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मानव शरिर एक चक्रव्युह है

यह संसार एक प्रकार कि रण भुमि है, और इस रणभुमि में इस संसार को बनाने वाले ने सभी जीवों को इसमें उलझाने के लिये शरीर रुपी चक्रव्युह रचा है । और इससे निकलने का मार्ग बहुत जटिल बनाया है, हम सब को जीवन इस लिये मिला है कि हम सब इस शरीर के चक्रव्युह को तोड़ने कि तैयारी करें, और अन्तोगत्वा इस चक्रव्युह को तोड़ कर इस संसार से जहां हमारें जीवन में हर एक कदम पर एक नया चक्रव्युह हमारें बनाने वाले ने हम सब के लिये तैयार कर के रखा है। जिसको तोड़ना ही इस जीवन में हम सब कि सफलता कि गारंटी है जो ऐसा करने में असफल रहते है। वास्तव में वह सब जिन्दा ही नहीं वह एक प्रकार कि चलती फिरती लाश के अतिरिक्त एक मिट्टि के पुतले से अधिक नहीं है। जिस प्रकार से अर्जुन से उसका पुत्र इस संसार रूप चक्रव्युह को तोड़ने कि शिक्षा जब वह अपने मां कि गर्भ में था तभी प्राप्त कर लिया था। इसका तात्पर्य सिर्फ इतना है कि हम सब इस संसार में अवतरित होने या जन्म लेने से पहले हि इस कला को अपने मां कि गर्भ में हि सिख लेते है। इसका मतलब सिर्फ इतना है कि हम सब को इस जीवन का जो मुख्य आधार ज्ञान है वह हमारी शरीर में तभी प्रवेश कर जाता है जब हम सब अपनी मां के गर्भ में रहते है। इस ज्ञान मय जीवन का वुद्धि पुर्वक ही इसका विकास का कारण है। सही समय पर उपयोग ना करने से अपने अज्ञान और आलस्य के कारण इसका अभ्यास नहीं करते है, जिससे इसका हरास होता है, जिसके कारण वह पुरुष शिवाय चलती फिरती लाश से अधिक नहीं है, जो इस ज्ञान का वुद्धि पुर्वक अपने जीवन में हर एक कदम पर करते है वह इस संसार के किसी भी चक्रव्युह रूपी क्रुरचक्र में नहीं फंसते है।
यहीं हमें यह महाभारत कि घटना शिक्षा देता है , क्योकि इस चक्रव्युह को तोड़ने कि ना बहुत बड़े अनुभव कि नाही बहुत बड़े ताकत कि जरुरत है ना ही इसमें किसी प्रकार के उम्र ही मायने रखती है। क्योकि महाभारत के युद्ध में क्या अभिमन्यु और अर्जुन के अतिरिक्त कोई दूसरा चक्रव्युह को तोड़ने वाला नहीं था? ऐसा नहीं था कि बहुत लोग थे पांडव की सेना में लेकिन लोगों में उतना अधिक आत्मविश्वाश और दृढ़ संकल्प नही था या उसकी बहुत कमी थी। भिम तो बहुत ताकतवर थे फिर वह क्यों नही चक्रव्युह को तोड़ पाये?, इसका मतलब है कि इस चक्रव्युह को तोड़ने के लिये ताकत से अधिक ज्ञान कि जरुरत थी।
यदि तुम्हें समस्त पापियों में भी सर्वाधिक पापी समझा जाये तो भी तुम दिव्यज्ञान रूपी नाव में स्थित होकर दुःख-सागर को पार करने में समर्थ होगे । श्री कृष्ण के सम्बन्ध में अपनी स्वाभाविक स्थिति का सही-सही ज्ञान इतना उत्तम होता है कि अज्ञान-सागर में चलने वाले जीवन-संघर्ष से मनुष्य तुरन्त ही ऊपर उठ सकता है । यह भौतिक जगत् कभी-कभी अज्ञान सागर मान लिया जाता है तो कभी जलता हुआ जंगल । सागर में कोई कितना ही कुशल तैराक क्यों न हो, जीवन-संघर्ष अत्यन्त कठिन है । यदि कोई संघर्षरत तैरने वाले को आगे बढ़कर समुद्र से निकाल लेता है तो वह सबसे बड़ा रक्षक है । भगवान् से प्राप्त पूर्णज्ञान मुक्ति का पथ है । जैसा कि कृष्ण स्वयं कहते कि इस दिव्य ज्ञान रूपी नाव से जो अत्यन्त सुगम है, किन्तु उसी के साथ-साथ अत्यन्त उदात्त भी । यह जो दिव्य ज्ञान है वह किसी प्रकार कि वैज्ञानि जानकारी नहीं है वह इससे कुछ विशेष है जैसा कि ऋग्वेद का मंत्र बहुत पहले ऋत के नाम संबोधित कर चुका है और यह ऋत तप से आच्छादित है इसकी रक्षा स्वयं इसको बनाने वाला करता है
। वह स्वयं दिव्य ज्ञान रूप ही है।

