अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् । युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नमउक्तिं विधेम ॥ १८ ॥ स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती प० क्र० – (अग्ने) प्रकाश-स्वरूप परमेश्वर । (नय) ले चल । (सुपथा) अच्छे रास्ते से । (राये) ऐश्वर्य या कल्याण के लिये । (अस्मान्) हमें । (विश्वानि) सब । (देव) दिव्यगुण-युक्त । (वयुनानि) कर्मों को । (विद्वान्) जानने वाला । (युयोधि) दूर कर । (अस्मत्) हमसे । (जुहुराणम्) बुरे और अधर्म के कार्य । (एनः) पापों को । (भूयिष्ठाम्) बहुत । (ते) तेरी । (नम उक्तिम्) नमस्कार की वाणियों को । (विधेम) कहते है । अर्थ- हे प्रकाश-स्वरूप परमात्मन् ! आप हमको मोक्ष के रास्ते पर चलाइये । हे हमारे कर्मो के जानने वाले , सर्व जगत में व्यापक परमात्मन् ! आप हमें कुटिल अर्थात् बुरे कर्मों से पृथक् कीजिये । हम बारम्बर आपसे नम्र होकर प्रार्थना करते है कि हमारे हृदयों को पापों से हटाकर मोक्ष-मार्ग पर चलाइये । इसका तात्पर्य यह है कि परमात्मा की सहायता के बिना कोई मनुष्य आत्मिक, लाभदायक और निषिद्धि बातों को ठीक-ठीक ज्ञान नहीं रखता और जिसको ज्ञान न हो, वह उसे पूरा किस प्रकार कर सकता है । इसलिये मोक्ष के निमित्त परमात्मा से प्रार्थना करनी चाहिये कि हमको सत्-असत् का विचार करने वाली बुद्धि प्रदान करें । जिससे हम बुरी बातों को, जो मुक्ति के लिए अनावश्यक है, उसका ज्ञान प्राप्त करायें, जिससे हम उन्हें कार्य-रूप में लाकर अपनी आत्मा की शान्ति की सीढी पर पहुँच सके । आचार्य राजवीर शास्त्री पदार्थः—(अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूप करुणामय जगदीश्वर ! (नय) गमय (सुपथा) धर्म्येण मार्गेण (राये) विज्ञानाय, धनाय, वसुसुखाय (अस्मान्) जीवान् (विश्वानि) अखिलानि (देव) दिव्यस्वरूप (वयुनानि) प्रशस्यानि प्रज्ञानानि । वयुनमिति प्रशस्यनाम॥ निघं० ३।८॥ प्रज्ञानामसु निघं० ३।९॥ (विद्वान्) यः सर्वं वेत्ति सः (युयोधि) पृथक्कुरु (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (जुहुराणम्) कौटिल्यम् (एनः) पापाचरणम् (भूयिष्ठाम्) बहुतमाम् (ते) तुभ्यम् (नमउक्तिम्) सत्कारपुरःसरां प्रशंसाम् (विधेम) परिचरेम ॥१६॥ प्रमाणार्थ—(वयुनानि) प्रशस्यानि प्रज्ञानानि ! ‘वयुन’ यह पद निघण्टु (३।८) में प्रशस्य-नामों में पठित है—प्रशस्य=श्रेष्ठ । और ‘वयुन’ यही पद निघण्टु (३।९) में प्रज्ञा-नामों में भी पठित है । अतः यहां ‘प्रशस्यानि प्रज्ञानानि’ ऐसा अर्थ है ॥ अन्वयः—हे देवाग्ने परमेश्वर । यतो वयं ते भूयिष्ठां नमउक्तिं विधेम तस्माद्विद्वांस्त्वमस्मज्जुहुराणमेनो युयोध्यस्मान् राये सुपथा विश्वानि वयुनानि नय प्रापय ॥१६॥ सपदार्थान्वयः—हे देव दिव्यस्वरूप अग्ने=परमेश्वर स्वप्रकाशस्वरूप करुणामय जग- दीश्वर ! यतो वयं ते तुभ्यं भूयिष्ठां बहुतमां नमउक्तिं सत्कारपुरःसरां प्रशंसां विधेम परिचरेम; तस्माद्विद्वान् यः सर्वं वेत्ति सः त्वमस्मत् अस्माकं सकाशात् जुहुराणं कौटिल्यम् एनः पापाचरणं युयोधि पृथक् कुरु । अस्मान् जीवान् राये विज्ञानाय, धनाय, वसुसुखाय सुपथा धर्म्येण मार्गेण विश्वानि अखिलानि वयुनानि प्रशस्यानि प्रज्ञानानि नय= प्रापय गमय ॥४०।१६॥ भाषार्थ— हे (देव) दिव्यस्वरूप (अग्ने) स्वप्रकाश- स्वरूप करुणामय जगदीश्वर ! जिससे हम (ते) तेरे लिए (भूयिष्ठाम्) बहुत अधिक (नम उक्तिम्) सत्कारपूर्वक प्रशंसा (विधेम) करते हैं; इससे (विद्वान्) सर्वज्ञ तू (अस्मत्) हम से (जुहुराणम्) कुटिलता और (एनः) पापाचरण को (युयोधि) दूर कर । (अस्मान्) हम जीवों को (राये) विज्ञान, धन और धन से प्राप्त होने वाले सुख की प्राप्ति के लिए (सुपथा) धर्म-पथ से (विश्वानि) सब (वयुनानि) श्रेष्ठ ज्ञान एवं श्रेष्ठ बुद्धि को (नय) प्राप्त करा ॥४०।१६॥ भावार्थः—ये सत्यभावेन परमेश्वरमुपासते, तदाज्ञां पालयन्ति; सर्वोपरि सत्कर्त्तव्यं परमात्मानं मन्यन्ते तान् दयालुरीश्वरः पापाचरण- मार्गात्पृथक्कृत्य, धर्म्यमार्गे चाल- यित्वा, विज्ञानं दत्त्वा, धर्मार्थकाम- मोक्षान् साद्धं समर्थान् करोति । तस्मात् सर्वम् एकमद्वितीयमीश्वरं विहाय कस्याप्युपासनं कदाचिन्नैव कुर्य्युः॥४०।१६॥ भावार्थ—जो सच्ची भावना से परमात्मा की उपासना करते हैं; उसकी आज्ञा का पालन करते हैं तथा सब से अधिक सत्कार करने योग्य परमात्मा को मानते हैं; उनको दयालु ईश्वर पापाचरण के मार्ग से हटाकर; धर्म-मार्ग में चलाकर, उन्हें विज्ञान देकर, धर्म-अर्थ, काम-मोक्ष की सिद्धि के लिए समर्थ बना देता है । इसलिए सब मनुष्य एक अद्वितीय ईश्वर को छोड़कर किसी की भी उपासना न करें ॥४०।१६॥ नम उक्तिम्=सत्यभावेन परमेश्वरोपासनं तदाज्ञा- पालनञ्च । विद्वान्=दयालुरीश्वरः । एनः=पापाचरणमार्गम् । युयोधि= पृथक्कुरु । सुपथा=धर्म्यमार्गेण । वयुनानि=विज्ञानानि, धमार्थकाममोक्षान् । नय=साद्धुं समर्थान् कुरु ॥४०।१६॥ भाष्यसार—ईश्वर किन मनुष्यों पर कृपा करता है—जो मनुष्य दिव्यस्वरूप, स्वप्रकाश-स्वरूप, करुणामय जगदीश्वर की बहुत अधिक सत्कारपूर्वक प्रशंसा करते हैं अर्थात् सच्ची भावना से परमेश्वर की उपासना और उसकी आज्ञा का पालन करते हैं, सब से ऊपर सत्कार के योग्य परमात्मा को ही मानते हैं; उन पर विद्वान्, दयालु परमेश्वर बड़ी कृपा करता है । कुटिलता और पापाचरण के मार्ग से पृथक् करता है। धर्मयुक्त मार्ग में चलाकर उन्हें विज्ञान, धन और धन से प्राप्त होने वाले सुख प्रदान करता है । उन्हें श्रेष्ठ प्रज्ञान एवं श्रेष्ठ बुद्धि प्राप्त कराता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिए उन्हें समर्थ बनाता है । अतः सब मनुष्य एक, अद्वितीय ईश्वर को छोड़कर किसी अन्य की उपासना कभी न करें ॥४०।१६॥ अन्यत्र व्याख्यात—(क)—“अग्ने नय सुपथा०” (य० ४०।१६॥) हे सुख के दाता ! स्वप्रकाशस्वरूप ! सब को जानने हारे परमात्मन् ! आप हम को श्रेष्ठ मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञानों को प्राप्त कराइये; और जो हम में कुटिल पापाचरण रूप मार्ग है उससे पृथक् कीजिए । इसीलिए हम लोग नम्रतापूर्वक आपकी बहुत सी स्तुति करते हैं; कि आप हम को पवित्र करें । (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समुल्लास) (ख)—हे (अग्ने) स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करने हारे (देव) सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे (विद्वान्) सम्पूर्ण विद्या युक्त हैं; कृपा करके (अस्मान्) हम लोगों को (राये) विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए (सुपथा) अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से (विश्वानि) सम्पूर्ण (वयुनानि) प्रज्ञान और उत्तम कर्म (नय) प्राप्त कराइये और (अस्मत्) हम से (जुहुराणम्) कुटिलतायुक्त (एनः) पापरूप कर्म को (युयोधि) दूर कीजिए । इस कारण हम लोग (ते) आपकी (भूयिष्ठाम्) बहुत प्रकार की स्तुतिरूप (नम उक्तिम्) नम्रतापूर्वक प्रशंसा (विधेम) सदा