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केनोपनिषद काण्ड-4 श्लोक 1-9 हिन्दी अर्थ सहित

 सा ब्रह्मेति होवाच ब्रह्मणो वा एतद्विजये महीयध्वमिति ततो हैव विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥ १ ॥ 
आचार्य राजवीर शास्त्री
पदार्थ—(सा) वह उमा=ब्रह्मविद्या (ह) निश्चय से (इति) इस प्रकार (उवाच) कहने लगी कि वह यक्ष (ब्रह्म, इति) ब्रह्म ही है । तुम सब (वै) निश्चय करके (ब्रह्मणः) ब्रह्म की (एतद्विजये) इस विजय में (महीयध्वम्) पूजा को प्राप्त करो । (इति) इस प्रकार (ततः) उमा=ब्रह्मविद्या से जानने के बाद जीव (विदाञ्चकार) ब्रह्म के तत्त्व को समझ गया कि (ब्रह्म, इति) यह यक्ष ब्रह्म ही है । भावार्थ—उस ब्रह्मविद्या के द्वारा देवों को यह ज्ञान हुआ कि यह तेजस्वी यक्ष ब्रह्म ही है । देवों में इन्द्र=जीवात्मा ने चेतन होने के कारण ब्रह्म-तत्त्व को समझ लिया । और यह भी देव जान गए कि ब्रह्म ही सर्वोत्कृष्ट शक्ति है, उसी की विजय में हमारी विजय है । अर्थात् उसी की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने से हमारी उन्नति सम्भव है, अन्यथा नहीं । जो उस ब्रह्म की शक्ति को न मानकर भौतिक देवों को ही सर्वोत्कृष्ट मानते हैं, उनके लिए यह उपदेश दिया है कि वे भ्रान्त हैं। क्योंकि उस ब्रह्म की अद्वितीय शक्ति से ही ये भौतिक अग्नि आदि कार्य कर रहे हैं । इनमें स्वतः कोई सामर्थ्य नहीं है । उससे बड़ा तथा उसके समान भी कोई देव नहीं है । इस प्रकरण को अथवा इस आलंकारिक आख्यायिका को न समझ कर जो व्यक्ति यक्षावतार की कल्पना करते हैं और हिमालय की पुत्री उमा ने इन्द्र=जड़ बिजली को यह उपदेश दिया, ऐसा मानते हैं, उनकी मान्यता असत्य, असम्भव तथा उपनिषदों के वचनों से विरुद्ध होने से कैसे माननीय हो सकती है । हिमालय की पुत्री कौन है ? उसका जड़ बिजली को उपदेश का क्या प्रयोजन है ? और बिजली के पास उमा का स्थित रहना कैसे सम्भव है ? इत्यादि प्रश्नों का कोई उत्तर न देकर कैसे इस मान्यता को बलात् मनवाया जा सकता है । अब इन्द्रादि देवों की अन्य देवों से उत्कृष्टता का कथन करते हैं—
तस्माद्वा एते देवा अतितरामिवान्यान्देवान्यदग्निर्वायुरिन्द्रस्ते ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्शुस्ते ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥ २ ॥ 
पदार्थ—(यत्) जिस कारण से (अग्निः, वायुः, इन्द्रः) अग्नि, वायु और इन्द्र (एते देवाः) इन तीन देवों ने (हि) निश्चय करके (एनत्) इस यक्ष=ब्रह्म को (नेदिष्ठम्) अत्यन्त समीपता से (पस्पर्शुः) स्पर्श किया अर्थात् ब्रह्म को जानने के लिए अग्रसर हुए और (हि) निश्चय से इन्होंने ही (एनत्) इस यक्ष=ब्रह्म को (प्रथमः) सब से प्रथम (ब्रह्म, इति) ब्रह्म है, ऐसा (विदाञ्चकार) जानने का यत्न किया अथवा जाना, (तस्मात्) इसी कारण (एते देवाः) ये तीनों देव (अन्यान् देवान्) अन्य देवों की अपेक्षा (अतितराम् इव) मानो अधिक उत्कृष्ट हैं । भावार्थ—इस श्लोक में अन्य देवों की अपेक्षा अग्नि, वायु तथा इन्द्र=जीवात्मा को श्रेष्ठ इसलिए बताया है कि इन्होंने ब्रह्म को सर्वप्रथम जानने का प्रयत्न किया । तात्पर्य यह है कि अग्नि प्रकाश का और वायु गति का देवता है । इनके सहयोग से चेतन इन्द्र=जीव ब्रह्म को जानने में समर्थ होता है । अर्थात् अग्नि व वायु दोनों ही मानव-जीवन के मुख्य आधार हैं, जिस मानवजीवन में ही इन्द्र=जीव ब्रह्म-प्राप्ति कर सकता है। अब अग्नि व वायु की अपेक्षा इन्द्र=जीवात्मा की श्रेष्ठता का कथन करते हैं—
