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केनोपनिषद काण्ड 2, श्लोक1-5

 यदि मन्यसे सु वेदेति दभ्रमेवापि नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपं।
 यदस्य त्वं यदस्य देवेष्वथ नु मीमांस्यमेव ते मन्ये विदितम् ॥ १ ॥ 
आचार्य राजवीर शास्त्री
पदार्थ—हे शिष्य ! (यदि) जो (त्वम्) तुम (अस्य ब्रह्मणः) इस पूर्वोक्त ब्रह्म का (यत्) जो (रूपम्) स्वरूप है उसको (सुवेद) अच्छी प्रकार जानता हूं (इति) इस प्रकार (मन्यसे) मानते हो तो (नूनम्) निश्चय करके (त्वम्) तुम (दभ्रम् एव) अल्प ही (वेत्थ) जानते हो । (अथ) और (नु) निश्चय करके (यत्) जो (अस्य) इस ब्रह्म का स्वरूप (देवेषु) विद्वानों में (विदितम्) विद्याप्रकाश से जाना गया है । वह (ते) तेरे लिए (मीमांस्यम् एव) तर्क-वितर्क तथा युक्तियों से विचार करने योग्य ही है, (मन्ये) ऐसा मैं मानता हूं । भावार्थ—इस मन्त्र में ब्रह्म की दुर्विज्ञेयता का वर्णन किया गया है । अर्थात् ब्रह्म अत्यन्त सूक्ष्म व सर्वत्र व्यापक है उसको ‘इदन्ता’ करके नहीं जाना जा सकता । अल्पज्ञ जीव का इतना सामर्थ्य नहीं है, कि वह ब्रह्म को पूर्णतः जानने में समर्थ हो सके । यदि कोई ब्रह्म को पूर्णतः जानने का घमण्ड करता है तो उसकी यह अहम्मन्यतामात्र ही है । गुरु शिष्य को अहङ्कार दोष से बचाने के लिए यह उपदेश कर रहे हैं । क्योंकि अहङ्कार ब्रह्मज्ञान में परम बाधक तथा पतन का कारण है । अतः यथाशक्ति जीवों को ब्रह्म की मीमांसा=तर्क वितर्कादि से खोज करते ही रहना चाहिए । मनुष्य ब्रह्म के विषय में जितना भी ज्ञान प्राप्त कर लेंगे, वह अल्प ही रहेगा । अन्यत्र उपनिषदों में इसलिए कहा है— स वेत्ति विश्वं न च तस्यास्ति वेत्ता ॥ (श्वेताश्वतरो०) वह ब्रह्म सारे विश्व को जानता है, परन्तु उसको पूर्णतः जानने वाला कोई नहीं है । और उस अनन्त ब्रह्म को जीव जान भी कैसे सकता है ? “पादो अस्य विश्वा भूतानि” (यजु० ३१।३) यह समस्त ब्रह्माण्ड तो ब्रह्म का एक भाग मात्र है । जब इसका भी हमें पूर्ण ज्ञान नहीं है तो ब्रह्म का कैसे सम्भव है । और सूर्य, अग्नि, वायु आदि दिव्य शक्ति- सम्पन्न देवों में व्याप्य-व्यापक भाव तथा नियाम्य-नियामक भाव से ब्रह्म की मीमांसा करनी चाहिए । अतः ब्रह्म का चिन्तन करते हुए अहङ्कार रहित होकर अपने ज्ञान को बढ़ाने में सतत विरत अवश्य रहना चाहिए। आचार्य शङ्कर ने इस श्रुति की व्याख्या में लिखा है— “सर्वस्य हि वेदितुः स्वात्मा ब्रह्मेति सर्ववेदान्तानां सुनिश्चितोऽर्थः।” “न चान्यो वेदिता ब्रह्मणोऽस्ति यस्य वेद्यमन्यत् स्यात् ब्रह्म ।” “तस्मात् सुष्ठु वेदाहं ब्रह्मेति प्रतिपत्तिर्मिथ्यैव ॥” “अनेकानि हि नामरूपोपाधिकृतानि ब्रह्मणो रूपाणि न स्वतः ॥” अर्थात् सब वेदान्तियों का यह एक निश्चित सिद्धान्त है कि सभी जानने वालों का अपना