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ईशा वास्योपनिषद मंत्र -14 हिन्दी भाष्य सहित

 सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह । विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते ॥ १४ ॥ 
स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
प० क्र० – (सम्भूतिम्) कार्य जगत् को । (च) और । (विनाशम) कारण जगत् को । (य) जो । (तत्) इन । (उभयम्) दोनों को । (वेद) जानता है । (सह) साथ । (विनाशेन) कारण जगत् से । (मृत्युम्) मृत्यु को । (तीर्त्वा) तर के । (सम्भूत्य) कार्य जगत् से । (अमृतम्) मोक्ष को । (अश्नुते) प्राप्त होता है । अर्थ- पिछले मन्त्र मे यह बतलाया गया है कि कार्य-जगत को उपासना से अमुक फल होता है कारण की उपासना से अमुक प्रकार का होता है, तथा यह भी प्रकट हो गया कि दोनों उपासना से मुक्ति नही हो सकती, क्योंकि जीव को जिस आनन्द की आवश्यकता है, कार्य-कारण-रूप प्रकृति उससे रहित है । जिस वस्तु में जो गुण नही है, उसकी उपासना से वह गुण कैसे प्राप्त हो सकता है । जैसे किसी मनुष्य को गर्मी ने सताया हो और वह उससे बचने के लिये अग्नि की उपासना करे अर्थात् अग्नि के निकट बैठे, तो उसका ताप और बढ़ जायेगा, न कि किसी प्रकार कम होगा । जीव को अल्पज्ञता के कारण दुःख होता है और वह अज्ञानी उससे छूटने के लिए प्रकृति की उपासना करेगा तो उसका ज्ञान बढने के प्रत्युत कम होकर और भी दुःख को बढ़ा देगा । अतः प्रकृति की उपासना से मुक्ति का निषेध करके अब मुक्ति कैसे होगी उसे बताते हैं । जो मनुष्य जन्म मरण के नियमों और उनके कारणों को भले प्रकार साथ-साथ जानता है अर्थात् इस बात को समझता है कि जन्म मरण शरीर की दशाएँ है और जो उत्पन्न होता है । उसका नाश होना आवश्यक है, अतः शरीर की आवश्यकताओं को जो अपने से प्रथक समझता है वह जन्म मरण के बन्धन के दुःख से छूट कर शरीर की विद्यमानता में ही मुक्ति की दशा को पहुँच जाता है (जीवनमुक्त हो जाता है ) वह इस शरीर मे भी रहते हुए मुक्ति सुख को भोगता है । मानो यह मन्त्र बताता है कि मृत्यु के पश्चात् ही मुक्ति नहीं होती जिससे नास्तिकों को मुक्ति की सत्ता से इनकार करने का अवसर मिल सके । परमात्मा ने ऐसे नियम बना दिये है कि जिससे मनुष्य जीवन में ही मुक्त होकर मुक्ति मे दूसरों की श्रद्धा उत्पन्न कराने का कारण हो सके । प्रत्येक मनुष्य को यह विचार रखना चाहिये कि जिसकी जीवन मे मुक्ति न हो जावे, तो मृत्यु के पश्चात् भी उसकी मुक्ति किसी प्रकार नही हो सकती ।
आचार्य राजवीर शास्त्री
पदार्थः—(सम्भूतिम्) सम्भवन्ति यस्यां तां कार्य्याख्यां सृष्टिम् (च) तस्या गुणकर्मस्वभावान् (विनाशम्) विनश्यन्त्यदृश्याः पदार्था भवन्ति यस्मिन् (च) तद्गुणकर्म्मस्वभावान् (यः) (तत्) (वेद) जानाति (उभयम्) कार्य्यकारणस्वरूपं जगत् (सह) (विनाशेन) नित्यस्वरूपेण विज्ञातेन कारणेन सह (मृत्युम्) शरीरवियोगजन्यं दुःखम् (तीर्त्वा) उल्लङ्घ्य (सम्भूत्या) शरीरेन्द्रियान्तःकरणरूपयोत्पन्नया कार्यरूपया धर्म्ये प्रवर्त्तयित्र्या सृष्ट्या (अमृतम्) मोक्षम् (अश्नुते) प्राप्नोति ॥११॥ अन्वयः—हे मनुष्याः ! यो विद्वान् सम्भूतिं च विनाशं च सहोभयं तद्वेद, स विनाशेन सह मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्या सहामृतमश्नुते ॥११॥ सपदार्थान्वयः— हे मनुष्याः ! यो=विद्वान् सम्भूतिं सम्भवन्ति यस्यां तां कार्य्याख्यां सृष्टिं च तस्या गुणकर्मस्वभावान् विनाशं विनश्यन्त्यदृश्याः पदार्था भवन्ति यस्मिन् च तद्गुण-कर्म-स्वभावान् सहोभयं कार्य्यकारणस्वरूपं जगत् तद्वेद जानाति; स विनाशेन नित्यस्वरूपेण विज्ञातेन कारणेन सह मृत्युं शरीरवियोगजन्यं दुःखं तीर्त्वा उल्लङ् घ्य सम्भूत्या शरीरेन्द्रियान्तः- करणरूपयोत्पन्नया कार्यरूपया, धर्म्ये प्रवर्त्तयित्र्या सृष्ट्या सहामृतं मोक्षम् अश्नुते प्राप्नोति ॥४०।११। भावार्थः—हे मनुष्याः ! कार्य-कारणाऽऽख्ये वस्तुनी निरर्थके न स्तः; किन्तु कार्य-कारणयोर्गुण- कर्मस्वभावान् विदित्वा, धर्मादि- मोक्षसाधनेषु सम्प्रयोज्य; स्वाऽऽत्म- कार्यकारणयोर्विज्ञातेन नित्यत्वेन मृत्युभयं त्यक्त्वा मोक्षसिद्धिं सम्पादयतेति कार्य-कारणाभ्यामन्यदेव फलं निष्पादनीयमिति । भाषार्थ—हे मनुष्यो ! (यः) जो विद्वान् (सम्भूतिम्) जिसमें पदार्थ उत्पन्न होते हैं उस कार्यरूप सृष्टि को (च) और सृष्टि के गुण, कर्म, स्वभाव को एवं (विनाशम्) जिसमें पदार्थ विनष्ट= अदृश्य हो जाते हैं उस कारणरूप प्रकृति को तथा (च) उसके गुण, कर्म, स्वभाव को (सह) एक साथ (उभयं तत्) उस कार्य कारण रूप जगत् को (वेद) जानता है; वह (विनाशेन) नित्य स्वरूप को समझने के कारण (मृत्युम्) शरीर और आत्मा के वियोग से उत्पन्न दुःख को (तीर्त्वा) पार करके (सम्भूत्या) शरीर इन्द्रिय अन्तःकरण रूप उत्पन्न होने वाले कार्य रूप, धर्म कार्य में प्रवृत्त कराने वाली सृष्टि के सहयोग से (अमृतम्) मोक्ष-सुख को (अश्नुते) प्राप्त होता है । भावार्थ—हे मनुष्यो ! कार्य (सृष्टि), कारण (प्रकृति) नामक वस्तुएं निरर्थक नहीं हैं, किन्तु कार्य, कारण इन दोनों के गुण, कर्म, स्वभाव को जानकर, इनका धर्मादि, मोक्ष के साधनों में उपयोग करके, अपने-अपने स्वरूप से कार्य और कारण की नित्यता के विज्ञान से मृत्यु के भय को हटा कर मोक्ष की सिद्धि करो । इस प्रकार कार्य (सृष्टि), कारण (प्रकृति) के द्वारा भिन्न-भिन्न धर्मादि और मोक्षसिद्धि रूप फल प्राप्त करने चाहिए अनयोर्िनषेधो हि परमेश्वर- स्थान उपासनाप्रकरणे वेदितव्यः ॥११॥ ।उपासना के प्रकरण में परमेश्वर के स्थान में इन कार्य (सृष्टि), कारण (प्रकृति) की उपासना करने का निषेध समझना चाहिए ॥४०।११॥ सम्भूतिम्=कार्याऽऽख्यं वस्तु । विनाशम्= कारणाऽऽख्यं वस्तु । उभयम्=कार्यकारणयोर्गुण-कर्म-स्वभावम् । मृत्युम्= मृत्यु-भयम् । अमृतम्=मोक्षसिद्धिम् ॥४०।११॥ भाष्यसार—मनुष्य कार्य और कारण वस्तु से क्या-क्या सिद्ध करें—विद्वान् मनुष्य सम्भूति अर्थात् कार्य नामक सृष्टि और उसके गुण, कर्म, स्वभाव, विनाश (असम्भूति) अर्थात् जिसमें सब पदार्थ विनष्ट=अदृश्य हो जाते हैं । उस कारण रूप प्रकृति और उसके गुण, कर्म, स्वभाव को साथ-साथ जानें । विनाश (असम्भूति) नित्य प्रकृति को जानकर मृत्यु अर्थात् शरीर के वियोग से उत्पन्न दुःख को पार करें। सम्भूति अर्थात् शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण रूप उत्पन्न कार्य जगत् तथा धर्म में प्रवृत्त करने वाली सृष्टि को जानकर, इसका सदुपयोग करके मोक्ष-फल को प्राप्त करें । इस प्रकार कारण वस्तु से मृत्यु-भय का त्याग और कार्य वस्तु से मोक्ष-फल की सिद्धि रूप भिन्न-भिन्न फल की प्राप्ति करें । कारण और कार्य वस्तु का परमेश्वर के स्थान में उपासना करने का निषेध है; इनसे यथायोग्य उपयोग लेने का नहीं ॥४०।११॥ समीक्षा—ईशावास्योपनिषत् के १२, १३ तथा १४वें मन्त्रों (यजुर्वेद में ९, १० व ११वें मन्त्र) में सम्भूति और असम्भूति के उपयोग को समझाया गया है । इनमें प्रथम मन्त्र में कहा गया है कि जो असम्भूति की उपासना करते हैं, वे घोर अन्धकार में प्रविष्ट होते हैं और जो मनुष्य सम्भूति में ही रत हैं, वे उससे भी अधिक घोर अन्धकार में प्रविष्ट होते हैं । और दूसरे मन्त्र में कहा है कि जिन मेधावी विद्वान् योगी जनों ने हमारे लिए सम्भूति और असम्भूति का उपदेश किया है, उनसे हमने ऐसा सुना है कि सम्भूति का फल अन्य है और असम्भूति का फल दूसरा है। और तीसरे मन्त्र में सम्भूति और असम्भूति को जो साथ-साथ जान लेता है, वह असम्भूति से मृत्यु के भय को पार कर लेता है तथा सम्भूति से अमृत=मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार इस मन्त्र में सम्भूति और असम्भूति के फलों का वर्णन किया गया है— अब यहां प्रश्न उत्पन्न होता है कि असम्भूति और सम्भूति क्या वस्तु हैं ? भाष्यकारों ने इनकी जो व्याख्याएं की हैं, उनमें पर्याप्त भिन्नता है । महर्षि दयानन्द के भाष्य के अनुसार असम्भूति का अर्थ प्रकृति है, जो कभी उत्पन्न न होने से अनादि है । यह जड़ वस्तु है । इस प्रकृति से जो महत्तत्वादि उत्पन्न होते हैं, उन्हें ‘सम्भूति’ कहते हैं । ये महत्तत्त्वादि प्रकृति से सम्भूत=उत्पन्न होने के कारण सम्भूति कहलाते हैं। उक्त असम्भूति और सम्भूति का आत्मा के लिए क्या उपयोग है, यहां प्रथम मन्त्र में कहा गया है कि जो असम्भूति=प्रकृति की उपासना करते हैं, वे घोर अन्धकार में प्रविष्ट होते हैं, अर्थात् वे सदा अविद्याग्रस्त होने से सदा दुःखी रहते हैं, और जो सम्भूति=प्रकृति के कार्य पृथिवी आदि जड़ वस्तुओं से लगे रहते हैं वे उनसे भी घोर अन्धकार में प्रविष्ट होते हैं। अतः आत्मा के लिए असम्भूति और सम्भूति दोनों ही उपासनीय वस्तु नहीं हैं किन्तु एक चेतन परमात्मा ही उपासना के योग्य है । दूसरे मन्त्र में असम्भूति और सम्भूति का भिन्न-भिन्न फल बताकर उनका उपयोग बताया गया है । तीसरे मन्त्र में उन फलों का वर्णन करके बताया गया कि असम्भूति और सम्भूति आत्मा के लिए उपासनीय तो नहीं हैं, किन्तु अत्यन्त उपयोगी हैं । आत्मा को इन दोनों का साथ-साथ ज्ञान प्राप्त करके इनका उपयोग लेना चाहिए । तीसरे मन्त्र में असम्भूति के स्थान पर ‘विनाश’ शब्द का पाठ है । क्योंकि सब उत्पन्न हुए पदार्थ प्रलय में प्रकृति में विनाश=लय को प्राप्त होते हैं । जो इस विनाश के विज्ञान अर्थात् सृष्टि के कारण-कार्य भाव को समझ लेता है, वह अविद्यादि क्लेशों से