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केनोपनिषद काण्ड एक श्लोक 1-8

 केनेषितं पतति प्रेषितं मन: केन प्राण: प्रथम: प्रैति युक्त: । 
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षु:श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति ॥ १ ॥ 
आचार्य राजवीर शास्त्री
पदार्थ—(केन) किससे (प्रेषितम्) प्रेरित (मनः) मन (इषितम्) अभीष्ट विषय को (पतति) प्राप्त होता है और (केन) किससे (प्रथमः) सब इन्द्रियों से प्रथम (युक्तः) अपने कर्म में नियत हुआ (प्राणः) प्राण-वायु (प्रैति) अपना व्यापार करता है और (केन) किससे (इषिताम्) प्रेरित (इमाम्, वाचम्) इस वाणी को (वदन्ति) मनुष्य बोलते हैं, और (चक्षुः) नेत्रेन्द्रिय तथा (श्रोत्रम्) कर्णेन्द्रिय को (कः) कौन (उ) प्रसिद्ध (देवः) प्रकाशक देव (युनक्ति) अपने-अपने विषय के ग्रहण करने में प्रथम उत्पत्तिसमय में नियुक्त करता है । भावार्थ—वेद में कहा है—“सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे” (यजु० ३४।५५) अर्थात् शरीर में नेत्रादि पांच ज्ञान-इन्द्रियां, मन व प्राण ये सात ऋषि प्रत्येक शरीर में कार्य कर रहे हैं । वेद में अन्यत्र लिखा है=“अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या ।” (अथर्व०) अर्थात् यह शरीर देवों के आठ चक्र और नव द्वार वाली अजेय नगरी है । यहां उपर्युक्त ऋषियों को ही देव कहा गया है । यद्यपि व्यवहार दशा में शरीर में ये जीवात्मा के अधीन होकर कार्य कर रहे हैं, किन्तु इन सब को विषयग्रहण करने का सामर्थ्य परब्रह्म ही देता है । चक्षु रूप का ही ग्रहण करता है, रस का नहीं, श्रोत्र शब्द का ही ग्रहण करता है, रूप का नहीं । यह अपने-अपने विषय में जो नियतभाव व्यवस्था देखने में आती है, यह जीवकृत व्यवस्था नहीं है, इसका नियन्ता परब्रह्म ही है । और उत्तर प्रश्नानुरूप ही होना चाहिए । अगले उत्तर से भी यही स्पष्ट है कि यह प्रश्न ब्रह्म-विषयक ही है । अतः इन प्रश्नों को जीवविषयक लगाना सर्वथा असङ्गत तथा प्रकरण-विरुद्ध है । समीक्षा—श्री शङ्कराचार्य जी इस श्लोक के प्रारम्भ में लिखते हैं—“तस्माद् दृष्टादृष्टेभ्यो बाह्यसाधनसाध्येभ्यो विरक्तस्य प्रत्यगात्मविषया ब्रह्मजिज्ञासेयं केनेषितमित्यादिश्रुत्या प्रदर्श्यते ।” अर्थात् संसार के दृष्ट व अदृष्ट बाह्य साधनों तथा साध्यों से विरक्त पुरुष को प्रत्यगात्मविषयक (प्रति शरीर में विद्यमान आत्मविषयक) ब्रह्म-जिज्ञासा को ‘केनेषितम्’ इत्यादि श्रुति से दिखाया जाता है । यहां उपनिषत्कार का प्रश्न प्रत्यगात्मविषयक (जीवात्मा) नहीं है। क्योंकि प्रश्न के अनुसार ही उत्तर होना चाहिए । ‘श्रोत्रस्य श्रोत्रम्’ इत्यादि उत्तर की सङ्गति जीवात्मा के साथ कदापि नहीं लगती । इस समस्त देहेन्द्रिय सङ्घात का रचयिता ब्रह्म है, जीवात्मा नहीं । परन्तु श्री शङ्कराचार्य जी ने इन प्रश्नों को न समझकर भ्रान्तिवश जीवात्मापरक लगाते हुए लिखा है— केनेषितं कस्येष्टं कस्येच्छामात्रेण मनः पतति=गच्छति, स्वविषये नियमेन व्याप्रियते ।” अर्थात् किसकी इच्छा से मन स्वविषय में नियम से प्रवृत्त होता है । यहां ‘इच्छा’ तथा ‘प्रेरित’ अर्थों से महान् अन्तर आ गया है । इच्छा जीवात्मा का धर्म है ब्रह्म का नहीं । मन तथा दूसरी इन्द्रियां जीवात्मा की इच्छा से स्वविषयों में प्रवृत्त होती हैं, इसलिए इनके कर्मों के फल का भोक्ता जीवात्मा ही होता है । और मन ज्ञानादि की उपलब्धि का साधन है—नेत्र रूप का, श्रोत्र शब्द का ग्रहण करता है अन्य विषयों का नहीं, यह नियतव्यवस्था परब्रह्म की है । इस रहस्य को न समझकर श्री शङ्कराचार्य जी का यह कथन कितना भ्रान्तिजनक है— “सर्वस्यैव करणकलापस्य यदर्थप्रयुक्ता प्रवृत्तिस्तद्ब्रह्मेति प्रकरणार्थो विवक्षितः ।” (केन० १।२ शा० भा०) अर्थात् ब्रह्म उसे कहते हैं कि जिसके प्रयोजन के लिए मनादि इन्द्रियों की प्रवृत्ति होती है । यही इस समस्त प्रकरण का विवक्षित अभिप्राय है । जिस ब्रह्म के विषय में उपनिषदों में लिखा है— न तस्य कार्यं करणञ्च विद्यते ॥ अर्थात् उस ब्रह्म का कोई कार्य तथा करण नहीं है, उसके लिए मनादि को करण मानना कितनी मिथ्या मान्यता है । जीवात्मा की ब्रह्म से पृथक् सत्ता न मानने से शङ्कर-स्वामी को ऐसे मिथ्या अर्थ करने पड़े। प्रथम मन्त्र में कहे प्रश्नों का उत्तर कथन करते हैं—
