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कठोपनिषद अध्याय -1 वल्लि -1 श्लोक 1-29

उशन्ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ । तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस ॥ १ ॥ 
आचार्य राजवीर शास्त्री
पदार्थ—(ह वै) ये दोनों निपात यम-नचिकेता के प्रसिद्ध आख्यान को स्मरण कराने के लिए हैं । अर्थात् ब्रह्मज्ञानियों को इस इतिहास का स्मरण करना चाहिए कि (उशन्) संसार की सब एषणाओं का परित्याग तथा दुःखों से छूटने की इच्छा करते हुए (वाजश्रवसः) वाजश्रवा अन्नादि पदार्थों के स्वामी तथा विद्वान् व्यक्ति ने (सर्ववेदसम्) अपने सब अन्न धनादि पदार्थों को (ददौ) दे दिया अर्थात् विश्वजित्=सर्वमेध यज्ञ किया और उसमें सर्वस्व त्याग कर संन्यास ग्रहण किया । (तस्य) उसका (ह) निश्चय से (नचिकेताः, नाम) नचिकेता नाम का (पुत्रः) पुत्र (आस) था । भावार्थ—यहां ‘ह वै’ पद प्रसिद्ध आख्यान को बताने के लिए प्रयुक्त हैं । ‘नचिकेताः’ तथा ‘वाजश्रवसः’ शब्द भी ऐतिहासिक व्यक्ति-विशेष के वाचक नहीं हैं, प्रत्युत इनके शाब्दिक अर्थ के अनुसार ही अर्थ लेना चाहिए । ‘नचिकेताः’ का अर्थ अपरिणामी अमर जीवात्मा है । ‘चिकेताः’ पद गत्यर्थक निघण्टु पठित ‘चिकेतति’ क्रिया से ‘असुन्’ प्रत्ययान्त है । और नञ्समास करने पर ‘नचिकेताः’ शब्द बनता है । जिसका अर्थ है—शरीर में अविचल=अपरिणामी जीवात्मा और ‘वाजश्रवसः’ का अर्थ है—“वाजोऽन्नं श्रवः=धनं यस्य” अर्थात् जिसके अन्नादि पदार्थ ही धन हैं अर्थात् ऐश्वर्य-सम्पन्न व्यक्ति । अथवा—“वाजोऽन्नं विज्ञानं वा श्रवः=श्रवणं विद्या च यस्य सः” जिसके पास भौतिक अन्नादि ऐश्वर्य या विज्ञान तथा विद्या दोनों हैं, ऐसे ऐश्वर्यवान् तथा विज्ञानयुक्त विद्वान् व्यक्ति को ‘वाजश्रवाः’ कहते हैं । विश्वजित्=सर्वमेधयज्ञ प्राजापत्येष्टि ही है, जिसमें मोक्षार्थी को सर्वस्व त्याग करना पड़ता है । जिसके विषय में मनुस्मृति के प्रमाण देकर महर्षि दयानन्द लिखते हैं— “अधीत्य विधिवद् वेदान् पुत्रांश्चोत्पाद्य धर्मतः । इष्ट्वा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे नियोजयेत् ॥१॥ प्राजापत्यां निरूप्येष्टिं सर्ववेदसदक्षिणाम् । आत्मन्यग्नीन् समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद् गृहात् ॥२॥” (मनु०) अर्थ—विधिपूर्वक ब्रह्मचर्याश्रम से सब वेदों को पढ़ गृहाश्रमी होकर धर्म से पुत्रोत्पत्ति कर, वानप्रस्थ में सामर्थ्य के अनुसार यज्ञ करके मोक्ष में अर्थात् संन्यासाश्रम में मन लगावे ॥१॥ प्रजापति परमात्मा की प्राप्ति के निमित्त प्राजापत्येष्टि कि जिसमें यज्ञोपवीत और शिखा का त्याग किया जाता है, आहवनीय, गार्हपत्य, और दाक्षिणात्य संज्ञक अग्नियों को आत्मा में समारोपित करके ब्राह्मण विद्वान् गृहाश्रम से ही संन्यास लेवे ॥२॥ (संस्कार० संन्यासप्रकरण से) और मनुस्मृति तथा उपनिषद् दोनों में ‘सर्ववेदसम्’ पद पठित है । मनु ने यहां स्पष्ट लिखा है कि अपने सब पदार्थों को ‘प्राजापत्येष्टि’ में दक्षिणा में देना चाहिए । यही भाव उपनिषत् के आख्यान से भी स्पष्ट हो रहा है । न्यायदर्शन के भाष्यकार वात्स्यायन मुनि इस विषय में लिखते हैं—“प्राजापत्यामिष्टिं निरूप्य तस्यां सर्ववेदसं हुत्वा आत्मन्यग्नीन् समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेत् ।” इति श्रूयते, तेन विजानीमः—प्रजावित्त- लोकैषणाभ्यो व्युत्थितस्य निवृत्ते फलार्थित्वे समारोपणं विधीयत इति ॥” (न्याय० ४।१।६१ वात्स्या०) अर्थात् ब्राह्मण=ब्रह्मनिष्ठ मोक्ष की इच्छा वाला प्राजापत्येष्टि करके उसमें अपने सब भौतिक पदार्थों को दक्षिणा में ऋत्विजों को देकर आत्मा में अग्नि=ब्रह्माङ्गनि का समारोपण करके संन्यासी हो जाए । इसी प्रकार याज्ञवल्क्य मुनि ने भी सर्वस्व त्यागकर संन्यास की दीक्षा ली थी । इस विषय में ब्राह्मणग्रन्थों का प्रमाण देते हुए वात्स्यायनमुनि लिखते हैं—“एवं च ब्राह्मणानि—सोऽन्यद् व्रतमुपाकरिष्यमाणो याज्ञवल्क्यो मैत्रेयीमिति होवाच—प्रव्रजिष्यन् वा अरे अहमस्मात् स्थानादस्मि होक्त्वा याज्ञवल्क्यः प्रवव्राज ।” (न्याय ४।१।६१ वात्स्या०) सर्वमेध=प्राजापत्येष्टि में दी जाने वाली दक्षिणा में त्रुटि देखकर ...इति नचिकेता के हृदय में क्या भाव उत्पन्न होते हैं, उनका कथन करते हैं—
 तं कुमारं सन्तं दक्षिणासु नीयमानासु श्रद्धाविवेश सोऽमन्यत ॥ २ 
पदार्थ—(ह) यह प्रसिद्ध है कि (तम्) उस (कुमारम्) अज्ञानी नचिकेता को (दक्षिणासु) दान किए हुए गायादि पदार्थों के (नीयमानासु) विद्वान् वेदपाठी ऋत्विजों को यथायोग्य देते समय (श्रद्धा) सत्य भावना अथवा आस्तिकता रूप बुद्धि (आविवेश) उत्पन्न हुई (सः) और वह नचिकेता (अमन्यत) विचार करने लगा । भावार्थ—नचिकेता को यहां ‘कुमार’ शब्द से अज्ञानी होने के कारण कहा गया है । ऐसा ही मनु जी मानते हैं ‘अज्ञो भवति वै बालः।’ जब उसने देखा कि मेरे पिता ऋत्विजों को ऐसी दक्षिणा दे रहे हैं, जिसका फल तो क्या मिलेगा, प्रत्युत पाप का भागी बनना पड़ेगा । ऐसी दक्षिणा देने से क्या लाभ ? इस प्रकार नचिकेता विचार करने लगा । नचिकेता अपने पिता द्वारा दी जाने वाली दक्षिणा के दोष के विषय में विचार करता है—
पीतोदका जग्धतृणादुग्धदोहा निरिन्द्रियाः । अनन्दा नाम ते लोकास्तान्स गच्छति ता ददत् ॥ ३ ॥ 

पदार्थ—जो गौएँ (पीतोदकाः) पहले पानी पी चुकी हैं, जो (जग्धतृणाः) तृण (चारा) खा चुकी हैं (दुग्धदोहाः) जिनका दूध दुहा जा चुका है और (निरिन्द्रियाः) दुर्बलेन्द्रिय होने से प्रजननादि में भी असमर्थ हैं । (ताः) उन वृद्ध गायों को जो (ददत्) दक्षिणा में देता है (सः) वह (अनन्दाः) आनन्द-रहित दुःखमय (ते) वे (नाम) प्रसिद्ध (लोकाः) स्थान-विशेष अथवा जन्म हैं, (तान्) उन लोकों को (गच्छति) प्राप्त होता है । भावार्थ—नचिकेता ने अपने पिता को दक्षिणा में ऐसी वृद्ध गौओं को देते हुए जब देखा जो वृद्धावस्था के कारण खाने-पीने तथा सन्तानोत्पत्ति करने में असमर्थ हैं, तब वह सोचने लगा कि ऐसी दक्षिणा देकर पिता जी दक्षिणा के फल से तो वञ्चित ही रहेंगे और उनको दुःखमय जन्मों में जाना होगा । उन्हें कदापि स्वर्गसुख प्राप्त न हो सकेगा। ऐसा सोचकर वह अपने पिता के पास जाकर अपनी भावना प्रकट करता है और पिता जी को भावी दुःख से बचाने की बात सोचता है । तत्पश्चात् दक्षिणा में त्रुटि समझकर नचिकेता पिता के पास जाकर कहता है—

स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यसीति द्वितीयं तृतीयं तं होवाच मृत्यवे त्वा ददामीति ॥ ४ ॥ 

पदार्थ—(ह) यह प्रसिद्ध है कि (सः) वह नचिकेता (पितरम्) अपने पिता वाजश्रवस ऋषि से (उवाच) कहने लगा कि (तात) हे तात—पिता जी ! (माम्) मुझे (कस्मै) किसके लिए (दास्यसि) दोगे अर्थात् आपने अपना सब कुछ (गाय आदि) दक्षिणा में दे दिया, केवल मैं एक शेष रहा हूं (इति) इस प्रकार अर्थात् पिता ने अबोध पुत्र की बात पर कुछ ध्यान नहीं दिया और कोई उत्तर नहीं दिया । तब नचिकेता ने वही बात (द्वितीयम्) दूसरी बार (तृतीयम्) तथा तीसरी बार (ह) निश्चय से वही बात (उवाच) कही अर्थात् मुझे किस को दोगे ? तब पिता ने क्रुद्ध होकर कहा कि (मृत्यवे) मृत्यु के लिए (त्वा) तुझे (ददामि, इति) दूंगा, इस प्रकार । भावार्थ—सर्ववेदस याग में दक्षिणा में बूढ़ी गायों को दान करते हुए अपने पिता को देखकर नचिकेता से नहीं रहा गया और वह पिता से अपनी बात को प्रकारान्तर से कहने के लिए बार-बार आग्रह करता है कि मैं भी आपका ही धन हूं । मुझे आप किसको दोगे ? अबोध बालक के बार-बार आग्रह करने पर पिता ने क्रुद्ध होकर यह कहा कि मैं तुझे मृत्यु को देता हूं । पिता ने यह बात केवल धमकाने के लिए कही थी । अन्यथा कौन ऐसा निर्दयी पिता है, जो अपने पुत्र को मृत्यु को देना चाहता हो ? अपने पिता के क्रोधावेश में कहे वचन सुनकर नचिकेता मन में विचार करने लगा कि—
बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमः । किं स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाद्य करिष्यति ॥ ५ ॥ 

पदार्थ—मैं (बहूनाम्) बहुत बालकों में (प्रथमः) प्रथम=उत्तम भाव को (एमि) प्राप्त हूं (बहूनाम्) बहुत बालकों में मध्यमभाव को (एमि) प्राप्त हूं अर्थात् मैं किन्हीं की अपेक्षा निकृष्ट नहीं हूं, पुनरपि पिता ने ऐसा क्यों कहा कि तुझे मृत्यु को दूंगा ? इस प्रकार एकान्त में बैठा नचिकेता विचार करने लगा कि (यमस्य) मृत्यु का (किंस्वित्) क्या (कर्त्तव्यम्) करने योग्य कार्य शेष है (यत्) जिसे पिता (अद्य) इस समय (मया) मेरे से (करिष्यति) करायेंगे । भावार्थ—नचिकेता ने पिता के वचनों पर विचार करना शुरू किया कि मैं ऐसा अयोग्य नहीं हूं कि पिता ने मुझ से दुःखी होकर मृत्यु को देने के लिए कह दिया हो अथवा यम का क्या कार्य शेष है, जिसे पिता मेरे से कराना चाहते हैं ? भाव यह है कि यम परमात्मा का नाम है, उसके द्वारा उपदिष्ट जो वेद-ज्ञान है, उसमें निर्दिष्ट कर्त्तव्यों में कौन सा शेष रह गया है कि जो मेरे पिता मेरे से कराना चाहते हैं । अथवा नचिकेता के पिता ने अपने पुत्र को ब्रह्मविद्या दिलाने के लिए ही ‘मृत्यु’ को देने को कहा है । मृत्यु के बाद आत्मा की सत्ता है, या नहीं ? आत्मा किसकी व्यवस्था से जन्म-जन्मान्तरों को प्राप्त होता है ? इस प्रकार की शिक्षा को उपचार से ‘मृत्यु’ शब्द कहा गया है । ‘मृत्यु’ अथवा ‘यम’ कोई स्थानविशेष में रहने वाला देवता नहीं है। नचिकेता प्राचीन-परम्पराओं का स्मरण कराते हुए पिता जी को प्रतिज्ञा-पालन के लिए आग्रह करता है—
अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथा परे । सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः ॥ ६ ॥ 
पदार्थ—आप सदृश धर्मात्मा पुरुषों को शोक कभी नहीं करना चाहिए (यथा) जिस प्रकार (पूर्वे) हमारे पितामहादि पूर्वज वृद्ध लोग सत्-आचरण करते रहे हैं (तथा) उसी प्रकार आप भी (अनुपश्य) अनुसरण कीजिए अर्थात् शोकरहित होकर अपने वचनों का पालन कीजिए और (परे) दूसरे धर्मात्मा सत्पुरुष जैसे अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हैं, वैसे ही (प्रतिपश्य) आप भी प्रतिज्ञा का पालन करें । प्रतिज्ञा का पालन इस विनश्वर शरीर के मोहजाल में पड़कर नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि (मर्त्यः) मनुष्य (सस्यम्, इव) खेत में उत्पन्न हुए जौ आदि के समान (पच्यते) जीर्ण अर्थात् वृद्धावस्था को प्राप्त करता है और (पुनः) फिर मरने के बाद (सस्यम्, इव) खेती के समान (आजायते) उत्पन्न होता है । भावार्थ—नचिकेता अपने कुल की मान-मर्यादाओं की तरफ ध्यान दिलाते हुए अपने पिता जी को प्रतिज्ञा-पालन करने के लिए विवश करता है, और सत्पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करने का आग्रह करता है । नचिकेता ने विनश्वर शरीर की अपेक्षा प्रतिज्ञा-पालन के महत्त्व पर अधिक बल देते हुए कहा कि आत्मा तो अमर है और यह शरीर तो खेती की तरह बार-बार मिलता रहता है । अतः इसके मोह-जाल में फंसकर प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ना चाहिए । इससे मुझे मृत्यु आचार्य को अवश्य देकर अपने वचनों का पालन कीजिए । क्योंकि अवश्यम्भावी इस विनश्वर मानव-जीवन के लिए प्रतिज्ञा-भङ्ग करना उचित नहीं है । नचिकेता के समझाने पर पिता ने नचिकेता को मृत्यु को दे दिया। मृत्यु=ब्रह्मज्ञानी आचार्य के घर पर नचिकेता गया किन्तु वे घर पर नहीं थे। तीन दिन के बाद जब मृत्यु घर पर आए तो उनको बताया गया। कि—
वैश्वानरः प्रविशति अतिथिर्ब्राह्मणो गृहान् । तस्यैतां शान्तिं कुर्वन्ति हर वैवस्वतोदकम् ॥ ७ ॥ 
पदार्थ—(वैवस्वत) हे विवस्वान् के पुत्र यमाचार्य ! (गृहान्) घर में (वैश्वानरः) अग्नि के समान तेजस्वी ब्रह्मतेज को धारण करने वाला (ब्राह्मणः) ब्रह्मचारी या विद्वान् (अतिथिः) अतिथि (प्रविशति) प्रवेश करता है । (तस्य) उस अतिथि की (एताम्) परम्परा से प्राप्त सत्कार रूप (शान्तिम्) सुखद प्रसन्नता को (कुर्वन्ति) सत्पुरुष करते रहे हैं, इसलिए आप भी (उदकम्) अर्घ्य जलादि सत्कार सामग्री को (हर) प्राप्त कीजिए अर्थात् अतिथि का योग्य सत्कार कीजिए । भावार्थ—यहां विद्वान् अतिथि को वैश्वानर=अग्नि के समान ज्ञानादि गुणों का प्रकाशक तथा दुर्गुणों और अज्ञान को जलाने वाला कहा है । जो ऐसे अतिथि की योग्य सेवा से सत्कार नहीं करते, वे अग्नि से दग्ध होने के समान उत्तम गुणों के प्राप्त न होने से सदा दुःखी रहते हैं। यहां यम को वैवस्वत=विवस्वान्=सूर्य का पुत्र कहा है । उसका आशय यह है कि सूर्य काल का निर्माण करता है और ‘कालः पचति भूतानि’ काल सब प्राणियों को पकाता अर्थात् नष्ट कर देता है, ऐसा ईश्वरीय-नियम सर्वत्र सृष्टि में दिखाई देता है । अतः अवश्यम्भावी विनश्वरभाव को याद दिला कर कर्त्तव्यपालन से विमुख न होने की शिक्षा दी गई है । प्रसङ्ग-वश अतिथि-सत्कार न करने से क्या-क्या दोष होते हैं, उनका कथन करते हैं—
आशाप्रतीक्षे सङ्गतं सूनृतां च इष्टापूर्ते पुत्रपशूंश्च सर्वान् । एतद्वृङ्क्ते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्नन्वसति ब्राह्मणो गृहे ॥ ८ ॥ 
पदार्थ—(यस्य) जिस (पुरुषस्य) पुरुष के (गृहे) घर पर (ब्राह्मणः) विद्वान् अतिथि (अनश्नन्) भोजनादि सत्कार न प्राप्त करता हुआ (वसति) वास करता है । उस (अल्पमेधसः) मन्दबुद्धि पुरुष के (आशा-प्रतीक्षे) आशा=परोक्ष अभीष्ट-विषय की प्रार्थनापूर्वक प्राप्ति की उत्कण्ठा तथा प्रतीक्षा=प्रत्यक्ष इन्द्रियगोचर अथवा प्राप्त करने योग्य वस्तु की प्राप्ति की इच्छा (सङ्गतम्) सत्सङ्गति से होने वाला फल (सूनृताम्) सत्य तथा मधुरवाणी का फल (इष्टापूर्त्ते) यज्ञादि वैदिक कर्मों का फल तथा सामाजिक भलाई के लिए किए गए वापी (बावड़ी), कूप, तडाग (तालाब) बाग-बगीचा, अनाथालय, प्याऊ, धर्मशालादि पुण्यकर्मों के फल को (च) और (सर्वान्) सब (पुत्र-पशून्) पुत्र तथा पशुओं को (एतत्) यह असत्कृत अतिथि (वृङ् क्ते) रहित अर्थात् नष्ट कर देता है। भावार्थ—यहां विद्वान् अतिथि का सत्कार न करने से क्या-क्या हानियां होती हैं, उन्हें प्रसङ्गवश दिखाया है । जिसके घर अतिथियों का योग्य सत्कार नहीं होता, उसके सभी पुण्यों का फल नष्ट हो जाता है अर्थात् अतिथि-सेवा न करने से सद्गुणों का प्रकाश न होने से पाप-वृद्धि होती है । उस घर में धीरे-धीरे पुण्य कर्मों की समाप्ति से पाप-कर्म बढ़ने लगते हैं और दुःखों की वृद्धि हो जाती है । अतः विद्वान् ब्रह्मवेत्ता तथा धर्मात्मा अतिथियों का सदा सत्कार करना चाहिए । यद्यपि इस आख्यायिका के गुरु-शिष्य संवाद में नचिकेता की अपेक्षा यम का स्थान ऊंचा तथा प्रशस्य है । और यम बाहर जाने के कारण ही अतिथि-सत्कार नहीं कर सके थे, उन्होंने कोई जान-बूझकर दोष नहीं किया था, पुनरपि अतिथि-सत्कार की सब अवस्थाओं में अपरिहार्यता तथा बड़ों को भी छोटों का यथायोग्य सम्मान अवश्य करना चाहिए, यह प्रदर्शन करने के लिए ही यहां अतिथि के असत्कार के दोषों की परिगणना की गई है । इस श्लोक में नचिकेता को जन्म के अभिप्राय से ‘ब्राह्मण’ नहीं कहा गया है, किन्तु ब्रह्म-ज्ञान का योग्याधिकारी तथा ब्रह्म-ज्ञान का परम जिज्ञासु समझकर ‘ब्राह्मण’ शब्द का व्यवहार किया गया है । क्योंकि ब्राह्मणादि तीन वर्णों को ‘द्विज’ कहते हैं और द्विज का अर्थ है जिसका दुबारा जन्म हो । और दूसरा जन्म निषेकादि संस्कारों तथा यज्ञादि से होता है । संस्कार से हीन व्यक्ति द्विज नहीं हो सकता । वह एकजाति होने से शूद्र ही होता है । देखिए इस में मनु जी का प्रमाण— ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः । चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः ॥ (मनु०१०।४) अर्थ—ब्राह्मण; क्षत्रिय, वैश्य ये तीन वर्ण संस्कार होने से द्विजातियां हैं । और चतुर्थ शूद्र एकजाति=एक जन्म वाला ही होता है । पांचवां कोई वर्ण नहीं है । स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः । महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः ॥ (मनु० २।२८) इस श्लोक का महर्षि दयानन्दकृत अर्थ देखिए—“रज-वीर्य के योग से ब्राह्मण-शरीर नहीं होता किन्तु ..... (स्वाध्यायेन) पढ़ने-पढ़ाने (जपैः) विचार करने-कराने, नानाविध होम के अनुष्ठान, सम्पूर्ण वेदों को शब्द, अर्थ, सम्बन्ध, स्वरोच्चारण-सहित पढ़ने-पढ़ाने (इज्यया) पौर्णमासी इष्टि आदि के करने, पूर्वोक्त विधिपूर्वक (सुतैः) धर्म से सन्तानोत्पत्ति (महायज्ञैश्च) पूर्वोक्त ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेवयज्ञ और अतिथियज्ञ (यज्ञैश्च) अग्निष्टोमादि यज्ञ, विद्वानों का सङ्ग, सत्कार, सत्यभाषण, परोपकार आदि सत्कर्म और सम्पूर्ण शिल्पविद्यादि पढ़ के दुराचार छोड़ श्रेष्ठाचार में वर्त्तने से (इयम्) यह (तनुः) शरीर (ब्राह्मी) ब्राह्मण का (क्रियते) किया जाता है ।” (सत्यार्थ० चतुर्थ०) समीक्षा—श्री शङ्कराचार्य जन्मजात ब्राह्मण का ही ब्रह्मविद्या में अधिकार बताते हुए लिखते हैं—“ब्राह्मणस्यैव विशेषतोऽधिकारः सर्वत्यागेन ब्रह्मविद्यायामिति ।” (मुण्डको० १।२।१२) अर्थात् ब्रह्मविद्या में ब्राह्मण ही का अधिकार होता है सब कुछ त्याग करने से । यह उनका कथन सत्य नहीं है । क्योंकि जिस किसी भी मनुष्य का शरीर उपर्युक्त संस्कारों से ब्राह्मण का किया जाता है, उसी को मोक्ष का अधिकार है । चाहे उसका किसी भी वर्ण में जन्म क्यों न हुआ हो। विद्वान् ब्राह्मण के घर पर भूखा रहने तथा उसके अतिथि-सत्कार के न होने रूप दोष को सुनकर यमाचार्य नचिकेता से प्रार्थना करते हैं—
तिस्रो रात्रीर्यदवात्सीर्गृहे मे अनश्नन्ब्रह्मन्नतिथिर्नमस्यः । नमस्तेऽस्तु ब्रह्मन्स्वस्ति मेऽस्तु तस्मात्प्रति त्रीन्वरान्वृणीष्व ॥ ९ ॥ 