बचने के कारण मृत्यु को पार कर जाता है । और सम्भूति=प्रकृति के कार्यपदार्थों का आत्मा विद्वानों की संगति में रहकर वेदोक्तविधि से ठीक-ठीक उपयोग करे तो वह अमृत= मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । इन तीनों मन्त्रों से स्पष्ट है कि ये असम्भूति और सम्भूति आत्मा के लिए उपासनीय वस्तु तो नहीं हैं, किन्तु उपयोगी अवश्य हैं । श्री शङ्कराचार्य जी ने इन मन्त्रों के पूर्वोक्त रहस्य को नहीं समझकर विपरीत ही व्याख्या की है । इन मन्त्रों में से प्रथम मन्त्र की व्याख्या में श्री शङ्कराचार्य जी लिखते हैं—असम्भूतिम्=सम्भवनं सम्भूतिः सा यस्य कार्यस्य सा सम्भूतिः, तस्या अन्या असम्भूतिः प्रकृतिः कारणम् ..सम्भूत्यां कार्यब्रह्मणि हिरण्यगर्भाख्ये ।” अर्थात् सम्भवन=उत्पन्न होने का नाम सम्भूति है । वह जिस कार्य का धर्म है उसे सम्भूति कहते हैं । उससे भिन्न को असम्भूति=प्रकृति या कारण कहते हैं । सम्भूति का अर्थ है कार्यब्रह्म हिरण्यगर्भनामक । यहां शाङ्कर-भाष्य में ‘असम्भूति’ का अर्थ तो ठीक किया है, किन्तु सम्भूति का अर्थ पूर्वाग्रह वश कल्पित कर गए । जब ‘असम्भूति’ के अर्थ में ‘सम्भूति’ का अर्थ भी स्पष्ट कर आए हैं तो उससे भिन्नता क्यों ? यदि ‘असम्भूति’ का अर्थ प्रकृति या कारण है तो सम्भूति का अर्थ प्रकृति से उत्पन्न कार्य-जगत् होना चाहिए अथवा शाङ्करभाष्य के अनुसार यदि सम्भूति का अर्थ ‘कार्य-ब्रह्म’ है तो असम्भूति का अर्थ ‘कारण ब्रह्म’ होना चाहिए । अतः शाङ्करभाष्य में किया सम्भूति का अर्थ काल्पनिक है । और हिरण्यगर्भाख्य कार्य-ब्रह्म क्या वस्तु है ? और असम्भूति=प्रकृति क्या है ? क्योंकि अद्वैतवाद में तो ब्रह्म से भिन्न-दूसरी वस्तु होनी ही नहीं चाहिए । यहां श्री शङ्कराचार्य जी ने जगत् के कारण भूत प्रकृति की सत्ता को तो स्वीकार कर लिया किन्तु हिरण्यगर्भाख्य कार्य-ब्रह्म और मान-बैठे । जब ‘स पर्यगात्’ मन्त्र में ब्रह्म को व्यापक सर्वविधशरीरों से रहित, अविनश्वरादि कहा गया है, तब कारण ब्रह्म से कार्यब्रह्म की उत्पत्ति कैसे हो गई ? जब इन मन्त्रों से स्पष्टरूप से जड़-पदार्थों की उपासना-प्रतिषेध किया है, तब इस कार्यब्रह्म=हिरण्यगर्भ का वर्णन यहां कैसे हो सकता है ? अतः यह अर्थ काल्पनिक ही है। दूसरे व तीसरे मन्त्र में असम्भूति व सम्भूति का फल बताया गया है । किन्तु तीसरे मूल मन्त्र में कथित फल की उपेक्षा करके शाङ्कर-भाष्य में लिखा है— “सम्भूतेः कार्यब्रह्मोपासनाद् अणिमाद्यैश्वर्यलक्षणं व्याख्यातवन्त इत्यर्थः। ... असम्भवाद्=असम्भूतेरव्याकृताद् अव्याकृतोपासनात् । यदुक्तमन्धन्तमः प्रविशन्तीति प्रकृतिलय इति च पौराणिकैरुच्यते ।” अर्थात् सम्भूति=कार्यब्रह्म की उपासना से अणिमादि ऐश्वर्यरूप फल प्राप्त होता है और असम्भूति= अव्याकृत (प्रकृति) की उपासना से, जिसे ‘अन्धन्तमः प्रविशन्ति’ इस वाक्य से कह चुके हैं तथा पौराणिक उसे प्रकृतिलय कहते हैं । इस मन्त्र की व्याख्या में श्री शङ्कराचार्य जी ने सम्भूति और असम्भूति की उपासना का फल अणिमादि ऐश्वर्य-प्राप्ति आदि बतलाया है । जब कि इससे पहले मन्त्र