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संभोग संसार से उत्थान

 संभोग संसार,

यमस्य मा यम्य काम आगन्त्यसमाने योनौ सहषेय्याय।
जयव पत्ये तन्वंरिरिच्याँ वि चिद् वृहेव रथ्येव चक्रा॥
आश्रर्च्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाश्रर्च्यों ज्ञाता कुशलानिष्टः।
     
    मैने एकहानी सुनी हैं, एक राजकुमार था जिसने अपने गुरु से कहा  मेरी इच्छा है कि मैं तुम्हे सब कुछ देना चाहता हूँ। कृपया आप मुझे अपना शिष्य बना लिजिए, गुरु ने कहा कि मनुष्य अपने मार्ग का चुनाव कैसे करता है? राजकुमार ने उत्तर दिया त्याग और तपस्या के द्वारा। जो मार्ग त्याग की मांग करता है वहीं सत्य का मार्ग है। गुरु ने एक मेज पर एक जोरदार झटका दिया जिससे एक बहुमुल्य गमला गिर गया। जिसको बचाने के लिए राजकुमार कुद पड़ा जिससे उसकी बाह में चोट आ गयी लेकिन उसने गमले को नष्ट होने से बचा लिया।

      गुरु ने पुछा सबसे बड़ा त्याग क्या है? नष्ट होते हुए गमले को देखना या उसको बचाने के लिए अपनी बांह को तोड़ लेना।

      राजकुमार ने उत्तर दिया मैं नहीं जानता। फिर तुम कैसे अपनी पसंद को त्याग के लिए निर्देशित कर सकते हो? सत्य का मार्ग अपनी योग्यता और प्रेम से चुना जाता ना की इसके लिए कष्ट और दुःख उठाने पड़ते हैं।

      स्वयं के अन्दर जाने के दो मार्ग है। एक योग है दूसरा तन्त्र। तन्त्र का ही सम्बन्ध सैक्स से है। संम्भोग समाधान हो सकता है जब उससे पहले संम्भोग में जाने या उतरने से पहले हम स्वयं के अस्तित्व को जानने के लिय थोड़ा ध्यान दे या ध्यान में उतरे जब तक हम ध्यान में नहीं उतरते है। तो संम्भोग नहीं वह एक विमारी है और इस विमारी के शीकार आज समग्र मानवता हो गई है। उसका कारण है। की संभोग का जो तरिका मेथड है। उससे मानव भटकता गया हैं जिस प्रकार से कोई यात्री भटक जाता है अपने मन्जिल से और भुलभुलैया या गोल चक्कर में ही घुमता है। उसी प्रकार से आज जो मानव इस समय पृथ्वी पर हैं वह मार्ग से च्युत होगई है। या युं कहे की यह स्वयं को लेकर ऐसी गहराई में उतर रही है। जिसके पार जीवन का अन्त है। जबकी जीवन एक ऐसा आश्चर्य है जिसका ना प्रारम्भ है। ना ही उसका अन्त है। फिर भी हम सब रोज देखते लोग मर रहे है। इसलिए ही तो महाभारत में युधिष्ठर कहता है। मृत्यु आश्चर्य जिसका कोई प्रमाण नहीं है उसको आश्चर्य कह देते हैं तो यह जीवन एक महान आश्चर्य है इसिलिए यहा उपनिषद का ऋषि कहता है कि श्रोता भी आश्चर्य चकीत होता है और वक्ता भी आश्चर्य होता है। संम्भोग का मतलब है। सम अर्थात समान रूप से मील कर जिस वस्तु का स्त्री पुरुष भोग करते है। जिसमे दोनो को एक समान प्राकृतिक प्रदत्त रस की अनुभूति होति हैं। भोग यह एक ऐसा शब्द है। जिसके कई अर्थ निकलते है। जैसे हम सब प्रायः देखते है आज भी हमारे समाज में किसी ना किसी रूप में विद्यमान है कोई भी नया कार्य करते है तो पहले भगवान या ईश्वर को-को स्मरण करते है, यदि कोई नया कार्य सुरु करते है तो उस कार्य को प्रारम्भ करने से पहले जिसकी भी जिस में श्रद्धा वह उसको एक बार अवश्य ही अपनी आस्था प्रकट करता है। भले ही वह दीखावा करता है। क्योंकि वह जानता है। की जो वस्तु वह परमात्मा को चढ़ा रहा है। उसको वह स्वयं भोग या प्रयोग करेगा बस उसका नाम अवश्य हैं कि परमात्मा को पहले समर्पित कर के ही हमने यह प्रदर्षित किया कि यह मेरा कार्य परमात्मा का ही और वही अन्त में इस सब का पालक या रक्षक है। आज भी यह हम देख सकते है कि जितने बड़ी-बड़ी दुकाने व्यवसाई और विजनिस मैन होता है, भले ही वह कितना पढ़ा लिखा क्यो ना हो? उनकी कम्पनी में अपनी श्रद्धा आस्था के अनुरुप अवश्य ही एक स्थान मील जायेगा जहां पर वह जो उसका स्वामी मालीक है। अपना सर सुबह साम टेकता है जब वह आता है और जब वह जाता है। वही नहीं यहां तक बड़े-बड़े सेमीनार भी करते है। जिससे यह प्रदर्षित करते है अपने आने वाली जनरेषन के लिय की वह एक धार्मीक व्यक्ति है। कहने का मतलब है। कि यह एक परम्परा है। जो पहले से उनके पुरखो के द्वारा चली आरही है और उसका आज भी लोग अनुसरण करते है। आखों पर एक प्रकार की पट्टी कि बाधकर जिस प्रकार से कोल्हु का बैल होता है उसकी आखों पर तेलि कपड़े कि मजबूत पट्टि बाध देता है। कि जिससे बैल को यह ज्ञान नहीं होता है। कि वह एक स्थान का ही चक्कर लगारहा है। सुबह से साम तक और वह यही समझता है। की वह लम्बे सफर को तय कर रहा है। ऐसे ही आज मनुष्य भी है जो कोल्हु के बैल से ज़्यादा नहीं बना पाया है स्वयं को इस समाज मे, मेरा कहने का अर्थ सिर्फ इतना है। कि लोग परम्परा बस ही सही भगवान को याद करके ही षुभ या अषुभ कर्म को करते है। भगवान को पहले भोग लगाकर प्रसाद का फिर किसी और को वह बाटा जाता है। तो इसका अर्थ साफ है। की प्रत्येक कार्य जो महत्त्वपूर्ण समझा जाता है इस समाज में उसे भगवान का नाम लेकर ही क्यो प्रारम्भ करते है? इसके पीछे कारण है। लोगो को कल्याण और उसमे अपना फायदे की बात समझ में आती है इस लिए वह ऐसा करते है इसमे एक प्रकार का स्वार्थ निहित है। जिसमे भैतिक सम्पदा समृद्धि की लालसा छुपी है।

