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ईशा वास्योपनिषद मंत्र 6 हिन्दी भाष्य सहित

यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति । सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥ ६ ॥ 

स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

प० क्र०— (यः) जो । (तु) तो । (सर्व्वाणि) सब । (भूतानि) प्राणियों को । (आत्मनि) अपने में । (एव) ही (अनुपश्यति) सूक्ष्म दृष्टि से देखता है । (ततः) फिर अज्ञान से । (न) नही । (विजुगुप्सते) निन्दित काम करता है । अर्थ- जो मनुष्य प्रत्येक प्राणी के दुःख को अपना दुःख समझकर, प्रत्येक जीव मे अपनापन अर्थात् आत्मभाव रखता है, अथवा जो मनुष्य प्रत्येक जीवात्मा और पंचभूतों के भीतर दशा परमात्मा को विद्यमान देखता है और सर्व संसार को परमात्मा से छोटा होने के कारण उस (ब्रह्म) के भीतर विद्यमान देखता है वह मनुष्य कभी पाप-कर्म नहीं करता । क्योंकि पाप सदा उस में होता है, जब कि स्वार्थवश दूसरों के अधिकार अपहरण का ध्यान लगा रहता है । अन्य के अधिकार अपहरण का साहस तब होता है जब अपने से अधिक दण्ड देने वाली बलवती शक्ति न मानी जाय । जब अपने से अधिक बलवाली शक्ति दण्ड देने वाली प्रतीत होती है, तब इस भय से कि अपराध करने के पश्चात् दण्ड से बचा रहना बहुत कठिन है और दण्ड से द्वेश होता है । फिर दुःख भोगने की इच्छा से कोई कर्म नहीं किया जाता । अतः प्रत्येक वस्तु के भीतर परमात्मा को समझने वाला मनुष्य कभी पाप नही कर सकता । प्रश्न— केवल पाप से बचने के लिये परमात्मा को सर्वत्र मानने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि यह कार्य तो राज्य के भय से भी चल सकता है । देखो, आजकल अंग्रेजी राज्य के प्रबन्ध से पापों की कितनी कमी हो गई है । उत्तर- अल्पज्ञ और एक देशीय जीवात्मा के भय से यह काम नही चल सकता । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आजकल भी मिलता है । अंग्रेजी गवर्नमेंट के नियमों में रिशवत लेना अपराध है, परन्तु प्रत्येक न्यायालय के कर्मचारी दोनों हाथो से रिश्वत लेते है । पुलिस तो प्राय रिश्वत लेकर अपराधियों को बचा निरपराधियों को फाँसी तक दिला देती है । जिस गवर्नमेण्ट के भय से उसके कर्मचारी जिनका सम्बन्ध रात-दिन अफसरों से पड़ता है, डर न खाकर रात-दिन पाप करते हैं, तो उस गवर्नमेंट से भय खाकर गुप्त प्रकार से पाप करने-वाले किस भाँति पाप करने से बच सकते हैं । मनुष्य को पाप से बचानेवाला ईश्वर के ज्ञान के सिवाय और कोई नही है । प्रश्न- यदि राज्य भय से पाप दूर नहीं हो सकते, तो फिर वेदों मे राज्य के नियम और राज्य की आवश्यकता क्यो बतलाई है ? उत्तर- परमात्मा सब जगत् के भीतर रहकर भी कर्मों का फल दूसरों के द्वारा दिलाता है, इसलिये राज्य-नियम का उपदेश किया गया । राज्य-नियम को कर्मों का फल-दाता मानने से ही पाप दूर हो सकते है ! प्रश्न- इसका क्या कारण है कि राज्य के उद्योग से भी पाप की जड़ दूर नहीं हो सकती ? उत्तर- राजा अल्पज्ञ अर्थात् थोड़े ज्ञानवाला होता है उसकी शक्ति भी अल्पज्ञ और सीमावाले शरीर पर प्रभाव रखती है । मन और आत्मा पर उसका कुछ भी प्रभाव नही पड़ता । राजा के दण्ड से भी शरीर ही बन्दीगृह में होता है ; मन कैद नही हो सकता । पाप की जड़ मन है । अतः मन से अधिक सूक्ष्म परमात्मा ही केवल उसको नाश कर सकता है । प्रश्न— क्या शक्ति सूक्ष्म में ही होती है ? हम तो यह देखते है कि जो अधिक स्थूल वस्तु है, वह अधिक शक्तिशाली होती है और साधरणतः स्थूल वस्तु ही शक्तिवाली देखी जाती है । उत्तर- शक्ति सदा सूक्ष्म वस्तु में रहती है । जो जिसको भीतर प्रवेश कर सकता है, वही उसका ठीक प्रकार से संशोधन कर सकता है । जल मिट्टी की अपेक्षा सूक्ष्म है, वह मिट्टी की दीवार को गिरा सकता है, अग्नि जल को उड़ा सकती है वायु अग्नि को पृथक कर सकती है । इस प्रकार परमात्मा, जो सबसे सूक्ष्म है, वही मन को शुद्ध कर सकता है । आगे मंत्र में इसका और भी समर्थन किया है—