पदार्थ—(ब्रह्मन्) हे ब्रह्मज्ञान के योग्य नचिकेता ! तुम (अतिथिः) अतिथि होने से (नमस्यः) नमस्कार करने योग्य हो । अतः (ते) तुम्हारे लिए मेरा (नमः, अस्तु) प्रणाम प्राप्त हो और (मे) मेरा (स्वस्ति) कल्याण (अस्तु) होवे अर्थात् आप, प्रसन्न होकर मेरा अपराध क्षमा करें। (ब्रह्मन्) हे ब्राह्मणरूप अतिथे (यत्) जिस कारण से (मे) मेरे (गृहे) घर पर (तिस्रः रात्रीः) तीन रात (अनश्नन्) विना कुछ खाए (अवात्सीः) तुमने निवास किया है (तस्मात्) इस कारण से (प्रति) एक-एक रात के प्रति (त्रीन्, वरान्) तीन वरदानों को (वृणीष्व) मांगो। भावार्थ—नचिकेता अपने पिता की आज्ञा के अनुसार यमाचार्य के घर पर पहुंचा, किन्तु यमाचार्य के घर पर न होने से तीन दिन तक उनकी प्रतीक्षा में निराहार ही रहा । यमाचार्य जब घर पर आए तो उन्होंने अपने घर पर अतिथि के सत्कार न होने से बहुत पश्चात्ताप किया और नचिकेता को प्रणाम करके कहने लगे कि मुझे प्रसन्न होकर ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि जिससे मेरा कल्याण होवे और अपने अपराध की क्षमा मांगते हुए यम ने नचिकेता को एक-एक रात्रि के लिए एक-एक करके तीन वरदान प्रदान किये । यहां भी यम नचिकेता के आख्यानक का एक सुन्दर व शिक्षाप्रद आलङ्कारिक वर्णन किया गया है । यम परमात्मा का नाम है, यहां उस सर्वव्यापक परमेश्वर के गृह=घर का अभिप्राय यह है कि ‘गृह’ का अर्थ है ‘गृह्णातीति गृहम्’ जो सब को ग्रहण करता है अर्थात् व्यापकरूप से समस्त पदार्थों का नियन्त्रण किए हुए है, इसलिए उसे “अत्ता चराचरग्रहणात्” (वेदान्त०) चर-अचर जगत् को ग्रहण करने के कारण ‘अत्ता’ कहते हैं। उस गृह=ग्रहण करने वाले परमात्मा के आश्रय में रहना ही उसके घर में रहना है । अथवा परमात्मा का गृह=उपासना का स्थान हृदय है, जिसे ‘ब्रह्मपुर’ कहा गया है । इस हृदय में जो जिज्ञासु होकर अनश्नन्=भोग न करता हुआ अर्थात् समस्त इन्द्रियों के विषयों से पृथक् होकर परमात्मा का ध्यान करता है, और तिस्रो रात्रीः=शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक त्रिविध अशुद्धियों का परित्याग कर देता है, तब यम=परमात्मा जिज्ञासु पर अनुग्रह कर के वरदान देता है । १ इस श्लोक में यमाचार्य नचिकेता से ‘नमस्ते’ कहकर सत्कार करते हैं । परस्पर मिलते समय छोटे-बड़ों को ‘नमस्ते’ शब्द का ही व्यवहार करना चाहिए । जो पौराणिक सनातनधर्मी बन्धु इस शब्द के स्थान पर इससे भिन्न ‘जय राम’ ‘राधेश्याम’ आदि शब्दों का मिलते समय उच्चारण करते हैं, वे प्राचीन शास्त्रीय श्रेष्ठ परम्परा का उल्लङ्घन करने के कारण प्रत्यवाय के भागी होते हैं । महर्षि दयानन्द ने इस शिष्ट तथा शास्त्रीय परम्परा को पुनरुज्जीवित किया । और पौराणिक-बन्धुओं की इस भ्रान्ति का भी यहां स्पष्ट रूप से निराकरण हो जाना चाहिए कि बड़ों को छोटों के लिए ‘नमस्ते’ का प्रयोग नहीं करना चाहिए । यमाचार्य गुरु-स्थानीय होने से बड़े हैं और उन्होंने शिष्य नचिकेता को यहां स्वयं ‘नमस्ते’ की है । यमाचार्य के कहने पर नचिकेता प्रथम वरदान मांगता है—
शान्तसङ्कल्पः सुमना यथा स्याद्वीतमन्युर्गौतमो माभिमृत्यो । त्वत्प्रसृष्टं माभिवदेत्प्रतीत एतत्त्रयाणां प्रथमं वरं वृणे ॥ १० ॥ 
पदार्थ—(मृत्यो) हे यमाचार्य ! (गौतमः) गोतमवंशी मेरा पिता (मा, अभि) मेरे प्रति (शान्त-सङ्कल्पः) शान्त चित्तवाला (सुमनाः) प्रसन्न मन वाला (वीतमन्युः) क्रोध से रहित (यथा) जैसे (स्यात्) होवे और (त्वत्प्रसृष्टम्) आपके भेजे हुए (मा, अभि) मेरे प्रति (प्रतीतः) प्रसन्नता से पहचानकर (वदेत्) कुशलक्षेमादि पूछता हुआ बोले—(एतत्) यह (त्रयाणाम्) तीन वरों में से (प्रथमम्) पहला (वरम्, वृणे) वर मांगता हूं। (१) त्रिविध अशुद्धियां—“शरीरेण प्रवर्त्तमानो हिंसा-स्तेय-प्रतिषिद्ध- मैथुनान्याचरति । वाचा=अनृत-परुष-सूचनाऽसम्बद्धानि । मनसा परद्रोहं परद्रव्याभीप्सां नास्तिक्यं चेति ।” (न्याय० वात्स्यायनभाष्ये) अर्थात् शारीरिक अशुद्धियां ये हैं—हिंसा=वैरभाव से दुःख देना । स्तेय=मन, वचन, कर्म से चोरी करना और शास्त्रविरुद्ध आचरण करना । वाचिक=झूठ बोलना, कठोर बोलना, चुगली करना और प्रमत्तवत् अधिक बोलना । मानसिक दूसरों से द्रोह करना, दूसरों की वस्तुओं पर गिद्ध की भांति लालसा रखना, और वेद व ब्रह्म पर विश्वास न करना । भावार्थ—नचिकेता ने यमाचार्य से प्रथम वर यह मांगा कि मेरे गौतम=गोतमवंशी अर्थात् गो=इन्द्रियों पर संयम रखने वाले पिता जी मेरे प्रति क्रोध-भाव को त्यागकर पूर्ववत् ही स्नेहपूर्ण व्यवहार करने लगें और आपके पास से वापस जाने पर मेरे से प्रसन्नता से बोलें । यहां मृत्यु के पास से नचिकेता का वापस जाना और अपने पिता जी की प्रसन्नता का वरदान मांगना इत्यादि बातों से स्पष्ट है कि यह एक आलङ्कारिक ही वर्णन है । अन्यथा मृत्यु के पास से और वह भी दक्षिणारूप में दिए हुए का वापस आना कैसे सम्भव है ? नचिकेता को प्रथम-वरदान देते हुए यमाचार्य कहते हैं—
यथा पुरस्ताद्भविता प्रतीत औद्दालकिरारुणिर्मत्प्रसृष्टः । सुखं रात्रीः शयिता वीतमन्युस्त्वां ददृशिवान्मृत्युमुखात्प्रमुक्तम् ॥ ११ ॥ 
पदार्थ—(आरुणिः) अरुण के पुत्र तेरे पिता (औद्दालकिः) उद्दालक (यथा) जिस प्रकार प्रीति का व्यवहार (पुरस्तात्) पहले करते थे, वैसे ही (मत्प्रसृष्टः) मेरे से विदित किए हुए (भविता) हो जायेंगे। और तुम्हें देखकर (रात्रीः) रात्रियों में (सुखम्) सुखपूर्वक (शयिता) सोया करेंगे और (वीतमन्युः) क्रोध-रहित होकर (त्वाम्) तुम्हें (मृत्युमुखात्) मृत्यु के पास से अर्थात् मृत्यु-दुःख से (प्रमुक्तम्) छूटे हुए को (ददृशिवान्) देखेंगे । भावार्थ—नचिकेता को प्रथम वरदान देते हुए यमाचार्य कहते हैं कि हे नचिकेता ! तुम्हारे पिता अब क्रोध-रहित होने से शान्तचित्त होकर तुम्हारे पर पूर्ववत् ही स्नेह का व्यवहार किया करेंगे और तुम्हें ज्ञानप्राप्त होने से मृत्यु से छूटा हुआ देखकर सुख की नींद सोवेंगे । और पुत्र-वियोग के दुःख से भी मुक्त हो जायेंगे । यहां ‘मृत्युमुखात् प्रमुक्तम्’ पदों से स्पष्ट है कि ‘मृत्यु’ का अर्थ यहां प्राणवियोग नहीं है । क्योंकि प्राण-वियोग होने के बाद कोई जीव वापस नहीं आ सकता । अब नचिकेता द्वितीय-वर मांगने की इच्छा से यमाचार्य से स्वर्गविषयक चर्चा प्रारम्भ करते हैं—
स्वर्गे लोके न भयं किञ्चनास्ति न तत्र त्वं न जरया बिभेति । उभे तीर्त्वा अशनायापिपासे शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥ १२ ॥ 
पदार्थ—(स्वर्गे, लोके) स्वर्ग-लोक में (किञ्चन) कुछ भी (भयम्) भय (न, अस्ति) नहीं है (न तत्र) और न वहां पर (त्वम्) तुम अर्थात् मृत्यु-दुःख है, (न) और न कोई (जरया) वृद्धावस्था से (बिभेति) डरता है । (स्वर्गलोके) स्वर्गलोक में (अशनाया-पिपासे) भूख-प्यासादि (उभे) दो-दो दुःख द्वन्द्वों को (तीर्त्वा) तरकर (शोकातिगः) शोक=मानस-दुःख से पार हुआ मनुष्य (मोदते) आनन्द से रहता है । भावार्थ—यहां स्वर्ग-लोक का वर्णन करते हुए कहा गया है कि स्वर्ग-लोक में कुछ भी भय नहीं होता, मृत्यु आदि दुःख नहीं सताते, वृद्धावस्था भी नहीं सताती है और भूख-प्यासादि से रहित होकर जीवात्मा शोकमुक्त हो जाता है और आनन्द से रहता है । यहां मोक्ष को ही ‘स्वर्ग’ नाम से कहा गया है । न्यायदर्शन में अपवर्ग (मोक्ष) का वर्णन करते हुए लिखा है— तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः ॥ न्याय० १।१।२२॥ तेन दुःखेन जन्मनाऽत्यन्तविमुक्तिः=अपवर्गः । कथम् ? उपान्तस्य जन्मनो हानम् अन्यस्य चानुपादानम्, एतामवस्थामपर्यन्तामपवर्गं वेदयन्ते ऽपवर्गविदः । तद् अभयमजरममृत्युपदं ब्रह्म क्षेमप्राप्तिरिति ॥” (वात्स्यायन-भाष्यम्) अर्थात् दुःख की=जन्म की अत्यन्त निवृत्ति को अपवर्ग कहते हैं? कैसे गृहीत जन्म की निवृत्ति और अन्य जन्म का ग्रहण न होना । इस विनाशरहित (जन्म-मरणरहित) अवस्था को (मोक्ष को) विद्वान् अपवर्ग कहते हैं । इस अवस्था को अभय, जरा=बुढ़ापे से रहित, मृत्यु से रहित कहते हैं । न्यायदर्शन के मोक्ष वर्णन से उपनिषत्कार की सर्वथा समता है; अतः यहां ‘स्वर्ग’ शब्द मोक्ष-अर्थ में ही जानना चाहिए । हमारे पौराणिक-बन्धु स्वर्ग किसी स्थान-विशेष को बताते हैं । जहां ऐसे भोगों की प्राप्ति होती है, वहां जाने वालों को कई सौ अप्सराएं मिलती हैं और स्वर्ग में ‘विजरा’ नामक नदी को पार करने वाला यात्री बूढ़ा नहीं होता इत्यादि । आचार्य शङ्कर भी इसी मान्यता से प्रभावित होकर लिखते हैं—“यत्र यस्मिन् स्वर्गे देवानां पतिरिन्द्र एकः सर्वानुपरि अधिवसति ॥” (मुण्डको० १।२।५) अर्थात् स्वर्गलोक में देवों का पति एक इन्द्र सर्वोपरि है । और इनके अनुसार यमराज के दूत मृत जीवों को पकड़कर पाप-पुण्य के अनुसार नरक व स्वर्ग में भेजते हैं । उसके लिए पौराणिक बन्धु दान, पुण्य, श्राद्ध, तर्पण, गोदानादि वैतरणी नदी को तरने के लिए करते हैं । पौराणिकों के ही समान दूसरे ईसाई, मौहम्मद आदि भी ऐसे ही स्थान-विशेषों को स्वर्ग व नरक माने हुए हैं । महर्षि दयानन्द ने जहां दूसरी बहुत सी भ्रान्तियों का निवारण किया है । वहां इस सम्बन्ध में भी बहुत स्पष्ट करके लिखा है— (क) “यही सुखविशेष स्वर्ग और विषय-तृष्णा में फंसकर दुःखविशेष भोग करना नरक कहाता है । ‘स्वः’ सुख का नाम है । ‘स्वः सुखं गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः ।” “अतो विपरीतो दुःखभोगो नरक इति ।” जो सांसारिक सुख है, वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर की प्राप्ति से आनन्द है वही विशेष स्वर्ग कहाता है ।” (सत्यार्थ० नवम समु०) (ख) “स्वर्ग सुखभोग और नरक दुःखभोग का नाम है ।” (सत्यार्थ० द्वादश समु०) (ग) “स्वर्ग” नाम सुख-विशेष भोग और उसकी सामग्री की प्राप्ति का है । “नरक” जो दुःखविशेष भोग और उसकी सामग्री को प्राप्त होना है ।” (स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः) महर्षि के उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि स्वर्ग व नरक कोई स्थान-विशेष नहीं हैं, प्रत्युत सुख-भोग तथा दुःखभोग के नाम हैं । और यह भी स्पष्ट हो रहा है कि ‘स्वर्ग’ शब्द सांसारिक सुख तथा मोक्ष के सुख दोनों के लिए प्रयुक्त होता है । हमें शास्त्रों में प्रकरणानुसार ही अर्थ लगाने चाहिए । ‘स्वर्ग’ शब्द का प्रयोग शास्त्रों में भी सांसारिक तथा मोक्ष के सुखों के लिए हुआ है । जैसे— (क) दाराधीनस्तथा स्वर्गः पित णामात्मनश्च ह । (मनु०) अपना तथा पितरों का जितना सुख है, यह सब स्त्री ही के आधीन होता है । (ख) सः सन्धार्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता ॥ मनु०॥ हे स्त्रीपुरुषो ! जो तुम अक्षय मुक्ति का सुख और इस संसार के सुख की इच्छा रखते हो तो नित्य प्रयत्न से गृहाश्रम को धारण करो । उपनिषत्कार के अभिप्राय के अनुसार ‘स्वर्ग’ शब्द का प्रयोग सुखविशेष के लिए हुआ है, स्थान-विशेष के लिए नहीं । उपनिषद् में नचिकेता के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है— (क) त्रिकर्मकृत् तरति जन्म-मृत्यू ॥ (ख) ब्रह्मजज्ञं वेदमीड्यं विदित्वा निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति ॥ (ग) स मृत्युपाशान् पुरतः प्रमोद्य शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥ (कठो० १।१७, १८) जो यज्ञ, अध्ययन तथा दान इन तीन धार्मिक कर्मों को करता है, वह जन्म-मृत्यु के बन्धन से छूट जाता है । जो सर्वज्ञ देव परब्रह्म को जान लेता है, वह शोकमुक्त होकर स्वर्गलोक में आनन्द से रहता है । और परब्रह्म को जानने वाला मृत्यु=दुःख के बन्धनों से मुक्त होकर स्वर्गलोक में आनन्द से रहता है । इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि यहां स्वर्ग से अभिप्राय सुखविशेष (मोक्ष) से ही है, स्थान से नहीं । क्योंकि उत्तर या वरदान प्रश्नानुरूप ही होना चाहिए । स्वर्गादि शब्दों के अर्थ में भ्रान्ति का कारण—स्थानविशेष की भ्रान्ति का कारण ‘लोक’ शब्द भी है । लोक शब्द को देखकर प्रायः स्थान-विशेष ही अर्थ लगाया जाता है । किन्तु यह उनकी भ्रान्ति ही है क्योंकि इसका प्रयोग स्थान तथा सुख दोनों के लिए होता है । पृथिवी- लोकादि में लोक शब्द स्थान का वाची भी है किन्तु स्वर्गलोक में नहीं। क्योंकि सुख हमारे कर्मों का फल होता है, उसका किसी स्थान से सम्बन्ध जोड़ना ठीक नहीं । जो स्थान एक मनुष्य के लिए सुखद प्रतीत होता है, वही दूसरे के लिए दुःखद भी होता है । यह स्थानविशेष अर्थ प्रत्यक्ष के भी विरुद्ध है । ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां सुख ही सुख हो, दुःख न हो । आज के वैज्ञानिक जगत् में ऐसी कल्पनाओं पर कैसे विश्वास किया जा सकता है । विवाह-संस्कार में वधू कहती है— (क) “शिवा अरिष्टा पतिलोकं गमेयम् ।” अर्थात् मैं आज से स्वस्थ रहती हुई पति के सुख को प्राप्त करूं अर्थात् पति के सुख को ही अपना सुख मानूं । (ख) “ऋतस्य यौनौ सुकृतस्य लोकेऽरिष्टान्त्वा सह पत्या १. त्रिकर्मकृत्=इज्याध्ययनदानानां कर्त्ता तरति अतिक्रामति जन्ममृत्यू ॥ (कठो० १।१७ शा० भाष्य) २. ब्रह्मजज्ञः सर्वज्ञः ॥ (शाङ्करभाष्ये) दधामि ।”—इस मन्त्र में “सुकृतस्य लोके” पद पुण्य-कर्मों के सुख अर्थ का ही बोध करा रहा है । (ग) आरोह सूर्ये अमृतस्य लोकं स्योनं पत्ये वहतु कृणुष्व॥ इस मन्त्र में भी अमृत=नष्ट न होने वाले लोकं=सुख के लिए कहा है । इत्यादि वेदादि शास्त्रों में ‘लोक’ शब्द का प्रयोग ‘सुख’ अर्थ में भी हुआ है। आचार्य शङ्कर भी ‘लोक’ शब्द का अर्थ करते हुए लिखते हैं— (क) लोक्यते दृश्यते भुज्यत इति कर्मफलं लोक उच्यते ॥ जो कर्म-फल भोगा जा रहा है, उस कर्म-फल को ही ‘लोक’ शब्द से कहा जाता है । (ख) ब्रह्मलोकः स्वर्गः प्रकरणात् (मु० १।२।६) अर्थात् ‘ब्रह्मलोक’ का अर्थ स्वर्ग है । (ग) क्षीणलोकाः= क्षीणकर्मफलाः (मु० १।२।९) अर्थात् ‘क्षीणलोक’ शब्द का अर्थ है कि जिसके कर्मों का फल क्षीण हो गया है । इस प्रकार ‘लोक’ शब्द का अर्थ ‘सुख’ अथवा ‘कर्मफल’ भी है । ‘स्वर्ग’ व ‘नरक’ शब्दों के ‘स्थान-विशेष’ की कल्पना में शब्दों की समानता भी प्रमुख कारण हुआ है । जैसे नाक तथा विष्टप शब्द द्युलोक तथा मोक्ष दोनों के लिए प्रयुक्त हैं । निरुक्तकार लिखते हैं— (मु० १।२।१) १—(सूर्यपरक) नाक आदित्यो भवति । नेता रसानां नेता भासां ज्योतिषां प्रणयः । २—(मोक्षपरक) अथ द्यौः, कमिति सुखनाम तत्प्रतिषिद्धं प्रतिषिध्येत। पुण्यकृतो ह्येव तत्र गच्छन्ति । १—(सूर्यपरक) विष्टप आदित्यो भवति, आविष्टो रसान्, आविष्टो भासं ज्योतिषाम् । आविष्टो भासेति वा। २—(मोक्षपरक) अथ द्यौः, आविष्टा ज्योतिभिः, पुण्यकृद्भिश्च ॥ अर्थात् ‘नाक’ शब्द सूर्य के लिए इसलिए प्रयुक्त है क्योंकि यह रसों व प्रकाश का नेता=प्रापक है और मोक्ष अर्थ में इसलिए है कि ‘कम्’ सुख-वाचक है, उससे नञ् समास किया—अकम्=दुःखम् । और फिर नञ् समास करने पर ‘नाकम्=दुःखरहित’ शब्द प्रसिद्ध हुआ । इसी प्रकार ‘विष्टप’ शब्द भी द्व्यर्थक है । सूर्य का वाचक इसलिए है कि यह रसों में प्रविष्ट तथा प्रकाश से युक्त है और मोक्ष अर्थ इसलिए है क्योंकि वहां परमात्मा का प्रकाश है तथा पुण्य कर्म करने वाले उसे प्राप्त करते हैं। नाकादि शब्दों की भांति ‘स्वर्ग’ शब्द के भी दो अर्थ हैं—(१) सुख- विशेष तथा (२) सूर्यलोक । क्योंकि सूर्यलोक ऊपर है, अतः स्वर्ग की कल्पना भी ऊपर ही की गई । जबकि भ्रमणशील लोक-लोकान्तरों को देखकर किसी को भी ऊपर या नीचे कहना भी उचित नहीं है । ‘स्वर्ग’ शब्द का ‘सूर्यपरक’ अर्थ देखिये— स्वर्गो वै लोकः सूर्यो ज्योतिरुत्तमम् ॥ (शत० १२।९।२।८) स्वर्गो वै लोको ब्रध्नस्य विष्टपम् ॥ (ऐत० ४।४) बृहद् वै स्वर्गो लोकः ॥ (तै० १।२।२।४) मध्ये ह संवत्सरस्य स्वर्गो लोकः ॥ (शत० ६।७।४।११) इस प्रकार ‘स्वर्ग-लोक’ की स्थान-विशेष अर्थ की कल्पना में दो मुख्य कारण प्रतीत होते हैं—१ लोक शब्द । २ सूर्य-परक अर्थ । यद्यपि इनसे भिन्न मनुष्यों को बहकाकर स्वार्थसिद्धि तथा अज्ञान आदि भी कारण हैं, किन्तु इस कल्पना को जो बल तथा प्रवाह प्राप्त हुआ है, उसके उपर्युक्त दो ही कारण हैं । स्वर्ग के अर्थ ‘सुख’ में भी भ्रान्ति— कुछ विद्वानों का यह मत है कि इन्द्रियों के सुख को ‘सुख’ और मोक्ष के सुख को ‘आनन्द’ कहते हैं । उनके विचार में यह भेद ‘सुख’ शब्द के निर्वचन से होता है । उनका कथन यह है कि ‘ख’ इन्द्रियों को कहते हैं, क्योंकि ये शरीर में खोदी हुई सी हैं । निरुक्त में सुख शब्द का यह निर्वचन किया है—“सुखं कस्मात् ? सुहितं खेभ्यः । खं पुनः खनतेः ।” (निरुक्त ३।१३) परन्तु ‘इन्द्रियों को जो अच्छा लगे, उसे सुख कहते हैं’ यह अर्थ महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों के अनुकूल नहीं है । महर्षि ने सांसारिक तथा मौक्तिक दोनों सुखों के लिए ‘सुख’ शब्द का प्रयोग किया है । जैसे— मौक्तिक आनन्द के लिए ‘सुख’ शब्द का प्रयोग— (क) “सब दुःखों की निवृत्ति और परमानन्द को प्राप्त होकर मुक्ति का सुख होना ।” (ख) “इसी से जीव मुक्ति में सुख भोगता है ।” (ग) “अनन्त आनन्द को भोगने का असीम सामर्थ्य, कर्म और साधन जीवों में नहीं, इसलिए अनन्त सुख नहीं भोग सकते ।” (घ) “हम को मुक्ति का सुख भुगाकर पुनः इस संसार में जन्म देता०।” (ङ) “जो ये ब्रह्मलोक—अर्थात् दर्शनीय परमात्मा में स्थित होके मोक्ष-सुख को भोगते हैं ।” (च) “जो मुक्ति में जीव का लय होता तो मुक्ति का सुख कौन भो गता ।” (स० प्र० नवमसमु०) (छ) “पारमार्थिक सुख को प्राप्त होके० ।” (सं० वि० गृहाश्रम०) सांसारिक सुख के लिए ‘आनन्द’ शब्द का प्रयोग— (क) “और सर्वदा आनन्द में रहें ।” (सं० वि० सामान्य०) (ख) “मोदमानौ=आनन्दित होकर गृहाश्रम में प्रीतिपूर्वक वास करो ।” (सं० वि० गृहाश्रम०) (ग) “हसामुदौ=हास्य और आनन्दयुक्त .....गृहाश्रम के व्यवहारों के पार होओ ।” (सं० वि० गृहाश्रम०) (घ) “जिससे तू और मैं सदा उन्नतिशील होकर आनन्द में रहें ।” (सं० वि० गृहाश्रम०) (ङ) “तुम्हारा (सौमनसः) मन का आनन्दयुक्त शुद्धभाव (अस्तु) सदा बना रहे ।” (सं० वि० गृहाश्रम०) परमात्मा के लिए ‘सुख’ शब्द का प्रयोग— (क) “कस्मै=सुखस्वरूपदेवाय=सकलैश्वर्य के देने हारे परमात्मा के लिए ।” (सं० वि० सामान्य०) क्या परमात्मा भी इन्द्रियों के सुख को ग्रहण करता है ? इस प्रकार महर्षि दयानन्द के लेखों से स्पष्ट है कि सुख व आनन्द शब्दों के प्रयोग में उन्होंने कोई भेद नहीं किया है । और महर्षि ने यह भेद इसलिए भी नहीं किया, क्योंकि दर्शनकार भी ऐसा भेद नहीं मानते हैं । यथार्थ में सुख-दुःख की उपलब्धि का साधन मन है, बाह्येन्द्रियां नहीं। और ‘मन’ को अन्तःकरण अथवा अन्तरिन्द्रिय अवश्य शास्त्रकारों ने माना है, किन्तु उसे ‘ख=खोदी हुई सी’ नहीं कहा जा सकता । अतः सुख के शाब्दिक अर्थ की सङ्गति नहीं लगती । देखिए कतिपय प्रमाण— दर्शन-शास्त्रों में ‘सुख’ शब्द का प्रयोग— (१) “आत्मादिषु सुखादिषु च प्रत्यक्षलक्षणं वक्तव्यम् ? अनिन्द्रियार्थ- सन्निकर्षजं हि तदिति ॥” (न्याय० १।१।४ वात्स्यायनभाष्यम्) अर्थात् प्रत्यक्ष के लक्षण में आत्मादि तथा सुखादि के प्रत्यक्ष का भी लक्षण कहना चाहिए ? क्योंकि ये इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से प्रत्यक्ष नहीं होते । यहां सुखादि को इन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं माना, अपितु—“सुखाद्युप- लब्धिसाधनमन्तःकरणं मनः” ऐसा मानकर मन को माना है । समस्त न्यायदर्शन के अनुशीलन करने से यह भी स्पष्ट होता है—कि इस शास्त्र में सांसारिक तथा मौक्तिक दोनों सुखों के लिए सुख शब्द का ही प्रयोग किया है । किन्तु सांसारिक सुख को विष-सम्पृक्तान्नवत् कहकर त्याज्य और वास्तविक सुख मोक्ष को ही मानते हुए लिखा है— ‘न सुखादन्यद् निःश्रेयसमस्ति ।’ (न्याय० ४।१।५८ वात्स्या०) अर्थात् जिसे सुख कहते हैं, मोक्ष उससे भिन्न नहीं है । (२) वैशेषिक-दर्शन में सुख को दुःख का प्रतिद्वन्द्वी बताते हुए बताया है लिखा है— इष्टानिष्टकारणविशेषाद् विरोधाच्च मिथः सुखदुःखयोरर्थान्तर- भावः ॥ (वैशे० १०।१।