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न्यायदर्शन सूत्रभाष्य 1


न्यायदर्शन सूत्रभाष्य 1

1.        प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्था नानांतत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः।।
     जैसा की हम सब जानते हैं कि न्यायदर्शन में १६ पदार्थों के तत्व ज्ञान से निःश्रेयस् की सिद्धि बतायी गयी है। १६ पदार्थ इस प्रकार से माने गये हैं-
१. प्रमाण ये मुख्य चार हैं प्रत्यक्ष , अनुमान , उपमान एवं शब्द।
२. प्रमेय ये बारह हैं आत्मा, शरीर, इन्द्रियाँ, अर्थ , बुद्धि, ज्ञान, उपलब्धि , मन, प्रवृत्ति , दोष, प्रेतभाव , फल, दुःख और उपवर्ग। ३. संशय, ४. प्रयोजन, ५. दृष्टान्त, ६. सिद्धान्त चार प्रकार के है : सर्वतन्त्र सिद्धान्त , प्रतितन्त्र सिद्धान्त, अधिकरण सिद्धान्त और अभुपगम सिद्धान्त।, ७. अवयव, ८. तर्क, ९. निर्णय, १० वाद, ११ जल्प, १२ वितण्डता, १३. हेत्वाभास ये पांच प्रकार के होते हैं: सव्यभिचार, विरुद्ध, प्रकरणसम, साध्यसम और कालातीत।, १४. छल वाक् छल , सामान्य छल और उपचार छल।, १५. जाति, १६. निग्रहस्थान।
   जैसा कि प्रमाण चार प्रकार का बताया जा रहा हैं, जिससे किसी वस्तु के अस्तित्व को सिद्ध किया जाता हैं। पहला प्रमाण प्रत्यक्ष जिसका साक्षात्कार हम अपनी बाहरी इन्द्रियों के द्वारा करते हैं, जो हमारी ज्ञान इन्द्रि हैं, जैसे आँख, कान, नाक, जीव्हा, त्वचा, और एक मन भी हैं यह आन्तरीक रुप से विषयों का साक्षात्कार करता हैं। भारतीय दर्शन के सन्दर्भ में, प्रत्यक्ष, तीन प्रमुख प्रमाणों में से एक है। यह प्रमाण सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। 'प्रत्यक्ष' का शाब्दिक अर्थ है- वह वस्तु जो आँखों के सामने हो। यहाँ 'आँख' से तात्पर्य सभी इंद्रियों से है।

    प्रत्यक्ष का अर्थ प्रति+अक्ष होता है। प्रति का अर्थ 'सामने' और अक्ष का अर्थ 'आँख', यानी प्रत्यक्ष का अर्थ 'आँख के सामने' होता है। यहा अक्ष का अर्थ संकुचित न लेते हुए व्यापक अर्थ पाँच इंद्रिय (आँख, कान, नाक, जिह्वा, त्वचा) के सामने अर्थात् पाच इंद्रियों के समक्ष होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान प्राप्ति का साधन है। न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष का अर्थ इंद्रियार्थसंन्निकर्षजन्य ज्ञानम् प्रत्यक्षम् यह है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति कुछ इस प्रकार होती है। इनमें से आत्मा, मन और इंद्रिय का संयोग रूप जो ज्ञान का करण या प्रमाण है वही प्रत्यक्ष है। वस्तु के साथ इंद्रिय-संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है उसी को 'प्रत्यक्ष' कहते हैं।

    गौतम ने न्यायसूत्र में कहा है कि इंद्रिय के द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता है, वही प्रत्यक्ष है। जैसे, यदि हमें सामने आगे जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके ताप का अनुभव करें तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि 'आग जल रही है'। इस ज्ञान में पदार्थ और इंद्रिय का प्रत्यक्ष संबंध होना चाहिए। यदि कोई यह कहे कि 'वह किताब पुरानी है' तो यह प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है; क्योंकि इसमें जो ज्ञान होता है, वह केवल शब्दों के द्वारा होता है, पदार्थ के द्वारा नहीं, इसिलिये यह शब्दप्रमाण के अंतर्गत चला जायगा। पर यदि वही किताब हमारे सामने आ जाय और मैली कुचैली या फटी हुई दिखाई दे तो हमें इस बात का अवश्य प्रत्यक्ष ज्ञान हो जायगा कि 'यह किताब पुरानी है'

   प्रत्यक्ष ज्ञान किसी के कहे हुए शब्दों द्वारा नहीं होता, इसी से उसे 'अव्यपदेश्य' कहते हैं। प्रत्यक्ष को अव्यभिचारी इसलिये कहते हैं कि उसके द्वारा जो वस्तु जैसी होती है उसका वैसा ही ज्ञान होता है। कुछ नैयायिक इस ज्ञान के करण को ही प्रमाण मानते हैं। उनके मत से 'प्रत्यक्ष प्रमाण' इंद्रिय है, इंद्रिय से उत्पन्न ज्ञान 'प्रत्यक्ष ज्ञान' है। पर अव्यपदेश्य पद से सूत्रकार का अभिप्राय स्पष्ट है कि वस्तु का जो निर्विकल्पक ज्ञान है वही प्रत्यक्ष प्रमाण है। नवीन ग्रंथकार दोनों मतों को मिलाकर कहते हैं कि प्रत्यक्ष ज्ञान के करण (अर्थात प्रत्यक्ष प्रमाण) तीन हैं-