महाभारत का युद्ध चल रहा था। कौरवों ने चक्रव्यूह की रचना कर दी थी। पांडवों को ललकारा जा रहा था। बात अब आन कि बन गयी थी। सभी पांडव चिंतामग्न थे। चुनौती मिली थी:- या तो चक्रव्यूह तोड़ो या फिर हार मान लो। क्या इसी दिन के लिए महाभारत का युद्ध आरंभ हुआ था? इस बात पर अभी विचार हो ही रहा था कि किसे भेजा आये चक्रव्यूह भेदने के लिए। तभी एक वीर योद्धा आया जिसकी किसी को उम्मीद भी नहीं थी और वो था :- अर्जुन पुत्र अभिमन्यु ।
अभिमन्यु पांडव पुत्र अर्जुन और सुभद्रा का पुत्र था। सुभद्रा कृष्णा और बलराम की बहन थीं। कहते हैं उस समय सभी देवताओं ने पृथ्वीलोक पर अपने पुत्रों को अवतार रूप में धरती पर भेजा था। चन्द्रदेव अपने पुत्र का वियोग सहन नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने कहा कि उनके पुत्र के अवतार को मात्र 16 वर्ष की आयु दी जाए।
अभिमन्यु नाम के अनुसार ही (अभी = निर्भय, मन्यु = क्रोधी) निडर और क्रोधी स्वाभाव के था। अभिमन्यु का बाल्यकाल अपने ननिहाल द्वारिका में ही बीता। उनका विवाह महाराज विराट की पुत्री उत्तर से हुआ। उनके मरणोपरांत एक पुत्र ने जन्म लिया। जिसका नाम परीक्षित था। पांडवों के बाद उनका वंश उन्हीं ने आगे बढाया था।
ऐसा समय शायद कभी न आता यदि अर्जुन वहां होते। अर्जुन जिसने अकेले ही कौरवों की सेना में हाहाकार मचा रखा था। पितामह भीष्म धराशायी हो चुके थे और अब द्रोणाचार्य ने सेनापतित्व संभाला था। दुर्योधन को अर्जुन का प्रक्रम देख चिंता होने लगी। तब दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य से विचार विमर्श कर अर्जुन को युद्धभूमि से दूर ले जाने की बात सोची। उसने संशप्तकों से कह कर कुरुक्षेत्र से दूर लड़ने की चुनौती दिलवाई और उसे वह से हटा दिया। इसलिए पांडवों की इज्ज़त की रक्षा के लिए वीर अभिमन्यु को आगे आना पडा।
युधिष्ठिर ने अर्जुन पुत्र अभिमन्यु को समझाया,

“पुत्र तुम्हारे पिता के सिवा कोई भी चक्रव्यूह भेदने की क्रिया नहीं जानता फिर तुम ये कसी कर पाओगे।”