१) अर्थात् सुख-दुःख दोनों भिन्न-भिन्न तथा परस्पर विरोधी हैं । सुख की उत्पत्ति इष्ट कारण से तथा दुःख की उत्पत्ति अनिष्ट कारण से होती है । दुःख के नाश होने पर सुख की उत्पत्ति होती है । और जो सांसारिक सुख हैं, वे दुःखों में सुखों का अभिमान मात्र ही हैं यथार्थ नहीं । और सुख की उपलब्धि का साधन बाह्येन्द्रियां नहीं हैं । वैशेषिकदर्शन के भाष्यकार प्रशस्तमुनि ने बहुत ही स्पष्ट लिखा है— बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नास्त्वन्तःकरणग्राह्याः ॥ अर्थात् बुद्धि=ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष तथा प्रयत्न ये गुण अन्तःकरण (मन) से गृहीत होते हैं । (३) योगदर्शन में ‘सुख’ शब्द का प्रयोग दोनों सुखों के लिए है— (क) सर्वाश्चैव वृत्तयः सुखदुःखमोहात्मकाः । सुखदुःख- मोहाश्च क्लेशेषु व्याख्येयाः ॥ (योग० समाधिपाद सू० ११ । व्यासभाष्य) (ख) सुखानुशयी रागः ॥ यो० साधन० सू० ७॥ १. यथा मधुविषसम्पृक्तम् अन्नमनादेयमिति एवं सुखं दुःखानुषक्तमनादेयमिति ।” (न्याय० १।१।२ वात्स्यायनभाष्ये) (ग) परिणामतापसंस्कारदुःखैः...... दुःखमेव सर्वं विवेकिनः॥ (यो० साधन० १५) विषयसुखं चाविद्येत्युक्तम् । (यो० २।१५ व्यास०) (घ) यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत् सुखम् । तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम् इति ॥ (यो० साधन ४२ । व्यास०) इत्यादि प्रमाणों से स्पष्ट है कि सुख शब्द सांसारिक तथा मौक्तिक दोनों के लिए योगदर्शन में प्रयुक्त है । (४) वेदान्तदर्शन में भी सुख द्विविध-सुख के अर्थ में प्रयुक्त है। जैसे— सुखं विशिष्टाभिधानादेव च ॥ (वेदान्त० १।२।१५) इस सूत्र की व्याख्या में श्री स्वामी दर्शनानन्द जी महाराज लिखते हैं—“सुख मुख्य तो ब्रह्म ही से प्राप्त होता है क्योंकि प्रकृति परतन्त्र होने से सुख से शून्य है । इस कारण ब्रह्म स्वतन्त्र और सुख से परिपूर्ण बतलाया गया है ।” यहां ब्रह्म के सान्निध्य से मिलने वाले आनन्द को भी ‘सुख’ शब्द से कहा गया है । इसी दर्शन के भाष्य में (वेदान्त० १।१।९) स्वामी दर्शनानन्द जी लिखते हैं— “(प्रश्न)—सुख और आनन्द में कुछ भेद है या सुख और आनन्द दोनों एक हैं ? (उत्तर)—सुख वह होता है जब प्रकृति मन किसी विषय के साथ सम्बन्ध पैदा करके कुछ समय के लिए स्थिर होता है ....आनन्द वह है जब मन के शुद्ध होने से या मन के न होने से जीवात्मा ब्रह्म से साक्षात् आनन्द गुण को ग्रहण करता है” । यहां सुख और आनन्द में यह अन्तर किया है कि प्रकृति के सम्पर्क से सुख होता है और परमात्मा के सम्पर्क से आनन्द मिलता है । किन्तु यह विवेचन वेदान्तदर्शन के भी विरुद्ध है, क्योंकि वेदान्त के उपर्युक्त सूत्र में ब्रह्म से सम्पर्क से मिलने वाले आनन्द को भी सुख शब्द से कहा है । अतः सुख व आनन्द का उपर्युक्त भेद विद्वन्-मान्य नहीं हो सकता । (५) उपनिषदों में भी ‘सुख’ शब्द का प्रयोग मुक्ति के आनन्द के लिए आया है । जैसे— समाधिनिर्धूतमलस्य चेतसो निवेशितस्यात्मनि यत्सुखं भवेत् । न शक्यते वर्णयितुं गिरा तदा स्वयन्तदन्तःकरणेन गृह्यते ॥ अर्थात् परब्रह्म के सान्निध्य से जो सुख मिलता है, उसे वाणी से नहीं कहा जा सकता । उसे तो स्वयम् अन्तःकरण से ही ग्रहण किया जाता है ॥ (६) महर्षि दयानन्द ने ‘स नो बन्धुर्जनिता०’ (य० ३२।१०) की व्याख्या में लिखा है—“जिसमें देव अर्थात् विद्वान् लोग मोक्ष को प्राप्त होके सदा आनन्द में रहते हैं और वे तीसरे धाम अर्थात् शुद्ध सत्त्व से सहित होके सर्वोत्तम सुख में सदा स्वच्छन्दता से रमण करते हैं” ॥ (ऋ० भू० मुक्तिविषयः) ऋ० भू० के इसी मुक्ति-विषय में महर्षि दयानन्द लिखते हैं— “इति मुक्तैः प्राप्तव्यस्य मोक्षस्वरूपस्य सच्चिदानन्दादिलक्षणस्य परब्रह्मणः प्राप्त्या जीवस्सदा सुखी भवतीति बोध्यम् ॥” अर्थात् मुक्त जीवों से प्राप्त करने योग्य मोक्ष-स्वरूप सच्चिदानन्द आदि लक्षणों से युक्त परब्रह्म की प्राप्ति से जीवात्मा सदा सुखी होता है, इस प्रकार सदा जानना चाहिए । इस उपर्युक्त दर्शनादिशास्त्रों के विवेचन से स्पष्ट है कि ‘सुख’ शब्द का प्रयोग उसी प्रकार सांसारिक तथा मोक्ष दोनों सुखों के लिए प्रयुक्त हुआ है, जैसे ‘स्वर्ग’ शब्द का प्रयोग होता है । अतः सुख और आनन्द शब्दों के अर्थों में जो अन्तर=भेद करते हैं, उन्हें उपर्युक्त समस्त प्रमाणों पर अवश्य विचार करना चाहिए । अब नचिकेता स्वर्गप्राप्ति के साधनभूत अग्नि-विद्या को जानने के लिए दूसरा वरदान मांगता है— की व्याख्या में लिखा है—“जिसमें देव अर्थात् विद्वान् लोग मोक्ष को प्राप्त होके सदा आनन्द में रहते हैं और वे तीसरे धाम अर्थात् शुद्ध सत्त्व से सहित होके सर्वोत्तम सुख में सदा स्वच्छन्दता से रमण करते हैं” ॥ (ऋ० भू० मुक्तिविषयः) ऋ० भू० के इसी मुक्ति-विषय में महर्षि दयानन्द लिखते हैं— “इति मुक्तैः प्राप्तव्यस्य मोक्षस्वरूपस्य सच्चिदानन्दादिलक्षणस्य परब्रह्मणः प्राप्त्या जीवस्सदा सुखी भवतीति बोध्यम् ॥” अर्थात् मुक्त जीवों से प्राप्त करने योग्य मोक्ष-स्वरूप सच्चिदानन्द आदि लक्षणों से युक्त परब्रह्म की प्राप्ति से जीवात्मा सदा सुखी होता है, इस प्रकार सदा जानना चाहिए । इस उपर्युक्त दर्शनादिशास्त्रों के विवेचन से स्पष्ट है कि ‘सुख’ शब्द का प्रयोग उसी प्रकार सांसारिक तथा मोक्ष दोनों सुखों के लिए प्रयुक्त हुआ है, जैसे ‘स्वर्ग’ शब्द का प्रयोग होता है । अतः सुख और आनन्द शब्दों के अर्थों में जो अन्तर=भेद करते हैं, उन्हें उपर्युक्त समस्त प्रमाणों पर अवश्य विचार करना चाहिए । अब नचिकेता स्वर्गप्राप्ति के साधनभूत अग्नि-विद्या को जानने के लिए दूसरा वरदान मांगता है—
स त्वमग्निं स्वर्ग्यमध्येषि मृत्यो प्रब्रूहि तं श्रद्दधानाय मह्यम् । स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्त एतद्द्वितीयेन वृणे वरेण ॥ १३ ॥ 
पदार्थ—(मृत्यो) हे यमाचार्य ! (सः, त्वम्) सो आप (स्वर्ग्यम्) स्वर्ग-प्राप्ति के लिए साधनभूत (अग्निम्) यज्ञाग्नि को (अध्येषि) अधिकार पूर्वक जानते हो (तम्) उस यज्ञाग्नि का (श्रद्दधानाय ) सत्य- विश्वास करने वाले (मह्यम्) मेरे लिए (प्रब्रूहि) उपदेश कीजिए । १. ‘श्रद्धा’ शब्द का अर्थ ‘चित्त की प्रसन्नता’ भी होता है अर्थात् शुद्ध मन । जैसे कि योगदर्शन में (समाधि० सू० २०) की व्याख्या में व्यासमुनि लिखते हैं—“श्रद्धा चेतसः सम्प्रसादः । सा हि जननीव कल्याणी योगिनं पाति ।” १क्योंकि (स्वर्गलोकाः) स्वर्ग को प्राप्त मनुष्य (अमृतत्वम्) दुःखरहित जीवन को (भजन्ते) भोगते हैं (एतत्) यह (द्वितीयेन) दूसरे (वरेण) वर से (वृणे) मांगता हूं । भावार्थ—यहां नचिकेता ने अपने दूसरे वरदान का उपसंहार करते हुए पुनः कहा है कि हे यमाचार्य ! आप स्वर्ग=सुख के साधनभूत अग्नि को भली-भांति जानते हो और मैं बहुत ही श्रद्धा से जिज्ञासुभाव से आप से उस अग्नि को जानना चाहता हूं । अतः आप मुझे योग्य शिष्य समझकर अवश्य उपदेश कीजिए । और यह अग्नि यज्ञाग्नि ही है, जिसके द्वारा समस्त वैदिक-कर्मों का अनुष्ठान किया जाता है, तभी वह स्वर्ग का साधन बन पाती है । यहां कई भाष्यकार ‘अग्नि’ शब्द से ज्ञानाग्नि का ग्रहण करते हैं, किन्तु यह उपनिषत् के अभिप्राय से प्रतिकूल होने से सत्य नहीं है । क्योंकि आगे (कठो० १।१५) हवन की अग्नि के लिए इष्टका=ईंटों के चयन की बात कदापि सङ्गत न हो सकेगी । अब यमाचार्य नचिकेता के प्रति स्वर्ग्य-अग्नि का उपदेश करते हैं—
प्र ते ब्रवीमि तदु मे निबोध स्वर्ग्यमग्निं नचिकेतः प्रजानन् । अनन्तलोकाप्तिमथो प्रतिष्ठां विद्धि त्वमेतं निहितं गुहायाम् ॥ १४ ॥ 
पदार्थ—(नचिकेतः) हे नचिकेता ! (स्वर्ग्यम्) स्वर्ग की प्राप्ति के साधनभूत (अग्निम्) अग्निहोत्रादि को (प्रजानन्) जानता हुआ (तत्) उस अग्नि को (ते) तेरे लिए (प्रब्रवीमि) प्रकृष्टता से उपदेश करता हूं। तुम (मे) मेरे वचनों को (उ) ध्यान से (निबोध) सुनकर ज्ञान प्राप्त करो । (अथो) इसके अनन्तर (त्वम्) तुम (एनम्) इस स्वर्ग्य-अग्नि को, जो (अनन्तलोकाप्तिम्) अविनश्वर या निर्बाध सुखों की प्राप्ति का साधन है और (प्रतिष्ठाम्) वैदिककर्मों की प्रतिष्ठा=आश्रयभूत अथवा सूर्यादिरूप में जगत् का आश्रयभूत है, उसे ही (गुहायाम्) जीवों की हृदय-रूप गुफा में जाठराग्नि के रूप में जिसके आश्रय से समस्त शरीर में रुधिरादि की गति होती है, (निहितम्) स्थित (विद्धि) जानो । भावार्थ—स्वर्ग-प्राप्ति के प्रमुख साधन यज्ञादि वैदिक कर्म हैं । और ये सब भौतिकाग्नि के सम्पर्क से ही सम्पन्न होते हैं । ब्रह्मचर्यादि चारों आश्रमों के सब वैदिक कर्मों का आश्रय यह अग्नि ही है । यही अग्नि जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाश का हेतु है ? सूर्यरूप में यही अग्नि जगत् को जीवन प्रदान करती है और जठराग्नि रूप में प्राणियों के जीवन का आधार है । समीक्षा—आचार्य शङ्कर ने ‘निहितं गुहायाम्’ का अर्थ ‘बुद्धौ निविष्टम्=बुद्धि में निविष्ट’ किया है । यह अर्थ प्रकरणविरुद्ध होने से सत्य नहीं है । क्योंकि अग्नि जठराग्नि के रूप में हृदय में ही स्थित है, बुद्धि में नहीं । इसी प्रकार ‘प्रतिष्ठाम्’ पद का अर्थ ‘आश्रयं जगतो विराड्रूपेण’ विराट्रूप में जगत् का आश्रय अर्थात् परमात्मा-रूप अग्नि अर्थ किया है । यह भी पूर्वापर की सङ्गति से विरुद्ध होने से मिथ्यार्थ ही जानना चाहिए । उक्त-प्रकार से यज्ञादि स्वर्ग के साधनों का आश्रयभूत अग्नि की स्तुति करके यमाचार्य नचिकेता के प्रति अग्नि-चयन का प्रकार बताते हैं—