(१) इंद्रिय,
(२) इंद्रिय का संबंध, और
(३) इंद्रियसंबंध से उत्पन्न ज्ञान
पहली अवस्था में जब केवल इंद्रिय ही करण हो तो उसका फल वह प्रत्यक्ष ज्ञान होगा जो किसी पदार्थ के पहले पहल सामने आने से होता है। जैसे, वह सामने कोई चीज दिखाई देती है। इस ज्ञान को 'निर्विकल्पक ज्ञान' कहते हैं। दूसरी अवस्था में यह जान पड़ता है कि जो चीज सामने है, वह पुस्तक है। यह 'सविकल्पक ज्ञान' हुआ। इस ज्ञान का कारण इंद्रिय का संबंध है। जब इंद्रिय के संबंध से उत्पन्न ज्ञान करण होता है, तब यह ज्ञान कि यह किताब अच्छी है अथवा बुरी है, प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। प्रत्यक्ष ज्ञान ६ प्रकार का होता है -

(१) चाक्षुष प्रत्यक्ष, जो किसी पदार्थ के सामने आने पर होता है। जैसे, यह पुस्तक नई है।
(२) श्रावण प्रत्यक्ष, जैसे, आँखें बंद रहने पर भी घंटे का शब्द सुनाई पड़ने पर यह ज्ञान होता है कि घंटा बजा
(३) स्पर्श प्रत्यक्ष, जैसे बरफ हाथ में लेने से ज्ञान होता है कि वह बहुत ठंढी है।
(४) रसायन प्रत्यक्ष, जैसे, फल खाने पर जान पड़ता है कि वह मीठा है अथवा खट्टा है।
(५) घ्राणज प्रत्यक्ष, जैसे, फूल सूँघने पर पता लगता है कि वह सुगंधित है। और
(६) मानस प्रत्यक्ष जैसे, सुख, दुःख, दया आदि का अनुभव।
न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान के प्रकार
प्राचीन नैय्यायिकों के अनुसार निर्विकल्प प्रत्यक्ष जो ज्ञान विकल्प के बिना होता है उसे निर्विकल्प प्रत्यक्ष कहते हैं। ( विकल्प: द्रव्य, जाति, गुण, क्रिया) यह ज्ञान प्राप्त करणे कि प्राथमिक अवस्था है।
2.सविकल्प प्रत्यक्ष यह ज्ञान विकल्प के सहित होता है। निर्विकल्प प्रत्यक्ष के अनिश्चित ज्ञान से सविकल्प प्रत्यक्ष का निश्चित ज्ञान होता है।
नव नैय्यायिकों के अनुसार-
1. लौकिक प्रत्यक्ष  इस प्रत्यक्ष मे इंद्रिय और अर्थ इन के संन्निकर्ष से ज्ञान उत्पन्न होता है। इन मे संन्निकर्ष के छ: प्रकार माने गये है। संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समवाय, समवेतसमवाय, विशेषणविशेष्यभाव।
2.अलौकिक प्रत्यक्ष इस प्रत्यक्ष मे तीन प्रकार माने गये है - सामान्यलक्षण, ज्ञानलक्षण, योगज।
      दूसरा प्रमाण अनुमान हैं, अर्थात जिसको हम अपनी इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष तो नहीं करते हैं फिर भी हम अपनी वुद्धी और अनुभव के माध्यम से यह निर्णय करते कि कौन सा विषय कैसा है और इसका आधार क्या हैं जैसे धुंयें को देख कर हम आग का ज्ञान होता हैं। अनुमान, दर्शन और तर्कशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है। भारतीय दर्शन में ज्ञानप्राप्ति के साधनों का नाम प्रमाण हैं। अनुमान भी एक प्रमाण हैं। चार्वाक दर्शन को छोड़कर प्राय: सभी दर्शन अनुमान को ज्ञानप्राप्ति का एक साधन मानते हैं। अनुमान के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता हैं उसका नाम अनुमिति हैं। प्रत्यक्ष (इंद्रिय सन्निकर्ष) द्वारा जिस वस्तु के अस्तित्व का ज्ञान नहीं हो रहा हैं उसका ज्ञान किसी ऐसी वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर, जो उस अप्रत्यक्ष वस्तु के अस्तित्व का संकेत इस ज्ञान पर पहुँचने की प्रक्रिया का नाम अनुमान है। इस प्रक्रिया का सरलतम उदाहरण इस प्रकार है-किसी पर्वत के उस पार धुआँ उठता हुआ देखकर वहाँ पर आग के अस्तित्व का ज्ञान अनुमिति है और यह ज्ञान जिस प्रक्रिया से उत्पन्न होता है उसका नाम अनुमान है। यहाँ प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, केवल धुएँ का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। पर पूर्वकाल में अनेक बार कई स्थानों पर आग और धुएँ के साथ-साथ प्रत्यक्ष ज्ञान होने से मन में यह धारणा बन गई है कि जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहीं-वहीं आग भी होती है। अब जब हम केवल धुएँ का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं और हमको यह स्मरण होता है कि जहाँ-जहाँ धुआँ है वहाँ-वहाँ आग होती है, तो हम सोचते हैं कि अब हमको जहाँ धुआँ दिखाई दे रहा हैं वहाँ आग अवश्य होगी: अतएव पर्वत के उस पार जहाँ हमें इस समय धुएँ का प्रत्यक्ष ज्ञान हो रहा है अवश्य ही आग वर्तमान होगी।