लेकिन अभिमन्यु जिद कर क बैठा था और उसने कहा,

आर्य! आप मुझे बालक न समझें। मुझमे चक्रव्यूह भेदने का पूर्ण साहस है। पिता जी ने मुझे चक्रव्यूह के अन्दर जाने की क्रिया तो बताई थी किन्तु बाहर आने की नहीं। किन्तु मैं अपने साहस और पराक्रम के बल पर चक्रव्यूह को भेद दूंगा। आप चुनौती स्वीकार करें।”
युधिष्ठिर ने फिर भी अभिमन्यु को समझाने की बहुत कोशिश की परन्तु अभिमन्यु कुछ भी सुनने को तैयार न था। अतः यह निर्णय लिया गया कि अभिमन्यु को चक्रव्यूह तोड़ने के लिए भेजा जाएगा। अभिमन्यु कि सहायता के लिए भी, धृष्टद्युम्न और सात्यकि को भेया गया।
अभिमन्यु ने पहले द्वार पर बाणों की वर्षा करते हुए उसे तोड़ दिया और व्यूह के अन्दर घुस गया। भीमसेन और सात्यकि अभिमन्यु के साथ अन्दर न जा सके। अभिमन्यु किसी प्रचंड अग्नि कि भांति सब को जलाता हुआ आगे बढ़ा चला जा रहा था। सभी महारथी अपने हर बल का प्रयोग कर चुके थे लेकिन कोई भी उसे रोकने में समर्थ न हो सका।
अभिमन्यु हर द्वार को एक खिलौने की भांति तोड़ता हुआ बिना किसी समस्या के आगे बढ़ रहा था। जिससे दुर्योधन और कर्ण तक चिंतित हो गए। उन्होंने ने द्रोणाचार्य से कहा कि अभिमन्यु तो अपने पिता अर्जुन की भांति पराक्रमी है। यदि उसे जल्दी ही न रोका गया तो हमारी सारी योजना असफल हो जायेगी।
अब तक अभिमन्यु बृहद्बल और दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण को यमलोक पहुंचा चुका था। कर्ण, दु:शासन को पराजित कर राक्षस अलंबुश को उसने युद्धक्षेत्र से खदेड़ दिया था। जब कौरवों ने देखा कि उनका कोई भी प्रयत्न सफल नहीं हो रहा तो उन्होंने चल करने की सोची। सभी महारथियों ने जिनमें अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कृतवर्मा, कर्ण, बृहद्बल और दुर्योधन थे, उस पर आक्रमण कर दिया। इन सब के बीच घिरने के बाद भी अभिमन्यु अपना रण कौशल दिखता रहा।
कर्ण ने अपने बाणों से उसका धनुष तोड़ डाला। भोज ने उसका रथ तोड़ दिया और कृपाचार्य ने उसके रक्षकों को मार गिराया। अब अभिमन्यु पूर्ण रूप से निहत्था था। कुछ ही क्षणों में उसके हाथ में एक गदा आ गयी। उसने गदा से ही कई योद्धाओं को मार गिराया। लेकिन अकेला अभिमन्यु इन सब से कब तक लड़ पाता। तभी अचानक दु:शासन के पुत्र ने पीछे से एक गदा अभिमन्यु के सर पर मारा। अभिमन्यु उसी क्षण नीचे गिरा और उस वीर ने वहीं प्राण त्याग दिए।
इस प्रकार एक वीर अर्जुन पुत्र अभिमन्यु के जीवन का अंत हुआ। अभिमन्यु ने जाते-जाते सिखा दिया कि परिस्थितियां कितनी भी बिगड़ जाएँ इन्सान को धैर्य के साथ उनका सामना करना चाहिए। इस संसार में सिर्फ कोई युद्ध जीतना ही श्रेष्ठता नहीं कहलाती, युद्ध में अपना जौहर दिखाने वाले को भी संसार में सम्मान की नजर से देखा जाता है। इसीलिए आप अपने जीवन को योद्धा की तरह जियें ताकि लक्ष्य हासिल हो या न हो। समाज में आपकी एक अलग पहचान जरूर बन जाए।