तस्माद्वा इन्द्रोऽतितरामिवान्यान्देवान्स ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्श स ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥ ३ ॥ 
पदार्थ—(हि) क्योंकि (सः) इन्द्रः=जीवात्मा ने (वै) निश्चय करके (एनत्) इस ब्रह्म के (नेदिष्ठम्) चेतन ज्ञानादि गुणों के कारण अतीव समीप से (पस्पर्श) स्पर्श किया, ब्रह्म को जानने के लिए उपासनादि यत्न किए और (सः) उस इन्द्र ने (एनत्) इस ब्रह्म को (हि) निश्चय से (ब्रह्म, इति) यह यक्ष ब्रह्म है, इस प्रकार (प्रथमः) सर्वप्रथम (विदाञ्चकार) जाना (तस्मात्) इसी कारण इन्द्र देवता (अन्यान् देवान्) अग्नि आदि देवों की अपेक्षा (वै) निश्चय करके (अतितराम् इव) मानो अधिक उत्कृष्ट हुआ । भावार्थ—“द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया०” मन्त्र में जीवात्मा व परब्रह्म को कतिपय ज्ञान चेतनादि गुणों की समानता के कारण ‘सयुजा सखाया’ कहा है । किन्तु जीव-ब्रह्म एक कदापि नहीं हैं । दोनों के परस्पर व्याप्य-व्यापक, सेव्य-सेवक, उपास्य-उपासकादि सम्बन्ध हैं । अग्नि आदि अचेतन देवों की अपेक्षा चेतन इन्द्र=जीवात्मा ब्रह्म की उपासनादि करने के कारण ब्रह्म के नेदिष्ठम्=अत्यन्त समीप है । इसीलिए इन्द्र अन्य देवों में श्रेष्ठ है । अब ब्रह्मज्ञान को विद्युत् के दृष्टान्त से स्पष्ट करते हैं—
तस्यैष आदेशो यदेतद्विद्युतो व्यद्युतदा३ इतीन्न्यमीमिषदा३ इत्यधिदैवतम् ॥ ४ ॥ 
पदार्थ—(तस्य) उस प्रकट तथा अन्तर्धान हुए यक्षरूप ब्रह्म का (एषः) यह पूर्वोक्त (आदेशः) दृष्टान्त है अर्थात् आलङ्कारिक वर्णन है। वह यक्षरूप ब्रह्म (विद्युतः, आ) बिजली की तरह (आ इति उपमार्थे) (व्यद्युतत्) चमका तथा (आ, न्यमीमिषत्) आंख की झपक के सदृश प्रकट हुआ और छिप गया (इति) इस प्रकार का (अधिदैवतम्) देवता विषयक उपमा देकर ब्रह्म का उपदेश किया है । भावार्थ—ब्रह्मरूप यक्ष के प्रकट होने तथा बाद में छिपने के दृष्टान्त से यह भी स्पष्ट किया गया है कि जब योगी अपनी चित्तवृत्तियों को रोककर ब्रह्म की तरफ लगाता है तो उस प्रथमावस्था में कभी-कभी ब्रह्म का वैसा ही प्रकाश प्रतीत होकर छिप जाता है, जैसे बिजली चमक कर तत्काल छिप जाती है । तत्पश्चात् व्यापक ब्रह्म का योगी के हृदय में अवभास धीरे-धीरे बढ़ने लगता है । योगी उस ब्रह्म के प्रकाश तथा आनन्द के लिए फिर अनवरत प्रयास करने लगता है । यद्यपि ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन बाह्य किसी भी पदार्थ से नहीं किया जा सकता । वह तो अवर्णनीय है पुनरपि बाह्य देवता की उपमा से यहां सामान्यजनों को बोध कराया गया है । ब्रह्म-ज्ञान को मन के दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं—