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राण: । 
चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥ २ ॥ 
पदार्थ—(यत्) जो (श्रोत्रस्य) कर्णेन्द्रिय का (श्रोत्रम्) श्रोत्र अर्थात् श्रवण-शक्ति देने वाला है, (मनसः) सुख-दुःखादि ज्ञान के साधन अन्तःकरण का (मनः) मन अर्थात् मननशक्ति देने वाला, (वाचः) वाणी का (ह) निश्चय से (वाचम्) वाणी अर्थात् बोलने की शक्ति देने वाला है, (प्राणस्य) प्राण का (प्राणः) प्राणशक्ति देने वाला है (चक्षुषः) चक्षु का (चक्षुः) चक्षु अर्थात् दर्शनशक्ति देने वाला है, (सः) उसको (उ) निश्चय से (धीराः) ध्यानी लोग (अतिमुच्य) सब पदार्थों से भिन्न मानकर अथवा इन्द्रियों के सुखों से पृथक् रहकर (अस्मात्, लोकात्) इस मृत्युलोक से (प्रेत्य) मरकर=पृथक् होकर (अमृताः) मरणधर्मरहित मुक्त (भवन्ति) हो जाते हैं । महर्षि दयानन्द ने (केन० १।२) के श्लोक के एक भाग का अर्थ करते हुए लिखा है— “स उ प्राणस्य प्राणः ।” इस केनोपनिषत् के विधान से परमेश्वर का नाम भी प्राण है । “प्राणो अग्निः परमात्मेति” यह मैत्र्युपनिषत् का प्रमाण भी यथावत् परमेश्वरार्थ को कहता है । प्राण, अग्नि, परमात्मा ये तीनों नाम एकार्थ वाची हैं तथा ईशानादि भी संज्ञा-संज्ञी सम्बन्ध से स्पष्ट हैं ।” (ल० भ्रा० नि० १९३ पृ०) भावार्थ—वैसे तो समस्त संसार परब्रह्म की रचना है, किन्तु मानव के शरीर की रचना बहुत ही अद्भुत है । जिसको पूर्णतः मानव आज तक नहीं जान सका है । इस शरीर में दर्शन-शक्ति, श्रवण-शक्ति, मनन-शक्ति, बोलने की शक्ति और जीवन-शक्ति का देने वाला होने से परब्रह्म चक्षु, श्रोत्र, मन, वाक् तथा प्राणादि नामों से कहा जाता है । उस परब्रह्म को जानना तथा उसका विवेक करना मानव-शरीर में ही सम्भव है । मानव जीवन का लक्ष्य भी परब्रह्म को प्राप्त करना ही है । जो परब्रह्म को इन सब प्राकृतिक साधनों से पृथव् Q जानकर प्रकृति के बन्धनों में नहीं फंसता, उसे ही उस ब्रह्म का ज्ञान होता है और वही मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है । वेद में इस विषय में बहुत ही स्पष्ट कहा है— तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय । (यजु० ३१।१८) अर्थात् उस ब्रह्म को ही जानकर जीव जन्म-मरण के चक्र से छूटकर मोक्ष को प्राप्त करता है । मोक्ष-प्राप्ति का इससे भिन्न कोई उपाय नहीं है । समीक्षा—श्री शङ्कराचार्य जी ने इस श्लोक की व्याख्या में लिखा है— “कः पुनरत्र पदार्थः श्रोत्रस्य श्रोत्रमित्यादेः ? न ह्यत्र श्रोत्रस्य श्रोत्रान्तरेणार्थः । ...... अयमत्र पदार्थः—श्रोत्रं तावत् स्वविषयव्यञ्जनसमर्थं दृष्टम् । तच्च स्वविषयव्यञ्जनसामर्थ्यं श्रोत्रस्य चैतन्ये ह्यात्मज्योतिषि नित्येऽसंहते सर्वान्तरे सति भवति ।” “तथा चक्षुषश्चक्षू रूपप्रकाशकस्य चक्षुषो यद् रूपग्रहणसामर्थ्यं तदात्मचैतन्याधिष्ठितस्यैव ।” अर्थात् ‘श्रोत्रस्य श्रोत्रम्’ यहां द्वितीय ‘श्रोत्रं’ शब्द का अर्थ स्वविषय श्रवण-शक्ति है । इसी प्रकार दूसरे ‘चक्षु’ आदि शब्दों का अर्थ स्वविषयग्रहण-सामर्थ्य है और यह सामर्थ्य सर्वान्तरात्मा चैतन्य आत्मज्योति से प्राप्त होता है । यह अर्थ तो शङ्कर-स्वामी का प्रकरण-सङ्गत है । किन्तु यहीं पर ब्रह्म का लक्षण नितान्त असत्य है—“सर्वस्यैव करणकलापस्य यदर्थप्रयुक्ता प्रवृत्तिस्तद् ब्रह्मेति” अर्थात् ब्रह्म वह है कि जिसके प्रयोजन के लिए समस्त करण=इन्द्रियों की प्रवृत्ति होती है । इन्द्रियों से ब्रह्म का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, प्रत्युत जीवात्मा का सिद्ध होता है । ब्रह्म तो इन्द्रियों में स्वविषय- ग्रहण सामर्थ्य प्रदान करता है । ब्रह्म के विषय में तो कहा है कि— अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः ॥ (श्वेता० ३।१९) अर्थात् ब्रह्म को इन चक्षु आदि इन्द्रियों की कोई आवश्यकता नहीं है । ब्रह्म से भिन्न चेतनसत्ता जीवात्मा की ही है । उसी को इन्द्रियों की आवश्यकता होती है । उसको स्वीकार करने से अद्वैतवाद की मिथ्या- मान्यता खण्डित हो जाती है । ‘न तत्र चक्षुर्गच्छति’ इत्यादि श्रुति से भी यह स्पष्ट हो रहा है कि चक्षु आदि इन्द्रियां जीवात्मा के साधन हैं, इन से ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता । वह परब्रह्म इन्द्रियागोचर है, इस विषय में गुरु प्राचीन आचार्यों की साक्षी देते हुए कथन करते हैं—