इस पृथ्वी पर और इस ब्रह्माण्ड के मध्य में यह पृथ्वी बहुत ही क्षुद्र है यदि किसी और जगह से किसी दूसरे ग्रह से हम अपनी पृथ्वि को देखेगे तो पता चलेगा कि यह पृथ्वी केवल एक छोटे से दसमलव से अधिक नहीं है। और यह पृथ्वी पर जो दसमलब से दिख रही हैं। जिस पर बहुत सारे जीवों के साथ मनव भी रहता है, अपने सभी प्रकार कि शुभ और अशुभ वृत्तियों के साथ। और यहीं मानव इस पृथ्वी पर अपने ज्ञान बल छल बल से या किसी और प्रकार से साम, दान, दण्ड, भेद कि निती का उपयोग करके सभी जीवों को अपने अधिन कर लिया है। यहीं नहीं यह मानव प्रकृत पर भी अपना अधिकार जताने लगा है, और उसको अपने बश में करने के लिये प्रयाश रत है। इस मानव ने बड़े – बड़े पहाड़ों पर विजय पा लिया है, बड़ी वड़ी नदियों को अपने बश में कर लिया है। इसने समन्दर कि गहराई को नाप लिया है उर उसमें से भी किमती तत्वों को बड़ी आसानी से अपनी मसिनो के द्वारा निकाल रहा है। इसने यही नहीं अन्तरिक्ष में भी अपने लिये वसेरा बना लिया है, अपने तिब्र यंन्त्रों कि सहायता से चन्द्रमा और मंगल ग्रह परअ पने पैर जमाने में भि कामयाबी हासिल कर लिया है। इसके अतिरिक्य इससे भी सुदूर जो ग्रह है उन पर भी अपने उपग्रहो को भेज दिया है। और वहाँ के बारें में अच्छि जानकारियों को एकत्रित कर लिया है। इसे अतिरिक्त ब्रह्माण्ड के और भी कितने रहस्यों पर से पर्दा उठाता जा रहा है। जो अब तक अतित में नहीं जाना गया था वह अब जानने का दावा कर रहा है। इसके पिछे मनव कि अदम्य शाहस और हौशला के साथ कठिन परिश्रम किया है, हम सब अच्छि तरह से जानते है कि यह मानव कभी गुफाओं में रहता और जंगलों में शिकार करता था जानवरों का, और स्वयं जानवर के समान था। लेकिन इसने अपने बुद्धि का विकास निरंतर किया जिसके कारण इसने अपने को और आराम पुर्वक जीवन जीने के लिये स्वंय को तैयार किया है। इसने कई प्रकार के नये रास्तों का आविस्कार किया सभ्यता संस्कृति और परंम्परा के क्षेत्र में रुढ़ीवादी मान्यताओं को तोड़ कर नये वैज्ञानिक आधारभुत सिद्धान्तों को अपने लिये मिल का पत्थर बना लिया है। जिस मार्ग पर चल कर ही आज का हमारा आधुनिक मानव बना है। जिसने अपने मुट्ठी में मोबाईल को अलादिन के चिराग जैसा पकड़ लिया है। जिसके द्वारा यही से एक कमरे में बैठ कर पुरी पृथ्वि पर क्या हो रहा है? इसके अतिरिक्त वह ब्रह्माण्ड में होने वाले परिवर्तनो पर नजर रखने में सफल हो चुका है। आज का युग विज्ञान का युग है विना विज्ञान कि सहायता के हम सब जहां पर आज है सायद हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे, इसके लिये बहुत बड़ी - बड़ी मानव ने किमत भी चुकाई है कितने लोगों ने अपने जीवन को दाव पर लगा दिया है। केवल इसलिये कि हमारी आने वली पिढ़ि सुखी और समृद्ध हो और जिन कष्टों को मैने झेला है उन कष्टों को हमरी आने वाली पिढ़ी को नहीं झेलना पड़े, इसका मतलब यह नहीं है कि मानव का काम पुरा हो चुका है, यद्यपि अब और काम कठिन हो चुका है। जितना ही कार्य को सरल किया किया इसके साथ मानव मन भी कठिनाई से भागने लगता है और निरंतर यह सरलता कि तरफ ही भागता रहा। कठिनाई चुनौतिया और संघर्ष हमें ताकतवर और शक्तिशली बनाते है। इसके विपरित सरलता और सहजता हम सब को कायर निकम्मा कामचोर और आलसी बनाते है। आज के पास मानव के पास सब कुछ हो सकता है लेकिन ज्ञान कि निरंतर कमी हो रही है, ज्ञान का मतलब जानकारी से नहीं है जैसा कि हम सब समझते है किसी प्रकार कि जानकारी ही ज्ञान है। ज्ञान का मतलब रहस्य से है।