अथाध्यात्मं यदेतद्गच्छतीव च मनोऽनेन चैतदुपस्मरत्यभीक्ष्णं सङ्कल्प: ॥ ५ ॥ 
पदार्थ—(अथ) आधिदैविक दृष्टान्त के बाद (अध्यात्मम्) शरीर के भीतर (अन्तःकरणविषयक) मन का ब्रह्मज्ञान में दृष्टान्त देते हैं । (यत्) जिस पूर्वोक्तगुणवाले ब्रह्म के प्रति (एतत्, मनः) यह मन (गच्छति, इव) चलता हुआ सा जान पड़ता है । (च) और (अनेन) इस मन से (अभीक्ष्णम्) बार-बार (सङ्कल्पः) निश्चय करके (उपस्मरति) समीपता से ब्रह्म का स्मरण करता है । भावार्थ—यहां अध्यात्म उपदेश है अर्थात् जिसको ब्रह्म को जानने और दुःखों से छूटने की इच्छा हो वह पुरुष इस प्रकार ध्यान करे कि मेरा मन उस परम ज्योति ब्रह्म की ओर जा रहा है, मेरा यही दृढ़ सङ्कल्प हो कि मैं ब्रह्म-प्राप्ति के लिए ही सदा पूर्ण यत्न कर रहा हूं । यथार्थ में जब योगी की ब्रह्माकार वृत्ति हो जाती है तो उसका मन बाह्यविषयों से निरुद्ध होकर परब्रह्म की तरफ जाता सा प्रतीत होने लगता है । यथार्थ में सर्वव्यापक परब्रह्म तो मन में भी विद्यमान है, अतः मन कहीं जाता नहीं । और अन्तःकरण में ब्रह्म का प्रकाश होने से मन ब्रह्म का ही अनवरत चिन्तन करता है । जैसा कि योगदर्शनकार मुनि ने भी कहा है— तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ॥ (योग०) अर्थात् चित्त की वृत्तियों के बाह्यविषयों से निरोध होने पर द्रष्टा=परब्रह्म के स्वरूप में स्थित हो जाता है । ब्रह्म ही उपासना के योग्य है, यह कथन करते हैं—
तद्ध तद्वनं नाम तद्वनमित्युपासितव्यं स य एतदेवं वेदाभि हैनं सर्वाणि भूतानि संवाञ्छन्ति ॥ ६ ॥ 
पदार्थ—(तत्) वह पूर्वोक्त ब्रह्म (ह) निश्चय से (तद्वनम्) योगियों वा विद्वानों से सेवन करने योग्य है, अतः उसका (नाम) प्रसिद्ध (तद्वनम्) ‘तद्वन’ नाम है, (इति) इस प्रकार (उपासितव्यम्) उस ब्रह्म की ही उपासना करनी चाहिए । (सः, यः) सो जो मनुष्य (एतत्) इस ब्रह्म को (एवम्) इस प्रकार (अभिवेद) सब प्रकार से जानता है, (एनम्) उस उपासक की (सर्वाणि भूतानि) सब प्राणी (ह) निश्चय से (संवाञ्छन्ति) इच्छा करते हैं अर्थात् उस उपासक का सब सम्मान करते हैं और उसके अनुयायी बन जाते हैं । भावार्थ—सब देवों का एक मात्र ब्रह्म ही आश्रय करने योग्य होने से सर्वोत्कृष्ट है । उसी की उपासना सब मनुष्यों को करनी चाहिए जो उपासक इस रहस्य-विद्या को जानकर ब्रह्म से भिन्न जड़ देवों की उपासना का परित्याग कर देता है, वह ही वास्तव में ज्ञानी कहलाता है। उस सच्चे उपासक की ही सदा लोक में प्रतिष्ठा होती है और दूसरे मनुष्य उसको हृदय से चाहते हैं । सच्चा उपासक प्राणीमात्र में ब्रह्म की सत्ता मानकर सब के साथ प्रेम का व्यवहार करता है, और राग-द्वेषादि से शून्य होने के कारण सब प्राणियों का प्यारा बन जाता है । उपनिषत् के प्रारम्भ में शिष्य द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देकर गुरु अब उसका उपसंहार करते हुए कहते हैं—
उपनिषदं भो ब्रूहीत्युक्ता त उपनिषद्ब्राह्मीं वाव त उपनिषदमब्रूमेति ॥ ७ ॥ 