    इस प्रकार की प्रक्रिया के मुख्य अंगों के पारिभाषिक शब्द ये हैं: जिस वस्तु का हमको प्रत्यक्ष ज्ञान हो रहा हैं और जिस ज्ञान के आधार पर हमें अप्रत्यक्ष वस्तु के अस्तित्व का ज्ञान होता है उसे लिंग कहते हैं।
जिस वस्तु के अस्तित्व का ज्ञान होता हैं उसे साध्य कहते हैं। पूर्व-प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर उन दोनों के सहअस्तित्व अथवा साहचर्य के ज्ञान को, जो अब स्मृति के रूप में हमारे मन में है, व्याप्ति कहते है। जिस स्थान या विषय में लिंग का प्रत्यक्ष हो रहा हो उसे पक्ष कहते हैं। ऐसे स्थान या विषय जिनमें लिंग और साघ्य पूर्वकालीन प्रत्यक्ष अनुभव में साथ साथ देखे गए हों समक्ष उदाहरण कहलाते है। ऐसे उदाहरण जहाँ पूर्वकालीन अनुभव में साध्य के अभाव के साथ लिंग का भी अभाव देखा गया हो, विपक्ष उदाहारण कहलाते हैं। पक्ष में लिंग की उपस्थिति का नाम है पक्षधर्मता और उसका प्रत्यक्ष होना पक्षधर्मता ज्ञान कहलाता है। पक्ष-धर्मता ज्ञान जब व्याप्ति के स्मरण के साथ होता है तब उस परिस्थिति को परामर्श कहते हैं। इसी को लिंगपरामर्श भी कहते हैं क्योकि पक्षधर्मता का अर्थ है लिंग का पक्ष में उपस्थित होना। इसके कारण इसी के आधार पर पक्ष में साध्य के अस्तित्व का जो ज्ञान होता है उसी का नाम अनुमिति हैं। साध्य को लिंगी भी कहते हैं क्योंकि उसका अस्तित्व लिंग के अस्तित्व के आधार पर अनुमित किया जाता हैं। लिंग को हेतु भी कहते हैं क्योंकि इसके कारण ही हमको लिंगी (साध्य) के अस्तित्व का अनुमान होता है। इसलिए तर्कशास्त्रों में अनुमान की यह परिभाषा की गई है-लिंगपरामर्श का नाम अनुमान है और व्याप्ति विशिष्ट पक्षधर्मता का ज्ञान परामर्श हैं।
     पाश्चात्य तर्कशास्त्र में अनुमान (इनफरेन्स) का अर्थ भारतीय तर्कशास्त्र में प्रयुक्त अर्थ से कुछ भिन्न और विस्तृत हैं। वहाँ पर किसी एक वाक्य अथवा एक से अधिक वाक्यों की सत्यता को मानकर उसके आधार पर क्या-क्या वाक्य सत्य हो सकते हैं, इसको निश्चित करने की प्रक्रिया का नाम अनुमान है और विशेष परिस्थितियों के अनुभव के आधार पर सामान्य व्याप्तियों का निर्माण भी अनुमान ही है।

अनुमान के भेद
     अनुमान दो प्रकार का होता हैं-- स्वार्थ अनुमान और परार्थ अनुमान स्वार्थ अनुमान अपनी वह मानसिक प्रक्रिया है जिसमें बार-बार के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अपने मन में व्याप्ति का निश्चय हो गया हो और फिर कभी पक्षधर्मता ज्ञान के आधार पर अपने मन में साध्य के अस्तित्व की अनुमिति का उदय हो गया है जैसा कि ऊ पर पर्वत पर अग्नि के अनुमिति ज्ञान में दिखलाया गया है। यह समस्त प्रक्रिया अपने को समझने के लिए अपने ही मन की है। किंतु जब हमको किसी दूसरे व्यक्ति को पक्ष में साध्य के अस्तित्व का नि:शंक निश्चय कराना हो तो हम अपने मनोगत को पाँच अंगों में, जिनको अवयव कहते हैं, प्रकट करते हैं। वे पाँच अवयव ये हैं:

     प्रतिज्ञा - अर्थात् जो बात सिद्ध करना है उसका कथन। उदाहरण : पर्वत के उस पार आग है। हेतु - क्यों ऐसा अनुमान किया जाता हैं, इसका कारण अर्थात् पक्ष में लिंग की उपस्थिति का ज्ञान कराना। उदाहरण : कयोंकि वहाँ पर धुआँ है। उदाहरण - सपक्ष और विपक्ष दृष्टांतों द्वारा व्याप्ति का कथन करना, उदाहराण : जहाँ-जहाँ धुआँ होता हैं, वहाँ-वहाँ आग होती हैं, जैसे चूल्हे में और जहा-जहाँ आग नहीं होती, वहाँ-वहाँ धुआँ भी नहीं होता, जैसे तालाब में। उपनय - यह बतलाना कि यहाँ पर पक्ष में ऐसा ही लिंग उपस्थित है जो साध्य के अस्तित्व का संकेत करता है। उदाहरण : यहाँ भी धुआँ मौजूद है। निगमन - यह सिद्ध हुआ कि पर्वत के उस पार आग है। भारत में यह परार्थ अनुमान दार्शनिक और अन्य सभी प्रकार के वाद-विवादों और शास्त्रार्थों में काम आता है। यह यूनान देश में भी प्रचलित था और यूक्लिद ने ज्यामिति लिखने में इसका भली भाँति प्रयोग किया था। अरस्तू को भी इसका ज्ञान था। भारत के दार्शनिकों और अरस्तू ने भी पाँच अवयवों के स्थान पर केवल तीन को ही आवश्यक समझा क्योंकि प्रथम (प्रतिज्ञा) और पंचम (निगमन) अवयव प्राय: एक ही हैं। उपनय तो मानसिक क्रिया है जो व्याप्ति और पक्षधर्मता के साथ सामने होने पर मन में अपने आप उदय हो जाती हैं। यदि सामनेवाला बहुत मंदबुद्धि न हो, बल्कि बुद्धिमान हो, तो केवल प्रतिज्ञा और हेतु इन दो अवयवों के कथन मात्र की आवश्यकता है। इसलिए वेदांत और नव्य न्याय के ग्रंथों में केवल दो ही अवयवों का प्रयोग पाया जाता है।

