भाषार्थ प्रथम
ईश्वर को नमस्कार और प्रार्थना करके पश्चात् वेदों की उत्पत्ति का विषय लिखा जाता
है कि वेद किसने उत्पन्न किये हैं।( तस्मात् यज्ञात्स०) सत् जिसका कभी नाश नहीं
होता,
चित् जो सदा ज्ञानस्वरूप है जिसको अज्ञान का लेश भी कभी नहीं होता,
आनन्द जो सदा सुखस्वरूप और सब को सुख देने वाला है इत्यादि लक्षणों
से युक्त पुरुष जो सब जगह में परिपूर्ण हो रहा है, जो सब
मनुष्यों को उपासना के योग्य इष्टदेव और सब सामर्थ्य से युक्त है उसी परब्रह्म स (
ऋचः ) ग्वेद ( यजुः ) यजुर्वेद ( सामानि ) सामवेद और ( छन्दांसि ) इस शब्द से
अथर्व भी ये चारों वेद उत्पन्न हुए हैं, इसालेये सब मनुष्यों
को उचित है कि वेदों का ग्रहण करें और वेदोक्त रीति से ही चलें ।( जज्ञिरे ) और (
अजायत ) इन दोनों क्रियाओं के अधिक होने से वेद अनेक विद्याओं से युक्त हैं ऐसा
जाना जाता है। वैसे ही ( तस्मात् ) इन दोनों पदों के अधिक होने से यह निश्चय जानना
चाहिये कि ईश्वर से ही वेद उत्पन्न हुए हैं, किसी मनुष्य से
नहीं । वेदों में सब मन्त्र गायत्र्यादि छन्दों से युक्त ही हैं फिर (छन्दांसि )
इस पद के कहने से चौथा जो अथर्ववेद है उसकी उत्पत्ति का प्रकाश होता है। शतपथ आदि
ब्राह्मण और वेदमन्त्रों के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि यज्ञ शब्द से विष्णु
का और विष्णु शब्द से सर्वव्यापक जो परमेश्वर है उसी को ग्रहण होता है, क्योंकि सब जगत् की उत्पत्ति करनी परमेश्वर में ही घटती है अन्यत्र नहीं
।। १ ।। ( यस्मादृचो अपा० ) जो सर्वशक्तिमान् परमेश्वर है उसी से ( ऋचः ) ऋग्वेद (
यजुः ) यजुर्वेद ( सामानि ) सामवेद ( आङ्गिरसः ) अथर्ववेद ये चारों उत्पन्न हुए
हैं। इसी प्रकार रूपकालङ्कार से वेदों की उत्पत्ति का प्रकाश ईश्वर करता है कि
अथर्ववेद मेरे मुख के समतुल्य, सामवेद लोमों के समान,
यजुर्वेद हृदय के समान आर ऋग्वेद प्राण की नाई है। (ब्रूहि कतमः स्विदेष सः )कि चारों वेद जिससे उत्पन्न हुए हैं सो कौनसा देव
है उसको तुम मुझ से कहो । इस प्रश्न का यह उत्तर है कि ( स्कम्भं तं० ) जो सब जगत्
का धारणकर्ता परमेश्वर है उसका नाम स्कम्भ है, उसी को तुम
वेदों का कर्ता जानो और यह भी जानो कि उसको छोड़ के मनुष्यों को उपासना करने के
योग्य दूसरा कोई इष्टदेव नहीं है, क्योंकि ऐसा अभागा कौन
मनुष्य है जो वेदों के कर्ता सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को छोड़ के दूसरे को परमेश्वर
मान के उपासना करे ।। २ ।। ( एवं वा अरेस्य० ) याज्ञवल्क्य महाविद्वान् जो महर्षि
हुए हैं वह अपनी पण्डिता मैत्रेयी स्त्री को उपदेश करते हैं कि हे मैत्रेयि ! जो
आकाशादि से भी बड़ा सर्वव्यापक परमेश्वर है। उससे ही ऋक् यजुः साम और अथर्व ये
चारों वेद उत्पन्न हुए हैं, जैसे मनुष्य के शरीर से श्वासी
बाहर को आ के फिर भीतर को जाती है इसी प्रकार सष्टि के आदि में ईश्वर वेदों को
उत्पन्न करके संसार में प्रकाश करता है और प्रलय में संसार में वेद नहीं रहते,
परन्तु उसके ज्ञान के भीतर वे सदा बने रहते हैं, बीजाकुरवत् । जैसे बीज में अङ्कुर प्रथम ही रहता है, वही वृक्षरूप हो के फिर भी बीज के भीतर रहता है, इसी
प्रकार से वेद भी ईश्वर के ज्ञान में सब दिन बने रहते हैं, उनका
नाश कभी नहीं होता, क्योंकि वह ईश्वर की विद्या है, इससे इनको नित्य ही जानना। ।
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