लोकादिमग्निं तमुवाच तस्मै या इष्टका यावतीर्वा यथा वा । स चापि तत्प्रत्यवदद्यथोक्तमथास्य मृत्युः पुनरेवाह तुष्टः ॥ १५ ॥ 
पदार्थ—(तस्मै) उस नचिकेता के लिए यमाचार्य ने (तम्) उस पूर्वोक्त (लोकादिम्) देखने में आदिकारण (अग्निम्) यज्ञाग्नि का (उवाच) उपदेश किया कि यज्ञ में (याः) जो (वा) और (यावतीः) जितनी और (यथा) जैसी (इष्टकाः) चयनीय ईंटों की आवश्यकता होती है, अर्थात् वेदि-रचना तथा यज्ञ की समस्तविधियों का यमराज ने नचिकेता के लिए व्याख्यान किया । यहां ‘इष्टकाः ’ शब्द उपलक्षणार्थक है । इसी प्रकार के यज्ञ के सभी साधनों तथा विधियों को बताया । (च) और (सः, अपि) उस नचिकेता ने भी (यथा, उक्तम्) जैसे उपदेश किया था, (तत्) उस को वैसे ही (प्रत्यवदत्) यथाविधि यमराज को सुनाया । (अथ) इसके बाद अस्य, (तुष्टः) इस नचिकेता की विलक्षण बुद्धि को देखकर प्रसन्न (मृत्युः) यमराज (पुनः, एव) फिर भी (आह) वरदान के अतिरिक्त कुछ विशेष कहने लगे । १. यहां भौतिकाग्नि को ‘लोकादिम्’ इसलिए कहा है—क्योंकि यह भौतिकाग्नि प्राणियों के लोकन=देखने में आदि कारण है । सूर्यादि भी अग्नि के ही रूप हैं, इनके विना नेत्रेन्द्रिय भी नहीं देख सकती । १. ‘इष्टकाः’ शब्द का अर्थ महर्षि-दयानन्द ने यजु० १३।६१ में इस प्रकार किया है—‘इज्यन्ते सङ्गम्यन्ते कामा यैः पदार्थैः’ अर्थात् कामनाओं की प्राप्ति के साधनभूत पदार्थ । भावार्थ—गुरु को शिक्षा देते समय यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि शिष्य उसको कितना ग्रहण कर रहा है । यहां नचिकेता के प्रति यम आचार्य ने यज्ञाग्नि का विस्तृत वर्णन किया, यज्ञ की विधि के साथ-साथ यज्ञकुण्ड में ईंटों की चयन-विधि भी बताई । जिसको नचिकेता ने समझकर ज्यों का त्यों गुरु को सुना भी दिया । शिष्य की इस योग्यता से यमाचार्य बहुत ही प्रसन्न हुए और वरदान से भिन्न भी प्रशंसा के रूप में विशेष बातें कहने लगे । कई भाष्यकार ‘लोकादिम्’ शब्द से अग्नि की उत्पत्ति सर्व प्रथम मानते हैं, किन्तु यह अर्थ उपनिषत् के विरुद्ध है । ‘तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः०’ (तैत्तिरीय ब्राह्मण अनु० १) के अनुसार आकाश और वायु के बाद अग्नि की उत्पत्ति बताई है । अतः यह अग्नि दर्शन=देखने का आदिकारण है, यही अर्थ उचित है । नचिकेता की यज्ञादि में विशेष रुचि तथा उसकी कुशाग्रबुद्धि को देखकर यमाचार्य कहते हैं—
तमब्रवीत्प्रीयमाणो महात्मा वरं तवेहाद्य ददामि भूयः । तवैव नाम्ना भवितायमग्निः सृङ्कां चेमामनेकरूपां गृहाण ॥ १६ ॥ 
पदार्थ—शिष्य को योग्य समझकर (प्रीयमाणः) प्रसन्न होकर (महात्मा) अपने विषय में अव्याहत-बुद्धि वाले यमाचार्य (तम्) उस नचिकेता से (अब्रवीत्) कहने लगे कि—(इह) इस दूसरे वरदान के प्रसंग में (भूयः) और अधिक (अद्य) इस समय (तव) तेरे लिए (वरम्) वरदान (ददामि) देता हूं कि (अयम्) यह (अग्निः) यज्ञाग्नि अथवा (यज्ञविद्या (तव, एव) तेरे ही (नाम्ना) नाम से अर्थात् नाचिकेताग्नि नाम से (भविता) प्रसिद्ध होगी (च) और तुम (इमाम्) इस (अनेकरूपाम्) आहवनीय, गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि आदि अनेक रूपों वाली (सृङ्काम्) प्रतिष्ठासूचक चिह्न अथवा माला को (गृहाण) ग्रहण करो । भावार्थ—यमाचार्य नचिकेता की योग्यता से प्रसन्न होकर उसकी प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि यह अग्नि भविष्य में तुम्हारे ही नाम (नाचिकेताग्नि) नाम से प्रसिद्ध होगी । इससे तुम्हारा यश सदा बना रहेगा । और इस के विभिन्न रूप हैं, तुम इसे समस्तरूप में (माला रूप में) जान गए हो अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ आश्रमों में आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि रूप में तुम ने इस अग्नि को जान लिया है । इसके द्वारा वैदिक-कर्मों के अनुष्ठान से तुम्हें स्वर्ग=सुख विशेष की प्राप्ति होगी । अब यमाचार्य स्वर्ग्य-अग्नि के ज्ञान का फल कथन करते हैं—
त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सन्धिं त्रिकर्मकृत्तरति जन्ममृत्यू । ब्रह्मजज्ञं देवमीड्यं विदित्वा निचाय्य मां शान्तिमत्यन्तमेति ॥ १७ ॥ 
पदार्थ—(त्रिणाचिकेतः) नचिकेता के लिए जिस अग्नि का उपदेश किया था, वह अग्नि ‘नाचिकेत’ नाम से प्रसिद्ध हो गई । और उसका ब्रह्मचर्यादि आश्रमों में आहवनीय, गार्हपत्य तथा दक्षिणाग्नि नाम से तीन अग्नियों का चयन करने के कारण ‘त्रिणाचिकेत’ नाम प्रसिद्ध हो गया। इस त्रिणाचिकेत-अग्नि का चयन करने वाला पुरुष (त्रिभिः) माता, पिता तथा आचार्य से (सन्धिम्) सत्सङ्गति या शिक्षा (एत्य) प्राप्त होकर (त्रिकर्मकृत्) यज्ञ, अध्ययन और दान इन तीन कर्मों का करने वाला (जन्म-मृत्यू) जन्म=जीव का शरीर-संयोग, और मृत्यु=शरीर से वियोग रूप दुःखों को (तरति) पार कर लेता है । वह (ब्रह्मज-ज्ञम्) ब्रह्म से उत्पन्न होने से वेद-ज्ञान के ज्ञाता (ईड्यम्) स्तुति करने योग्य (देवम्) परब्रह्म को (विदित्वा) जानकर और (निचाय्य) निश्चय करके (इमाम्) इस सर्वदुःखरहित (शान्तिम्) शान्ति को (अत्यन्तम्) अतिशयता से (एति) प्राप्त कर लेता है । भावार्थ—इस श्लोक में कहा है यज्ञाग्नि को जानकर यज्ञ, अध्ययन तथा दान इन तीन कर्मों को करने वाला परब्रह्म को जानकर परम-शान्ति को प्राप्त करता है । त्रिकर्मकृत्=तीन कर्मों को करने वाला, यहां तीन कर्म कौन से हैं ? इसका उत्तर छन्दोग्योपनिषद् (प्र० २ । खं० २३) में दिया गया है—“त्रयो धर्म-स्कन्धा यज्ञोऽध्ययनं दानमिति।” अर्थात् धर्म के तीन स्कन्ध हैं । एक यज्ञ=उत्तम अग्निहोत्रादि कर्मों का करना, दूसरा विद्या का अध्ययन करना और तीसरा दान=विद्यादि उत्तम गुणों का देना । ‘ब्रह्मज-ज्ञम्’ पद का अर्थ है—ब्रह्मणो जायत इति ब्रह्मजः=वेदः, जानातीति ज्ञः । ब्रह्मजश्चासौ ज्ञश्चेति ब्रह्मजज्ञः । अर्थात् ब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण वेद-ज्ञान को ‘ब्रह्मज’ कहते हैं अर्थात् जो वेद-ज्ञान का दाता तथा सर्वज्ञ है, उस देव को जानकर ही शान्ति मिलती है । जैसा कि (यजु० ३१।१८) में कहा—“तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।” और “त्रिभिः सन्धिमेत्य” का अभिप्राय है कि मानव के तीन शिक्षक होते हैं। जैसा कि शतपथ ब्राह्मण में कहा है— “मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद ।” इसकी व्याख्या करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं—“वस्तुतः जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य होवे, तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है । वह कुल धन्य, वह सन्तान बड़ा भाग्यवान्, जिसके माता और पिता धार्मिक विद्वान् हों । जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुंचता है, उतना किसी से नहीं ।” (सत्यार्थ० द्वितीय-समुल्लासः) समीक्षा—आचार्य शङ्कर ने ‘ब्रह्मजज्ञम्’ पद का अर्थ इस प्रकार किया है— “ब्रह्मणो हिरण्यगर्भाज्जातो ब्रह्मजः ब्रह्मजश्चासौ ज्ञश्चेति ब्रह्मजज्ञः।” अर्थात् ब्रह्म=हिरण्यगर्भ से उत्पन्न होने के कारण ‘ब्रह्मज’ शब्द सर्वज्ञ ब्रह्म का वाचक है और वह ज्ञः=ज्ञाता है । यहां सर्वज्ञ ब्रह्म की हिरण्यगर्भ से उत्पत्ति बताकर मिथ्यार्थ ही दिखाया है । क्योंकि परब्रह्म शाश्वत चेतन सत्ता है, उसका किसी से जन्म नहीं होता । अब प्रकारान्तर से यज्ञाग्नि के जानने के फल का कथन करते हैं—
त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा य एवं विद्वांश्चिनुते नाचिकेतम् । स मृत्युपाशान्पुरतः प्रणोद्य शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥ १८ ॥ 
पदार्थ—(यः) जो (विद्वान्) ज्ञानवान् (त्रिणाचिकेतः) ब्रह्मचर्यादि आश्रमों में आहवनीयादि रूप में तीन बार नाचिकेत-अग्नि का चयन करने वाला पुरुष है । वह (एतत्, त्रयम्) इन यज्ञाग्नि के उक्त तीन प्रकारों को (विदित्वा) जानकर अर्थात् गुरुजनों से सीखकर (एवम्) इस प्रकार (नाचिकेतम्) नचिकेता के नाम से प्रसिद्ध यज्ञाग्नि को (चिनुते) चयन करता है अर्थात् विधिवत् अनुष्ठान करता है । (सः) वह (मृत्युपाशान्) मृत्यु=दुःख के बन्धनों को (पुरतः) शरीर-वियोग से प्रथम ही (प्रणोद्य) छिन्न-भिन्न करके (शोकातिगः) शोक-रहित होता हुआ जीवन्मुक्त दशा में (स्वर्गलोके) सुख की अवस्था में (मोदते) आनन्द-युक्त रहता है । भावार्थ—जो पुरुष माता, पिता तथा आचार्य इन तीन शिक्षकों से विद्या प्राप्त करके ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ इन तीनों आश्रमों में विधिवत् आहवनीयादि अग्नियों का चयन करता है अर्थात् वैदिक विधि से अग्न्याधान करता है, ऐसा विद्वान् पुरुष मृत्युपाश=दुःख के बन्धनों से मुक्त हो जाता है, और जीवन-काल में ही जीवन्मुक्त होकर आनन्द से रहता है । उसे किसी प्रकार का शोकादि=मानस दुःख भी दुःखी नहीं कर पाता है । इस प्रकार यहां जीवन्मुक्त का वर्णन किया गया है । और शरीर-वियोग से पूर्व ही स्वर्ग-लोक में आनन्द से रहने की बात से यह भी स्पष्ट है कि ‘स्वर्ग’ कोई लोक-विशेष (स्थानविशेष) नहीं है, प्रत्युत सुखविशेष का नाम ही स्वर्ग है । स्वर्ग को लोकविशेष मानने वाले इस श्लोक की सङ्गति कदापि नहीं लगा पाते, क्योंकि इसमें पुरतः पद पठित है, जिसका आचार्य शङ्कर ने भी ‘पूर्वमेव शरीरपाताद्’ अर्थ किया है । अब यमाचार्य द्वितीय वर का उपसंहार करते हुए कहते हैं—