    भारतीय अनुमान में आगमन और निगमन दोनो ही अंश है। सामान्य व्याप्ति के आधार पर विशेष परिस्थिति में साध्य के अस्तित्व का ज्ञान निगमन है और विशेष परिस्थितियों के प्रत्यक्ष अनुभव आधार पर व्याप्ति की स्थापना आगमन है। पूर्व प्रक्रिया को पाश्चात्य देशों में डिडक्शन और उत्तर प्रक्रिया को इंडक्शन कहते है। अरस्तू आदि पाश्चात्य तर्कशास्त्रियों ने निगमन पर बहुत विचार किया और मिल आदि आधुनिक तर्कशास्त्रियों ने आगमन का विशेष मनन किया। भारत में व्याप्ति की स्थापनाएँ (आगमन) तीन या तीनों में से किसी एक प्रकार के प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर होती थीं। वे ये हैं :

(1) केवलान्वय, जब लिंग और साध्य का साहचर्य मात्र अनुभव में आता है, जब उनका सह-अभाव न देखा जा सकता हो।

(2) केवल व्यतिरेक जब साध्य और लिंग और लिंग का सह-अभाव ही अनुभव में आता है, साहचर्य नहीं।

(3) अन्वयव्यतिरेक- जब लिंग और साध्य का सहअस्तित्व और सहअभाव दोनों ही अनुभव में आते हों। आँग्ल तर्कशास्त्री जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपने ग्रंथों में आगमन की पाँच प्रक्रियाओं का विशद वर्णन किया है। आजकल की वैज्ञानिक खोजों में उन सबका उपयोग होता है। अथवा कुछ विशेष लक्षणों के द्वारा हमें ज्ञान होता है।
     दर्शन में किसी अज्ञात वस्तु को किसी ज्ञात वस्तु की समानता के आधार पर किसी नाम से जानना उपमान कहलाता है। जैसे किसी को मालूम है कि नीलगाय, गाय जैसी होती है; कभी उसने जंगल में गाय जैसा पशु देखा और समझ गया कि यही नीलगाय है। यह ज्ञान गाय के ज्ञान से हुआ है। किंतु शब्दज्ञान से इसमें भेद है। शब्दज्ञान से शब्द सुनकर बोध होता है, उपमान में समानता से बोध होता है। न्यायशास्त्र में इसे अलग प्रमाण माना गया है किंतु बौद्ध, वैशेषिक आदि दर्शन इसे अनुमान के अंतर्गत मानते हैं।
     आप्त पुरुष द्वारा किए गए उपदेश को "शब्द" प्रमाण मानते हैं। (आप्तोपदेश: शब्द:; न्यायसूत्र 1.1.7)। आप्त वह पुरुष है जिसने धर्म के और सब पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को भली भांति जान लिया है, जो सब जीवों पर दया करता है और सच्ची बात कहने की इच्छा रखता है।

     न्यायमत में वेद ईश्वर द्वारा प्रणीत ग्रंथ है और ईश्वर सर्वज्ञ, हितोपदेष्टा तथा जगत् का कल्याण करनेवाला है। वह सत्य का परम आश्रय होने से कभी मिथ्या भाषण नहीं कर सकता और इसलिए ईश्वर सर्वश्रेष्ठ आप्त पुरुष है। ऐसे ईश्वर द्वारा मानवमात्र के मंगल के निमित निर्मित, परम सत्य का प्रतिपादक वेद आप्तप्रमाण या शब्दप्रमाण की सर्वोत्तम कोटि है। गौतम सूत्र (2.1.57) में वेद के प्रामाण्य को तीन दोषों से युक्त होने के कारण भ्रांत होने का पूर्वपक्ष प्रस्तुत किया गया है। वेद में नितांत मिथ्यापूर्ण बातें पाई जाती हैं, कई परस्पर विरुद्ध बातें दृष्टिगोचर होती हैं और कई स्थलों पर अनेक बातें व्यर्थ ही दुहराई गई हैं। गौतम ने इस पूर्वपक्ष का खंडन बड़े विस्तार के साथ अनेक सूत्रों में किया है (1.1.58-61)। वेद के पूर्वोक्त स्थलों के सच्चे अर्थ पर ध्यान देने से वेदवचनों का प्रामाण्य स्वत: उन्मीलित होता है। पुत्रेष्टि यज्ञ की निष्फलता इष्टि के यथार्थ विधान की न्यूनता तथा यागकर्ता की अयोग्यता के ही कारण है। "उदिते जुहोति" तथा "अनुदिते जुहोति" वाक्यों में भी कथमपि विरोध नहीं है। इनका यही तात्पर्य है कि यदि कोई इष्टिकर्ता सूर्योदय से पहले हवन करता है, तो उसे इस नियम का पालन जीवनभर करते रहना चाहिए। समय का नियमन ही इन वाक्यों का तात्पर्य है।

