था। यहां भी मेरा बिरोध करने वाले नये लोग पैदा हो गये थे मै इनसे भी दूर निकल आया एक ऐसे अस्थान पर जहां पर मैं और केवल मैं ही था। जहां पर मैं और मेरी शरीर थी मुझे शरीर की कुछ मुल आवश्यक जरुरी वस्तुओं की पूर्ती के लिये संसार से कुछ समय के लिये अवश्य संबंध बनाना पड़ता था। इसके बद मुझे जिस सत्य का ज्ञान हुआ कि मेरा बिरोध सिर्फ संसार ही नहीं करता मेरा सबसे अधिक कोई बिरोध करने वाला है तो वह मेरी यह शरीर रूपी संसार ही है।
जब मैं घाटियों में अकेले रहने लगा तो मुझे पहली बार इसका ज्ञान हुआ की मैं शरीर नहीं हूं शरीर मेरा सबसे बड़ा मित्र और शत्रु भी है। गल्ती हमने अक्ष्म्य कर दी है इसका भी ज्ञान मुझे हुआ क्योंकि मैंने अपनी शरीर को जो भव सागर में तैरने के लिये है जिसमें बैठ कर मुझे यह भव सागर पार करना है। उसको अपना शत्रु बना लिया है क्योंकि उसमें छिद्र हो गया है जिससे यह भव सागर में ही डुब सकती है। इसका ज्ञान मुझे किनारे पर बिल्कुल नहीं हुआ था। यह भी मेरी गल्ती है जिसको इसका ज्ञान हो जाता है कि उनकी शरीर रूपी नाव में छिद्र हो गया है। जो चालाक होते है अक्सर संसारी ऐसे ही होते है जो सावधानी पुर्वक किनारें पर ही अपनी सारी जीन्दगी बिता देते है। प्रायः गृहस्थ लोग ऐसे ही होते है वह कभी भव सागर में उतरते ही नहीं वह अपनी शरीर रूपी नाव को किनारें पर ही उसकी लङ्गड़ को गाड़ कर रखते है। कभी कभार ऐसा होता है कि की कोई गृहस्थ पुरुष या स्त्री ने इस भव सागर को पार करने के लिये भव सागर में अपनी नाव उतार दी हो जैसे कृष्ण राम इत्यादि यह पूराने समय की बात है। आज के समय ऐसा बहुत कम ही देखने में आता है। जिसको यह समझ में आता है कि उनकी नाव में छिद्र हो गया तो वह उसका मरम्त कराने के लिये विशेषज्ञ चिकित्सक से उसकी मरम्त करता ते है। जैसा की बहुत सारे योगी महात्मा साधु सन्त यह सब एक प्रकार के चिकित्सक ही है जो शरीर रूपी नाव के छिद्र को भरने की बात करते है। यह और बात है कि किसी के शरिर के छिद्र पुरी तरह से ठीक हो जाते है या नहीं। लेकिन हमारे साथ ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ ना ही हम शरीर की मरम्त करा सकते है ना ही हम अपनी यात्रा को ही रोक सकते है। क्योंकि हम भवसागर के मध्य में हूं और मुझे इसका ज्ञान हो गया है कि मेरी शरीर में छिद्र भी हो चुका है। हमें तो अपनी इसी शरीर से भव सागर की यात्रा करना है इसी लिये मै कहता हूं की मैं आवारा हूं मुझे क्षमा करना ऐ जीन्दगी। यह सत्य है जो मैं कह रहा हूं लेकिन एक सत्य और है जिसे केवल मैं जानता हूं वह यह है की मैं भवसागर की यात्रा समन्दर से ना कर के आकाश से करुगा क्योंकि मै उड़ना जानता हूं।
जैसा की यजुर्वेद का यह मंत्र कह रहा है।
ओ३म् पृथिव्याऽअहमुदन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम्। दिवो नाकस्य पृष्टात् स्वर्ज्योतिरगाहम्।। 17,67
क्रमशः-
जैसा की यजुर्वेद का यह मंत्र कह रहा है।
ओ३म् पृथिव्याऽअहमुदन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम्। दिवो नाकस्य पृष्टात् स्वर्ज्योतिरगाहम्।। 17,67
क्रमशः-
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