      यह तो गौण है जो की लोग उसे याद करते है और यह अधुरा भी है क्योंकि जो सबसे ज़्यादा किमती है वह है संभोग यदि संभोग इस ग्रह पर नहीं होता है तो क्या हम क्ल्पना कर सकते है। कि मानवता की पीढ़ी का विकास हो सकता है। नहीं तो क्या जो इस ग्रह पर सबसे उच्य कार्य है उसको प्रारम्भ करने से पहले हम सब उस परमात्मा या भगवान को याद करने की परम्परा नहीं है। ऐसा नहीं हो सकता सम्भोग के पहले ध्यान परमात्मा का होन अति आवश्यक माना गया है बिना ध्यान के सम्भोग उसे हम और कुछ कह सकते है। एक प्रकार का पागलपन है। क्योंकि जीतना पवित्र कार्य सम्भोग है। इससे पवित्र कोई कार्य इस पृथ्वी पर है मैं नहीं समझता क्योकि संभोग मानव को एक ऐसे अद्वितिय कार्य में संलग्न करता है। जिससे कारण ही इस पृथ्वी पर उस अदृष्य की कल्पना की हैं। जिसे भगवान कहते है। भगवान अर्थात भग और लिगं को जोण कर ही भगवान बनता है भग का मतलब है योनी और वान का मतलब है लिगं अर्थात जहां दोनो मिलते है। वही भगवान है। परमात्मा का ध्यान करे, ध्यान करने का अर्थ यह नहीं है कि उसका नाम ले-ले जो अनगिनित है और सारे अपूर्ण है। क्योंकि जो अदृष्य हैं उसको हम लौकिक वस्तुओं के आधार पर नाम देते है। जबकि वह अलौकिक हैं। अलौकिक का मतलब हैं। जो इस दृष्यमय जगत से अलग है। या जिसे हमने कभी भौतिक आखो से नहीं देखा है। ना ही देखने की ही कोई संभावना ही है। भीतर देखना सुरु करो। वहा अंतर्दृष्टि का विस्फोट हो जाने दो। अंतर्दृष्टि का वह विस्फोट तुम्हे रुपातरित कर देगा एक झीगे...से तितली मे।

      संभोग का मतलब है। की एक स्त्री और पुरुष का सहवास संर्सग शारिरीक संमबन्ध या एक प्रकार का जबरजस्त आर्कसण खीचाव जो प्रकृतिक है और स्वभाविक सभी प्रणीयों के लिए में है। इस पृथ्वी का जो चरम सुख है। वह संमोग के माध्यम से लोगो के प्राप्त होता है। इसलिए तो पृथ्वी पर आज इसका सबसे ज़्यादा गुणगान हो रहा है। या इसके उपासक है। लोग ने इसके लिए परमात्मा का भी त्याग कर दिया है। इसका उपयोग दो तरह से है पहला अपनी पीढ़ी जनरेषन को आगे बढ़ाने के लिए संतान को पैदा करने के लिए आज इसकी मान्यता बहुत कम हो गई है। इसके अस्थान पर संभोंग शारिरीक सुख या आनन्द के लिए अत्यधिक प्रयोग किया जा रहा है। सैक्स को ही आज के समय परम सुख या चरम आनन्द माना जा रहा है। संभोग को मुख्यतःचार भागो में विभाजित किया जा सकता है। पहला सैक्स या संभोग जो किया जाता है। गृहस्थ या होम सैकसुलिटी कहते हैं। जिसमे लोग विवाह कर के सामाजीक स्विकृति लेकर स्त्री को अपने घर लाते है। उसमे दो कारण का समाधान उन लोगो को मीलता है। पहला वह स्त्री-पुरुष अपनी जनरेषन पीढ़ी को आगे वढ़ाना दूसरा अपनी कामुक वासना की तृप्ति के लिए जिसका वह आजीवन उपयोग करते है। इसमे आगे चल कर एक महान समश्या आगई की एक स्त्री या एक पुरुष आजीवन एक केवल एक जोड़ो के साथ जीवन बीताना काफी कठीन लगने लगा। क्योंकि उसमे कारण था पहला कुछ ऐसी स्त्रीयां थी जो मजबुत स्वस्थ और युवा थी और अत्यधिक कामुक थी जिनको गरीबी या और पारीवारीक दबाव के कारण ऐसे पुरुष के साथ बांध दिया जाता था। जो उसके काम वासना की तृप्ति नहीं कर पाता था वह अयोग्य था। ऐसा ही कुछ पुरुषों को भी ऐसी स्त्रीयों के साथ रहने के लिए विवश कर दिया जाता था, पारीवारीक सामाजीक दबाव के कारण जिनकी कामुक्ता की तृप्ति एक से नहीं होती थी उन्होंने समाज में रह कर और उनकी आखों में धुल झोकर अवैद रुप से दूसरे पुरुष या स्त्रीयों से सम्बन्ध स्थापित कर लेते थे। जिसके कारण कई मानसीक और शारिरीक विमारीयों का जन्म होता है। जैसा ओशों कहते हैं। कि मनुष्यता इस बात के प्रति सचेत नहीं रही है कि परिवार इतिहास की सार्वाधिक अपराधिक संस्था है, क्योंकि यह बच्चे को विकास के लिए बहूत ही कम परिवेश देती है। इस तरह से परिवार में बहुत कम संभावना होती है। की उसमे एक वरीजनल मानव का नीर्वाण हो सके, जो है वह अपवाद के रूप में है। मनुष्यता इस बात के प्रति सचेत नहीं है कि परिवार इतिहास की सार्वाधिक अपराधिक संस्था रही है, क्योंकि यह बच्चे को विकास के लिए बहुत ही कम परिवेश देति है। पति, पत्नि, बच्चा-बहुत छोटा-सा परिवेश है। बच्चा पिता और माँ पर निर्भर होना सीखता है; वह उनकी सब आदतक सिख जाता है, उनका धर्म सीखता है, उनसे हर चीज सीखता है। उनका सीखना बहुत एक आयामी है। वह अपने सीखने में समृद्ध नहीं है।        यदि बच्चा लड़का है तो वह अपने माँ को प्रेम करता है और अपने पीता से नफरत करता है। यदि बच्चा लड़की है तो वह-वह अपने पिता से प्रेम करती है और अपनी माँ को नफरत करती है। माँ लगभग प्रमियोगी है। तुम देख सकते हों छोटी-छोटी लड़कियाँ, अनजाने मे; यह सरल-सा प्रकृतिक स्वभाव है कि अपने पीता के साथ रिझाने का खेल खेलती है। वह एक मात्र पुरुष उपलब्ध है। इसलिए ओशो कहते है। जो इसका समाधान है। यदि परीवार को कम्युन में आ जाता है और अपने को कम्युन में विसर्जित कर-कर देता है तो बच्चे के पास अत्यधिक विशाल जगह होगी। सैकड़ो चाचा, सैकड़ो  चाचीयाँ, होगी और हर स्त्री भिन्न है, हर पुरुष भिन्न है और बच्चे के पास सभी से सीखने का अवसर है।