आत्मा ही ब्रह्म है । ब्रह्म से भिन्न कोई ज्ञाता नहीं है, जिसके लिए ब्रह्म जानने योग्य है । इसलिए मैं ब्रह्म को भलीभांति जानता हूं, यह ज्ञान मिथ्या ही है । ब्रह्म के नाम, रूप तथा उपाधिकृत अनेक रूप हैं, स्वतः नहीं । समीक्षा—(क) आचार्य शङ्कर की यह मान्यता असत्य तथा वेदविरुद्ध है कि सभी का अपना आत्मा ब्रह्म है । इसलिए ब्रह्मज्ञान का विषय ही नहीं है । व्यासमुनि ने वेदान्तदर्शन में “भेदव्यपदेशाच्चान्यः।” “गुहां प्रविष्टावात्मनो हि दर्शनात् ।” इत्यादि सूत्रों के द्वारा जीव-ब्रह्म की भिन्नता का स्पष्ट प्रतिपादन किया है । १ वेदों में अनेक ऐसे मन्त्र हैं १—और यदि ब्रह्म ज्ञान का विषय नहीं होता, तो “अथातो ब्रह्म- जिज्ञासा ।” (वेदान्त०) इस सूत्र में ब्रह्म को जानने की इच्छा कैसे कही है ? अतः स्पष्ट है कि ब्रह्म ज्ञान का विषय है । जिनमें जीव-ब्रह्म को पृथक्-पृथक् माना है । जैसे— (क) न तं विदाथ य इमा जजान, अन्यद् युष्माकमन्तरं बभूव ॥ (यजु० १७।३१) अर्थ—जो तुम्हारे आत्मा में भी व्यापक है, उस सृष्टिकर्त्ता को तुम नहीं जानते । (ख) द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥ (ऋ० १।१६४।२०) अर्थात् जीव और ब्रह्म दोनों चेतन=सुपर्ण, व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त=सखा हैं । उनमें एक प्रकृतिरूपी वृक्ष के फलों को भोगता है, और दूसरा ब्रह्म न भोगता हुआ साक्षी मात्र रहता है । जीव-ब्रह्म की भिन्नता का उपनिषदों में बहुत ही स्पष्ट वर्णन किया है । जैसे—य आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद। यस्यात्मा शरीरम्०। (बृहदा०) आत्माऽस्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् । (कठोप०) शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । (मु०) तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः। (कठो०) नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम् ॥ (कठो०) गुहां प्रविष्टौ सुकृतस्य लोके ।” इत्यादि उपनिषदों के बहुत प्रमाण हैं, जिनसे स्पष्ट है कि ब्रह्म हमारी आत्मा में भी व्यापक है । ब्रह्म का आत्मा शरीर है। अतः ब्रह्म सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् तथा परम सूक्ष्म चेतन सत्ता है और जीवात्मा अल्पज्ञ, परिच्छिन्न, अल्पशक्ति वाला चेतन है । दोनों एक कभी भी नहीं हो सकते । जीवात्मा ज्ञाता तथा ब्रह्म ज्ञेय है, जीवात्मा उपासक तथा ब्रह्म उपास्य है । यदि ब्रह्म ज्ञान का विषय ही नहीं है, क्योंकि जीवात्मा स्वयं ब्रह्म है, तब तो समस्त वेदान्त-दर्शन ही मिथ्या है, जिसमें ब्रह्म की जिज्ञासा की प्रतिज्ञा करके ब्रह्म के सत्यस्वरूप का प्रतिपादन किया है और इस उपनिषद् में भी ‘केनेषितं पतति’ इत्यादि प्रश्न भी निरर्थक ही हो जाते हैं । और यदि सभी प्राणियों में एक ही