जैसा कि ऋग्वेद का मंत्र कहता हैः- ऋतेन च सत्यंचाभिध्यातरसोध्यजायते।। अर्थात ऋत से सत्य उत्पन्न होता है, और सत्य के धारण करने से तप कि सिद्धि होती और इस तप से यह सम्पूर्ण जगत आच्छादित है। अर्थात बिना तप के या संघर्ष के किसी भी प्रकार कि सफलता कि संभावना नहीं है। सत्य से पहले जो है उसे यहां पर ऋत को बताया जारहा है जो सत्य का आधारभुत अस्थान है या सत्य कि जो जमिन है जहां सत्य उत्पन्न होता है। आज का विज्ञान हमें सत्य के करिब ले जाने में समर्थ कर सकता है यदि हम इसका सही और उचित उपयोग करते है। यह सबसे बड़ी सर्त है कि हमें इसका सही उपयोग करना होगा। यह एक संभावना है जो अभी तक संभव नहीं हो सका है, यह एक तरफा सत्य है हम दृश्यमय जगत कि व्याख्या विज्ञान कि सहायता से करने में समर्थ हो सकते है। लेकिन जो इस दृश्यमय जगत का मुलाधार है जिसके लिये इस मंत्र में ऋत का उपयोग किया गया है वह पूर्णरूपेण से विज्ञान कि पकड़ से छुट जाता है जिसको हम रहस्य कहते है। रहस्य का मतलब किसी पहेली से नहीं है पहेली कितनी भी कठिन हो उसको सुलझाया जा सकता है, जिसको सुलझाया जा सकता है वह पहली है। लेकिन जिसको सुलझाया नहीं जा सकता जितना हि हम सब उसको सुलझाने का प्रयाश करते है वह उतना ङी अधिक उलझती जाती है, यहीं यहां संसार में मानव के साथ होरहा है इस स्वयं के जिवन को जितना अधिक सुलझाने का प्रयाश किया वह उतना ही अधिक और उलझ गया इस जीवन को ले कर जो वस्तुये पहले बहुत सरल थी आज उसको हमने बहुत कछिन बना दिया है। उदाहरण के लिये पहले के समय में लोग सहजता से संयुक्त रूप से बड़े- बड़े परिवारों में सहजता से रहते थे जब यह सब वैज्ञानिक यंत्रों कि इतना अधिक हमारे जीवन में घुसपैठ नहीं था, लोग एक दूसरे के बहुत करिब थे और लोग एक दूसरे के दुःख दर्द को बहुत आसानि से समझते थे। लोगों के विच में बहुत कम दूसरिया थी लोगों का हृदय एक दूसरे के लिये धड़कता था। जबकि आज विज्ञान ने इतने उन्नत और विकसित यंत्रों को इजाद कर लिया है जब जिसके लिये यह ब्रह्माण्ड भी कम लग रहा है जिसकी दूरी को पाटने में समर्थ कर दिया है। इसके साथ हर व्यक्ती के दिलों में दूरिया बढ़ रही है सारे संयुक्त परिवार टुट और विखर चुके है।
इस रहस्य रूपी ज्ञान को समझने के लिये दो धारये इस विकसित कि गई है एक तो वैज्ञानिक और बैचारिक है जिसका सुत्र है जैसा कि यह मंत्र है दूसरा इसका पहलु है प्रयोग जो दर्शनों और उपनिषदों में मिलता है इनका मतलब सिरफ इतना है कि यह स्वयं को ही एक रहस्य बना देते है जो इस रहस्य को खोजने के लिये जाता है वह रहस्य को नहीं पाता है वह स्वयं रहस्य हो जाता है। जिस प्रकार से बुंद सागर कि खोज करने गई बुंद को सागर नहीं मिलता है वह स्वयं को सागर कि तलास में विलिन कर देती है वह स्वयं सागर हो जाती है।