  

2.        दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापाया दपवर्गः।।
दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष, मिथ्याज्ञान, के उत्तोरत्तर नाश होने पर जैसे कि तत्वज्ञान से मिथ्यज्ञान का नाश होता है, उससे दोष का आभाव होने से प्रवृत्ती की निवृत्ती, जिससे जन्म दूर होता है, उसके ना होने से सब दुःखों का अत्यन्त अंत होना ही मोक्ष है। जब तत्वज्ञान से मिथ्या ज्ञान दूर हुआ तब दोष नष्ट होते हैं । दोषों के नाश से प्रवृत्ति नहीं होती और प्रवृत्ति के रुक जाने से जन्म नहीं होता । बस सब दुःखों के अत्यन्त अभाव को ही अपवगे निःश्रेयस और मोक्ष कहते॥
3.        प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि ३।।
प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये (चार) प्रमाण हैं। इन के लक्षण ग्रन्थकार ने आगे ही किये हैं कि
4.        इन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकंप्रत्यक्षम्।।
इन्द्रिय और अर्थ के संयोग से जो ज्ञान होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं, जिम का नाम न रख सकें, जो अटल यथार्थ और निश्चयरूप हो ।
5.        अथ तत्पूर्वकंत्रिविध मनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतो दृष्टं च।।
   साध्य साधन के संबन्ध देखने से जो ज्ञान होता है उसे अनुमान कहते है, अनुमान से जो सिद्व होता है उसे साध्य और जिस के द्वारा साध्य जाना जाय उसे साधन कहते हैं। इन्ही को लिङ्गी और लिङ्ग भी कहते हैं। जैसे धूम की जा २ देखा वहां२ अग्नि को भी देखने से ज्ञात हुआ कि धूम विना अग्नि नहीं रहता।इसी ज्ञान को व्याप्ति ज्ञान कहते हैं,व्यापक-अधिकरण में व्याप्य का नियम से रहना व्याप्त है। अधिक देश में जी रहे वह व्यापक, जैसे जहां में रहता है वहां अग्नि अवश्य रहता है और जहां धूम नहीं रहता वहां भी रहता है जैसे तपाये हुए लोह के गोले में अग्नि रहता है पर धूम नहीं, इस लिये ग्नि व्यापक और धूम व्याप्य है क्योंकि अग्नि के अभाव में नहीं रहता। अल्प देश में रहने से व्याप्य कहता है फिर कहीं केवन धूम के देखने से ग्नि का ज्ञान होता है इसी को अनुमान कहते हैं । यहां अग्नि साध्य अरि धूम को साधन समझना चाहिये ) अब प्रत्यक्षपूर्वक अनुमान तीन प्रकार का है-१ पूर्ववत् २शेववत् और ३ सामान्यतोद्रष्टा जहां कारण से कार्य का अनुमान होता है, उसे पूर्ववत् " कहते हैं। जैसे बादलों के उठने से होने वाली , बालो वर्ष का अनुमान । क्योंकि बादलों का होना वर्षा का कारण और जो कार्य है। इससे उलटे अर्थात् कार्य से कारण के अनुमान को " शेष वतकहते हैं । जैसे नदी के चढ़ाव से प्रथम हुई वृष्टि का अनुमान । नदी का चढना वर्षा का कार्य है । अन्यत्र वार २ देखने से अप्रत्यक्ष दूसरे के अनुमान को सामान्यतो दृष्ट" कहते हैं। जैसे कोई पदार्थ विना क्रिया के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा नहीं सकते। यह कई बार देखने से सिद्ध हो गया। फिर देवदत्त को एक स्थान छोड़ कर दूसरे स्थान में देख कर उसकी गति का अनुमान करना इस को सामान्यतोद्रष्ट में कहते हैं ।
6.        प्रसिद्धसाधर्म्यात्साध्यसाधनमुपमानम्।।
    प्रसिद्ध पदार्थ के मादृश्य से साध्य के साधने को उपमान कहते हैं । (जैसे किसी मनुष्य को नीलगाय शब्द का अर्थ ज्ञात न था, उस ने किसी से सुन लिया कि जैसी गाय होती है वैसा ही नीलगाय होता है । फिर कभी वन में नीलगाय देख पछा, उसे देखते ही गाय के सदृश नीलगाय होता है इस बात का स्मरण होते ही उस को नीलगाय नाम और यह गौ के सदृश देह उस का अर्थ है । यह ज्ञान उत्पन्न होता है । संज्ञा और उस के अर्थ के सम्बन्ध का ज्ञान होना उपमान प्रमाण का फल है।
7.        आप्तोपदेशः शब्दः।। आप्त के उपदेश को शब्द कहते हैं । (अर्थ के साक्षात्कार करने वाले का नाम आप्त है ) ॥
8.        स द्विविधो दृष्टादृष्टार्थ त्वात् ।।