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मन: । न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात् ॥ ३ ॥ 
पदार्थ—(तत्र) उस ब्रह्म में (चक्षुः) रूप ग्रहण करने वाला नेत्र (न, गच्छति) नहीं जाता है अर्थात् ब्रह्म के निराकार होने से नेत्र उसका ग्रहण करने में असमर्थ है, (वाक्) वाणी (न गच्छति) उसकी इयत्ता को नहीं जानती=नहीं कह सकती, (मनः, न) मन प्राप्त नहीं कर सकता। (यहां चक्षु आदि उपलक्षणार्थक ही है । दूसरी इन्द्रियां भी ब्रह्म को जनाने में असमर्थ हैं ।) इस कारण (न विद्मः) हम ब्रह्म को नहीं जानते और (न विजानीमः) विशेष करके भी हम ब्रह्म को नहीं जान सकते (यथा) जैसे (एतत्) इस उक्त ब्रह्म का (अनुशिष्यात्) शिष्यादि को उपदेश किया जाए । अर्थात् यथार्थ में जानी हुई वस्तु का ही उपदेश किया जाता है, किन्तु ब्रह्म इन्द्रियागोचर है, उसका उपदेश कैसे किया जाए ? (तत्) वह ब्रह्म (विदितात्) इन्द्रियों से जाने हुए विषय से (अन्यत्, एव) भिन्न ही है । (अथो) और (अविदितात्) अज्ञात वस्तु से (अधि) ऊपर=भिन्न है, अथवा प्रकृति के अव्यक्त सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणुओं से ब्रह्म भिन्न है । वह ब्रह्म ज्ञात व अज्ञात दोनों से विलक्षण है । (इति) इस प्रकार (पूर्वेषाम्) पूर्वज आचार्यों के ब्रह्म-विषयक वचन (शुश्रुम) हम ने सुने हैं, (ये) जो आचार्य गुरुजनों ने (नः) हमारे लिए (तत्) उस ब्रह्म के विषय में (व्याचचक्षिरे) उपदेश रूप में कहे हैं । भावार्थ—वह ब्रह्म निराकार, निर्विकार व अनन्त होने से अतीन्द्रिय है । उसकी इयत्ता को इन्द्रियां नहीं जान सकतीं । यहां ब्रह्म के विषय में ‘विद्मः विजानीमः’ इन दोनों क्रियाओं से यह स्पष्ट किया गया है कि जैसे जब हम किसी वस्तु को दूर देखते हैं, तो अवयव-विभाग का ज्ञान न होने से एक सामान्य ज्ञान होता और समीप में जाने पर अवयवों के १. श्री शङ्कराचार्य जी ने इस मन्त्र के दो खण्ड करके (३, ४) व्याख्या की है । विभागपूर्वक जो ज्ञान होता है, वह विशेष ज्ञान होता है । ब्रह्म को अतीन्द्रिय होने से हम सामान्य तथा विशेष इन दोनों प्रकारों से नहीं जान सकते । फिर उस असीम व अनन्त देव का दूसरों के लिए कैसे उपदेश किया जाए ? वह ब्रह्म विदित और अविदित अर्थात् ज्ञात व अज्ञात से भी परे है । उसे विदित (ज्ञात) कहना उसे सीमित करना है, और उसे अविदित (अज्ञात) कहना उसे अवस्तु ही बताना है । अतः वह ब्रह्म न तो ज्ञात है और न वह अज्ञात है । वह विदित (जाना गया) ऐसा भूतकालिक प्रयोग का विषय नहीं है और नहीं भविष्यत्काल का ही विषय है कि जाना जा सकेगा । उसके लिए तो वर्त्तमान का प्रयोग ही सार्थक हो सकता है कि उसे जानने का यत्न कर रहा हूं । क्योंकि वह ब्रह्म अनन्त है, उसे जितना जाना जायेगा, वह अल्प ही रहेगा । प्राचीन ऋषि निरभिमानी होकर ब्रह्म को जानने में निरन्तर लगे रहते थे । उसका पूर्णतः न जानना ही उसकी महत्ता का द्योतक है । वह ब्रह्म वाणी का विषय क्यों नहीं है ? और उपासना किसकी करनी चाहिए ? यह कथन करते हैं ।
यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ४ ॥ 
पदार्थ—(यत्) जो ब्रह्म (वाचा) वाणी से (अनभ्युदितम्) नहीं कहा जा सकता है अथवा प्रकाशित नहीं होता (येन) जिस ब्रह्म से (वाक्) वाणी (अभ्युद्यते) प्रकाशित होती है अर्थात् ब्रह्मकृत नियम से ही वाणी उच्चारित होकर शब्दार्थ का बोध कराती है । (तत्, एव) उस वाणी के प्रकाशक को ही (त्वम्) तू (ब्रह्म) ब्रह्म (विद्धि) जान (यत्) जो (इदम्) यह वाणी का विषय शब्दादि कार्य जगत् है इसकी जो मनुष्य (उपासते) उपासना करते हैं, (इदम्, न) यह ब्रह्म नहीं है । महर्षि दयानन्द ने इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया है—“जो वाणी की इदन्ता” अर्थात् यह जल है, लीजिए वैसा विषय नहीं और जिसके धारण और सत्ता से वाणी की प्रवृत्ति होती है, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर और जो उससे भिन्न है, वह उपासनीय नहीं ।” (सत्यार्थ० ३०९ पृ०) भावार्थ—ब्रह्मर्षि ब्रह्म का वेदादि शास्त्रों के प्रमाणों के आश्रय से उपदेश करते रहते हैं । विना उपदेश के ज्ञान-प्राप्ति सम्भव ही नहीं है । फिर यह कहना कि ब्रह्म वाणी से प्रकाशित नहीं होता क्या परस्पर विरुद्ध प्रतीत नहीं होता ? महर्षि के अर्थ से इस जिज्ञासा का समाधान हो जाता है कि वाणी जड़ पदार्थों के समान ब्रह्म का ज्ञान नहीं करा सकती क्योंकि ब्रह्म के धारण और सत्ता से वाणी की प्रवृत्ति होती है । शब्दों के कथन मात्र से जड़ पदार्थों के समान ब्रह्मज्ञान नहीं होता । क्योंकि ब्रह्म इन्द्रियों का विषय नहीं । शङ्करभाष्य में इस श्रुति से अद्वैतवाद का प्रतिपादन करते हुए लिखा है—“श्रोतुराशङ्का जाता कथं त्वात्मा ब्रह्म ? आत्मा ही नामाधिकृतः कर्मण्युपासने च संसारी वा साधनमनुष्ठाय ब्रह्मादिदेवान् स्वर्गर्ं वा प्राप्तुमिच्छति। तत्तस्मादन्य उपास्यो विष्णुरीश्वर इन्द्रः प्राणो वा ब्रह्म भवितुमर्हति न त्वात्मा लोकप्रत्ययविरोधात् । यथान्ये तार्किका ईश्वरादन्य आत्मेत्याचक्षते । तथा कर्मिणः—अमुं यजामुं यज इत्यन्या एव देवता उपासते । तस्माद् युक्तं यद् विदितमुपास्यं तद् ब्रह्म भवेत्ततोऽन्य उपासक इति ।” अर्थात् सुनने वाले को ऐसी शंका उत्पन्न होती है कि आत्मा ब्रह्म कैसे हो सकता है ? क्योंकि आत्मा उसका नाम है जो सांसारिक कर्मों तथा उपासना का अधिकारी है और साधनों को करके ब्रह्मादि देवों को अथवा स्वर्ग को प्राप्त करना चाहता है । इसलिए आत्मा से उपास्य विष्णु, ईश्वर, इन्द्र, प्राण या ब्रह्म नाम वाला भिन्न ही हो सकता है । आत्मा ब्रह्म नहीं हो सकता है, लोकज्ञान से विरुद्ध होने से । जैसे दूसरे तार्किक आत्मा को ईश्वर से भिन्न मानते हैं वैसे ही कर्मी=मीमांसक भी—‘इसका यजन कर’ ‘इसका यजन कर’ इस प्रकार आत्मा से भिन्न देवता की उपासना करते हैं । इसलिए यह स्पष्ट विदित होता है कि उपास्य-ब्रह्म से उपासक आत्मा भिन्न है । ऐसी आशंका उत्पन्न करके उसका समाधान इस श्रुति में शाङ्करभाष्य में दिखाते हुए लिखा है— “यत्=चैतन्यमात्रसत्ताकं, वाचा=पदत्वेन परिच्छिन्नया करणगुणवत्या, अनभ्युदितम्=अप्रकाशितम्, येन=ब्रह्मणा सकरणा वाक् अभ्युद्यते=चैतन्य- ज्योतिषा प्रकाश्यते प्रयुज्यते, तदेवात्मस्वरूपं ब्रह्म निरतिशयं भूमाख्यं बृहत्त्वाद् ब्रह्मेति विद्धि=विजानीहि । नेदं ब्रह्म यदिदमित्युपाधिभेदविशिष्ट- मनात्मेश्वराद्युपासते=ध्यायन्ति ।” अर्थात् जो चैतन्यमात्र सत्ता वाला ब्रह्म वाणी से प्रकाशित नहीं होता, जिस ब्रह्म से वाणी प्रकाशित होती है, प्रयोग की जाती है, उसी आत्मस्वरूप ब्रह्म को जानो । और यह ब्रह्म नहीं है जो उपाधि विशिष्ट अनात्मा को ईश्वरादि नामों से ध्यान करते हैं । समीक्षा—इस शाङ्कर-भाष्य में निम्न-दोष हैं— (१) इससे अद्वैतवाद की सिद्धि कदापि नहीं होती, क्योंकि इसमें ‘तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि’ कहकर जीवात्मा तथा ब्रह्म को भिन्न-भिन्न बताया है । ज्ञाता तथा ज्ञेय और उपासक तथा उपास्य दोनों एक कभी नहीं हो सकते । और ‘उपासना’ का अर्थ है—समीप बैठना । यदि जीवात्मा और ब्रह्म एक ही हैं तो कौन किसके पास बैठता है ? (२) इस श्रुति में शङ्कर ने ‘अभ्युद्यते’ क्रिया का अर्थ ‘प्रयोग करना’ माना है, यह भी ब्रह्म-विषय में सङ्गत नहीं होता । क्योंकि ब्रह्म वाणी का प्रयोग कैसे कर सकता है, वह तो वाणी आदि इन्द्रियों से रहित है । परब्रह्म के वेद-ज्ञान को सीखकर वाणी की प्रवृत्ति होती है, वह ब्रह्म निराकार व निरवयव होने से वाणी का प्रयोग नहीं कर सकता। और शरीरादि बन्धनों से रहित होने से वह ब्रह्म करण=इन्द्रियों से रहित है । स्वयं श्री शङ्कराचार्य ने भी ब्रह्म को ईशावास्योपनिषत् के ‘सपर्यगाच्छुक्रमकायम्०’ मन्त्र में ‘अकायम्=अशरीरम्’ स्वीकार किया है । और वहीं भाष्य में यह भी माना है कि वह ब्रह्म त्रिविध शरीर=सूक्ष्मशरीर, स्थूलशरीर तथा कारणशरीरों से रहित है । अतः शङ्कर स्वामी का यह कथन नितान्त असत्य तथा भ्रान्तिमूलक है कि—“येन ब्रह्मणा विवक्षितेऽर्थे सकरणा वागभ्युद्यते=प्रयुज्यते ।” ब्रह्म द्वारा करणसहित वाणी का प्रयोग किया जाता है । (३) इस श्रुति में ब्रह्म से भिन्न की उपासना का निषेध किया है । ब्रह्म से भिन्न दो ही वस्तुएं हैं—(१) जीवात्मा और (२) प्रकृति । जीवात्मा को यह उपदेश दिया जा रहा है और वह उपासक है । अतः ब्रह्म से भिन्न जो उपास्य का प्रतिषेध किया है, वह प्रकृति=जड़ पदार्थों की उपासना का ही निषेध किया गया है । परन्तु श्री शङ्कराचार्य इस रहस्य को न समझकर अथवा दुराग्रहवश लिखते हैं— “नेदं