जैसा कि स्वयं गिता में कृष्ण कहते हैः- अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ।। ३६ ।।
आगे रहस्य रूप दिव्य ज्ञान को सरल करते हुये योगेश्वर कृष्ण कहते हैः-

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति । ७ ।।

इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
तात्पर्य : इस श्लोक में जीव का स्वरूप स्पष्ट है । जीव परमेश्र्वर का सनातन रूप से सूक्ष्म अंश है । ऐसा नहीं है कि बद्ध जीवन में वह एक व्यष्टित्व धारण करता है और मुक्त अवस्था में वह परमेश्र्वर से एकाकार हो जाता है । वह सनातन का अंश रूप है । यहाँ पर स्पष्टतः सनातन कहा गया है । वेदवचन के अनुसार परमेश्र्वर अपने आप को असंख्य रूपों में प्रकट करके विस्तार करते हैं, जिनमें से व्यक्तिगत विस्तार विष्णुतत्त्व कहलाते हैं और गौण विस्तार जीव कहलाते हैं । दूसरे शब्दों में, विष्णु तत्त्व निजी विस्तार (स्वांश) हैं और विभिन्नांश अर्थात् जीव, सनातन सेवक होते हैं । भगवान् के स्वांश सदैव विद्यमान रहते हैं । इसी प्रकार जीवों के विभिन्नांशो के अपने स्वरूप होते हैं । परमेश्र्वर के विभिन्नांश होने के कारण जीवों में भी उनके आंशिक गुण पाये जाते हैं, जिनमें से स्वतन्त्रता एक है । प्रत्येक जीव का आत्मा रूप में, अपना व्यष्टित्व और सूक्ष्म स्वातंत्र्य होता है । इसी स्वातंत्र्य के दुरूपयोग से जीव बद्ध बनता है और उसके सही उपयोग से वह मुक्त बनता है । दोनों ही अवस्थाओं में वह भगवान् के समान ही सनातन होता है । मुक्त अवस्था में वह इस भौतिक अवस्था से मुक्त रहता है और भगवान् के दिव्य सेवा में निरत रहता है । बद्ध जीवन में प्रकृति के गुणों द्वारा अभिभूत होकर वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति को भूल जाता है । फलस्वरूप उसे अपनी स्थिति बनाये रखने के लिए इस संसार में अत्यधिक संघर्ष करना पड़ता है ।
न केवल मनुष्य तथा कुत्ते-बिल्ली जैसे जीव, अपितु इस भौतिक जगत् के बड़े-बड़े नियन्ता-यथा ब्रह्मा-शिव तथा विष्णु तक, परमेश्र्वर के अंश हैं । ये सभी सनातन अभिव्यक्तियाँ हैं, क्षणिक नहीं । कर्षति (संघर्ष करना) शब्द अत्यन्त सार्थक है । बद्धजीव मानो लौह शृंखलाओं से बँधा हो । वह मिथ्या अहंकार से बँधा रहता है और मन मुख्य कारण है जो उसे इस भवसागर की ओर धकेलता है । जब मन सतोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप अच्छे होते हैं । जब रजोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप कष्टकारक होते हैं और जब वह तमोगुण में होता है, तो वह जीवन की निम्नयोनियों में चला जाता है । लेकिन इस श्लोक से यह स्पष्ट है कि बद्धजीव मन तथा इन्द्रियों समेत भौतिक शरीर से आवरित है और जब वह मुक्त हो जाता है तो यह भौतिक आवरण नष्ट हो जाता है । लेकिन उसका आध्यात्मिक शरीर अपने व्यष्टि रूप में प्रकट होता है । माध्यान्दिनायन श्रुति में यह सूचना प्राप्त है - स वा एष ब्रह्मनिष्ठ इदं शरीरं मर्त्यमतिसृज्य ब्रह्माभिसम्पद्य ब्रह्मणा पश्यति ब्रह्मणा शृणोति ब्रह्मणैवेदं सर्वमनुभवति । यहाँ यह बताया गया है कि जब जीव अपने इस भौतिक शरीर को त्यागता है और आध्यात्मिक जगत् में प्रवेश करता है, तो उसे पुनः आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है, जिससे वह भगवान् का साक्षात्कार कर सकता है । यह उनसे आमने-सामने बोल सकता है और सुन सकता है तथा जिस रूप में भगवान् हैं, उन्हें समझ सकता है । स्मृति से भी यह ज्ञात होता है-वसन्ति यत्र पुरुषाः सर्वे वैकुण्ठ-मूर्तयः-वैकुण्ठ में सारे जीव भगवान् जैसे शरीरों में रहते हैं । जहाँ तक शारीरिक बनावट का प्रश्न है, अंश रूप जीवों तथा विष्णु मूर्ति के विस्तारों (अंशों) में कोई अन्तर नहीं होता । दूसरे शब्दों में, भगवान् की कृपा से मुक्त होने पर जीव को आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है ।