पदार्थ—हे शिष्य तुमने कहा था कि (भोः) हे पूज्य गुरुदेव ! (उपनिषदम्) ब्रह्मविद्या को (ब्रूहि, इति) कहिए, इस प्रकार । गुरु ने कहा सो (ते) तेरे लिए (उपनिषद्) ब्रह्मविद्या (उक्ता) मैं कह चुका (वाव) निश्चय करके (ते) तेरे लिए (ब्राह्मीम्) ब्रह्मविद्या-सम्बन्धी (उपनिषदम्) रहस्य विद्या को (अब्रूम, इति) हम कथन कर चुके हैं । ‘इति’ शब्द ब्रह्मविद्या के पूर्ण होने का सूचक है । भावार्थ—शिष्य ने गुरु से ‘केनेषितं’ इत्यादि कहकर ब्रह्मविद्या के विषय में जिज्ञासा की थी । गुरु ने ब्रह्मविद्या का उपदेश करके उसकी समाप्ति की सूचना यहां दी है । इसे ‘ब्राह्मी उपनिषद्’ कहकर गुरु ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि देव और यक्ष की जो आख्यायिका इसमें दी गई है, वह ब्रह्म को समझाने के लिए ही दी गई है । ब्रह्म से भिन्न यक्ष कोई अन्य देव नहीं है । अब ब्रह्मविद्या का प्रवचन करने के बाद गुरु ब्रह्म-विद्या प्राप्ति के साधनों का शिष्य के प्रति कथन करते हैं—
तस्यै तपो दम: कर्मेति प्रतिष्ठा वेदा: सर्वाङ्गानि सत्यमायतनम् ॥ ८ ॥ 
पदार्थ—(तस्यै) उस ब्रह्म-विद्या की प्राप्ति के लिए (तपः) शीत-उष्ण, सुख-दुःख, हानि-लाभ इत्यादि द्वन्द्वों की सहनशीलता, (दमः) मन तथा बाह्येन्द्रियों का निग्रह, (कर्म) वेदोक्त अग्निहोत्रादि तथा सदाचरणादि कर्म (इति) ये ही तीन ब्रह्म-ज्ञान के मुख्य साधन हैं । और (प्रतिष्ठाः) दुष्कर्मों को छोड़कर सत्कर्मों के अनुष्ठान से लोक में प्रतिष्ठा=प्रशंसा प्राप्त करना, अथवा शरीर, इन्द्रिय तथा मन की चञ्चलतारहित स्थिति प्रतिष्ठा कहाती है, (वेदाः) ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद चारों वेदों (सर्वाङ्गानि) और वेद के छः अङ्गों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दःशास्त्र और ज्योतिष शास्त्र) का पठन-पाठन (सत्यम् आयतनम्) सब श्रेष्ठ व्यवहारों के आधार सत्य का मन, वचन, कर्म से आचरण करना, ये पूर्वोक्त तप आदि साधनों के सहायक साधन हैं । भावार्थ—ब्रह्मविद्या प्राप्ति के साधनों में सत्य को आयतनम्= आधार माना है । क्योंकि सत्याचरण के विना अन्तःकरण की शुद्धि नहीं होती । जैसा कि मनु ने कहा है—‘मनः सत्येन शुध्यति’ अर्थात् मन की शुद्धि सत्य से होती है । जब तक अन्तःकरण मलीन है, तब तक उपर्युक्त सभी साधन निरर्थक ही रहते हैं । अर्थात् सभी साधनों का मुख्य लक्ष्य है—मन की शुद्धि । जैसे कि कहा है— वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च । न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित् ॥ (मनु०) जो मलीन अन्तःकरण वाला पुरुष है, उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप कभी सिद्धि को प्राप्त नहीं होते । और अन्तःकरण की शुद्धि में मुख्य साधन सत्य है, अतः सत्याचरण को “आयतन” कहा है। किसी कवि ने सत्य का माहात्म्य ठीक ही कहा है— अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम् । अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेकं विशिष्यते ॥ अर्थात् हजारों अश्वमेध यज्ञों के करने से जो फल मिलता है, सत्याचरण से उससे भी अधिक फल मिलता है । अब ब्रह्मविद्या के फल का कथन करते हैं—
यो वा एतामेवं वेदापहत्य पाप्मानमनन्ते स्वर्गे लोके ज्येये प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति ॥ ९ ॥ 