ब्रह्म है, जीवात्मा की कोई सत्ता ही नहीं है तो इस मान्यता में अनेक दोष हैं—ब्रह्म को जन्म-मरण के चक्र में आने की क्या आवश्यकता थी ? एक ही ब्रह्म होने से दूसरे की देखी सुनी बात को दूसरा क्यों नहीं जानता ? पाप-पुण्य के कर्मों के फलभोग की व्यवस्था कभी न बन सकेगी । अद्वैतवाद की मान्यता से पापों की वृद्धि और पुण्यों की न्यूनता होती है । इन्होंने अपने आपको ब्रह्म मानकर किसी भी पुण्य कार्य में प्रवृत्त न होकर अकर्मण्यता को बढ़ाया है । लौकिक-मनुष्यों को कर्त्तव्य से विमुख करके अधोगति की तरफ ले जाया गया है । (ख) ब्रह्म के उपाधिकृत अनेक रूपों की मान्यता भी अद्वैतवाद की मिथ्या है । इनके मत में सर्वव्यापी ब्रह्म अन्तःकरण में आकर जीव होता है । क्या जीव-दशा में ब्रह्म में सर्वज्ञादिगुण होते हैं ? यह सर्वजन विदित है कि हम सब अल्पज्ञ हैं तो ब्रह्म को भी उस दशा में अल्पज्ञ माना जाए ? यदि कहो कि अन्तःकरण के आवरण से ब्रह्म सर्वज्ञ नहीं रहता तो क्या अखण्डित ब्रह्म खण्डित हो जाता है ? और आवरण में आया ब्रह्म अपवित्र, अज्ञानी व पापबद्ध हो जाता है ? अतः अद्वैतवाद की यह मान्यता वेद व युक्ति से विरुद्ध होने से कदापि मान्य नहीं हो सकती । क्योंकि वेद में ब्रह्म के स्वरूप के विषय में बहुत ही स्पष्ट कहा है— स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम् ॥ (य० ४०।८) अर्थात् वह परब्रह्म सर्वत्र व्यापक सर्वशक्तिमान्, सब प्रकार के शरीरों से रहित, अव्रणम्=छिद्र रहित होने से अखण्डित व निरवयव, अस्नाविरम्=स्नायु आदि आवरणों के बन्धन में न आने वाला, शुद्धम्=राग, द्वेषादि से रहित होने से सदा पवित्र, अपापविद्धम्=पापाचरण से सदा मुक्त है । इस प्रकार ब्रह्म का जो स्वरूप है, वह सदा एक सा ही रहता है, उसके कभी भी विविध रूप नहीं होते । श्री शङ्कराचार्य जी की मान्यता वेदादिशास्त्रों से विरुद्ध, उपनिषद्-विरुद्ध, वेदान्त-विरुद्ध तथा युक्ति-विरुद्ध होने से सर्वथा मिथ्या है । अब ब्रह्म के जानने में हेतु कथन करता है—
नाह मन्ये सु वेदेति नो न वेदेति वेद च । 
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥ २ ॥ 
पदार्थ—(अहम्) मैं (सुवेद) ब्रह्म को अच्छी प्रकार जानता हूं (इति) इस प्रकार (न मन्ये) नहीं मानता और (न वेद) ब्रह्म को नहीं जानता (इति) ऐसा भी (नो) नहीं मानता, (वेद च) और ब्रह्म है, यह जानता हूं । (नः) हम में से (यः) जो (तत्) उक्त वचन को (वेद) जानता है, वह (तत्) उस ब्रह्म को (वेद) जानता है । (न वेदेति) ब्रह्म को नहीं जानता ऐसा भी (नो वेद) नहीं जानता मानता हूं । भावार्थ—इस मन्त्र में ब्रह्मज्ञानी की विशेषता बताते हुए कहा है कि—ब्रह्म को जानने वाला यह कदापि नहीं मानता कि मैं ब्रह्म को पूर्णरूप से जानता हूं क्योंकि ब्रह्म अनन्त है । और न यह कहता है कि मैं ब्रह्म को नहीं जानता । क्योंकि उसकी प्रज्ञा ऋतम्भरा होने से अयथार्थ भाषण कैसे कर सकता है । जो ऐसा जानता है, वह ब्रह्म का ज्ञाता है और जो इससे विपरीत आचरण करता है, वह ब्रह्म को नहीं जानता । क्योंकि ईश्वर विषयक— न शक्यते वर्णयितुं गिरा तदा स्वयन्तदन्तःकरणेन गृह्यते ॥ (मैत्रायण्युप० ४।४) अर्थात् ब्रह्म को जानने से जो सुख होता है, उसे वाणी से नहीं कहा जा सकता, उसे तो अन्तःकरण से अनुभव किया जाता है । श्री शङ्कराचार्य जी ने इस गाम्भीर्य को न समझ कर लिखा है— “एकं वस्तु येन ज्ञायते तेनैव तदेव वस्तु न सुविज्ञायत इति विप्रतिषिद्धं संशयविपर्ययौ वर्जयित्वा । ..... एवमाचार्येण विचाल्यमानोऽपि शिष्यो न विचचाल ।” अर्थात् जिसने एक वस्तु को जान लिया है, उसने उसको नहीं जाना है, यह परस्पर विरुद्ध है, संशय-विपर्यय को छोड़कर । और इत्यादि बातों से आचार्य ने शिष्य को विचलित करना चाहा, किन्तु वह विचलित नहीं हुआ । समीक्षा—इस श्रुति की व्याख्या से स्पष्ट है कि इसमें आचार्य का कोई वचन ही नहीं है । आचार्य ने शिष्य को इससे पहली श्रुति में जो कुछ कहा था, शिष्य ने इसमें उसका उत्तर दिया है । और उपर्युक्त व्याख्या से यह भी स्पष्ट है कि इसमें कोई भी बात परस्पर विरुद्ध नहीं है । जो ऐसा समझता है, वह उसकी भ्रान्ति ही है । यहां संशय तथा विपर्यय=मिथ्याज्ञान की कोई बात ही नहीं कही है, फिर उसे संशयादि से युक्त कहना उचित नहीं है । यह हमारी व्याख्या से ऊपर स्पष्ट कर दिया गया है । पूर्वोक्त ब्रह्म का ही प्रकारान्तर से सूक्ष्म दृष्टि से वर्णन करते हैं—

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद स: । 
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥ ३ ॥ 
पदार्थ—(यस्य) जिस विद्वान् का (अमतम्) ब्रह्म को नहीं जानता ऐसा मत है, (तस्य) उसको (मतम्) ब्रह्म का ज्ञान है । (क्योंकि मन के द्वारा होनेवाला ज्ञान भी चक्षु आदि इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान के समान ही है) (यस्य) जिस विद्वान् को यह गर्व है कि (मतम्) मैं ब्रह्म को जानता हूं (सः न वेद) वह ब्रह्म को नहीं जानता है । इसीलिए (विजानताम्) ब्रह्म का विशेष ज्ञान कहने वालों को (अविज्ञातम्) ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता और (अविजानताम्) जो ब्रह्मज्ञान का अहङ्कार नहीं करते, उनको (विज्ञातम्) ब्रह्म का विशेष ज्ञान है । भावार्थ—इस मन्त्र का तात्पर्य यह है कि जो अपने को ब्रह्म का ज्ञानी मानते हैं, वे ब्रह्म को नहीं जान सकते । क्योंकि ब्रह्म को जानने वाला यह कदापि कहेगा ही नहीं कि मैं ब्रह्म को जानता हूं । यथार्थ में साधारण व्यक्ति ब्रह्मज्ञानी की परीक्षा नहीं कर सकते । विरले योगी पण्डित गुरुदत्त को भी निरुत्तर होना पड़ा था। परन्तु ब्रह्म की सत्ता मानने