        यहां कुछ नया नहीं कह रहे है। पहले ऐसा ही होता था जब उपनीषदों को लिखा गया था जैसा की एक घटना आती है। सत्यवान और उसकी माँ जबाला के बारे में जिसको यह ज्ञात नहीं है। की सत्यवान का पिता कौन है? क्योंकि उस समय लोग घरो में पति पत्नी की तरह और बच्चा केवल माँ या बाप के अधिकार में नहीं रहता था जिसके ओशो कम्युन कहते है एसे ही कम्युन (अर्थात गुरुकुल आश्रमों में तमाम स्त्री पुरुष रहते थे) बाद में यह सारी व्यवस्था की गई की औरत को घर में कैद कर दिया गया या एक पुरुष एक स्त्री के अन्डर में बच्चो कें नीर्वाण का अधीकार धीरे-धीरे आगया। कुछ समय पहले तक वहुत बड़े-बड़े संयुक्त परीवार हुआ करते थे उसमे बच्चे को अब से ज़्यादा विकसित होने का अवसर मिलता था, क्योंकि उस समय परीवार में कई सदस्य होतें थे, कई चाचे और कई चाचीयाँ होती थी। जो अब समाप्त हो गया है। जिसके स्थान पर आज न्युक्लियर फैमली ने ले लिया है। जिसकी बात यहां हो रही है। जिसने बच्चों के विकास के लिए जो आवश्यक और खुला हुआ और ज़्यादा लोगो के साथ रहने से फैलने और एक प्रकार के विस्तार का समय मिलता है। उसको अत्यधिक संकृण कर दिया है। जिससें एक ऐसे बच्चों का आवीस्कार हो रहा है, जो अपूर्ण है। जिसके कारण आज का जो मानव है, वह भी आज पहले से कही ज़्यादा सैक्स और संभोग के करीब आता जा रहा है। उसका केन्द्र सैक्स बनता जारहा है। क्योंकि बच्चे को यह देखने का ज़्यादा अवसर मीलता है। की उसके मां बाप किस पर अपना ज़्यादा ध्यान केन्द्रित कर रहे है। तो यह सीम्पल होगया है। जो सबसे बडा क्षेत्र बच्चे के सामने खुल कर आरहा है वह है सैक्स और समाज भी इसी पर केन्द्रित होता जारहा है। जो फिल्मे आरही उसमे हालीवुड या बालीबुड की वह भी इसका ध्यान में रख कर बनाई जाती है। क्योंकि आज के समाज में इसको सबसे ज़्यादा पसन्द किया जारहा है। जिस किसी के साथ सैक्स शब्द जुड़ जाता है। वह सफलता के काफी करीब माना जाता है। इसकी होड़ लगी है आज के युवको और युवतीयों मे। कि मैं सबसे सैक्सी कैसे स्वयं को प्रदर्षीत कर सकता हु। इसके लिए बिषेश रूप से बाकायदा अध्ययन कर रहे है। देश विदेष में यह सब सीखाया जारहा है। जैसा की सेगमेण्ड फ्रायड का मानना है। की सैकस का दमन के कारण ही मनुष्य में इतनी ज़्यादा विमारीयां है। इसका समाधन उसने बताया की सैक्स को पूर्णः स्वतन्त्र किया जाये। एण्डस का कारण भी इसी को-को मानते है। ऐसा रजनीष ओशो का भी मानना है। लेकिन वह यह नहीं मानते की फ्रायड जो कहता है। वह विल्कुल ठीक है। उनके अनुसार मनुष्य की समश्या का समाधन केवल और केवल ध्यान है और सैक्स कि स्विकृति वह कहते है। सैक्स के दमन के कारण ही भारतिए स्त्रीयों में से केवल पांच परसेन्ट ही सैक्स का आनन्द ले पाति है। पश्चिम या युरोप की स्त्रियों की तुलना मे। जो दूसरा सैक्स को विभाजीत किया गया है। वह स्वतन्त्र सैक्स कही भी किसी के साथ जिसमें किसी प्रकार का सामाजीक या पारीवारीक परमीसन लेने की आवयकता नहीं समझी जाती है। जिसको बायों सैक्सुलिटी कहते है। इसमे भी परेसानी आगई फिर एक तिसरे प्रकार के सैक्स की श्रृखला का प्रारम्भ हुआ जिसमे स्त्री या पुरुष के लिए यह आवश्यक नहीं रह जाता की वह स्त्री से स्त्री संभोग करती है और पुरुष-पुरुष से संभोग करता है। यहां तक शादी भी नहीं करता है और चौथा भाग ट्रान्स सैक्सुलिटी जिसमे स्त्री पुरुष अपना मन माफीक लिगं परीवर्तन कराने की स्वतन्त्रता को प्राप्त करते है। भारत ऋषियों का देश था तब इसकी परम्परा और शभ्यता संस्कृति मर्यादा धर्म से प्रत्येक व्यक्ति बधा था और संतुलित था। लेकिन अब वह सब प्रायः लुप्त होगया है। जो उसका अवसेश है। वह भी आज के प्राणीयों के योग्य नहीं है। या स्विकार नहीं रहे है। क्योंकि आज का समय उसको पचानें की क्षमता नहीं रखता है। आज सारा देश विमार है और आज विल्कुल विपरित हवा वह रही है। जा इसके प्रतिकूल है। आज मनुष्य हर प्रकार की स्वतन्त्रता और फ्रिडम के नाम पर उक्षृखल होगया है। जो पश्चिम और युरोप से अत्यधिक घनीष्टता के कारण है और इसको रोकना अब असंभव है। क्योंकि यह अब एक देश की नहीं है। पूरे पृथ्वी की समस्या है। पश्चिम और युरोप की तो संस्कृत ही ऐसी है। मगर उसमे भारत की जो नीव थी वह जरुर लुप्त हो जायेगी यह संम्पूर्ण मानवता की बहुत वड़ी हार है। भुमण्डली करण के कारण उसके बहुत फायदो के साथ उसके कुछ नुकसान भी है। सैक्स आर्कषण का सबसे बड़ा श्रोत है। यह सिर्फ स्त्री पुरुष में