ब्रह्म—यदिदमित्युपाधिभेदविशिष्टमनात्मेश्वराद्युपासते=ध्यायन्ति।” अर्थात् यह ब्रह्म नहीं है, जो उपाधिभेद से अनात्मा या ईश्वरादि नामों की उपासना करते हैं । जब इन वेदान्तियों के मत में ब्रह्म से भिन्न कोई वस्तु सत्य नहीं है तो ये उपाधिभेदविशिष्ट जीव व ईश्वरादि क्या वस्तुएं हैं ? माया के आश्रय से इनकी प्रतीति मानना भी मिथ्या है । महर्षि दयानन्द इस विषय में लिखते हैं— “क्योंकि तुम माया का अर्थ ऐसा करते हो कि जो वस्तु न हो और भासे है तो इस बात को वह मानेगा जिसके हृदय की आंख फूट गई है क्योंकि जो वस्तु नहीं उसका भासमान होना सर्वथा असम्भव है। जैसा वन्ध्या के पुत्र का प्रतिबिम्ब कभी नहीं हो सकता ।” (सत्यार्थ० एकादशसमु०) नवीन वेदान्ती अन्तःकरणोपाधि से ब्रह्म को ही जीव मानते हैं जीव की पृथक् सत्ता नहीं मानते । और इस उपाधि को अनिर्वचनीय कहते हैं । वह न तो जड़ है, न चेतन । न वह सत्य है और न वह असत्य । किन्तु इन वेदान्तियों का यह कथन ‘वदतो व्याघातः’ के समान है । जिसको मानते हुए भी उसे असत् कहते हैं । और उनका यह दृष्टान्त भी उनकी मान्यता को खण्डित करता है कि जैसे एक व्यापक निराकार आकाश ही घटाकाश, मठाकाशादि भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है, वैसे एक ब्रह्म ही अज्ञानवश (मायावश) समष्टि, व्यष्टि और अन्तःकरणों की उपाधियों से पृथक्-पृथक् प्रतीत हो रहा है । इस दृष्टान्त में जैसे घट, मठ, मेघादि को आकाश से भिन्न स्पष्ट रूप से मानकर घटाकाशादि बताते हैं, वैसे ब्रह्म से भिन्न कारण कार्यरूप जगत् और जीव को क्यों नहीं मानते? ब्रह्म को उपाधिवश जीवादि बताना वैसी ही मिथ्या बात है जैसे घटाकाशादि में कोई घटादि को भी आकाश बताने का दुस्साहस करने लगे । (४) इस श्रुति में ‘नेदं यदिदमुपासते’ कहकर स्पष्टरूप से ब्रह्म से भिन्न वस्तु को माना है । ‘विद्धि’ क्रिया भी ब्रह्म से भिन्न चेतनसत्ता (जीव) को बता रही है । जड़-पदार्थों के लिए ऐसी क्रियाओं का प्रयोग असम्भव है । अतः इससे त्रैतवाद की ही सिद्धि होती है । अद्वैतवाद का तो इससे स्पष्ट रूप से खण्डन हो ही रहा है । ब्रह्म मन का विषय क्यों नहीं ? और उपासना किसकी करनी चाहिए ? यह कथन करते हैं—
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ५ ॥ 
पदार्थ—(यत्) जिस ब्रह्म को (मनसा) मन से (न, मनुते) नहीं जाना जाता अर्थात् वह ब्रह्म ‘इयत्ता’ करके मन में नहीं आता । (येन) जिस ब्रह्म से (मनः) मन (मतम्) जाना गया (आहुः) ब्रह्मर्षि कहते हैं (तत्, एव) उसी मनीषी ब्रह्म को ही (त्वम्) तू (ब्रह्म) ब्रह्म (विद्धि) जान (यत्) जो (इदम्) यह मन=अन्तःकरण है जिसकी (उपासते) सामान्य लोग उपासना करते हैं (इदम्, न) यह ब्रह्म नहीं है । १ महर्षि दयानन्द ने इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया है—“जो मन से ‘इयत्ता’ करके मन में नहीं आता, जो मन को जानता है, उसी को तू ब्रह्म जान, उसी की उपासना कर । जो उससे भिन्न जीव और अन्तःकरण है, उसकी उपासना ब्रह्म के स्थान पर मत कर ।” (सत्यार्थ० ३०९ पृ०) भावार्थ—यहां जो ब्रह्म का मन से जानने का निषेध किया है, उसका तात्पर्य यही है कि मन का इतना सामर्थ्य नहीं है, जो ब्रह्म को पूर्णतः जानकर ‘इयत्ता’ में ला सके । वैसे मन (अन्तःकरण) ब्रह्म को जानने में साधन है । जैसा कि कहा है कि ‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः’ अर्थात् मनुष्यों का मन ही बन्धन व मोक्ष का कारण है अतः प्रस्तुत प्रकरण में कोई विरोध नहीं है । समीक्षा—इस श्रुति की व्याख्या में श्री शङ्कराचार्य जी लिखते हैं— “यन्मनसा न मनुते यत्=चैतन्यज्योतिः, मनसोऽवभासकं न मनुते=न सङ्कल्पयति नापि निश्चिनोति मनसोऽवभासकत्वेन नियन्तृत्वात् । ..सवृत्तिकं मनो येन ब्रह्मणा मतं विषयीकृतं व्याप्तमाहुः= कथयन्ति ब्रह्मविदः तस्मात्तदेव मनस आत्मानं प्रत्यक् चेतयितारं ब्रह्म विद्धि ।” अर्थात् जो ब्रह्म मन=अन्तःकरण से सङ्कल्प-विकल्प तथा निश्चय नहीं करता और जिस ब्रह्म से सवृत्तिक मन व्याप्त है । इसलिए उसी को ब्रह्म जानो, आत्मा के प्रति मन का=चेतयिता=ज्ञान कराने वाला अथवा प्रेरक है । यहां शाङ्करभाष्य में निम्न दोष हैं— (क) “ब्रह्म मन से सङ्कल्प-विकल्प तथा निश्चय नहीं करता ।” (१) परब्रह्म को (यजु० ४०।