एष तेऽग्निर्नचिकेतः स्वर्ग्यो यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण । एतमग्निं तवैव प्रवक्ष्यन्ति जनासस्तृतीयं वरं नचिकेतो वृणीष्व ॥ १९ ॥ 
पदार्थ—(नचिकेतः) हे नचिकेता ! (एषः) यह (अग्निः) पूर्वोक्त अग्नि (स्वर्ग्यः) स्वर्ग=सुखविशेष के लिए उपयोगी है । इसका (ते) तेरे लिए उपदेश किया गया है, (यम्) जिस अग्नि को (द्वितीयेन) दूसरे (वरेण) वर के द्वारा (अवृणीथाः) तुमने मांगा था । (एतम्) इस (अग्निम्) अग्नि को (तव, एव) तुम्हारे ही नाम से अर्थात् ‘नाचिकेताग्नि’ के नाम से (जनासः) मनुष्य (प्रवक्ष्यन्ति) कहा करेंगे । (नचिकेतः) हे नचिकेता ! अब (तृतीयं वरम्) तीसरा वर (वृणीष्व) मांगो । भावार्थ—गीता में कहा है—“यद् यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।” अर्थात् श्रेष्ठ-पुरुष जैसा आचरण करते हैं, सामान्य व्यक्ति उसका ही अनुकरण किया करते हैं । यमाचार्य ने जैसा कहा कि इस स्वर्ग्य-अग्नि को तेरे ही नाम से कहा करेंगे, आज तक विद्वान् पुरुष उस अग्नि को ‘नाचिकेत’ नाम से ही व्यवहार करते हैं । यमाचार्य ने इस दूसरे वरदान के देने के बाद तीसरे वरदान के लिए नचिकेता से कहा। अब ‘पिता की प्रसन्नता’ तथा ‘स्वर्ग्य-अग्नि’ के ज्ञान के पश्चात् नचिकेता तीसरा वर मांगता है—
येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये अस्तीत्येके नायमस्तीति चैके । एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीयः ॥ २० ॥ 
पदार्थ—हे यमाचार्य ! (मनुष्ये) मनुष्य के (प्रेते) मरने के बाद (अयम्) यह शरीरस्थ चेतन आत्मा (अस्ति) नित्य है (इति, एके) इस प्रकार कुछ विद्वान् मानते हैं (च) और (न, अस्ति) आत्मा की सत्ता नहीं है (इति एके) कुछ ऐसा मानते हैं, (या) जो (इयम्) यह (विचिकित्सा) संशय होता है, इस विषय में (त्वया) आपसे (अनुशिष्टः) शिक्षा पाया हुआ (अहम्) मैं नचिकेता (एतत्) इस आत्मज्ञान को (विद्याम्) जानूं (एषः) यह मेरा (वराणाम्) वरों में (तृतीयः) तीसरा वर है । भावार्थ—नचिकेता पूर्वोक्त दोनों वरों को पाकर यमाचार्य से तीसरे वर के लिए प्रार्थना करता हुआ कहता है—हे आचार्य ! लोक में जो यह संशय है कि मरने के बाद आत्मा है और कुछ कहते हैं कि आत्मा नाम की कोई वस्तु ही नहीं है, इसमें क्या तत्त्व है ? मैं इस रहस्य को समझना चाहता हूं । आप इस आत्मविद्या का मुझे उपदेश करें यह मेरा तीसरा वर है । अब यमाचार्य तीसरे वर के विषय में नचिकेता से कहते हैं—
देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुविज्ञेयमणुरेष धर्मः । अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम् ॥ २१ ॥ 
पदार्थ—(अत्र) इस आत्मज्ञान के विषय में (पुरा) पहले (देवैः) विद्या से प्रकाशमान विद्वानों ने (अपि) भी (विचिकित्सितम्) संशय किया था, (हि) क्योंकि (एषः, धर्मः) यह आत्मा के ज्ञान का विषय (अणुः) अति सूक्ष्म है, अतः (सुविज्ञेयम्) सब को सुगमता से जानने योग्य (न) नहीं है अर्थात् आत्मज्ञान के लिए प्रयत्नशील सभी पुरुषों को सफलता प्राप्त ही हो, यह सन्दिग्ध है, इसलिए (नचिकेतः) हे नचिकेता ! (अन्यम्) जिसके फल मिलने में सन्देह हो, इससे भिन्न (वरम्) वर को (वृणीष्व) मांगो । और (मा) मुझ को (मा, उपरोत्सीः) वरदान के लिए वचनबद्ध मुझे अधिक विवश मत करो अथवा इस वरदान के लिए दबाव मत डालो (मा) मेरे प्रति (एनम्) इस वर को (अति सृज) छोड़ दो । भावार्थ—यमाचार्य ने आत्मज्ञान के विषय में बताया कि यह विषय बहुत ही सूक्ष्म है, इसका जानना अतीव कठिन है । बड़े-बड़े विद्वानों को भी इस विषय में पूर्ण ज्ञान न होने से सन्देह ही बना हुआ है । इसलिए नचिकेता की आत्मज्ञान का अधिकारी है या नहीं, परीक्षा करने के लिए यमाचार्य कहते हैं कि ऐसे कठिन, सूक्ष्म, दुर्विज्ञेय तथा सन्दिग्ध विषय को छोड़कर और कोई वर मांगो । नचिकेता तीसरे वर के विषय में यमाचार्य की अनिच्छा देखकर उसी के लिए पुनः आग्रह करता है—
देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल त्वं च मृत्यो यन्न सुज्ञेयमात्थ । वक्ता चास्य त्वादृगन्यो न लभ्यो नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित् ॥ २२ ॥ 
पदार्थ—(मृत्यो) हे यमाचार्य ! (अत्र) इस आत्मज्ञान के विषय में (देवैः) बड़े-बड़े विद्वानों ने (अपि) भी (विचिकित्सितम्) संशय किया था (च) आप भी (यत्) जिस आत्मज्ञान विषय को (सुविज्ञेयम्) सुगमता से जानने योग्य (न) नहीं है, यह (आत्थ) कहते हो । इसी से मैं यह समझ गया हूं कि यह विषय अति सूक्ष्म और कठिन है किन्तु (अस्य) इस विषय का (वक्ता) उपदेश करने वाला मुझ को (त्वादृक्) आपके समान (अन्यः) दूसरा (न, लभ्यः) नहीं मिल सकता (च) और (एतस्य) इस आत्मज्ञान के (तुल्यः) समान (अन्यः) दूसरा (कश्चित्) कोई (वरः, न) मेरा वर नहीं है । भावार्थ—नचिकेता ने यमाचार्य से अपने मांगे हुए आत्मज्ञान के वर को ही देने का आग्रह करते हुए कहा कि—यह सत्य है, यह आत्मज्ञान का विषय सुगम नहीं है । इसीलिए विद्वानों को भी सन्देह होता रहता है, और आप भी इसकी सफलता में सन्देह व्यक्त कर रहे हो । परन्तु नचिकेता पुनरपि अपने वर के लिए ही आग्रह इसलिए करता है कि इस विषय का योग्य विद्वान् उपदेष्टा आपसे (यमाचार्य से) दूसरा कोई नहीं है । अतः इस विषय का ज्ञान अन्यत्र दुर्लभ है । आप मुझे इसी विषय का उपदेश अवश्य दीजिए । मैं इस वर से श्रेष्ठ और किसी वर को नहीं समझता हूं। अब नचिकेता के पुनराग्रह करने पर यमाचार्य परीक्षा करने के लिए भौतिक सुखों का प्रलोभन देते हुए कहते हैं—
शतायुषः पुत्रपौत्रान्वृणीष्व बहून्पशून्हस्तिहिरण्यमश्वान् । भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ॥ २३ ॥ 
पदार्थ—हे नचिकेता ! तुम (शतायुषः) सौ वर्ष पर्यन्त जीने वाले (पुत्र-पौत्रान्) पुत्र और पौत्रों (पोतों) को (बहून्, पशून्) बहुत से गौ आदि पशुओं को (हस्ति-हिरण्यम्) हाथियों तथा सुवर्ण को (अश्वान्) और घोड़ों को (वृणीष्व) मांगो और (भूमेः) पृथिवी के (महत्) बड़े (आयतनम्) राज्य को (वृणीष्व) मांगो (च) और (स्वयम्) तुम भी (यावत्) जितने (शरदः) वर्षों तक (इच्छसि) जीना चाहते हो, उतने वर्षों तक (जीव) जीवन प्राप्त करो । भावार्थ—यमाचार्य नचिकेता को भौतिक सुख अर्थात् दीर्घजीवी, पुत्र-पौत्रों, गौ आदि पशुओं, हाथी-घोड़ों, सुवर्णादि रत्नों तथा विशाल चक्रवर्ती राज्य का प्रलोभन देते हैं और यह भी कहते हैं कि तुम जितने वर्ष जीना चाहो, उतने वर्ष जीवित रहो । इस प्रकार संसार के सभी प्रकार के सुखों का नचिकेता को प्रलोभन दिया गया । यद्यपि कोई भी व्यक्ति जन्म-धारण करके न मरे, मृत्यु=शरीर से वियुक्त न होवे, यह असम्भव है । जैसा कि गीता में कहा है— जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ॥ गीता ॥ अर्थात् जो पैदा हुआ है उसकी मृत्यु तथा जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म अपरिहार्य है । इस ईश्वरीय नियम में कभी कोई विकल्प कोई भी न तो आज तक कर सका है, न ही भविष्य में कर सकेगा । यहां यमाचार्य का कथन प्रलोभनमात्र ही समझना चाहिए कि तुम भी जितने काल तक जीना चाहो, तब तक जीवित रहो । नचिकेता को यमाचार्य प्रकारान्तर से और प्रलोभन देते हैं—
एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च । महाभूमौ नचिकेतस्त्वमेधि कामानां त्वा कामभाजं करोमि ॥ २४ ॥ 
पदार्थ—(नचिकेतः) हे नचिकेता ! (यदि) जो (एतत्, तुल्यम्) इस आत्मज्ञान के समान (वरम्) आगे कही जाने वाली वस्तुओं को वररूप में (मन्यसे) समझते हो तो (वित्तम्) भोग के साधन सुवर्णादि ऐश्वर्य को (च) और (चिरजीविकाम्) दीर्घ-जीवन को (वृणीष्व) मांगो । (त्वम्) तुम (महाभूमौ) भूमि पर विशाल साम्राज्य में (एधि) उपर्युक्त भौतिक सुखों को प्राप्त करते रहो, मैं (त्वा) तुझ को (कामानाम्) अभीष्ट कामनाओं का (कामभाजम्) भोग वाला (करोमि) करता हूं । भावार्थ—यमाचार्य नचिकेता को प्रलोभन देते हुए कहते हैं कि मरने के बाद क्या होता है ? आत्मा है या नहीं ? इन नीरस बातों को पूछकर तुम्हें क्या सुख मिलेगा ? मैं तुम्हें धनैश्वर्य, दीर्घजीवन के साथ-साथ ऐसा वर दे सकता हूं कि तुम विशाल साम्राज्य के सम्राट् होकर सभी अभीष्ट कामनाओं का भोग कर सकते हो । और जो भी अन्य कोई कामना हो, मैं उसे भी पूर्ण कर सकता हूं । यमाचार्य शिष्य की परीक्षा करने के लिए प्रत्यक्ष इन्द्रियों के सुखों का प्रलोभन देते हुए कहते हैं— ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान् कामाश्छन्दतः प्रार्थयस्व ।
ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान्कामांश्छन्दतः प्रार्थयस्व । इमा रामाः सरथाः सतूर्या न हीदृशा लम्भनीया मनुष्यैः । आभिर्मत्प्रत्ताभिः परिचारयस्व नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षीः ॥ २५ ॥ 