ही नहीं यह प्रत्येक प्राणी के विच में जो संवन्ध है उसका कारण सैक्स ही है। संभोग को हम स्त्री पूरुष तक सिमीत नहीं कर सकते है। लेकिन काम का अर्थ है। खीचाव वह खीचाव पति-पत्नि मां-बाप मा-बेटी या वाप-बेटा इसमे जो प्रेम या कामना है। वह कही ना कही सैक्स काम संभोग से जुड़ा है। किसी ना किसी रूप मे। ऐसा मेरा मानने नहीं है। फ्रायड का भी मानना है। जो विश्व में मान्य है। इससे भी एक गहरा खीचावं या आर्कषण है। वह परमात्मा या स्वयं की चेतना का है। जिसकी बात हमारे ऋषियों ने माना है। जो सबसे स्थुल है, वह सैक्स का गुरुत्वाकर्षण है और जो सबसे प्रबल गुरुत्वाकर्षण है वह ईश्वर का है। पहले तो सैक्स का सम्पर्क हम सब का होता है। यह जगत इसी में उलझ जाता है। कुछ ऐसे भी होते है। जो इससे उपर उठ जाते है। या उनके जीवन में इसका गुरुत्वाकर्षण का जोर नहीं होता है। जिस प्रकार वैज्ञानिक पृथ्वी की कक्षा के बाहर उपग्रह को स्थपित करते है। जिसके कारण पृथ्वी पर नहीं गीरता क्योंकि वह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर होता है। इसी प्रकार से जो मनुष्य वैज्ञानिक वुद्धि वाले होते है। वह इस पृथ्वी रुपी शारिरीक सैक्स का जो गुरुत्वाकर्षण उसकी पकड़ से उपर के केन्द्र पर स्वयं को स्थित कर देते है। अब सवाल यह उठता है। वह कौन-सा मार्ग है? जिससे सैक्स और शारिरीक गुरुत्वाकर्षण से बाहर या उपर जा सकते है। तो इसका समाधान जो रास्ता बताया है। वह ध्यान है। जिसकी आत्मा ध्यान रुपी स्पैसक्राफ्ट पर सवार हो जाती है। तो अन्तरिक्ष की यात्रा पर जाने का अवसर वह प्राप्त कर लेती है। जिस प्रकार से आज सब मनुष्यों के लिए संभव नहीं है। अन्तरीक्ष में घुमना किसी के लिए अन्तरिक्ष की यात्रा कर सके उसमे दो कारण है। पहला बहुत ज़्यादा धन की आवश्यक्ता पड़ती है। एक हप्ते तक का किराया कई करोड़ तक लगते है। हो सकता है कि पैसो का इन्तजाम कर लिया जाए मगर जो दूसरा कारण है। वह है स्वास्थ्य का जबरजस्त होना और उसकी ट्रेनिंग लेना काफी कठीन जैसा की सुनिता विलियम्स बताती है। वह सब के लिए कदापी संभव नहीं है। जिस प्रकार से सभी अन्तरीक्ष की यात्रा कर नहीं सकते है। उसी प्रकार से सभी लोग अन्तरजगत की यात्रा नहीं कर सकते है। या फिर ध्यान रुपी स्पैस्क्राफ्ट पर सवारी नहीं कर सकते है। इसमे भी दो कारण है। पहला कारण है। की स्वास्थ्य का ना होना जिसका कारण है। सैक्स का अन्धाधुन प्रयोग और सैक्स की गुलामी जिसने मनुष्य को उसकी शरीर से बांध कर रख दिया है। और आत्मा को तो सिर्फ पृथ्वी पर रह कर ना ही तृप्ति ही मीलती हैं, ना वह स्वयं को पूर्णता की ही अनुभूती ही करा सकती है। इसे आन्तरीक इच्क्षा की तृप्ति के लिए ही बाहरी अन्तरीक्ष की यात्रा करने का विचार मानव मस्तिस्क में आत्मा की प्रेरणा की वजह से ही आया है। जिसके लिए वह प्रयास रत है और अन्तरिक्ष में स्टेषन और होटल बनाए जारहे है। या चाद और मंगल जैसे ग्रहों पर मानव की वस्तिया बसाने की बात काफी जोरो से तैयारी चल रही है। उसमे भारतिए वैज्ञानिक भी लगे है। जो दूसरा कारण है। वह की इस आन्तरीक जगत की यात्रा के लिए जो परम आवश्यक वह ध्यान की शिक्षा या उसका जो वास्तविक तरीका है। उसको जानने वालो की संख्या न के समान है। जो है वह भी उसका ग़लत उपयोग करके दूरप्रयोग ही कर रहे है। जिसके कारण मानव का कल्याण के स्थान पर अकल्याण ही होरहा है। जिस प्रकार से भौतिक उनन्ती होरही है। उसी प्रकार से आध्यात्मिक उन्नति नहीं होरही है। जिसकी वजह से पृथ्वी के जीवन का असंतुलित होजाना है। जिस प्रकार सें पृथ्वी पर से समन्दर को यदि लुप्त कर दिया जाए तो इसका अस्तित्व स्वयं ही खत्म हो जाएगा उसी प्रकार से आध्यात्म का मनुष्य जीवन से लुप्त होना सम्पूर्ण मानवता के अस्तित्व के सर्वनाश का संकेत है। वैज्ञानिक दो प्रकार के होते है। एक आध्यात्मिक जो प्राय लुप्त हो रहे है। जिसकी वजह से ही इस पृथ्वी को एक सैक्सी ग्रह कह सकते है। या फिर ऐसा ग्रह जिसके सारे प्राणी सैक्स रुपी समन्दर में डुब कर मर रहे है। जिसका समाधान भौतिक वैज्ञानिको के पास नहीं है। चारो तरफ सैक्स संभोग का ताण्डव मचा रखा है। इसका रुपान्तरण करने वाले की अत्यधिक ज़रूरत है। जो इस संभोग का रुपान्तरण करके प्रेम करुणा और भक्ति में बदल कर, जिससे इस पृथ्वी की मानवता संतुलन हो और जीवन मृत्यु सम हो और सैक्स का सदुउपयोग कर के उस अदृष्य आत्मा परमात्मा को उपलब्ध कर के स्वयं के जीवन को सफल कर सके।