८) वेद में ‘मनीषी’ कहा गया है जिसका अर्थ महर्षि दयानन्द ने इस प्रकार किया है—“यः सर्वेषां मनसामीषी साक्षी ज्ञातास्ति” (ऋ० भू० वेदनित्यत्व०) अर्थात् वह ब्रह्म सब जीवों के मनों का साक्षी व ज्ञाता है ॥ यह अर्थ मिथ्या होने से माननीय नहीं हो सकता । क्योंकि ब्रह्म को ‘स पर्यगात्०’ मन्त्र में अकायम्=शरीर रहित कहा है । जिसके भाष्य में स्वयं श्री शङ्कराचार्य ने ब्रह्म को सूक्ष्म, कारण तथा स्थूल शरीरों से रहित माना है । मन तो सूक्ष्म-शरीर का एक घटक ही है । जब ब्रह्म सूक्ष्म शरीर होने से मनादि करणों से रहित है, तब उसके लिए यह कहना नहीं सङ्गत होता कि वह ब्रह्म मन से सङ्कल्पादि नहीं करता । यथार्थ में यहां ‘यत्’ पद प्रथमान्त नहीं, प्रत्युत द्वितीयान्त है, जिसको शङ्कर-स्वामी ने भ्रान्तिवश नहीं समझा । द्वितीयान्त मानकर अर्थ इस प्रकार होगा—“जिस ब्रह्म को मन से ‘इयत्ता’ करके नहीं जाना जाता ।” इस अर्थ में कोई दोष नहीं आता । (ख) जीवात्मा के प्रति मन ब्रह्म चेतयिता=ज्ञान कराने वाला या प्रेरक है, यह बात भी शङ्कर-स्वामी की मिथ्या ही है । जीवात्मा ब्रह्म से भिन्न चेतन सत्ता है, जिसके आधीन मनादि साधन कार्य करते हैं । यदि ब्रह्म को मनादि साधनों का ‘चेतयिता’ मान लिया जाए तो जीव कर्म करने में स्वतन्त्र कहां रह सकता है ? और कर्मफल भी जीवों को न मिल कर मनादि के चेतयिता को ही मिलना चाहिए । किन्तु ऐसा नहीं होता । स्वयं शङ्कर स्वामी ने ‘द्वा सुपर्णा०’ (मु० ३।१।१) की व्याख्या में क्षेत्रज्ञ=जीवात्मा को कर्मफल का भोक्ता और सर्वज्ञ ईश्वर को अभोक्ता स्वीकार किया है । इसलिए मन का चेतयिता ब्रह्म को मानकर शङ्करस्वामी ने एक परस्पर विरुद्ध तथा उपनिषत्कार के अभिप्राय से विरुद्ध व्याख्या की है । (ग) और यहां “नेदं यदिदमुपासते” कहकर उपनिषत्कार उपास्य चेतन-ब्रह्म उपासक चेतन-जीवात्मा तथा ब्रह्म से भिन्न-प्रकृति=मूर्त्त पदार्थों का प्रतिषेध करने के कारण स्पष्टरूप से त्रैतवाद को मान रहे हैं। जिसकी शङ्कर-स्वामी ने मिथ्याग्रह के कारण उपेक्षा की है । ब्रह्म चक्षु-इन्द्रिय का विषय क्यों नहीं है ? और उपासनीय कौन है ? इसका कथन करते हैं—
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यति । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ६ ॥ 
पदार्थ—(यत्) जिस ब्रह्म को (चक्षुषा) रूपज्ञान के साधननेत्र (१) पश्यतीति पाठान्तरम् उपलभ्यते । से (न, पश्यति) कोई नहीं देख सकता । (येन) जिस ब्रह्म के सामर्थ्य से (चक्षूंषि) सब आंखें=[प्रकाशक सूर्यादि] (पश्यन्ति) देखती हैं (तत्, एव) उसी चक्षुओं के चक्षु को (त्वम्) तू (ब्रह्म) ब्रह्म (विद्धि) जानो (यत्) जो (इदम्) यह चक्षु से ग्रहण करने योग्य मूर्त्त जगत् है, अथवा चक्षु के कारणभूत सूर्य, विद्युत् व अग्नि आदि जड़ पदार्थ हैं, जिनकी (उपासते) सामान्यजन उपासना करते हैं (इदम्, न) यह ब्रह्म नहीं है । महर्षि दयानन्द ने इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया है— “जो आंख से नहीं दीख पड़ता और जिससे सब आंखें देखती हैं, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर । और जो उससे भिन्न सूर्य, विद्युत् और अग्नि आदि जड़ पदार्थ हैं, उनकी उपासना मत कर।” (सत्यार्थ० ३०९ पृ०) श्री शङ्कराचार्य जी इसके भाष्य में लिखते हैं—“यच्चक्षुषा न पश्यति न विषयीकरोत्यन्तःकरणवृत्तिसंयुक्तेन लोकः । येन चक्षूंष्यन्तः- करणवृत्तिभेदभिन्नाश्चक्षुर्वृत्तीः पश्यति चैतन्यात्मज्योतिषा विषयीकृतं तदेवेत्यादि पूर्ववत् ।” अर्थात् जिस ब्रह्म को नेत्र से लोक अन्तःकरण के योग से नहीं देखता है । जिस चैतन्यात्मज्योति से चक्षूंषि=अन्तःकरण की विभिन्न वृत्तियों को लोक देखता है, उस को ब्रह्म जानो । समीक्षा—(क) यहां उपासना के योग्य ब्रह्म का प्रकरण है । और ‘यत्’ ‘तद्’ शब्दों का नित्य सम्बन्ध होता है । ‘यत्’ शब्द से जिसको कहा जा रहा है, ‘तद्’ शब्द भी उसी का निर्देश करता है । शाङ्कर-भाष्य में यहां यह दोष है—“जिस चैतन्यात्मज्योति से चक्षु वृत्तियों को देखता है उसी को ब्रह्म जानो ।” यहां प्रश्न यह है कि चक्षु से देखने वाला जीवात्मा है, या ब्रह्म । ब्रह्म तो इन्द्रियरहित है, अतः जीवात्मा ही चक्षु से देखता है, उसे ब्रह्म कैसे माना जा सकता है ? क्योंकि वह स्वयम् उपासक है, वह उपास्य नहीं हो सकता । उपास्य उपासक से अवश्य भिन्न होना चाहिए । (ख) शाङ्कर-भाष्य में दूसरा दोष यह है कि उन्होंने ‘चक्षूंषि’ इस बहुवचन पद के अर्थ को नहीं समझा । यहां इस पद से शरीरस्थ चक्षु-इन्द्रिय का ग्रहण नहीं है, अपितु नेत्रेन्द्रिय के देखने में सहायक सूर्यादि प्रकाशक व दर्शक पदार्थों का ग्रहण है । क्योंकि ये सूर्यादि ब्रह्म के सामर्थ्य से ही प्रकाश कर रहे हैं । उपनिषद् में अन्यत्र इसी भाव को स्पष्ट रूप से कहा है— तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ (कठो० ५।