किया करें और सर्वदा आनन्द में रहें। (संस्कारविधि, ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना) (ग)—हे (अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूप सब दुःखों के दाहक (देव) सब सुखों के दाता परमेश्वर ! (विद्वान्) आप (राये) योग—विज्ञान रूप धन की प्राप्ति के लिए (सुपथा) वेदोक्त धर्म-मार्ग से (अस्मान्) हम को (विश्वानि सम्पूर्ण (वयुनानि) प्रज्ञान और उत्तम कर्मों को (नय) कृपा से प्राप्त कीजियेः और (अस्मत्) हम से (जुहुराणम्) कुटिल पक्षपात सहित (एनः) अपराध पापकर्म को (युयोधि) दूर रखिये और इस अधर्माचरण से हम को सदा दूर रखिए, इसीलिए (ते) आप ही की (भूयिष्ठाम्) बहुत प्रकार (नम उक्तिम्) नमस्कारपूर्वक प्रशंसा को नित्य (विधेम) किया करें ॥४०।१६॥ (संस्कारविधि-संन्यासाश्रमप्रकरण) समीक्षा—ईशावास्योपनिषत् के १८वें (यजुर्वेद के ४०।१६वें) मन्त्र की व्याख्या में श्री शङ्कराचार्य जी लिखते हैं— “हे अग्ने ! मुझे सुपथ=सुन्दर मार्ग से ले चल । यहां ‘सुपथा’ यह विशेषण दक्षिण मार्ग की निवृत्ति के लिए है । मैं आवागमनरूप दक्षिणमार्ग से ऊब गया हूं, अतः तुझ से प्रार्थना करता हूं कि यथोक्त कर्मफल विशिष्ट हम लोगों को हमारे सम्पूर्ण कर्म अथवा प्रज्ञानों को जानने वाले हे देव ! तू राये=धन के लिए, कर्मफल भोग के निमित्त पुनः-पुनः आने जाने से रहित शुभ मार्ग से ले चल । तथा तू हम से कुटिल अर्थात् वञ्चनात्मक पापों को वियुक्त कर दे । अतः हम तेरे लिए बहुत सी नमः-उक्तिं=नमस्कार वचन-विधान करते हैं ।” श्री शङ्कराचार्य जी ने लिखा है—“पुत्राद्येषणात्रयसंन्यास एवाधिकारो न कर्मसु” (ईशावास्यमिदं० मन्त्रे) अर्थात् पुत्रादि तीनों एषणाओं से रहित मनुष्य का आत्मज्ञान में अधिकार है, अग्निहोत्रादि कर्मों में अधिकार नहीं। और “निवृत्तलक्षणस्य वेदार्थस्य प्रकाशनेऽत ऊर्ध्वं बृहदारण्यकमुपयुक्तम्।” (ईशावा० १५वें मन्त्रभाष्य में) अर्थात् इसके बाद निवृत्ति लक्षण वेदार्थ को अभिव्यक्त करने में इससे आगे बृहदारण्यक का उपयोग किया जाता है । इन दोनों उद्धरणों से स्पष्ट है कि इन मन्त्रों में शङ्कराचार्य जी के मत में ज्ञानचर्चा ही होनी चाहिए । किन्तु प्रार्थना की जा रही है—राये= धन के लिए अथवा कर्मफल भोग के लिए तथा कुटिल पापाचरण को दूर करने के लिए । क्या इन में परस्पर विरोध होने से शाङ्कर-भाष्य की बात सत्य हो सकती है ? और कर्म-फल भोग की प्रार्थना से ज्ञान व १. “हे अग्ने ! नय गमय सुपथा शोभनेन मार्गेण । सुपथेति विशेषणं दक्षिणमार्गनिवृत्त्यर्थम् । निर्वि..ाोऽहं दक्षिणेन मार्गेण गतागतलक्षणेनातो याचे त्वां पुनः पुनर्गमनागमनवर्जितेन शोभनेन पथा नय । राये धनाय कर्मफलभोगायेत्यर्थः । अस्मान् यथोक्तधर्मफलविशिष्टान् विश्वानि सर्वाणि हे देव वयुनानि कर्माणि प्रज्ञानानि वा विद्वान्=जानन् । किञ्च युयोधि= वियोजय विनाशय अस्मदस्मत्तो जुहुराणं कुटिलं वञ्चनात्मकमेनः पापम् । भूयिष्ठां बहुतरां ते तुभ्यं नम उक्तिं नमस्कारवचनं विधेम=नमस्कारेण परिचरेम ॥” १ कर्म में क्या विरोध हुआ ? यदि विरोध है तो यहां कर्म-फल भोग की प्रार्थना क्यों की जा रही है । और जब परब्रह्म से भिन्न जीवात्मा की कोई सत्ता ही नहीं है तब प्रार्थना कौन किससे कर रहा है ? कुटिल पापाचरण से मुक्ति की कौन इच्छा कर रहा है ? आवागमनरूप दक्षिणमार्ग से विरक्ति किसे हो रही है ? कर्मों का फल कौन भोगेगा ? परब्रह्म को बार-बार नमस्कार वचन कौन बोल रहा है ? परब्रह्म