      संसार में जो हो रहा है। वह उससे कोई सन्तुलन नहीं बन सकता है। क्योंकि यह सब एक तरफा है। संभोग का एक दूसरा पहलु भी हैं जिसके लिए किसी वाहरी स्त्री या बाहरी पुरुष की ज़रूरत नहीं पड़ती है। इसके लिए ओशो कहते जो इसके विशेषज्ञ माने जाते है इस विश्व में आज विश्व में उनकी कीताबो को ५८ भाषाओ में अनुवादित कर के पढ़ा जारहा है। तंत्र कहता हैः यह ऐसे है जैसे कि एक पुरुष और एक स्त्री आलिंगनवद्ध हो और गर्भाधान हो जाए।

       यह ठीक ऐसा ही होता है। अंतस का पुरुष और अंतस कि स्त्री आलीगंनवद्ध हों। यह एक तरह का आंतरिक संभोग है। तुम्हारा स्त्रैण हिस्सा और पुरुष हिस्सा जिससे मीलकर ही यह एक शरीर बनी है। वह एक दूसरे को प्रेम करते है, साथ होने का आनन्द ले तो हो और तब उनके अलग होने की ज़रूरत न रहे।

      बाहरी स्त्री के साथ तुम्हे अलग होना होता है; वर्ना यह वहुत भद्दा हो जाएगा, यह वितृष्णा से भर देगा। बाहरी पुरुष से तुम्हे अलग होना होगा; यह मात्र क्षणीक होसकता है-सिर्फ़ एक क्षण के लिए तुम्हे एक क्षण के लिए मिलन कि झलक मीलेगी। लेकीन अंतस के साथ तुम्हे अलग होने की आवश्यक्ता या ज़रूरत नहीं है।

       बुद्ध हर पल ऑर्गाज्मिक अनुभव की दसा में जीते हैः अतंस की स्त्री और अंतस का पुरुष सतत प्रेम सम्बंध बनाए रहते चलते है। तुमने हिन्दू मंदिरो में शिवलिंग ज़रूर देखा होगा वह प्रतिक है। लिगं के ठीक नीचे योनी है, स्त्रैण हिस्सा, यह अंतस के पुरुष और अतंस के स्त्री के मीलन का प्रतिक है। यह अंतस के विरोधाभाष का प्रतीक है।

       एक बार यह मीलन घट जाता है, तुम्हारा नया जन्म होगया। जिसस निकोडेमस को कहते है, 'जब तक कि तुम फिर से जन्म नहीं लेते...'यह उसका अर्थ है मैं नहीं जानत की ईसाई इसका क्या अर्थ कहते है और नाही मैं परवाह करता हु, लेकिन यह अर्थ जो वे कहते है उसका। यह जन्म है जो वे कहते है और यही है जिसे हिन्दू द्विज कहते है, दूसरा जन्मः तुमने स्वयं को दिया।

        यदि बाहर का पुरुष बाहर की स्त्री से मीलता है तो तुम वच्चे को जन्म देते हो, तुम पैदा करते हो। यदि अंतस का पुरुष और अंतस की स्त्री मिलता है तुम फिर से वच्चा पैदा करते हो, लेकिन तुम ही माता पिता तुम ही वच्चा भी हो। तुम्हारे भीतर नया जन्म सुरु होता है, वुद्ध का जीवन, बुद्धत्व का जीवन, अमृतत्व का जीवन।