पदार्थ—(यः) जो पुरुष (एताम्) इस केनोपनिषद् में वर्णित ब्रह्मविद्या को (एवम्) इस प्रकार अर्थात् पूर्वोक्त साधनों सहित (वै) निश्चय से (वेद) जानता है, वह (पाप्मानम्) जन्म-जन्मान्तरों से सञ्चित अन्तःकरण की मलीन वासनाओं को (अपहत्य) नष्ट करके (अनन्ते) जन्म-मरणादि से अपरिच्छिन्न तथा विनाशरहित (ज्येये) सर्वोत्कृष्ट (स्वर्गे लोके) मोक्ष में (प्रतितिष्ठति) दुःखों से छूटकर स्थित हो जाता है । ‘प्रतितिष्ठति’ शब्द के दुबारा पाठ का प्रयोजन है— अतिशयकर स्थिति बताने तथा ग्रन्थ की समाप्ति बताने के लिए है । भावार्थ—‘विद्ययाऽमृतमश्नुते’ (यजु०) विद्या से अमृत=मोक्ष की प्राप्ति होती है । इस वैदिक विधि के अनुसार उपनिषत्कार ने उसे स्पष्ट कर समझाया है कि मोक्ष-प्राप्ति के लिए ब्रह्मविद्या और तप, दम=जितेन्द्रियता तथा कर्म=धर्माचरणादि दोनों आवश्यक हैं । इसी भाव को यहां “एवम् वेद” कहकर स्पष्ट किया है । और यहां यह भी संकेत किया है कि ब्रह्मविद्या ज्ञानयोग व कर्मयोग का समन्वितरूप ही है । ज्ञानयोग के विना कर्मयोग नेत्रहीन अन्धे के समान और कर्मयोग के विना ज्ञानयोग पङ् गुवत् ही अधूरा रहता है । और अन्तःकरण की मलीन पाप-वासनाएं ब्रह्म की उपासना से दग्ध हो जाती हैं, यही पापों का दूरीकरण है । किन्तु पापकर्मों का फल अवश्य भोगना होता है । ‘स्वर्ग’ कोई ऊपर स्थान-विशेष नहीं है, यह विशेषसुख मोक्ष के लिए यहां प्रयुक्त हुआ है । आचार्य शङ्कर ने भी यहां स्वर्ग का अर्थ “सुखात्मके ब्रह्मणि” ही किया है । अतः स्वर्गलोक की कल्पना, उसे एक स्थान- विशेष मानना वहां पर देवों का निवास और वहां का राजा इन्द्र है, इत्यादि पौराणिक-कल्पनाएं मिथ्या ही हैं । और यहां ‘स्वर्ग’ के लिए ‘अनन्ते’ विशेषण पठित है, जिसका अर्थ आचार्य शङ्कर ने ‘अपर्यन्ते’ किया है । जिसका अर्थ उन्होंने यह लगाया है कि मोक्ष से पुनरावृत्ति नहीं होती, अतः अनन्त काल तक मोक्ष होता है । किन्तु यह अर्थ उपनिषत्कारों तथा वेदादि शास्त्रों से विरुद्ध होने से कदापि माननीय नहीं हो सकता। युक्ति से भी इसका खण्डन हो जाता है । मोक्ष का सुख हमारे कर्मों का ही फल है, अतः हमारे सान्तकर्मों का फल अनन्त कैसे सम्भव है ? यह ईश्वरीय कर्मफल-व्यवस्था से विरुद्ध मान्यता है । ब्रह्म में जीव का लय मानकर अद्वैतवादी ऐसा अर्थ करते हैं किन्तु जीवात्मा चेतन और ब्रह्म से भिन्न नित्य सत्ता है, यह हमने इसमें स्थान-स्थान पर सप्रमाण दर्शाया है । अतः मोक्ष में जीव का लय कभी नहीं होता । “ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वे ।” (मुण्डक०) इत्यादि उपनिषत् की अन्तःसाक्षी से स्पष्ट है कि जीवों की मोक्ष से पुनरावृत्ति होती है । अतः यहां ‘अनन्ते’ पद का अर्थ ‘विनाशरहित’ अथवा ‘मृत्यु’ आदि से ‘रहित’ ही उचित तथा सङ्गत है । इस चतुर्थ-खण्ड में ब्रह्मविद्या, इन्द्रादि देवों की उत्कृष्टता, ब्रह्मज्ञान में विद्युत् तथा मन का दृष्टान्त, ब्रह्म ही उपासनीय है, ब्रह्मप्राप्ति के साधनों का वर्णन तथा ब्रह्मविद्या के फलादि विषयों का वर्णन किया गया है ।

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