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ईशा वास्योपनिषद मंत्र - 15 हिन्दी भाष्य सहित

 हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥ १५ ॥ 
स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
प० क्र० – (हिरण्मयेन) चमकीले । (पात्रेण) ढक्कन से । (सत्यस्य) सत्य का । (अपिहितम्) ढका हुआ है । (मुखम्) मुख । (तत्) उसे । (त्वम्) तू । (पूषन्) उन्नति चाहने वाले जीव । (अपावृणु) खोल । (सत्यधर्माय) सत्य धर्म के । (दृष्टये) दिखाने के लिये । अर्थ- चमकीले वस्तुओं की कामना के ढकने से सत्यता का मुख ढका हुआ है । यदि तुम अपनी उन्नति की इच्छा रखते हो तो जब तक सत्य का ज्ञान न हो जाय, तब तक सत्यता पर आचरण नहीं कर सकते और जब तक आचरण न हो, तब तक उन्नति नहीं हो सकती । इस ढकने को उठा दो अर्थात् चमकीली वस्तुओं की कामना को छोड़ दो । इस मन्त्र का तात्पर्य यह है कि जिस मनुष्य के हृदय मे चमकीली वस्तुओ की इच्छा हो, वह कभी सत्यता से जीवन व्यतीत कर सकता । चमकीली वस्तुओं मे लोभ और काम होता है और लोभी और कामी पुरुष किसी दशा में विश्वसनीय नहीं हो सकता । आजकल जितनी बुराइयाँ दृष्टिगोचर होती हैं, वह सब इन्ही चमकीली वस्तुओं के कारण है । यदि कोई न्यायालय में मिथ्या बोलता है, तो चमकीली वस्तुओ के लोभ से, यदि कोई झूठा बही या दस्तावेज बनाता है, तो चमकीली वस्तुओ की इच्छा से, यदि चोर चोरी करता या डाकू डाका मारता है, तो चमकीली वस्तुओं की कामना से । संक्षेपतः मनुष्य को मोक्ष से दूर रखने, वाली और दिन रात दुःख-समुद्र में डुबाने वाली केवल यही चांडालिनी कामना है और जब तक मनुष्य इस कामना से पृथक् नहीं हो जाता, तब तक दुःखों से छूटना और उन्नति करना असम्भव है ।
आचार्य राजवीर शास्त्री
पदार्थः—(हिरण्मयेन) ज्योतिर्मयेन (पात्रेण) रक्षकेण (सत्यस्य) अविनाशिनः यथार्थस्य कारणस्य (अपिहितम्) आच्छादितम् (मुखम्) मुखवदुत्तमाङ्गम् (यः) (असौ) (आदित्ये) प्राणे सूर्यमण्डले वा (पुरुषः) पूर्णः परमात्मा (सः) (असौ) अहम्) (ओ३म्) योऽवति सकलं जगत्तदाख्यं (खम्) आकाशवद्व्यापकम् (ब्रह्म) सर्वेभ्यो गुणकर्म- स्वरूपतो बृहत् ॥१७॥ अन्वयः—हे मनुष्या येन हिरण्मयेन पात्रेण मया सत्यस्यापिहितं मुखं विकाश्यते, योऽसावादित्ये पुरुषोऽस्ति सोऽसावहं खम्ब्रह्मास्म्यो३मिति विजानीत ॥१७॥ सपदार्थान्वयः — हे मनुष्याः ! येन हिरण्मयेन ज्योति- र्मयेन पात्रेण रक्षकेण मया सत्यस्य अविनाशिनः यथार्थस्य कारणस्य अपिहितम् आच्छादितं मुखं मुख- वदुत्तमाङ्गं विकाश्यते; योऽसा- वादित्ये प्राणे सूर्यमण्डले वा पुरुषः पूर्णः परमात्मा अस्ति, सोऽसावहं खम् आकाशवद्व्यापकं ब्रह्म सर्वेभ्यो गुणकर्मस्वरूपतो बृहत् अस्म्यो३म् योऽवति सकलं जगत्तदाख्यम् इति विजानीत ॥४०।१७॥ भावार्थ—सर्वान् मनुष्यान् प्रतीश्वर उपदिशति—हे मनुष्याः ! योऽहमत्राऽस्मि, स एवाऽन्यत्र सूर्यादौ, योऽन्यत्र सूर्यादावस्मि स एवात्रास्मि; सर्वत्र परिपूर्णः, खवद् व्यापको न मत्तः किञ्चिदन्यद् बृहद्, अहमेव सर्वेभ्यो महानस्मि । भाषार्थ—हे मनुष्यो ! जिस (हिरण्मयेन) ज्योति से परिपूर्ण (पात्रेण) सब के रक्षक मेरे द्वारा (सत्यस्य) कभी नष्ट न होने वाले सत्रूप कारण [प्रकृति] का (अपिहितम्) ढके हुए (मुखम्) मुख के समान उत्तम अङ्ग का विकास किया जाता है; (यः) जो (असौ) वह (आदित्ये) प्राण व सूर्यमण्डल में (पुरुषः) पूर्ण परमात्मा है (सः) वह (असौ) परोक्ष (अहम्) मैं—(खम्) आकाश के समान व्यापक, (ब्रह्म) गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से सब से बड़ा हूं, (ओ३म्) मैं सब जगत् का रक्षक ‘ओ३म् हूं; ऐसा जानो॥४०।१७ भावार्थ—सब मनुष्यों को ईश्वर उपदेश करता है । हे मनुष्यो ! जो मैं यहां हूं, वही अन्यत्र सूर्य आदि में हूं और जो अन्यत्र सूर्यादि में हूं वही यहां हूं । मैं सर्वत्र परिपूर्ण, आकाश के समान व्यापक हूं; मुझ से कोई भी दूसरा बड़ा नहीं है, मैं ही सब से महान्= बड़ा हूं । मदीयं सुलक्षणपुत्रवत्प्राणप्रियं निजस्य नाम ओमिति वर्त्तते । यो मम प्रेमसत्याचरणभावाभ्यां शरणं गच्छति; तस्याऽन्तर्यामि- रूपेणाऽहमविद्यां विनाश्य, तदात्मानं प्रकाश्य, शुभगुणकर्मस्वभावं कृत्वा, सत्यस्वरूपाऽऽचरणं स्थापयित्वा, शुद्धं योगजं विज्ञानं दत्त्वा, सर्वेभ्यो दुःखेभ्यः पृथक्कृत्य मोक्षसुखं प्रापया- मीत्योम् ॥४०।१७॥ सुलक्षण पुत्र के तुल्य प्राणों से प्रिय मेरा अपना नाम ‘ओम्’ है। जो मेरी प्रीति और सत्याचरण के भावों से शरण=भक्ति को प्राप्त करता है, तो मैं उसकी अन्तर्यामी रूप से अविद्या को विनष्ट करके, उसकी आत्मा को प्रकाशित कर,उसके शुभ गुण, कर्म, स्वभाव बनाकर, सत्य के स्वरूप का आचरण स्थापित कर, योग से उत्पन्न हुए शुद्ध विज्ञान को देकर, सब दुःखों से छुड़ाकर, मोक्ष-सुख को प्रदान करता हूं । यजुर्वेद भाष्य की समाप्ति पर अन्त में ‘ओ३म्’ नाम का स्मरण किया है ॥ आदित्ये=सूर्यादौ । पुरुषः=अहमीश्वरः । खम्=सर्वत्र परिपूर्णः सर्वव्यापकः । ब्रह्म=सर्वेभ्यो महान् । ओ३म्=सुलक्षणपुत्रवत्प्राणप्रियं नाम । सत्यस्य=सत्यस्वरूपस्य ॥ भाष्यसार—अन्त में मनुष्यों को ईश्वर का उपदेश—मैं ज्योतिर्मय, रक्षक ईश्वर—सत्य अर्थात् अविनाशी, यथार्थ, कारण (प्रकृति) के आच्छादित मुख को खोलता हूं । जो मैं यहां हूं, सो ही सूर्यादि में हूं और जो अन्यत्र सूर्यादि में हूं, सो ही यहां हूं । मैं सर्वत्र परिपूर्ण, आकाश के तुल्य व्यापक हूं । मुझ से कोई और बड़ा नहीं है । मैं ही गुण, कर्म, स्वभाव से सब से बड़ा हूं । जैसे उत्तम लक्षणों से युक्त पुत्र प्राणों के तुल्य प्रिय हाेता है वैसे सब से प्यारा निज नाम ‘ओ३म्’ है । प्रेमभाव और सत्याचरण से जो मेरी शरण में आता है मैं अन्तर्यामी रूप से उसकी अविद्या का विनाश करता हूं । उसकी आत्मा को प्रकाशित करता हूं । उसके शुभ गुण, कर्म, स्वभाव बनाता हूं । उसमें सत्यस्वरूप आचरण को स्थापित करता हूं । शुद्ध योगज विज्ञान का दान करता हूं । सब दुःखों से पृथक् करके मोक्ष-सुख प्राप्त कराता हूं । इति ओ३म् ॥