में सम्भूति की उपासना करने वालों को घोरतम अन्धकार में प्रविष्ट होना लिखा है । यहां उन्होंने इतना भी विचार नहीं किया कि जिन असम्भूति व सम्भूति की उपासना की प्रथम निन्दा की गई है और जिस से स्पष्ट है कि वे उपासनीय नहीं हैं, तब उनका ऐश्वर्य-प्राप्ति रूप फल कैसे सम्भव है ? और इस मन्त्र में ‘उपासना’ शब्द भी नहीं है । मन्त्र में जिस उपयोगरूप फल का सटेत किया गया है, उसका वर्णन तो अगले मन्त्र में किया गया है । क्या आपके फल में और मन्त्र-प्रोक्त फल में समता है ? यदि नहीं, तो आपकी व्याख्या मूल मन्त्र से विरुद्ध है और तृतीय मन्त्र में उपासना का फल नहीं, प्रत्युत उसकी उपयोगिता का वर्णन ही किया गया है अर्थात् असम्भूति विज्ञान से मृत्यु को पार करता, और सम्भूति विज्ञान से मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । मन्त्र में ‘वेद=जानना’ क्रिया है, उपासना नहीं। इनमें से तीसरे मन्त्र की व्याख्या में श्री शङ्कराचार्य जी लिखते हैं—“सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद् वेदोभयं सह विनाशो धर्मो यस्य कार्यस्य स तेन धर्मिणा अभेदेन उच्यते विनाश इति, तेन तदुपासनेनानैश्वर्यम- धर्मकामादिदोषजातं च मृत्युं तीर्त्वा हिरण्यगर्भोपासनेन ह्यणिमादिप्राप्तिः फलम्, तेनानैश्वर्यादि मृत्युमतीत्य असम्भूत्या अव्याकृतोपासनया अमृतं प्रकृतिलयलक्षणमश्नुते ।” अर्थात् जो पुरुष सम्भूति और विनाश इन दोनों को साथ-साथ जानता है, वह—जिसके कार्य का धर्म विनाश है और उस धर्मी से अभेद होने के कारण जो स्वयं भी विनाश कहा जाता है, उस विनाश की उपासना से अनैश्वर्य, अधर्म तथा कामनादि दोषों से उत्पन्न मृत्यु को पार करके हिरण्यगर्भ (सम्भूति) की उपासना से अणिमादि ऐश्वर्य प्राप्ति रूप फल मिलता है । उससे अनैश्वर्यादि तथा मृत्यु को लांघता है और असम्भूति=अव्याकृत (प्रकृति) की उपासना से अमृत=प्रकृतिलयत्व को प्राप्त होता है । यहां श्री शङ्कराचार्य जी मन्त्रपठित ‘विनाश’ पद के अर्थ को नहीं समझ सके । आपने ‘विनाश’ का अर्थ विनाश होने वाला कार्य पदार्थ किया है । मन्त्र में कार्य-पदार्थ के लिए ‘सम्भूति’ पद जब पढ़ा हुआ है, जिसका उन्होंने स्वयं ‘कार्य-ब्रह्म’ अर्थ किया है । यदि मन्त्र में ‘सम्भूति’ और ‘विनाश’ पदों का एक ही अर्थ है तो मन्त्र में पुनरुक्ति दोष है । यथार्थ में मन्त्र में यह दोष नहीं है, यह व्याख्याकार का दोष है, जो उसको न समझकर अन्यथा व्याख्यान कर गए । ‘नैष स्था- णोरपराधो यदेनमन्धो न पश्यति ।’ मन्त्र के पूर्वार्द्ध में जब श्री शङ्कराचार्य जी गलत व्याख्या कर गए, फिर मन्त्र के उत्तरार्द्ध की सङ्गति कैसे लगती? अब चक्र में पड़ गए और मन्त्र में ही परिवर्तन करने का दुस्साहस कर बैठे । और यह व्याख्या में लिख दिया— “सम्भूतिं विनाशं चेत्यत्रावर्णलोपेन निर्देशो द्रष्टव्यः ।” अर्थात् ‘विनाश’ का अर्थ तो ठीक है, किन्तु ‘सम्भूति’ से पूर्व अवर्णलोप मानना चाहिए । अर्थात् ‘सम्भूति’ को ‘असम्भूति’ करके व्याख्या करनी चाहिए । यहां मन्त्र में परिवर्तन करने का दुस्साहस तो श्री शङ्कराचार्य जी ने किया, परन्तु अपने दोष को