वह शब्द प्रमाण दो प्रकार का है-एक दूष्टार्थ दूसरा अदृष्टार्थ । (जिसे शब्द का अर्थ इस लोक में देख पड़े वह द्रष्टार्थ, और जिस का अर्थ प्रत्यक्ष से प्रतीत न हो, जैसे-ईश्वर इत्यादि, वह अद्रष्टार्थ है) ।। प्रमाणों का विभाग पूरा हुने, अब प्रमेयों का विभाग लिखते हैं किः,
9.        आत्मशरीरेन्द्रियार्थ बुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयम् ।।
आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दुःख और अपवर्ग ये २ प्रमेय हैं । आत्मा आदि के लक्षण क्रम से कहते हैं । आत्मा प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ता, तो क्या केवल प्रामाणिक लोगों के कहने मात्र से जाना जाता है? नहीं अनुमान से भी आत्मा का ज्ञान होता है । इसी का प्रतिपादन अगले सूत्र से करते हैं।
10.    इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गम् ।।
इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान; आत्मा के लिङ्ग (साधक) हैं । (जिस वस्तु के सम्बन्ध से आत्मा सुख पाता है, उस वस्तु को देख कर लेने की इच्छा करता है। यह इच्छा अनेक पदार्थों के देखने वाले किसी एक द्रष्टा को दर्शन से होती है, इस लिये आत्मा की साधक है। अनेक अर्थों का अनुभव करने वाला कोई ए फ है । जिस अर्थ के संयोग से दुःख पाता है उस से द्वेष करता है, जो वस्तु सुख का साधन है उसे देखने का प्रयत्न करता है। यह अनेक अर्थों के एक द्रष्टा के बिना नहीं हो सकता। सुख और दुःख के स्मरण से यह उस के साधन को ग्रहण करता है। सुख और दुःख को पाता है । जानने की इच्छा करता हुआ विचारता है कि यह क्या वस्तु है, फिर विचार से जानलेता है कि यह अमुक वस्तु है । यह ज्ञान आत्मा का लिङ्ग है।
11.    चेष्टेन्द् रियार्थाश्रयः शरीरम्।।  क्रिया, इन्द्रियें और अर्थ; इन के आश्रय को शरीर कहते हैं ।
12.    घ्राणरसनचक्षुस्त्वक्श्रोत्राणीन्द्रियाणि भूतेभ्यः।। प्राण, रसना, चक्षु, त्वचा और कर्ण; ये पांच इन्द्रिये पञ्चभूतों से उत्पन्न हुई है ॥
13.    पृथि व्यापस्तेजो वायुराकाशमितिभूतानि।। पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और अकरश; ये भूत कहाते ( और ये ही इन्द्रियों के कारण ) हैं
14.    गन्धरसरूपस्पर्शशब्दाः पृथि व्यादि गुणास्तदर्थाः।। गन्ध, रस,रूप, स्पर्श और शब्दः ये पांच पृथिवी आदि पञ्चभूतों के गुग और घाण आदि इन्द्रियों के विषय हैं।
15.    बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञा नमि त्यनर्थान्तरम्।। बुद्धि, उपलब्धि, ज्ञान; ये समानार्थक ( पर्याय ) शब्द हैं ।
16.    युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसोलिङ्गम्।। (घ्राण आदि इन्द्रियों का गन्धादि अपने २ विषयों के साथ सम्बन्ध रहते भी एक ही समय अनेक ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, इस से अनुमान होता है। कि उन २ इन्द्रियों का कोई दूसरा सहकारी कारण है । जिस के संयोग से से ज्ञान होता है और जिस के संयोग न रहने से ज्ञान नहीं होता । इसी का नाम मन है मन के संयोग की अपेक्षा न करके केवल इन्द्रियों और विषयों के संयोग ही को ज्ञान का कारण माने तो एक संग अनेक ज्ञान होने चाहिये और यह अनुभव के विरुद्ध है इस लिये ) एक साथ अनेक ज्ञान उत्पन्न न होना मन की पहचान है ।
17.    प्रवृत्तिर्वाग्बुद्धिशरीरारम्भः।। वाणी, बुद्धि और शरीर से काम करने को प्रवृत्ति कहते हैं ।
18.    प्रवर्तनालक्षणादोषाः।।
प्रवृत्ति के कारण दोष हैं । राग द्वेष और मोह को क्रोध कहते हैं यह तीनों जीव की प्रवृत्ति कराते हैं ॥
19.    पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभावः।। मरकर फिर जन्म लेने को "प्रेत्यभावकहते हैं ।
20.    प्रवृत्तिदोषजनितोऽर्थः फलम्।। प्रवृत्ति और दोषों से उत्पन्न अर्थ को " फल कहते हैं ।
21.    बाध नालक्षणं दुःखम्।। बधंन (पीड़ा) से मिलने को ( जो प्रतिकूल जान पड़े ) दुःख कहते है ॥
22.    तदत्यन्तवि मोक्षोऽपवर्गः।। उस दुःख से अत्यन्त ( बिल्कुल ) विमुक्ति का नाम अपवर्ग ( मोक्ष ) है ॥ अब संशय का लक्षण करते हैं।