४०।१७॥ अन्यत्र व्याख्यात—(क) “ओ३म् खम्ब्रह्म” ॥१॥ (यजु० ४०।१७) ॥ देखिये वेदों में ऐसे-ऐसे प्रकरणों में ओ३म् आदि परमेश्वर के नाम हैं । (सत्यार्थप्रकाश, प्रथम समुल्लास) (ख) ‘ओ३म् खं ब्रह्म (यजु० अ० ४०) ॥ ओमिति ब्रह्म । तैत्तिरीयारण्यके । प्र० २ । अनु० ८॥ ओम् और खं ये दोनों ब्रह्म के नाम हैं । (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदविषयविचार) समीक्षा—उपर्युक्त व्याख्या यजुर्वेद के ४०वें अध्याय के १७वें मन्त्र की है । ईशावास्योपनिषद् में इस मन्त्र के स्थान पर निम्न दो मन्त्रों का पाठ है— हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥१॥ पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह, तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि । यो ऽ सावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि ॥२॥ वेद और उपनिषद् के मन्त्रों में पाठभेद होते हुए भी अर्थ में कोई विशेष अन्तर नहीं है । इन मन्त्रों में परमात्मा के कल्याणादि गुणों का वर्णन करके यह बताया गया है कि जो परमात्मा कल्याणकारक गुणों वाला पुरुष है, उसके गुणों को धारण करके मैं वैसा पुरुष होऊं । यहां तद्धर्मतापत्ति द्वारा उस परमात्मा के अपहतपाप्मादि गुणों को प्राप्त करके परमात्मा के सदृश होने का वर्णन है । उपनिषद् में जो व्याख्यारूप अधिक मन्त्र है, उसमें भी इसी बात को और स्पष्ट करके कहा है—“यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि” अर्थात् योगी परब्रह्म के अत्यधिक सान्निध्य में होकर उसके कल्याणकारक गुणों का साक्षात्कार (अनुभव) करने लगता है । इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि जीव ब्रह्म हो जाता है । महर्षि व्यास ने इस तथ्य को समझाते हुए स्पष्ट लिखा है—“शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत्” ॥ ब्र० सू० १।१।३० अर्थात् परब्रह्म के गुणों का लाभ करके ही वामदेवादि ऋषियों ने अपने को ब्रह्मरूप कथन किया है । इस मन्त्र के ‘सोऽहमस्मि’ वाक्य को लेकर ही अद्वैतवाद का भवन खड़ा किया गया है । किन्तु इससे उनके अद्वैतवाद की पुष्टि नहीं होती। यह परमयोगी की उच्चतम स्थिति में परब्रह्म के गुणों को धारण करने तथा सांसारिक पदार्थों से विरक्ति में ऐसा कहा गया है । जैसे लोक में भी अपेक्षाकृत सादृश्य देखकर अतद्वस्तु में तद्वस्तु का नाम कहने में आता है । यथार्थ में वे दोनों भिन्न-भिन्न ही होती हैं । यदि अद्वैतवाद का लेशमात्र भी भाव ‘जीव-ब्रह्म की एकता’ का यहां होता तो ‘अग्ने नय सुपथा०’ इस अगले मन्त्र में सन्मार्ग पर चलाने, पाप से निवृत्त होने तथा बार-बार नमस्कार-वचन कहने की क्या आवश्यकता थी ? और जीव-ब्रह्म की एकता होने पर कौन किससे प्रार्थना करेगा ? और ‘सोऽसावहम्’ अथवा ‘सोऽहमस्मि’ ये वाक्य मन्त्र में वर्णित विषय से ही सम्बद्ध हैं, पृथक् नहीं हैं । मन्त्र में परमात्मा का वर्णन करते हुए