         तो इसमे ज़रूर कुछ रीजन की वह काफी कुछ सटीक सत्य कहते है। जैसा की एक अस्थान है उत्तरप्रदेश के सोनभद्र जीले में वह एक अद्वितिय शिव की मन्दिर है। उसका नाम शिवद्वार है, उस मन्दिर में एक ऐसी मुर्ति है। जो विश्व की अपने आप में एक लौति मुर्ति है और वह अष्टधातु से निर्मित बहूत पुरानी अर्ध नारेष्वर की प्रतीमा है, आधा स्त्री के रूप में है और आधा उसका भाग पुरुष के रूप में है। इसी प्रतिमा से प्रेरीत होकर ही बाद में ऐसी मुर्ति का नीर्माण हुआ जो आज हम सब प्रायः मन्दिरों में देख सकते है। शिवलिगं के साथ उसके निचे उसका आधार भुत स्तम्भ के रूप में योनी भी बनाई जाती है। या बनाई गई है। इसका एक आध्यात्मिक पहलु है। जैसा की तन्त्र कहता है। यह तन्त्र क्या है? तिन मुख्य सत्ताये है। ईश्वर, जीव, प्रकृति इसी को यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र कहते है। यन्त्र से मतलब है। शरीर, या ब्रह्माण्ड इसकी सारी व्यवस्था यान्त्रिक है। मन्त्र का मतलब है जो मन्त्रो में है या मन का वह सब विषय जिसे वह समझ सकता है। या उसकी व्याख्या कर सकता है। तीसरा तन्त्र है जिसका मतलब है चेतनता या अस्तित्व के सन्दर्भ में जानने का एक तरीका जिस प्रकार से पुरब में या भारत में योग को जाना जाता है उसी सीक्के का जो दूसरा पहलू है, जिसे तन्त्र कहते है। खुजराहो जो बुन्देलखण्ड जीले में मध्यप्रदेश में है। उन सारी मन्दिरों का नीर्माण तान्त्रिको ने ही किया है। जिसमे कामुक चित्रो और उसी प्रकार के कला कृतियों से भरा पड़ा है। वहा पर पत्थरों पर सम्भोग के बीभिन्न आसनो को ही उकेरा गया है। जिनको विश्व के आश्चर्यों में से एक कहा जाता है। जिस प्रकार की कलाकारी के लिए मिश्र के पिरामिड संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। उसी प्रकार से खुजराहों की मन्दिरें भी प्रसिद्ध है। इनका अपना एक रहस्य है, उसके साथ गुढ़ अर्थ उसमे छुपा है। वह आन्तिरिक जगत का आइना है। सैक्स एक बिमारी महामारी का रूप धारण कर लिया है। लोग इसके लिए बुरि तरह से पागल हो रहे है। हालीवुड में जितनी फ़िल्मे आज बन रही उन सबमे ज़्यादा फील्मो का जो विषय है, उसमे यह दिखाने का प्रयास किया जारहा है। कि दुनिया का अन्त हो गया कभी ऐण्डस के द्वारा तो कभी वायरस के द्वारा तो कभी और कितने कारण को दीखया जा रहा है। इससे एक बात को बल मीलता है। लोगों को इस दुनिया का अन्त करीब दीखाई दे रहा है। इसका दो अर्थ निकलता है। पहला की लोग मृत्यु से अत्यधिक भयभीत है, दूसरा लोगों को भयभीत करके ही उनसे धन को छीना जासकता है या फिर भयभीत होने में ही रस आरहा है। इसका कारण है। सैक्स का जो आध्यात्मिक स्प्रिचुअल अर्थ ना समझना। जिसको समझाने के लिए ही खुजराहों की मन्दिरों का निवार्ण किया गया, वहां की मन्दिरों की एक विशेषता है। की मन्दिर के अन्दर कोई देवी या देवता की मुर्ति नहीं है। उसको बनाने का मतलब इतना है, की लोगो को यह समझ में आ सके की सैक्स की पकड़ बाहरी या शारीरिक है। इसके अन्दर जो प्रवेश करता उसे भरपुर रिक्त स्थान मीलता है जहा बैठ कर वह ध्यान कर सके, स्वयं से तारतम्य स्थापित करने के लिए संभोग को समझे बिना दूसरा रास्ता उलझाने वाला है। इसलिए पश्चिम या युरोप में इसका भरपुर उपयोग वहा के सिद्धो ने किया है। तन्त्र सीधा सैक्स या काम पर कार्य करता है सैक्स या संभोग जीतना खुला पन युरोप पश्चिम में है उतना भारत में नहीं हो पाया है। यह संभावना बढ़ती जारही है। क्योंकि जीतना यह करीब आरहे है, उससे सैक्स को भी खूलने का अवसर प्राप्त होरहा है। जिससे दो अर्थ निकलते है एक पश्चिम जगत का दूसरा पुर्वीय जगत इसकी अपनी जो अलग-अलग मान्यताए है इनको फिर से एक होने का अवसर उपलब्ध होना संपूर्ण मानवता के एक अद्वितिय शिखर का आमंत्रण देरही हैं और इस शीखर पर वही चढ़ पायेगे जो उसके लिए प्यासे है। जिससे उन्हे तृप्ति का परम आनन्द श्रोत मीलेगा। भारतिय संस्कृती का मुख्य आधारभूर स्तम्भ ब्रह्मचर्य को बनाया गया जो अब लगभग समाप्त होता जा रहा हैं।