पदार्थ—(मर्त्यलोके) इस पृथिवी पर (ये ये) जो-जो (कामाः) कामनाएं (दुर्लभाः) दुर्लभ हैं, उन (सर्वान्) सब (कामान्) कामनाओं को (छन्दतः) स्वेच्छा से (प्रार्थयस्व) मांगो । (इमाः) ये जो (सरथाः) रमण के साधन सम्पन्न रथों पर बैठी हुई (सतूर्याः) श्रुतिमधुर बाजों के सहित (इमाः) मनुष्यों को प्रसन्न करने वाली रूपवती स्त्रियां हैं, उनको देता हूं (हि) क्योंकि (ईदृशाः) ऐसी सौन्दर्ययुक्त तथा रूप सम्पन्न स्त्रियां (मनुष्यैः) सामान्य मनुष्यों को (न, लम्भनीयाः) प्राप्त नहीं हो सकतीं । (मत्प्रत्ताभिः) मुझ से दी गई (आभिः) इन तन, मन, धन से सेवा करने वाली युवतियों से (परिचारयस्व) अपनी सेवा कराओ और (नचिकेतः) हे नचिकेता ! (मरणम्) मृत्यु अर्थात् मरने के बाद आत्मा के विषय में (मा, अनुप्राक्षीः) मत पूछो । भावार्थ—संसार में दो ही बड़े प्रलोभन होते हैं—१. काञ्चन, २. कामिनी । जिनके आकर्षण से कोई विरले ही बच पाते हैं । यमाचार्य ने भी नचिकेता के सामने दोनों ही प्रलोभन दिए हैं, क्योंकि जो इनमें आसक्ति रखता है, उसे आत्मज्ञान कदापि सम्भव नहीं है । भगवान् मनु ने इस विषय में बहुत ही स्पष्ट कहा है कि— अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते ॥ अर्थात् जो अर्थ तथा काम में आसक्त नहीं हैं, उन्हें ही धर्मज्ञान होता है । इसलिए आत्मज्ञान के देने से पूर्व नचिकेता की परीक्षा ली गई। क्योंकि अनधिकारी को विद्या अर्थात् आत्मज्ञान के उपदेश का कोई लाभ नहीं है । इस श्लोक में ‘सरथाः’ पद में रथ शब्द का रथयान के अतिरिक्त एक अर्थ यह भी है—रमण=भोग करने का ज्ञान । यमाचार्य ने यह कहा कि मैं तुझे इन पदार्थों के भोग की विधि भी बता सकता हूं। महर्षि दयानन्द ‘रथ’ पद का अर्थ करते हुए लिखते हैं— “रथ-शब्देन रमणानन्दकरं ज्ञानं तेजो गृह्यते ।” (ऋ० भू० धारणाकर्षण-विषयः) अर्थात् रमण=आनन्द करने वाला ज्ञान व तेज अर्थ रथ शब्द से गृहीत होता है । यमाचार्य कहते हैं कि हे नचिकेता ! तुम इस लोक की दुर्लभ से दुर्लभ कामनाओं को मांगो । रमण कराने वाली मनुष्यों को दुर्लभ रूपवती स्त्रियों को प्राप्त करो । उनसे अपनी खूब सेवा करवाओ और गाने बजाने वाली संगीतज्ञ स्त्रियों की मांग करो, जो तुम्हारा मनोरञ्जन कराती रहें, किन्तु मृत्यु के पश्चात् आत्मसत्ता के विषय में प्रश्न न करो । ऐसे कठिन तथा नीरस विषय को पूछकर भी क्या करोगे ? अब यमाचार्य के प्रलोभनों को सुनकर नचिकेता बहुत ही गम्भीरता तथा कुशलता से युक्ति-सहित उत्तर देता है—
श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत्सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः । अपि सर्वं जीवितमल्पमेव तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥ २६ ॥ 
पदार्थ—(अन्तक) हे यमाचार्य ! (यत्) जो तुमने सांसारिक भोगों के देने को कहा है वे सब (श्वोभावाः) कल रहेंगे वा नहीं अर्थात् उत्पत्ति-विनाशवाले होने से अनित्य हैं और (एतत्) ये भोग (मर्त्यस्य) मनुष्य की (सर्वेन्द्रियाणाम्) सब चक्षुरादि इन्द्रियों के (तेजः) प्रताप या बल को (जरयन्ति) नष्ट कर देते हैं । और जो आप ने यथेष्ट आयु देने को कहा है, यह (सर्वम्, अपि) सभी (जीवनम्) जीवन (अल्पम्, एव) अल्प ही है अर्थात् आत्मज्ञान से होने वाली मुक्ति की अपेक्षा सौ दो सौ वर्षों का जीवन तुच्छ ही है । और जो आपने सुन्दर रथादि सहित स्त्रियों को देने को कहा है, वे (वाहाः) रथादि वाहनों सहित स्त्रियां, (तव, एव) आपकी ही रहें और (नृत्यगीते) नाचना, गाना व बजाना भी (तवैव) आपका ही रहे, मैं ये सब नहीं चाहता । भावार्थ—नचिकेता ने भौतिक भोगों, दीर्घायु तथा सुन्दर-सुन्दर स्त्रियों के प्रलोभन के विषय में स्पष्टरूप से उत्तर दिया है कि हे यमाचार्य! आप तो अन्तक=संसार के उत्पन्न पदार्थों को नाश करने वाले हो, इसलिए ये सांसारिक सभी भोग के साधन श्वोभावाः=उत्पत्ति-नाशयुक्त हैं, आज हैं तो कल नहीं रहेंगे । ऐसे पदार्थों को ले कर मैं क्या करूंगा ? और इनके भोगने से इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है । फिर दुर्बल-इन्द्रिय होने पर तो लौकिक वस्तुओं का क्या सुख होगा ? और यह जीवन भी सदा न रहने से तुच्छ ही है । इसलिए मैं इन भोगों को नहीं चाहता । इसलिए ये सब भोग तुम्हारे लिए ही बने रहें, मुझे इनकी लेशमात्र भी इच्छा नहीं है । अब नचिकेता भौतिक-भोगसाधनों के तुच्छ होने में और हेतु कथन करता है—
न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत्त्वा । जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वरस्तु मे वरणीयः स एव ॥ २७ ॥ 
पदार्थ—(मनुष्यः) मनुष्य (वित्तेन) धनादि ऐश्वर्यों के भोग से (न, तर्पणीयः) तृप्त नहीं हो सकता (चेत्) यदि (त्वा) आपको (अद्राक्ष्म) दर्शन=जान सके तो (वित्तम्) भोगों को (लप्स्यामहे) प्राप्त कर ही लेंगे (यावत्) जब तक (त्वम्) आप (ईशिष्यसि) मेरे अधिष्ठाता=ऊपर वरदहस्त रखे रहोगे अथवा धनादि ऐश्वर्य देने से मेरे ईश्वर=स्वामी, बने रहोगे तब तक (जीविष्यामः) जीवन प्राप्त करते रहेंगे, अतः (मे) मुझे (वरः, तु) वर तो (सः, एव) वही (वरणीयः) मांगने योग्य है । भावार्थ—नचिकेता अपने आत्मज्ञान के वर के लिए ही आग्रह करते हुए कहता है कि मुझे तो वही वर चाहिए । क्योंकि मनुष्य की संसार के भोगों से तथा ऐश्वर्यों से कभी तृप्ति नहीं हो सकती । जितना इन भोगों की तरफ मनुष्य भागता है, ये भोग उतना ही अधिक दुःखी करते हैं । मनु जी ने इसलिए कहा है— न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ (मनु०) अर्थात् कामनाआें के भोग करने से कामनाओं की शान्ति नहीं होती, प्रत्युत अग्नि में आहुति डालने के समान कामों की वृद्धि ही होती है । इस लिए महाराज भर्तृहरि कहते हैं—“भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः” भोगों को भोगते भोगते भोग कदापि समाप्त नहीं होते, हम ही समाप्त हो जाते हैं । इस श्लोक में ‘वित्तम्’ पद केवल धन के लिए ही नहीं है, किन्तु “वित्तो भोगप्रत्ययोः” (अ०) इस व्याकरण नियम से वित्त शब्द भोगार्थक ही जानना चाहिए । प्रस्तुत प्रसंग में भी नचिकेता का यही भाव है । इस श्लोक से यह भी स्पष्ट हो रहा है कि यह यम-नचिकेता का संवाद एक आलङ्कारिक वर्णन ही है । इस के द्वारा जीवों को यह शिक्षा दी गई है कि वह परमात्मा ही सब का अन्तक=विनाश करने वाला है । उसके दर्शन व ज्ञान से सांसारिक ऐश्वर्यों की न्यूनता भी नहीं रहती और जब तक उसकी कृपा बनी रहेगी, तभी तक हमारा जीवन सुरक्षित रहेगा यद्यपि परमात्मा कर्मों के अनुसार ही फल देता है, परन्तु जो जीव परमात्मा पिता के आदेशों का पालन करते हैं, उन पर ही उसकी कृपा होती है, अन्यों पर नहीं । जैसा कि इसी उपनिषद् में अन्यत्र कहा है— नायमात्मा प्रवचनेन लभ्य ..... यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः । कठो० २।२३॥ अर्थात् आत्मज्ञान प्रवचन से ही नहीं होता जब परमात्मा का अनुग्रह होता है, तब उसका ज्ञान होता है । अब नचिकेता लौकिक सुखों के प्रति अपनी अनिच्छा का कारण बताते हुए कहते हैं—
अजीर्यताममृतानामुपेत्य जीर्यन्मर्त्यः क्वधःस्थः प्रजानन् । अभिध्यायन्वर्णरतिप्रमोदानतिदीर्घे जीविते को रमेत ॥ २८ ॥ 
पदार्थ—(अजीर्यताम्) जीर्ण होने वाली वृद्धावस्था से रहित (अमृतानाम्) आप सदृश मुक्त-पुरुषों की सङ्गति (उपेत्य) प्राप्त करके और (वर्ण-रतिप्रमोदान्) सुन्दर गौरवर्ण वाली स्त्रियों के साथ रति-क्रीडाओं के विषय सुखों के दुःख परिणाम को (अभिध्यायन्) अच्छी प्रकार ध्यान=जानता हुआ (कु-अधस्थः) मुक्ति-सुख की अपेक्षा कु=पृथिवी के सुखों की तुच्छता को जानने वाला, और (जीर्यन्) भोगों से शरीर व इन्द्रियों की शक्ति से ह्रास को अनुभव करता हुआ (कः) कौन (प्रजानन्) सत्यासत्य का विवेक करने वाला (मर्त्यः) विचारशील मनुष्य है, जो (अतिदीर्घे) बहुत समय तक रहने वाले (जीविते) मनुष्य जीवन में (रमेत) भोगों में रमण करने की इच्छा करे अर्थात् कोई नहीं। भावार्थ—लौकिक समस्त सुख मोक्ष-सुख की अपेक्षा बहुत हीन तथा क्षणिक होते हैं । जो इन विषयों के सुखों के परिणाम को नहीं जानता वह तो इनमें आसक्त हो सकता है, किन्तु सत्-असत् का सम्यक् विचार करने वाला इन सुखों की कैसे इच्छा करेगा ? और जिसे ईश्वर की कृपा से लेशमात्र भी परमात्मा की उपासना से ईश्वरीय आनन्द की अनुभूति होने लगती है, तब ये सुख-दुःखबाहुल्य ही दिखाई देते हैं । नचिकेता भी इसी दशा में पहुंच चुका था और सदा मुक्त यमाचार्य की सङ्गति मिल चुकी थी, फिर वह कैसे इन प्रलोभनों में फंस सकता था । नचिकेता ने एक प्रकार से परोक्षरूप में अपनी योग्यता ही यमाचार्य से बताई है । अब नचिकेता लौकिक-सुखों की तुच्छता बताकर अपने मुख्य-वर के लिए पुनः आग्रह करता है—
यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत् । योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते ॥ २९ ॥ 
पदार्थ—(मृत्यो) हे यमाचार्य ! (यस्मिन्) जिस आत्मज्ञान के विषय में (इदम्) यह अर्थात् मरने के बाद आत्मा की सत्ता है या नहीं इत्यादि (विचिकित्सन्ति) देव व मनुष्य सभी संशय करते हैं (यत्) जो आत्मज्ञान (महति) बड़ी (साम्पराये) परमार्थ-दशा में है (तत्) उस ज्ञान को (नः) हमारे लिए (ब्रूहि) उपदेश कीजिए । (यः) जो (अयम्) यह आत्मज्ञान-विषयक वर है, यह (वरः) वर (गूढम्) छिपी हुई अर्थात् अस्पष्ट होने से अकथनीय दशा को (अनुप्रविष्टः) प्राप्त हो रहा है, इसलिए (नचिकेता) नचिकेता (तस्मात्) उससे (अन्यम्) भिन्न वर को (न, वृणीते) नहीं मांगता । भावार्थ—नचिकेता का आत्मा-विषयक वर ही मुख्य वर था । जैसे जैसे यमाचार्य ने नचिकेता की परीक्षा करने के लिए लौकिक प्रलोभन दिए, वैसे-वैसे ही नचिकेता की जिज्ञासा अधिक बढ़ने लगी । इसलिए आत्मा के विषय में अद्वितीय ज्ञाता तथा वक्ता यमाचार्य से वह अपने उसी आत्मज्ञान के वर के लिए पुनः आग्रह करता हुआ कहता है कि मुझे उससे भिन्न दूसरा कोई भी वर नहीं चाहिए । इति कठोपनिषदि प्रथम-वल्लीभाष्यं समाप्तम् ॥ समाप्तेयञ्च प्रथमावल्ली ॥


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