किस के कर्मों व प्रज्ञानों को जानता है ? इत्यादि प्रश्नों का अद्वैतवादियों के पास क्या कोई उत्तर है ? अतः स्पष्ट है कि कर्मफल का भोक्ता पापाचरण कर्मों से युक्त, आवागमन के चक्र से दुःखी और अग्नि=परब्रह्म से प्रार्थना करने वाला जीवात्मा अवश्य ही परब्रह्म से भिन्न है । और शाङ्कर-भाष्य में मन्त्र-पठित ‘सुपथा’ को ‘अदक्षिण-मार्ग’ का विशेषण माना है । विशेषण के साथ विशेष्य का होना अत्यन्त आवश्यक है, ऐसा कभी नहीं होता कि विशेषण पद तो हो और विशेष्य पद का नाम भी न हो । मन्त्र में ऐसा कोई पद नहीं है, जिसका ‘सुपथा’ विशेषण हो । अतः ‘सुपथा’ पद को विशेषण मानना अशुद्ध व्याख्या है। आत्मज्ञानी संन्यासी के लिए अग्निहोत्रादि कर्मों का अधिकार न बताना भी वेदशास्त्रविरुद्ध निर्देश है । वेद तथा ईशावास्योपनिषत् के दूसरे मन्त्र में जीवन भर कर्म करने का उपदेश दिया गया है और अद्वैतवादी इन तीन ग्रन्थों को प्रस्थानत्रयी कहते हैं—उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र तथा श्रीमद्भगवद्गीता । गीता में अग्निहोत्रादि कर्मों को करने के लिए संन्यासी को स्पष्ट निर्देश दिया है, त्याग का नहीं । देखिए— (क) सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥ गीता १८।२॥ अर्थात् सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं, कर्मों को नहीं । (ख) यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् । यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥ गीता १८।५॥ अर्थात् संन्यासियों को यज्ञ, दान तथा तप इन कर्मों को नहीं छोड़ना चाहिए, करना ही चाहिए । क्योंकि ये तीनों कर्म मनीषियों को भी पवित्र करने वाले हैं । (ग) एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च । कर्त्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥ गीता १८।६ नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते ॥ गीता १८।७॥ अर्थात् हे अर्जुन ! संन्यासियों को यज्ञ, दान तथा तप सम्बन्धी कर्मों को आसक्ति तथा फलेच्छा को छोड़कर करना चाहिए, यह मेरा निश्चित मत है । नियत कर्मों का परित्याग तो किसी प्रकार भी उचित नहीं है । और मुण्डकोपनिषद् में ब्रह्मनिष्ठ संन्यासियों के लिए कर्म की प्रधानता बताते हुए लिखा है— क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः ॥ (मुण्डक० ३।१।४) अर्थात् जो ब्रह्मज्ञानियों में यज्ञादि शुभ-कर्म भी करता है, वह सब से श्रेष्ठ है । इस मन्त्र के भाष्य में श्री शङ्कराचार्य जी लिखते हैं—“न हि बाह्यक्रियावान् आत्मक्रीड आत्मरतिश्च भवितुं शक्तः । ....बाह्यक्रियात्म- क्रीडयोर्विरोधात् । नहि तमःप्रकाशयोर्युगपदेकत्र स्थितिः सम्भवति ।” अर्थात् बाह्य अग्निहोत्रादि क्रिया करने वाला आत्मरत नहीं हो सकता । क्योंकि बाह्यक्रिया तथा आत्मरति में वैसा ही विरोध है, जैसा कि अन्धकार व प्रकाश में है । समीक्षा—यह शाङ्करभाष्य की व्याख्या स्वयं कल्पित है । मन्त्र में ऐसा कोई वर्णन नहीं है । और अग्निहोत्रादि दैनिक कर्त्तव्य मनुष्यमात्र के लिए हैं । उनमें किसी के लिए भी छूट नहीं है । इन यज्ञादि शुभ कर्मों के करने से अन्तःकरण शुद्ध होता है और शुद्ध अन्तःकरण से परमात्मा की उपासना सम्भव है । अतः इनमें परस्पर अनुसहायीभाव है, किसी प्रकार का विरोध नहीं है । जो इनमें विरोध समझते हैं, वे स्वयं भ्रान्ति में पड़े हुए हैं ।
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