न समझ सके । महर्षि दयानन्द ने इस रहस्य को भलीभांति समझा और मन्त्र में विना किसी परिवर्तन के मन्त्रार्थ की सङ्गति लगा दी, यह था मन्त्रद्रष्टा महर्षि का ऋषित्व । महर्षि लिखते हैं कि इस मन्त्र में ‘सम्भूति’ का अर्थ तो ‘कार्य-पदार्थ’ ही है किन्तु ‘विनाश’ का अर्थ कारणरूप प्रकृति है । महर्षि लिखते हैं—‘विनश्यन्त्यदृश्याः पदार्था भवन्ति यस्मिन्’ अर्थात् जिसमें सब कार्यपदार्थ विनष्ट=अदृश्य हो जाते हैं, उसे विनाश=प्रकृति कहते हैं । देखिए कैसी सुन्दर तथा व्याकरणसम्मत व्याख्या है । श्री शङ्कराचार्य जी जो प्रकृति की सत्ता को नहीं मानते, प्रकृति को नित्य मानना तो दूर की बात है, वे इस बात से असमञ्जस में पड़ गये कि ‘विनाश’ का अर्थ प्रकृति कैसे किया जाए ? और इस रहस्य को न समझकर मन्त्र में परिवर्तन कर दिया । धन्य है, श्री शङ्कराचार्य जी की दिव्य बुद्धि को । यदि किसी स्थल पर कोई बात समझ में नहीं आई थी, तो मन्त्र में परिवर्तन की अपेक्षा यही लिख देते कि विद्वान् इस पर विचार कर लेवें । इससे व्याख्याकार का गौरव बढ़ता ही है, घटता नहीं। यह तो प्रथम बतलाया जा चुका है कि इन मन्त्रों में सम्भूति और असम्भूति की उपासना की निन्दा तो की है, किन्तु विधान नहीं । पुनरपि श्री शङ्कराचार्य जी मन्त्रों के रहस्य को न समझकर ‘उपासना’ शब्द का प्रयोग करते रहे हैं । मन्त्रों में सम्भूति तथा असम्भूति के विज्ञान की आत्मा के लिए उपयोगिता ही बतलाई गई है । इस तीसरे मन्त्र में ‘उपासते’ क्रिया नहीं है, अपितु ‘वेद’=जानता क्रिया है । अतः मन्त्र में इनके विज्ञान का ही निर्देश है । पुनरपि श्री शङ्कराचार्य जी विनाश=कार्य पदार्थ की उपासना से अनैश्वर्य अधर्म तथा कामनादि दोषों से उत्पन्न मृत्यु को पार करने का वर्णन कर रहे हैं । मन्त्र में केवल विनाश के विज्ञान से मृत्यु को पार करना एक फल का निर्देश है । श्री शङ्कराचार्य जी अनेक फलों का निर्देश कर रहे हैं अर्थात् आत्मा विनाश से अनैश्वर्य को पार करता है, और अधर्मादि से उत्पन्न मृत्यु को पार करता है । शाङ्कर-भाष्य की अनैश्वर्य को पार करना तथा विनाश के विज्ञान के स्थान पर विनाशोपासना बताना कल्पना ही नहीं, प्रत्युत मूलमन्त्र से विरुद्ध व्याख्या है । इन मन्त्रों में दूसरे व तीसरे मन्त्रों की व्याख्या में शाङ्कर-भाष्य में असम्भूति की उपासना का फल प्रकृतिलय रूप अमृत प्राप्ति बताया है। दूसरे मन्त्र की व्याख्या में अन्धन्तमः=घोर अन्धकार में प्रवेश तथा प्रकृतिलय को स्वयं समान माना है और अब (तीन मन्त्रों में) प्रकृतिलय को ही अमृत कह दिया । क्या प्रकृतिलय और अमृत एक हो सकते हैं? कहां प्रकृतिलय=महादुःखार्णव में डूबना और कहां अमृत=मोक्ष प्राप्ति जिसमें लेशमात्र भी दुःख नहीं है, इन दोनों में आकाश-पातालवत् अन्तर है । इन्हें एक मान कर वेदार्थ करना बहुत ही अविवेकपूर्ण तथा वेद-विरुद्ध कार्य है । मृत्यु को पार करके ‘अमृतम्’ क्या हो सकता है ? ‘अमृतम्’ शब्द स्वयं किस अर्थ को बता रहा है जिसमें मृत्यु आदि का दुःख न हो । क्या उसे प्रकृतिलय=घोर अन्धकारावस्था कहा जा सकता है ? श्री शङ्कराचार्य जी ने अन्यत्र ‘अमृतम्’ शब्द का अर्थ ‘अमरणधर्मकं ब्रह्म’ अर्थात् मोक्ष अथवा ‘अमृतम्=सुखरूपम्’ किया है । देखिए— (१) परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ॥ (मुण्डको० ३।२।६) ‘परामृताः=परममृतम्=अमरणधर्मकं ब्रह्म आत्मभूतं येषां ते ।’ यहां ‘अमृत’ का अर्थ ‘अमरणधर्मक ब्रह्म’ किया है । (२) आनन्दरूपममृतं यद् विभाति ॥ (मुण्डको० २।२।७) “आनन्दरूपं सर्वानर्थदुःखायासप्रहीणं सुखरूपम् अमृतं यद् विभाति।” अर्थात् ‘अमृतम्’ का अर्थ सुखरूप है और वह आनन्दरूप अर्थात् समस्त अनर्थ व दुःखों से रहित है । अतः ‘अमृतम्’ का अर्थ मोक्ष है। इसलिए ‘सम्भूत्यामृतमश्नुते’ की व्याख्या में ‘अमृतम्’ को प्रकृति-लयरूप कहना उनकी व्याख्या से भी विरुद्ध होने से कैसे विद्वदभिनन्दनीय हो सकता है ? (३) ईशावास्योपनिषत् के मन्त्रों में ‘अमृत’ शब्द का पाठ अनेक स्थानों पर आया है । उन स्थानों पर दोनों भाष्यकारों के अर्थ-भेद भी द्रष्टव्य हैं— (क) विद्ययामृतमश्नुते । (११वां मन्त्र) देवताज्ञानेनामृतम्=देवतात्मभावमश्नुते प्राप्नोति । (शा० भा०) अर्थात् देवताज्ञान से “देवत्वभाव” को प्राप्त हो जाता है । विद्यया=आत्मशुद्धान्तःकरणसंयोगधर्मजनितेन यथार्थदर्शनेन अमृतम्= नाशरहितं स्वस्वरूपं परमात्मानं वा अश्नुते ॥ (महर्षिदया० भा०) अर्थात् आत्मा और शुद्ध अन्तःकरण के संयोगरूपधर्म से उत्पन्न यथार्थ ज्ञान से अमृतम्=अविनाशी आत्मस्वरूप या परमात्मा को प्राप्त करता है । (ख) सम्भूत्यामृतमश्नुते ॥ (१४ वां मन्त्र) सम्भूत्या (असम्भूत्या) अव्याकृतोपासनया अमृतम्=प्रकृतिलय- लक्षणमश्नुते । (शा० भा०) अर्थात् अव्यक्तोपासना से “अमृतम्=प्रकृतिलय” रूप अमृत को प्राप्त कर लेता है । सम्भूत्या=शरीरेन्द्रियान्तःकरणरूपयोत्पन्नया कार्यरूपया धर्म्ये प्रवर्त्तयित्र्या सृष्ट्या अमृतम्=मोक्षमश्नुते । (महर्षिदया० भा०) अर्थात् शरीर-इन्द्रिय-अन्तःकरण रूप उत्पन्न होने वाली कार्यरूप, धर्मकार्य में प्रवृत्त कराने वाली सृष्टि के सहयोग से “अमृतम्=मोक्षसुख” को प्राप्त करता है । (ग) वायुरनिलममृतम्० ॥ (१७ वां मन्त्र) वायुः=प्राणोऽध्यात्मपरिच्छेदं हित्वाधिदैवतात्मानं सर्वात्मकमनिल- ममृतं=सूत्रात्मानं प्रतिपद्यताम् ॥ (शा० भा०) अर्थात् मरने वाले का वायु (प्राण) अपने अध्यात्म परिच्छेद को त्यागकर अधिदैवरूप सर्वात्मक वायुरूप “अमृत=सूत्रात्मा” को प्राप्त हो। अत्रस्थो वायुः धनञ्जयादिरूपः अनिलं कारणरूपं वायुम् अनिलेऽमृतं नाशरहितं कारणं धरति । (महर्षिदया० भा०) अर्थात् यहां विद्यमान धनञ्जयादि रूप वायु कारणरूप वायु को और “अमृतं=नाशरहितकारणं” को धारण करता है । उपर्युक्त तीनों उद्धरणों में शाङ्कर-भाष्य के अनुसार ‘अमृतं’ शब्द का अर्थ है—“देवत्व-भाव” “प्रकृतिलय” और “सूत्रात्मा वायु” । और महर्षि दयानन्द के अनुसार “अविनाशी आत्मस्वरूप या परमात्मा” “मोक्षसुख” और “नाशरहित कारण” अर्थ हैं । दोनों भाष्यकारों के अर्थों में सब से महान् अन्तर यह है कि शाङ्कर-भाष्य में शाब्दिक अर्थ (यौगिक) पर कोई ध्यान नहीं दिया है, किन्तु महर्षि ने प्रकरणानुसार जो भी अर्थ किए हैं, उन सब में ‘अमृतम्’ शब्द का यौगिकार्थ का परित्याग कहीं भी नहीं हुआ है । अतः उनके अर्थ में जो अर्थ-गाम्भीर्य तथा सङ्गति है, वह शाङ्कर-भाष्य में नहीं है । शाङ्कर-भाष्य में ‘अमृतम्’ पद का अर्थ अमृतत्व=मोक्ष क्यों नहीं किया, यह श्री शङ्कराचार्य जी ने स्वयं लिखा भी है— ‘‘विद्याशब्देन मुख्या परमात्मविद्यैव कस्मान्न गृह्यतेऽमृतत्वञ्च । ननूक्तायाः परमात्मविद्यायाः कर्मणश्च विरोधात् समुच्चयानुपपत्तिः ।” (ईशावास्यो० १८वां मन्त्र) अर्थात् विद्या शब्द से परमात्म-विद्या का और ‘अमृत’ शब्द से “अमृतत्व” (मोक्ष) का ग्रहण क्यों नहीं करते ? परमात्मविद्या और कर्म का विरोध होने से उनका समुच्चय नहीं हो सकता । इससे स्पष्ट है कि एक मत में पूर्वनिर्धारित धारणा के अनुसार ‘विद्या’ तथा ‘अमृतादि’ शब्दों के अर्थों को जानते हुए भी मिथ्या अर्थ किए गए हैं । क्या ऐसा करना विद्वानों को शोभा दे सकता है ? श्री उव्वट ने यहां प्रथम मन्त्र की व्याख्या में ‘असम्भूति’ पद का अर्थ अपुनर्जन्म, और सम्भूति का अर्थ आत्मज्ञान किया है । वे लिखते हैं—येऽसम्भूतिमुपासते, मृतस्य सतः पुनः सम्भवो नास्ति, अतः शरीरग्रहणाद- स्माकं मुक्तिरेव । न हि विज्ञानात्मा कश्चिदनुच्छित्तिधर्माऽस्ति यो यमनियमैः सम्बध्यते ..। ये सम्भूत्यामेव रताः ..आत्मज्ञान एव रताः । (उव्वटभाष्य) समीक्षा—ये तीन मन्त्र इस प्रकार के हैं कि असम्भूति और सम्भूति का जो भी कोई अर्थ स्वीकार किया जाए, वह सर्वत्र घटना चाहिए । यदि स्वीकृत अर्थ कहीं घटता है और कहीं नहीं तो यह समझ लेना चाहिए कि अर्थ में अवश्य कोई दोष है । यहां प्रथम मन्त्र में असम्भूति और सम्भूति पद हैं । द्वितीय मन्त्र में इन्हीं के पर्यायवाची असम्भव और सम्भव पद हैं । तृतीय मन्त्र में असम्भूति का पर्यायवाची ‘विनाश’ पद है । सम्भूति शब्द प्रथम मन्त्र के तुल्य वही है । श्री उव्वट ने द्वितीय मन्त्र में असम्भव और सम्भव पद का कोई अर्थ नहीं किया। तृतीय मन्त्र में सम्भूति का अर्थ परब्रह्म और विनाश का अर्थ विनाशी शरीर किया है । यहां तृतीय मन्त्र में सम्भूति का एक नया अर्थ और कर डाला—परब्रह्म । और विनाश पद का भी विनाशी शरीर प्रथम मन्त्र के अर्थ से भिन्न अर्थ किया है । । असम्भूति पद का प्रथम मन्त्र में अपुनर्जन्म तथा तृतीय मन्त्र में विनाशी शरीर । श्री उव्वट स्थान स्थान पर असम्भूति और सम्भूति का अर्थ बदल रहे हैं । अतः उनके किए पदार्थों पर स्वयम् उन्हें सन्तोष नहीं । श्री उव्वट ने सम्भूति पद का अर्थ प्रथम मन्त्र में आत्मज्ञान तथा तृतीय मन्त्र में परब्रह्म किया है । प्रथम मन्त्र में सम्भूति=आत्मज्ञान से घोर अन्धकार की प्राप्ति का वर्णन किया जा रहा है और तृतीय मन्त्र में सम्भूति=परब्रह्म के ज्ञान से अमृत की प्राप्ति बतलाई जा रही है । यह अर्थ परस्पर विरोधी होने से अशुद्ध है । और विनाश पद का जो शरीरग्रहण अर्थ किया है सो भी तर्कसंगत नहीं । शरीरग्रहण से मृत्यु का भय दूर नहीं होता, अपितु भय उत्पन्न होता है । अतः उव्वट के सम्भूति और असम्भूति पदों के अर्थ मिथ्या हैं ।


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