       प्रश्न-वेदों की उत्पत्ति में कितने वर्ष होगये हैं, उत्तरएक वृन्द, छानवे करोड़, आठ लाख, बावन हजार, नवसौ, छहत्तर अर्थात् (१९६०८५२९११८} वर्ष वेदों की और जगत् की उत्पत्ति में हो गये हैं और यह संवत् सतहत्तरवां (७७) वर्त रहा है। प्र०-यह कैसे निश्चय हो कि इतने ही वर्ष वेद और जगत् की उत्पत्ति में बीत गये हैं?। उ०यह जो वर्तमान मष्टि है इसमें सातवें (७) वैवस्वतमनु को वर्तमान है, इससे पूर्व छः मन्वन्तर हो चुके हैं। स्वायम्भव १, स्वारोचिष २, औत्तमि ३, तामस ४, रैवत ५, चाक्षुष ६, ये छः तो बीत गये हैं और ११ (सातवां) वैवस्वत वर्त्त चल रहा है और सावार्ण आदि ७ (सात) मन्वन्तर आगे भोगेंगे। ये सब मिलके १४ मन्वन्तर होते हैं और एकहत्तर चतुर्युगियों का नाम मन्वन्तर धरा गया है। सो उसकी गणना इस प्रकार से है कि (१७२८०००) सत्रह लाख, अट्ठाईस हजार वर्षों का नाम सतयुग रक्खा है। (१२९६०००) बारह लाख, छानवे हजार वर्षों का नाम त्रेता। (८६४०००) आठ लाख, चौंसठ हजार वर्षों का नाम द्वापर और (४३२०००) चार लाख, बत्तीस हजार वर्षों का नाम कलियुग रक्खा है। तथा आर्यों ने एक क्षण और निमेष से लेके एक वर्ष पर्यन्त भी काल की सूक्ष्म और स्थूल संज्ञा बांधी है और इन चारों युगों के (४३२००००) तितालीस लाख, बीस हजार वर्ष होते हैं जिनका चतुर्युगी नाम है। एकहत्तर (७१) चतुर्युगियों के अर्थात् (३०६७२००००) तसि करोड़, सरसठ लाख, बीस हज़ार वर्षों की एक मन्वन्तर संज्ञा की है और ऐसे २ छः मन्वन्तर मिल कर अर्थात् (१८४०३२००००) एक अर्ब, चौरासी करोड़, तीन लाख, बीस हजार वर्ष हुए और सातवें मन्वन्तर के भोग में यह (२८) अट्ठाईसवीं चतुर्युगी है। इस चतुर्युगी में कलियुग के (१९७६) चार हजार, नवसो, छहत्तर वषों का तो भोग हो चुका है और बाकी (४२७०२४) चार लाख, सत्ताईस हजार, चौबीस वर्षों का भोग होनेवाला है। जानना चाहिए कि (१२०५३२९७६) बारह करोड़, पांच लाख, बत्तीस हजार, नवसौ, छहत्तर वर्ष तो वैवस्वतमनु के भोग हो चुके हैं और (१८६१८७०२४) अठारह करोड़, एकसठ लाख, सत्तासी हजार, चौबीस वर्ष भोगने के बाकी रहे हैं। इन में से यह वर्तमान वर्ष (७७) सतहत्तरवां है, जिस को आये लोग विक्रम को (१९३३) उन्नीससौ तेतीसवां संवत् कहते हैं। जो पूर्व चतुर्युगी लिख आये हैं उन एक हजार चतुर्युगियों की ब्राह्मादिन संज्ञा रक्खी है और उतनी ही चतुर्युगियों की रात्रि संज्ञा जानना चाहिए. सो सृष्टि की उत्पत्ति करके हज़ार चतुर्युगी पर्यन्त ईश्वर इस को बना रखता है। इसी का नाम ब्राह्मदिन रक्खा है और हज़ार चतुर्युगी पर्यन्त सृष्टि को मिटा के प्रलय अर्थात् कारण में लीन रखता है उसका नाम ब्राह्मरात्रि रक्खा है। अर्थात् सृष्टि के वर्तमान होने का नाम दिन और प्रलय होने का नाम रात्रि है। यह जो वर्तमान ब्राह्मदिन है इसके (१८६०८५२९७६) एक अर्ब, छानवे करोड़, आठ लाख, बावन हजार, नवसौ, छहत्तर वर्ष इस सष्टि की तथा वेदों की उत्पत्ति में भी व्यतीत हुए हैं और (२३३३२२०२४) दो अर्ब, तेतीस करोड़, बत्तीस लाख, सत्ताईस हजार, चौबीस वर्ष इस सष्टि को भोग करने के बाकी रहे हैं। इनमें से अन्त का यह चौबीसवां वर्ष भोग रहा है। आगे आनेवाले भोग के वर्षों में से एक २ घटाते जाना और गत वर्षों में क्रम से एक २ वर्ष मिलाते जाना चाहिये, जैसे आजपर्यन्त घटाते बढ़ाते आये हैं। ब्राह्मदिन और ब्राह्मरात्रि अर्थात् ब्रह्म जो परमेश्वर उसने संसार के वर्तमान और प्रलय की संज्ञा की है इसीलिये इसका नाम ब्राह्मदिन है। इसी प्रकरण में मनुस्मृति के श्लोक साक्षी के लिये लिख चुके हैं सो देख लेना। इन श्लोकों में दैववर्षों की गणना की है अर्थात् चारों युगों के बारह हज़ार (१२०००) वर्षों की दैवयुग संज्ञा की है। इसी प्रकार असंख्यात मन्वन्तरों में कि जिनकी संख्या नहीं हो सकती अनेक वार सृष्टि हो चुकी है और अनेक वार होगी। सो इस सष्टि को सदा से सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर सहज स्वभाव से रचता, पालन और प्रलय करता है और सदा ऐसे ही करेगा। क्योंकि सृष्टि की उत्पत्ति, वर्तमान, प्रलय और वेदों की उत्पत्ति के वर्षों को मनुष्य लोग सुख से गिन लें इसीलिये यह ब्राह्मदिन आदि संज्ञा बांधी है और सृष्टि का स्वभाव नया पुराना प्रति मन्वन्तर में बदलता जाता है, इसीलिये मन्वन्तर संज्ञा बांधी है। वर्तमान सटि की कल्पसंज्ञा और प्रलय की विकल्पसंज्ञा