में ब्रह्म का ज्ञान नहीं हो सकता । और इस मन्त्र का दूसरा भाव यह भी है कि ब्रह्म की अनुभूति तथा पूर्णज्ञान तब तक नहीं होता, जब तक यथार्थज्ञान के द्वारा योगाभ्यासादि नहीं करता । जो शाब्दिक ज्ञान ही रखते हैं, ब्रह्म-प्राप्ति के दूसरे साधनों का अनुष्ठान नहीं करते, वे भी ब्रह्म के ज्ञाता नहीं हैं । ब्रह्म को जानने के लिए श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन तीनों साधनों की परमावश्यकता होती है । महर्षि दयानन्द ने इस रहस्य को एक वेद-मन्त्र में स्पष्ट किया है कि केवल ब्रह्म की सत्ता मानने वाला ब्रह्म को क्यों नहीं जानता ? न तं विदाथ य इमा जजानान्यद् युष्माकमन्तरं बभूव । नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृप उक्थशासश्चरन्ति ॥ (यजु० १७।३१) “जो परमात्मा इन सब भुवनों का बनाने वाला विश्वकर्मा है, उसको तुम लोग नहीं जानते । इसी हेतु से तुम (नीहारेण) अत्यन्त अविद्या से आवृत, मिथ्यावाद नास्तिकता की बकवाद करते हो । .....तुम लोग (असुतृपः) केवल स्वार्थसाधक प्राणपोषणमात्र में ही प्रवृत्त हो रहे हो । (उक्थशासश्चरन्ति) केवल विषयभोगों के लिए ही अवैदिक कर्म करने में प्रवृत्त हो रहे हो । और जिसने सब भुवन रचे हैं, उस सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, परब्रह्म से उलटे चलते हो । अतएव उसको तुम नहीं जानते” ॥ (आर्याभिविनयः) इससे स्पष्ट है कि ईश्वर के जानने में मनुष्य क्यों असमर्थ रहते हैं और ईश्वर को मानने तथा जानने में क्या अन्तर है । ब्रह्मज्ञानी की विलक्षणता बताकर ब्रह्मज्ञान का फल कथन करते हैं—
प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते । 
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् ॥ ४ ॥ 
पदार्थ—(प्रतिबोधविदितम्) प्रतिबोध से जाना गया ब्रह्म (मतम्) यथार्थज्ञान है । इस ब्रह्मज्ञान से मुमुक्षु पुरुष (हि) निश्चय से (अमृतत्वम्) मृत्युरहित जीवन्मुक्त दशा को (विन्दते) प्राप्त होता है । (आत्मना) आत्मस्वरूपज्ञान से (वीर्यम्) योगबल=अणिमादि सिद्धियों को (विन्दते) प्राप्त होता है, और (विद्यया) ब्रह्मज्ञान से (अमृतम्) जन्म-मरणादि दुःखरहित मोक्ष को (विन्दते) प्राप्त होता है । भावार्थ—इस मन्त्र में ‘प्रतिबोध’ शब्द विशेष अर्थ को बताने वाला है । इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण कर रूपादि विषय के स्वरूप को धारण करने वाली बुद्धि को ‘बोध’ कहते हैं । और इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से निरोध करके अन्तःकरण में धारणा, ध्यान, समाधिरूप संयम से जो ज्ञान की तरंग उत्पन्न होती हैं, उनका ग्रहण करना ‘प्रतिबोध’ कहाता है और आत्मा के स्वरूप-ज्ञान से योगबल को प्राप्त करना इसलिए आवश्यक है कि उसके विना परमात्मा को नहीं जाना जा सकता । जैसा कि