ममैवांश शब्द भी अत्यन्त सार्थक है, जिसका अर्थ है भगवान् के अंश । भगवान् का अंश ऐसा नहीं होता, जैसे किसी पदार्थ का टूटा खंड़(अंश) । हम द्वितीय अध्याय में देख चुके हैं कि आत्मा के खंड नहीं किये जा सकते । इस खंड की भौतिक दृष्टि से अनुभूति नहीं हो पाती । यह पदार्थ की भाँति नहीं है, जिसे चाहो तो कितने ही खण्ड कर दो और उन्हें पुनः जोड़ दो । ऐसी विचारधारा यहाँ पर लागु नहीं होती, क्योंकि संस्कृत के सनातन शब्द का प्रयोग हुआ है । विभिन्नांश सनातन है । द्वितीय अध्याय के प्रारम्भ में यह भी कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में भगवान् का अंश विद्यमान है (देहिनोस  इसको स्मिन्यथा देहे) । वह अंश जब शारीरिक बन्धन से मुक्त हो जाता है, तो आध्यात्मिक आकाश में वैकुण्ठ लोक में अपना आदि आध्यात्मिक शरीर प्राप्त कर लेता है, जिससे वह भगवान् की संगति का लाभ उठाता है । किन्तु ऐसा समझा जाता है कि जीव भगवान् का अंश होने के कारण गुणात्मक दृष्टि से भगवान् के ही समान है, जिस प्रकार स्वर्ण के अंश भी स्वर्ण होते हैं ।

इसको और स्पष्ट यजुर्वेद का यह मंत्र करता हैः-

ओ३म् वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्यवर्णं तमसो परस्तात् ।

तमेव विदित्वा मृत्युमत्येति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ यजु० ३१।१८
परमेश्वर स्वयं कहते है कि हे मनुष्यों वेदों में बताये गये महान पुरुषों अनुसरण करों यदि तुम इस संसार से और इसके चक्रव्युह से निकलना चाहते तो, आगे वह कहते है कि वह पुरुष कैसा है? इसकी पहचान बताते हुए वह कहते है कि वह पुरुष तेजस्वी और ज्ञानवान होगा प्रकाशवान होगा जैसा कि सूर्य अपने प्रकाश कि किरणों से सारे जगत के अन्धकार को नष्ट कर देता है ऐसे ही वह पुरुष जो ज्ञानवान होगा वह संसार के अज्ञान अन्धकार से आच्छादित चक्रव्युह से निकलेगा। वैसे हि जैसे सूर्य अपनी किरणों के द्वार बादलों को छिन्न भिन्न करके अपनी प्रकास को पृथ्वी तक पहूंचाता है। जिस प्रकार से सूर्य बादलों को परास्थ करता है अपनी ज्वलनशील प्रकाश किरणों से मेघों को नष्ट करता है ऐसे ही तुम्हे भी अपने आत्मा के प्रकाश से अपने मनों मस्तिस्क से अज्ञान अंधकार और अपनी छुद्र मान्यताओं आडम्बरों को तोड़ कर इस शरीर से पार तक जो ले जाने वाला तुम्हारा अस्तित्व है उसके प्रकाश से आलोकित हो कर के इस संसार रूप शरीर के चक्रव्युह से पार होने में समर्थ हो सकते हो। आगली पंक्ती मंत्र की कहती कि जब तब तुम उस को नहीं जान लेते जो सूर्य के समान प्रकाश को देने वाला है तुम्हारी आत्मा तब तुम इस मृत्यु मय संसार के चक्रव्युह को तोड़ने में सफल हो जाते हो इसके शिवाय कोई दूसरा मार्ग नहीं है।
नान्य: पन्था का अर्थ है इसके भिन्न अन्य कोई मार्ग नहीं है।

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