की है और इन वर्षों की गणना इस प्रकार से करना चाहिए कि (एकं दशशतं चैव) एक (१) , दश (१०) , शत (१००) , हज़ार (१०००) , दशहज़ार (१००००) , लाख (१०००००) , नियुत (१००००००) , करोड़ (१०००००००) , अर्बुद (१००००००००) , वृन्द (१०००००००००) , खर्व (१००००००००००) , निखर्व (१०००००००००००) , शंख (१००००००००००००) , पद्म (१००. ०००००००००००) , सागर (१००००००००००००००) , अन्त्य (१०००००००००००००००) मध्य (१००००००००००००००००) और पराद्धर्थ १०००००००००००००००००) और दश २ गुणा बढ़ाकर इसी गणित से सूर्यसिद्धान्त आदि ज्योतिष्ग्रन्थों में गिनती की है*। (सहस्रस्यप्र०) सब संसार की सहस्र संज्ञा है तथा पूर्वोक्त ब्राह्मदिन और रात्रि की भी सहस्रसंज्ञा लीजाती है, क्योंकि यह मन्त्र सामान्य अर्थ में वर्तमान है। सो हे परमेश्वर! आप इस हजार चतुर्युगी का दिन और रात्रि को प्रमाण अर्थात् निर्माण करने वाले हो। इस प्रकार ज्योतिषशास्त्र में यथावत् वर्षों की संख्या आर्य लोगों ने गिनी है। सो सृष्टि की उत्पत्ति से लेके आज पर्यन्त दिन २ गिनते और क्षण से लेके कल्पान्त की गणितविद्या को प्रसिद्ध करते चले आते हैं अर्थात् परम्परा से सुनते सुनाते लिखते लिखाते और पढ़ते पढ़ाते आज पर्यन्त हम लोग चले आते हैं। यही व्यवस्था सृष्टि और वेदों की उत्पत्ति के वर्षों की ठीक है और सब मनुष्यों को इसी को ग्रहण करना योग्य है। क्योंकि आर्य लोग निरयप्रति ॐ तत्सत् परमेश्वर के इन तीन नामों का प्रथम उच्चारण करके कार्यों का आरम्भ और परमेश्वर का ही नित्य धन्यवाद करते चले आते हैं कि आनन्द में आज पर्यन्त परमेश्वर की सष्टि और हम लोग बने हुए हैं और बही खाते की नाई लिखते लिखाते पढ़ते पढ़ाते चले आये हैं कि पूर्वोक्त ब्राह्मदिन के दूसरे प्रहर के ऊपर मध्याह्न के निकट दिन आया है और जितने वर्ष वैवस्वतमनु के भोग होने को बाकी हैं उतने ही मध्याह्न में बाकी रहे हैं, इसीलिये यह लेख है (श्री ब्राह्मणो द्वितीय प्रहरा०) । यह वैवस्वतमनु का वर्तमान है, इस के भोग में यह (२८) अट्ठाईसवां कलियुग है। कालियुग के प्रथम चरण का भोग हो रहा है तथा वर्ष ऋतु अयन मास पक्ष दिन नक्षत्र मुहूर्त लग्न और पल आदि समय में हमने फलाना काम किया था और करते हैं अर्थात् जैसे विक्रम के संवत् १९३३ फाल्गुन मास, कृष्णपक्ष, षष्ठी, शनिवार के दिन, चतुर्थ प्रहर के आरम्भ में यह बात हम ने लिखी है। इसी प्रकार से सब व्यवहार आर्य लोग बालक से वृद्ध पर्यन्त करते और जानते चले आये हैं। जैसे बही खाते में मिती डालते हैं वैसे ही महीना और वर्ष बढ़ाते घटाते चले जाते हैं। इसी प्रकार आये लोग तिथिपत्र में भी वर्ष, मास और दिन आदि लिखते चले आते हैं और यही इतिहास आज पर्यन्त सब आर्यावर्त्त देश में एकसा वर्तमान हो रहा है और सब पुस्तकों में भी इस विषय में एक ही प्रकार का लेख पाया जाता है, किसी प्रकार का इस विषय में विरोध नहीं है। इसीलिये इसको अन्यथा करने में किसी का सामर्थ्य नहीं हो सकता। क्योंकि जो सृष्टि की उत्पत्ति से ले के बराबर मितीवार लिखते न आते तो इस गिनती का हिसाब ठीक २ आये लोगों को भी जानना कठिन होता, अन्य मनुष्यों का तो क्या ही कहना है और इससे यह भी सिद्ध होता है कि सृष्टि के आरम्भ से ले के आज पर्यन्त आर्य लोग ही बड़े २ विद्वान् और सभ्य होते चले आये हैं। जब जैन और मुसलमान आदि लोग इस देश के इतिहास और विद्यापुस्तकों का नाश करने लगे तब आर्य लोगों ने सृष्टि के गणित का इतिहास कण्ठस्थ कर लिया और जो पुस्तक ज्योतिषशास्त्र के बच गये हैं उन में और उनके अनुसार जो वार्षिक पञ्चाङ्गपत्र बनते जाते हैं इन में भी मिती से मिती बराबर लिखी चली आती है, इसको अन्यथा कोई नहीं कर सकता। यह वृत्तान्त इतिहास का इसलिये है कि पूर्वापर काल का प्रमाण यथावत् सब को विदित रहे और सृष्टि की उत्पात प्रलय तथा वेदों की उत्पत्ती के वर्षों की गिनती में किसी प्रकार का भ्रम किसी को न हो। सो यह बड़ा उत्तम काम है। इस को सब लोग यथावत् जान लेवें। परन्तु इस उत्तम व्यवहार को लोगों ने टका कमाने के लिये बिगाड़ रक्खा है। यह शोक की बात है और टके के लोभ ने भी जो इस के पुस्तक व्यवहार को बना रक्खा नष्ट न होने दिया यह बड़े हर्ष की बात है। चारों। युगों के चार भेद और उनके वर्षों की घट बढ़ संख्या क्यों हुई है?


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