कहा गया है— “जो परमात्मा प्राण या सूर्यमण्डल में पुरुष (पुरि शयनात्) पूर्ण है, और जो खम्=आकाश के समान व्यापक, ब्रह्म=गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से सब से बड़ा है और ओ३म्=सब जगत् का रक्षक होने से ‘ओ३म्’ जिसका निज नाम है, वह असौ=परोक्ष मैं अर्थात् परब्रह्म हूं ।” यहां जीव ब्रह्म की एकता की कोई बात नहीं है । और मन्त्र के पूर्वार्द्ध में भी परब्रह्म का ही वर्णन है—“हिरण्मय=ज्योति से परिपूर्ण पात्र=सब के रक्षक परब्रह्म के द्वारा सत्यस्य मुखम्=सत्रूप कारण (प्रकृति) का मुख के सदृश मुख्य परम सूक्ष्म तत्त्वों को आच्छादित कर रक्खा है ।” अतः मायावादी अद्वैतवाद की सिद्धि इस मन्त्र से कदापि नहीं होती । प्रकरण से विरुद्ध अर्थ मूल मन्त्र से विरुद्ध ही कहलायेगा । श्री शङ्कराचार्य जी इस मन्त्र की व्याख्या में लिखते हैं—“जो सोने का सा हो, उसे ‘हिरण्मय’ कहते हैं अर्थात् जो ज्योतिर्मय है, उस ढकने रूप पात्र से ही आदित्यमण्डल में स्थित सत्य=ब्रह्म का मुख-द्वार छिपा हुआ है ।” १ यहां शाङ्कर-भाष्य में ‘सत्य’ पद का अर्थ किया है आदित्यमण्डल में स्थित ब्रह्म और उसका मुख (द्वार) ज्योतिर्मय आच्छादन (पात्र) से ढका बताया है । जो ब्रह्म ‘स पर्यगात्०’ मन्त्र में सर्वत्र व्यापक अकायम्=शरीररहित तथा ‘अव्रणम्’=छिद्र- रहित बताया है, उसी ब्रह्म को आदित्य मण्डलस्थ बतलाना, उसका मुख बताना तथा ज्योतिर्मय ढकने से ढका हुआ कहना क्या ब्रह्म की व्यापकता को सिद्ध कर (१) “हिरण्मयमिव हिरण्मयं ज्योतिर्मयमित्येतत् । तेन पात्रेणैव अपिधानभूतेन सत्यस्यैवादित्यमण्डलस्थस्य ब्रह्मणोऽपिहितम् आच्छादितं मुखं द्वारम् ।” (शा० भा०) सकता है ? और ज्योतिर्मय ढक्कन क्या वस्तु है ? इसका स्पष्टीकरण शाङ्कर-भाष्य में कुछ भी नहीं किया । ‘ईशावास्य०’ मन्त्र में जगत् के सभी चराचर पदार्थ ईश=परब्रह्म से व्यापक होने से आच्छादित बताए हैं, और यहां उसी ब्रह्म को हिरण्मय पात्र से ढका बताना क्या परस्पर विरुद्ध नहीं है ? क्या ऐसी परस्पर विरोधी व्याख्या सत्य हो सकती है ? वास्तव में ‘पात्र’ ‘सत्य’ आदि पदों की व्याख्या शाङ्कर-भाष्य से बिल्कुल स्पष्ट नहीं होती । इनके यौगिकार्थ तथा निरुक्तादि में वर्णित अर्थों पर यदि ध्यान दिया जाता तो सत्यार्थ स्पष्ट हो सकता था । ‘पात्र’ का अर्थ ढक्कन केवल लौकिकार्थ की दृष्टि से ही कर दिया है । और इस पद के अस्पष्ट होने से समस्त अर्थ ही स्पष्ट न हो सका । और मन्त्र के उत्तरार्द्ध की व्याख्या भी शाङ्कर-भाष्य में बिल्कुल असङ्गत की है— “योऽसावादित्यमण्डलस्थो व्याहृत्यवयवः पुरुषः पुरुषाकारत्वात् पूर्णं वानेन प्राणबुद्ध्यात्मना जगत्समस्तमिति पुरुषः पुरि शयनाद्वा पुरुषः सोऽहमस्मि।” अर्थात् जो यह आदित्य मण्डलस्थ तथा व्याहृतिरूप अङ्गों वाला पुरुष है, और जो पुरुषाकार होने से अथवा जो प्राण-बुद्धिरूप से समस्त जगत् को पूर्ण किए हुए है, जो शरीररूप पुर में शयन करने के कारण पुरुष