23.    समानानेकधर्मोपपत्तेर्विप्रतिपत्तेरुपलब्ध्य नुपलब्ध्य व्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः।। १- ( दूर से सूखा वृक्ष देख कर उस में स्याए और पुरुष के ऊंचाई और मोटापन समान धर्म देखता है, पहिले जो विशेष धर्म देखे थे अर्थात् पुरुष में हाथ पांव और गुंठे वृक्ष में घोंसला आदि उन को जानने की इच्छा करना कि यह क्या वस्तु है, स्थाणु है वा पुरुष ? इन में से एक का भी निश्चय नहीं कर सकना इस अनिश्चयरुप ज्ञान को संशय कहते हैं ॥ -विप्रतिपत्ति अथति परस्परविरोध पदार्थों के सहभाव देखने से भी संशय होता है। जैसे-एक कहता है कि आत्मा है, दूसरा कहता है कि नहीं । सत्ता और असत्ता एकत्र रह नहीं सकीं और दो में से एक का निश्चय कराने वाला कोई हेतु मिलता नहीं वह तत्व का निश्चय न होना संशय है । ३-उपलब्धि की अव्यवस्था से भी संशय होता है। जैसे सत्यजल तालाब आदि में और असत्यजल किरणों में । ऐसे ही ४ अनुपलब्धि की अव्यवस्था से भी संदेह होता है । पहिले लक्षण में तुल्य अनेक धर्म ज्ञेय वस्तु में हैं. और उपलब्धि अनुपलब्धि ये जानने वाले में हैं, इतनी १, २ से ३, ४ में विशेषता है ॥
24.    यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते तत् प्रयोजनम्।। जिस अर्थ को पाने योग्य वा त्यागने योग्य निश्चय करके प्राप्ति वा त्याग का उपाय करें उस ( अर्थ ) को प्रयोजन" कहते हैं ।
25.    लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः।। लौकिक ( साधारण लोग जो शास्त्र नहीं पढ़े ) और परीक्षक ( जो प्रमाणों से अर्थ की परीक्षा कर सकें ) इन दोनों के ज्ञान की समता ( जिस वस्तु को लौकिक जैसा समझते हों, परीक्षक, भी उस को वैसा ही जानते हों इस )का नाम दृष्टान्त है ।।
26.    तन्त्राधिकरणाभ्युप गमसंस्थितिः सिद्धान्तः।। तन्त्र (शास्त्र) के अर्थ की संस्थिति (निर्णय किये अर्थ) को सिद्धान्त कहते हैं ।
27.    स चतर्विधुः सर्वतन्त्र प्रतितन्त्राधिकरणाभ्युप गमसंस्थि त्यर्था न्तरभावात्।। वह सिद्धान्त चार प्रकार का है -सर्वतन्त्र , प्रतितन्त्र २, अधिकरण ३ और अभ्युपगम सिद्धान्त ४ ॥
28.    सर्वतन्त्राविरुद्धस्तन्त्रे ऽधिकृतोऽर्थः सर्वतन्त्रसिद्धान्तः।। सब तन्त्रों ( ग्रन्थों ) से अविरुद्ध किसी एक तन्त्र में स्वीकार किये गये अथे को सर्वतन्त्र सिद्धान्त कहते हैं। (जिस को सब शास्त्रकार माने)
29.    समानतन्त्रसिद्धःपरतन्त्रासिद्धः प्रतितन्त्रसिद्धान्तः।। एक तन्त्र में सिद् और दूसरे में असिनु को प्रतितन्त्र सिद्धान्त " कहते है । ( अपने अपने तन्त्र का सिद्धान्त ) ॥ ।
30.    यत्सि द्धावन्यप्रकरणसिद्धिःसोऽधिकरणसिद्धान्तः।। जिस के सिद्व होने से अन्य अर्थ भी ( नियम से ) सिद्ध हों ( अर्थात् उस अर्थ की सिद्धि विना अन्य अर्थ सिद्ध न हो सके, ) उसे "अधिकरण सिद्वान्तकहते है । (जैसे-देह और इन्द्रियों से भिन्न कोई जानने वाला है, देखने छूने से एक अर्थ के ज्ञान होने से वह इन्द्रियों का अनेकपन, उन के विषयों का नियत होना, इन्द्रियां ज्ञाता के ज्ञान की साधक हैं, इत्यादि विषयों की सिद्धि आप हो जाती हैं । क्योंकि उन के माने बिना उक्त अर्थ का सम्भव नहीं ) ॥
31.    अपरीक्षिताभ्युपगमात्तद्विशेषपरीक्षणमभ्युप गमसिद्धान्तः।। परीक्षा के विना किसी वस्तु के अङ्गीकार करने से उस वस्तु की विशेष परीक्षा करने को "अभ्युपगमसिद्वान्तकहते हैं,। (जैसे मान लिया कि शब्द द्रव्य है, परन्तु वह नित्य है वा अनित्य । यह विशेष परीक्षा हुई । यह सिद्धान्त अपनी बुद्धि की अधिकता और दूसरे की बुद्धि का अनादर करने के लिये काम में आता है अर्थात् हमारी ऐसी तीक्ष्ण बुद्वि है कि तुम्हारे असत्य कहने को मान कर भी हम तुम्हारा खण्डन करते हैं ) ॥
32.    प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनि गमनान्यवयवाः।। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन; ये पांच (वाद के) अवयव (भाग) कहते हैं ।
33.    साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा।। साध्य के कथन को प्रतिज्ञा कहते हैं । जैसे-घट अनित्य है ॥