अन्यत्र कहा है—‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः’ इत्यादि प्रमाण से स्पष्ट है कि योगबल से रहित व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता । १ श्री शङ्कराचार्य जी ने यहां ‘प्रतिबोध’ शब्द से अपने आप को ब्रह्म १—‘प्रतिबोध’ का दूसरा अर्थ यह भी है—वाक्यजन्य ज्ञान को बोध कहते हैं । और निदिध्यासन से ब्रह्म के गुणों को धारण करके जो उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त होता है, उसे ‘प्रतिबोध’ कहते हैं । मानना अर्थ करते हुए लिखा है—“बोधशब्देन बौद्धाः प्रत्यया उच्यन्ते । सर्वे प्रत्यया विषयी भवन्ति यस्य स आत्मा सर्वबोधान् प्रतिबुध्यते, सर्वप्रत्ययदर्शी चिच्छक्तिस्वरूपमात्रः प्रत्ययैरेव प्रत्ययेष्वविशिष्टतया लक्ष्यते, नान्यद् द्वारमात्मनो विज्ञानाय ।” अर्थात् ‘बोध’ शब्द बौद्धिक ज्ञान को बताता है । और जब सब ज्ञान हो जाते हैं, वह आत्मा प्रतिबोध विदित होकर ब्रह्म को जानकर ब्रह्म-रूप हो जाता है । समीक्षा—अपने आप को ब्रह्म समझना, यह भी एकमत है । पूर्वश्लोक में कहा है कि जिसका यह मत है, वह ब्रह्म को नहीं जानता। अतः शङ्कर-स्वामी का अर्थ सङ्गत नहीं है । और इसी श्लोक में कहा है कि ‘अमृतत्वं हि विन्दते’ ‘वीर्यं विन्दते’ इत्यादि । यदि वह स्वयं ब्रह्म ही है तो ‘अमृतत्व प्राप्ति’ और वीर्य=बल की प्राप्ति कौन किससे करता है । प्राप्ति अप्राप्त की की जाती है । अतः ‘प्रतिबोध’ शब्द का अर्थ अपने को ब्रह्म समझना’ कदापि सङ्गत नहीं हो सकता । और यहां यह भी कहा है कि—‘आत्मना विन्दते वीर्यम्’ आत्मज्ञान से बल प्राप्त करता है । और उस बल से ब्रह्म के पद (मोक्ष) को प्राप्त किया जाता है । क्योंकि अन्यत्र कहा गया है कि—“नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ।” इससे स्पष्ट है कि ब्रह्मविद्या से आत्मिक बल प्राप्त होता है और तत्पश्चात् मोक्ष प्राप्त होता है । इस क्रम का उल्लङ्घन करके ‘प्रतिबोध’ शब्द का यह अर्थ करना ‘ब्रह्म-भाव को प्राप्त हो गया’ नितान्त ही अविवेकपूर्ण तथा कल्पित है । मानव-जीवन का परम-लक्ष्य ब्रह्म-ज्ञान बताते हुए कहते हैं— इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः ।

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः । 
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥ ५ ॥ 
पदार्थ—(चेत्) यदि (इह) इस मानव-जीवन में (अवेदीत्) ब्रह्म को जान लिया (अथ) तब तो (सत्यम् अस्ति) मनुष्य-जन्म सार्थक है (चेत्) यदि (इह) इस जन्म में (न, अवेदीत्) ब्रह्म को नहीं जाना तो (महती विनष्टिः) बहुत बड़ी हानि है अर्थात् निरन्तर विभिन्न पशु- पक्षियों की योनियों के चक्र में घूमते रहने से उत्तम सुख का विनाश है। इसलिए (धीराः) ध्यानशील योगी पुरुष (भूतेषु-भूतेषु) सब चराचर १—‘विचित्य’ इति शाङ्करभाष्ये पाठभेदः । जगत् में (विचिन्त्य) ब्रह्म का विवेचन करके तथा उसका साक्षात्कार करके (अस्मात् लोकात्) इस प्रत्यक्ष संसार से (प्रेत्य) देह-त्याग करके (अमृताः) मृत्यु आदि दुःखों से मुक्त (भवन्ति) हो जाते हैं । भावार्थ—मानव-जीवन का परम लक्ष्य है—मोक्ष-प्राप्ति । यदि इस उत्तम योनि को प्राप्त करके ब्रह्म को नहीं जाना, और सांसारिक भोग भोगकर ही यह जीवन बिता दिया तो दूसरी पशु-पक्षियों की योनियों तथा मानव-योनि में क्या अन्तर हुआ ? अतः मनुष्यों का यह परम कर्त्तव्य है कि उस ब्रह्म की शक्ति को संसार की प्रत्येक वस्तु में निहित जानकर ब्रह्म-विषयक ज्ञान को प्राप्त करें और दुःखपाश से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करने का अनवरत प्रयत्न करते रहें । इस मन्त्र में ‘अवेदीत्’ प्रयोग छन्दोवत् मानकर सार्वकालिक है, भूतकालिक नहीं । जैसे वेदों में ‘छन्दसि लुङ् लङ् लिटः’ (अ० ३।४।६) इस व्याकरण नियम से लुङादि लकार सामान्यकाल में प्रयुक्त हैं, वैसे ही यहां उपनिषद् में भी समझना चाहिए । आचार्य शङ्कर ने यहां लिखा है— अमृता भवन्ति=ब्रह्मैव भवन्ति । अर्थात् ब्रह्म ही हो जाते हैं । समीक्षा—‘अमृत’ शब्द का अर्थ मृत्यु आदि दुःखों से रहित होना है, ब्रह्म होना नहीं । अतः शाङ्कर-भाष्य का अर्थ स्वयं कल्पित है। और यदि ब्रह्मस्थ पद (मोक्ष) को ‘ब्रह्म’ तात्स्थ्योपाधि से मान भी लिया जावे तो भी अद्वैतवाद की पुष्टि नहीं होती । क्योंकि इनके मत में मोक्ष में जीव-ब्रह्म एक हो जाते हैं । जब जीव का पृथक् अस्तित्व ही नहीं रहता तो मोक्ष के सुख का कौन भोग करता है ? और उपनिषदों में जो मोक्ष की दशा में मुक्त जीवों का वर्णन किया है, वह सब मिथ्या ही हो जायेगा । जैसे— (क) यं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान् । (मुण्डक०) अर्थात् मुक्त जीव मोक्ष में स्वेच्छा से विचरण करते हैं और स्वाभीष्ट कामनाओं को प्राप्त करते हैं । (ख) ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वे ॥ (मुण्डक०) अर्थात् मुक्तजीव मोक्ष में परान्तकाल=मोक्ष की पूर्णावधि होने के बाद मोक्ष से वापस संसार में आ जाते हैं । इत्यादि वर्णनों से स्पष्ट है कि मोक्ष में जीवों का ब्रह्म में लय कदापि नहीं होता । वे पृथक् रहकर ही मोक्षानन्द को भोगते हैं । अतः अद्वैतवाद के प्रवर्त्तक आचार्य शङ्कर की व्याख्या कल्पित ही है । प्रथम-खण्ड में ब्रह्मज्ञान में इन्द्रियों की अनुपयोगिता और ब्रह्म की ही उपासना करनी चाहिए, यह वर्णन किया । द्वितीय-खण्ड में ब्रह्मज्ञान की विलक्षणता तथा दुर्विज्ञेयता, ब्रह्मज्ञान का फल और मानव-जीवन का चरम-लक्ष्य ब्रह्म को जानना इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है।


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