है, वह मैं ही हूं । यहां सब जगत् में पूर्ण परब्रह्म, आदित्यमण्डलस्थ ब्रह्म और शरीरस्थ पुरुष क्या एक ही हैं, अथवा भिन्न-भिन्न ? यदि यह कथन परब्रह्मपरक ही होता, क्योंकि वह व्यापक होने से सब वस्तुओं में विद्यमान है, तब तो कुछ ठीक होता किन्तु आदित्यमण्डलस्थ आदि कहकर उसके व्यापकत्व में सन्देह ही पैदा नहीं किया, प्रत्युत शरीरस्थ और प्राण-बुद्धि आदि जिसके अधीन हैं, ये एकदेशी जीवात्मापरक बातें परब्रह्म में कदापि सङ्गत नहीं हो सकतीं । ‘पुरुष’ शब्द का अर्थ संसाररूप पुर=नगर में शयन=स्थित होने से परमात्मा और इस शरीररूप पुर=नगर में शयन करने से जीवात्मा भी पुरुष है । दोनों में व्यापक-व्याप्य, सेवक-सेव्य, उपासक-उपासनीयादि सम्बन्ध तो कहे जा सकते हैं, किन्तु दोनों को एक कहना मूलमन्त्रार्थ से विरुद्ध तथा मिथ्या कल्पना ही है । और शरीरस्थ प्राण व बुद्धि आदि यदि परब्रह्म के अधीन हैं तो पाप-पुण्यादि का कर्त्ता भी ब्रह्म ही होगा और फिर भोक्तृभाव से भी कैसे बच सकता है ? क्या परब्रह्म स्वयं किए हुए कर्मों का फल स्वयं को ही देता है । अतः शरीरस्थ प्राण व बुद्धि आदि जीवात्मा के अधीन हैं, ब्रह्म के नहीं । इन मिथ्यावादी नवीन वेदान्तियों ने परब्रह्म को भी अपने समान मायाजाल में फंसाने तथा पाप-पुण्य का कर्त्ता बनाकर स्वयं को निष्क्रिय बना लिया है । और स्वयं को परब्रह्म बताकर तथा कर्त्तव्य-विमुख होकर स्वयं को पापों से ग्रस्त करते रहते हैं, और सांसारिक लोगों का कोई उपकार न करके उनके ऊपर व्यर्थ में भार बने रहते हैं । ऐसी अवैदिक मान्यताओं को मानकर वेद-विरुद्ध शिक्षाओं के प्रचार से जो आत्मघात का महान् पाप ये करते हैं, इससे क्या वे कभी मुक्त हो सकते हैं ? ईश्वरीय व्यवस्था तथा अटल नियमों के बन्धन से कोई भी प्राणी बच नहीं सकता, चाहे कोई अपने को कितना ही शाङ्करमत का अनुयायी मानकर ब्रह्म मानता रहे, किन्तु सर्वत्र व्यापक कल्याणकारी शङ्कर की त्रिशूलसम कठोर न्याय-व्यवस्था को कौन भङ्ग कर सकता है ? चाहे साधु हो, अथवा अन्य आश्रमवासी हो, ब्रह्मचारी हो या गृहस्थी, बालक हो या वृद्ध, अज्ञानी हो या ज्ञानी, प्रत्येक को अपने किए कर्मों का फल स्वयम् अवश्य ही भोगना पड़ता है संस्कृत में ठीक ही कहा है— अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ यहां श्री शङ्कराचार्य से भिन्न दूसरे भी सभी भाष्यकार ‘पात्र’ शब्द को देखकर अधिक भ्रान्त हुए हैं । ‘पात्र’ शब्द का ‘ढक्कन’ अर्थ करने पर मन्त्र के पूर्वार्द्ध के साथ उत्तरार्द्ध की कोई सङ्गति ठीक नहीं लगती। महर्षि दयानन्द ने ‘पात्र’ शब्द का व्याकरण के उणादिकोष के (४।१५९) सूत्रानुसार यौगिकार्थ करके मन्त्र के पूर्वार्द्ध तथा उत्तरार्द्ध की बहुत ही अच्छी सङ्गति लगाई है । पूर्वार्द्ध तथा उत्तरार्द्ध के अर्थों में यदि कोई सङ्गति नहीं है तो वह अर्थ प्रकरणविरुद्ध होने से दोषपूर्ण ही कहलायेगा।


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