34.    उदाहरणसाध र्म्यात्सा ध्यसाध नं हेतुः।। उदाहरण के साधम्र्य (तुल्यता) से साध्य के साधने को "हेतकहते हैं। ( जैसे - उत्पत्तिधर्मवान् होने से । जो उत्पत्तिधर्मवान् है अर्थात् जो वस्तु उत्पन्न होता है वह अनित्य देखा गया है। हेतु का लक्षण और भी है किः-)
35.    तथा वधै र्म्यात्।। उदाहरण के वैधम्र्य से भी साध्य के साधने को हेतु कहते हैं । ( जैसे घट अनित्य है, उत्पत्ति धर्मवान् होने से । जो उत्पत्तिधर्मवान् नहीं, वह नित्य है। (जैसे आत्मा-यहां उदाहरण के विरोधी धर्म से घट का अनित्यत्व सिद्ध किया है ) ॥
36.    साध्यसाध र्म्यात्तद्धर्मभावी दृष्टान्त उदाहरणम्।। साध्य के साथ समानता से, साध्य का धर्म जिस में हो, ऐसे दृष्टान्त को उदाहरणकहते हैं । ( जैसे- जो उत्पन्न होता है वह उत्पत्ति धर्मवान् कहता और उत्पन्न होने के पीछे नष्ट भी हो जाता है। इस लिये अनित्य हुआ । इस प्रकार उत्पत्तिधर्म वालापन साधन और अनित्यत्व साध्य हुआ । जिन धर्मों का साध्यसाधन भाव एक वस्तु में निश्चित पाया जाता है, उस को दृष्टान्त में देख, घट में भी अनुमान करना कि घट उत्पत्ति वाला है, लिये अनित्य है। पट की नाईं। यहां पट दृष्टान्त है ) ॥
37.    तद्विपर्ययाद्वा विपरीतम्।। 1 साध्य के विपर्यय से विपरीत ( उलटा ) उदाहरण होता है । (जैसेः-घट अनित्य है, उत्पत्तिधर्मवान् होने से । जो उत्पत्तिधर्मवान नहीं है वह नित्य देखा गया है । जैसे-आकाशादि। यहां दूष्टान्त में उत्पत्तिधर्म के अभाव से नित्यत्व देख कर घट में विपरीत अनुमान किया जाता है क्योंकि घट में उत्पत्ति धर्म है, उस का अभाव नहीं, इस लिये अनित्य है )
38.    उदाहरणापेक्षस्तथेत्युप संहारो न तथेतिवा साध्यस्योपनयः।। उदाहरणाधीन तथाअथवा न तथाइस रूप से साध्य के उपसंहार को उपनय कहते हैं। (उदाहरण दी प्रकार के होते हैं इस लिये उपनय भी दो प्रकार के हुवे । जैसेपट आदि पदार्थ उत्पत्ति वाले होने से अनित्य देखे गये हैं वैसे घट भी उत्पत्तिवान् है । यह घट के उत्पत्ति धर्मवत्व काउ पसंहार हुआ । साध्य के विरुद्ध उदाहरण में आत्मादि पदार्थ उत्पत्तिमान न होने से नित्य हैं और घट तो उत्पत्तिधर्म वाला है। यह अनत्पत्ति धर्म के निषेध से उत्पत्तिधर्मवत्व का उपसंहार हुआ । अर्थात् जहां साधम्र्य का दृष्टान्त होगा वहां तथा ऐसा उपनय होगा । और जहां वैधम्र्य का दृष्टान्त होगा वहां न तथा का ) ॥
39.    हेत्वप देशात् प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनम्।। इम लिये उत्पत्तिधर्मवान् होने से घट अनित्य है। इसे निगमन कहते हैं। (प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण और उपनय; ये जिस में एकत्र समर्थन किये जांय उस को निगमन कहते हैं । सुगमता के लिये पूर्वोक्त सब अवयव फिर दिखलाये जाते हैं । घट अनित्य है, यह प्रतिज्ञा । उत्पत्तिधर्ममानू होने से यह हेतु । उत्पत्ति धर्मवान् पटादि द्रव्य अनित्य देखने में आते हैं यह उ हरण । ऐसा ही घट भी उत्पत्तिधर्मवान् है, इस को उपनय कहते हैं। लिये उत्पत्तिधर्मवाना होने से घट अनित्य सिद्ध हुआ, इस का नाम निगमन है।
40.    अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थ मूहस्तर्कः।।  नहीं जाना है तत्व जिस का, ऐसे अर्थ में हेतु की उपपत्ति से तत्त्वज्ञान के लिये किये हुवे विचार को तर्क कहते हैं ॥ (जिस वस्तु का तत्व ज्ञात नहीं है)

41.    वि मृश्यपक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः।। साधन और निषेध से विचार करके अर्थ के निश्चय की निर्णय कहते हैं ॥ साधन और निषेध के कथन पक्ष प्रति क्ष अह ते हैं । इन में से एक की निवृत्त होने से इ परे । त्यति अवश्य हो जायगी, जिस की स्थिति हो । नुन का निश्चय होगा, इसी को निर्णय कहते हैं ।
वाद, जल्प और वितण ये तीन प्रकार की कथा होती हैं उन में है वाद का लक्षण यह है किः--

 इति प्रथम आह्निकः

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