१५।) अर्थात् ब्रह्म के प्रकाश से ही सूर्यादि प्रकाशित हो रहे हैं । इस ‘चक्षूंषि’ बहुवचनान्त पद को देखकर ‘पश्यन्ति’ बहुवचनान्त ही पाठ उचित प्रतीत होता है । ‘पश्यति’ पाठ की यहां सङ्गति नहीं होने से ‘अपपाठ ही मालूम पड़ता है । महर्षि दयानन्द की व्याख्या बुद्धिगम्य तथा प्रकरणानुकूल होने से स्पष्ट है । ब्रह्म श्रोत्रेन्द्रिय का भी विषय क्यों नहीं है ? और उपासना किसकी करनी चाहिए ? यह कथन करते हैं—
यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम् । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ७ ॥ 
पदार्थ—(यत्) जिस ब्रह्म को (श्रोत्रेण) श्रवण-साधन इन्द्रिय से (न, शृणोति) कोई नहीं सुनता, (येन) जिस ब्रह्म के सामर्थ्य से (इदम्, श्रोत्रम्) यह कर्णेन्द्रिय (श्रुतम्) श्रवण-शक्ति प्राप्त करता है, (तत्, एव) उस श्रवण-शक्ति को देने वाले को (त्वम्) तू (ब्रह्म) ब्रह्म (विद्धि) जान (यत्) जो (इदम्) यह श्रोत्र ग्राह्य शब्दादि विषय की (उपासते) सामान्य जन उपासना करते हैं (इदम्, न) यह ब्रह्म नहीं है। महर्षि दयानन्द ने इस श्लोक का यह अर्थ किया है— “जो श्रोत्र से नहीं सुना जाता और जिससे श्रोत्र सुनता है, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर और उससे भिन्न शब्दादि की उपासना उसके स्थान में मत कर ॥” (सत्यार्थ० पृ० ३०९) श्री शङ्कराचार्य जी ने इस श्रुति की व्याख्या में भी पूर्ववत् ही लिखा है—“येन श्रोत्रमिदं श्रुतम्=यत्प्रसिद्धं चैतन्यात्मज्योतिषा विषयीकृतं तदेवेत्यादि पूर्ववत् ।” अर्थात् जिस चैतन्य आत्मज्योति से यह श्रोत्र अपने विषय को ग्रहण करता है, उसी को ब्रह्म जानो ॥ समीक्षा—इस शाङ्कर-भाष्य के दोष भी (१।६) के तुल्य ही समझने चाहिएं । क्योंकि श्रोत्रेन्द्रिय जीवात्मा के आधीन होकर विषय का ग्रहण करती है, और प्रकरण ब्रह्म का है अतः यही अर्थ करना सङ्गत है कि जिस ब्रह्म से श्रवण-शक्ति प्राप्त होती है अथवा श्रवण के आश्रयभूत आकाश में जो सामर्थ्य है, वह ब्रह्म-प्रदत्त है । ब्रह्म से भिन्न चेतन जीवात्मा की सत्ता न मानने वाले शङ्कर स्वामी ने दुराग्रह वश ही श्रोता जीवात्मा व श्रवण-शक्ति को देने वाले ब्रह्म को एक मानकर प्रकरणविरुद्ध अर्थ किया है, इसे कौन विद्वान् स्वीकार कर सकता है ? अब प्राणों का भी प्राण=प्राणन-शक्ति देने वाला ब्रह्म ही है, और वही उपासनीय है । यह कथन करते हैं—
यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राण: प्रणीयते । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ८ ॥ 
पदार्थ—(यत्) जो ब्रह्म (प्राणेन) प्राण से (न, प्राणिति) प्राण के समान चलायमान नहीं होता (येन) जिस ब्रह्म के द्वारा (प्राणः) प्राण (प्रणीयते) प्राणन क्रिया=अपना गमनात्मक कर्म करता है, (तत्, एव) उसी प्राणों के प्राण ब्रह्म को (त्वम्) तू (ब्रह्म) ब्रह्म (विद्धि) जान (यत्, इदम्) जो इस प्राण-वायु की मनुष्य (उपासते) उपासना करते हैं (इदम्, न) यह ब्रह्म नहीं है । महर्षि दयानन्द ने इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया है— “जो प्राणों से चलायमान नहीं होता, जिससे प्राण गमन को प्राप्त होता है, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर । जो यह उससे भिन्न वायु है, उसकी उपासना मत कर ।” (सत्यार्थ० पृ० ३०९) भावार्थ—“यद्वाचा” से लेकर ‘यत्प्राणेन’ इन पांच श्लोकों के द्वारा उपनिषत्कार ने एकमात्र ब्रह्म को ही उपासनीय देव बताया है, और उससे भिन्न मूर्त्त-पदार्थों की उपासना कर स्पष्टरूप से निषेध किया है। वह निराकार ब्रह्म वाणी, नेत्र, श्रोत्र, प्राण और मन से ग्रहण करने योग्य नहीं है । कोई मनुष्य यह इच्छा करे कि मैं वाणी से ब्रह्म की रट लगाकर, आंखों को मूर्ति आदि के रूप में विषय बनाकर, कानों से कीर्त्तनादि के रूप में सुन-सुनाकर, प्राणों के द्वारा अन्दर बिठाकर तथा मन से विचार कर ब्रह्म का उपासक बन जाऊंगा, यह उसकी धारणा मिथ्या ही है, क्योंकि ब्रह्म इन्द्रियादि का विषय ही नहीं है । अतः जो वर्त्तमान समय में उच्चध्वनि से भजन, कीर्त्तनादि से ब्रह्म की भक्ति का एक ढोंग किया जा रहा है, वह सच्ची उपासना नहीं है । फिर उपासना क्या है ? यह वेदादिशास्त्रों से जानी जा सकती है, जिनमें स्पष्ट कहा है कि ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।’ (योग०) चित्त की समस्त वृत्तियों को बाह्य विषयों से रोककर “आत्मनाऽऽत्मानमभिसंविवेश” (यजु० ३२।११) अपने आपको सर्वात्मभाव से परब्रह्म को समर्पण करना ही सच्ची उपासना होती है । केनोपनिषद् में जीव-ब्रह्म की भिन्नता— इस प्रथम-खण्ड के आठों श्लोकों में उपास्य-उपासक तथा ज्ञाता-ज्ञेय से जीव-ब्रह्म की भिन्नता का स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है। इस उपनिषद् में अन्यत्र भी इस विषय का प्रतिपादन प्रसङ्गवश हुआ है। जैसे— १. इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति, न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः। (केन० २।५) अर्थात् इस मनुष्यजन्म में आकर जीवात्मा ने यदि उस परब्रह्म को जान लिया, तब तो उसकी सफलता है, अन्यथा विभिन्न योनियों के गमनागमन चक्र में ही फंसे रहने से महती हानि होती है । इससे स्पष्ट है कि जन्म-जन्मान्तरों में जाने वाला ब्रह्म नहीं है, वह ब्रह्म से भिन्न जीवात्मा ही है । जो अपने ज्ञेय ब्रह्म को जानकर दुःखों से छूटता है । यह बद्ध व मुक्त होने वाला जीवात्मा ब्रह्म से भिन्न है। २. भूतेषु भूतेषु विचिन्त्य धीराः, प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति । (केनोप० २।५) अर्थात् ब्रह्म का ध्यान करने वाले ब्रह्म को सब प्राणियों तथा पञ्चमहाभूतों में व्यापक जानकर मरने के बाद मुक्त हो जाते हैं । इससे स्पष्ट है कि ब्रह्म सर्वव्यापक सत्ता का नाम है, किन्तु जीवात्मा परिच्छिन्न एकदेशी है । जीवात्मा ब्रह्म के स्वरूप को जानकर दुःखबन्धन से छूटकर मुक्त होते हैं, अन्यथा नहीं । ३. यो वा एतामेवं वेद अपहत्य पाप्मानम् । अनन्ते स्वर्गे लोके ज्येये प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति ॥ (केन० ४।९) अर्थात् जो विद्वान् इस ब्रह्म-विद्या को जानकर, पापों से बच जाता है, वह परब्रह्म के सान्निध्य से मोक्ष-सुख को प्राप्त करता है । यहां भी स्पष्ट कहा है कि ज्ञाता जीव और ज्ञेय ब्रह्म है । पापों से बद्ध व मुक्त होने वाला जीवात्मा है, ब्रह्म नहीं । अतः ज्ञाता-ज्ञेय तथा बद्ध-मुक्त के भेद से जीवात्मा ब्रह्म से भिन्न ही है । इस प्रकार इस प्रथम खण्ड में निराकार इन्द्रियागोचर ब्रह्म के विषय में यह बताया गया है कि वह इन इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता प्रत्युत चक्षुरादि इन्द्रियां भी ब्रह्मप्रदत्त सामर्थ्य को ही प्राप्त कर कार्य कर रही हैं, अतः उस सर्वत्र व्यापक अनन्तादि गुण वाले ब्रह्म की इयत्ता मनादि से कदापि नहीं हो सकती । अतः मूर्त्त-पदार्थों की उपासना न करके एक ब्रह्म की ही उपासना करनी चाहिए ।

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  1. वेद पुराण की घोषणा है कि एक ब्रह्म हैं ब्रह्म ने स्वयं से स्वयं इस मायावी संसार की रचना की है। ब्रह्म की अनेक अवस्था है ब्रह्म ईश्वर जीव। ब्रह्म की अनंत शक्तियां हैं इनमें से अपरा शक्ति और परा शक्ति हैं। पराशक्ति चेतन अपरा शक्ति जड़ से संसार बना है। ब्रह्म ईश्वर जीव तीन अवस्थाएं वस्तुत: ब्रह्म हीं नहीं है। ईश्वर मायाधीश हैं जीव माया अधीन है।जीव भाव के कारण जीव बारंबार जन्म मृत्यु में फंसता है। ईश्वर की कृपा से जब जीव का माया भंग होता है तो जीव मायावी संसार को समझ जाता है और मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।हमारा शरीर इंद्रियां चित्त मन बुद्धि अहंकार सभी जड़ हैं परंतु पराशक्ति जीवात्मा के सानिध्य में शरीर सजीव हो जाता है और अहंकार सक्रिय हो जाता है। अहंकार ही जीवात्मा को जीव दशा में बांध कर रखता है। ईश्वरीय कृपा होने पर जीवात्मा समझ जाता है कि वह अजर अमर अविनाशी निर्विकार है। उसके अनंत जन्म मृत्यु हो चुके हैं। ऐसा जान कर जीवात्मा माया से मुक्त होने के लिए अध्यात्म के शरण में जाता है।

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