आचार्य राजवीर शास्त्री

पदार्थः—(यः) विद्वान् जनः (तु) पुनरर्थे (सर्वाणि) अखिलानि (भूतानि) प्राण्यप्राणि-रूपाणि (आत्मन्) परमात्मनि (एव) अनुपश्यति) विद्याधर्मयोगाभ्यासानन्तरं समीक्षते (सर्वभूतेषु) सर्वेषु प्रकृत्यादिषु (च) (आत्मानम्) अतति=सर्वत्र व्याप्नोति तम् (ततः) तदनन्तरम् (न) (वि) (चिकित्सति) संशयं प्राप्नोति ॥६॥ अन्वयः—हे मनुष्याः ! य आत्मन्नेव सर्वाणि भूतान्यनुपश्यति, यस्तु सर्वभूतेष्वात्मानं च समीक्षते, स ततो न विचिकित्सतीति यूयं विजानीत ॥६॥ सपदार्थान्वयः— हे मनुष्याः ! यः विद्वान् जनः आत्मन् परमात्मनि एव सर्वाणि अखिलानि भूतानि प्राण्यप्राणिरूपाणि अनु+ पश्यति विद्याधर्मयोगाभ्यासानन्तरं समीक्षते । यः विद्वान् जनः तु पुनः सर्वभूतेषु सर्वेषु प्रकृत्यादिषु आत्मानम् अतति=सर्वत्र व्याप्नोति तं च समीक्षते स ततः तदनन्तरं न वि+चिकित्सति (ततः) संशयं प्राप्नोति इति यूयं विजानीत ॥४०।६॥ भाषार्थ—हे मनुष्यो ! (यः) जो विद्वान् जन (आत्मन्) परमात्मा में ही (सर्वाणि) सब (भूतानि) जड़ चेतनों को (अनुपश्यति) विद्या, धर्माचरण और योगाभ्यास के पश्चात् देखता है । (यः तु) और जो विद्वान् (सर्वभूतेषु) सब प्रकृत्यादि पदार्थों में (आत्मानम्) सर्वत्र व्यापक परमात्मा को देखता है, वह ऐसे सम्यग्दर्शन के पीछे (न, वि चिकित्सति) सर्वथा सन्देह को प्राप्त नहीं होता, ऐसा तुम जानो ॥ भावार्थः—हे मनुष्याः ! ये सर्वव्यापिनं, न्यायकारिणं, सर्वज्ञं, सनातनं, सर्वात्मानं सर्वस्य द्रष्टारं परमात्मानं विदित्वा, सुख-दुःख- हानि-लाभेषु स्वाऽऽत्मवत् सर्वाणि भूतानि विज्ञाय, धार्मिका जायन्ते, त एव मोक्षमश्नुवते ॥४०॥६॥ भावार्थ—हे मनुष्यो ! जो लोग सर्वव्यापक, न्यायकारी, सर्वज्ञ, सनातन, सर्वात्मा सब के द्रष्टा परमात्मा को जानकर; सुख-दुःख और हानि-लाभ में अपने आत्मा के समान सब प्राणियों को समझकर, धार्मिक बनते हैं वे ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं ॥४०।६॥ भा॰ पदार्थः—आत्मनि=सर्वस्य द्रष्टरि परमात्मनि । न विचिकित्सति=धार्मिको जायते, मोक्षमश्नुते ॥४०।६॥ भाष्यसार—ईश्वर-विषयक उपदेश—जो विद्वान् मनुष्य—परमात्मा में सब प्राणी=चेतन और अप्राणी=जड़रूप भूतों को विद्या, धर्म और योगाभ्यास के उपरान्त भली-भांति देखता है; तथा सब प्रकृति आदि पदार्थों में परमात्मा को व्यापक रूप में देखता है । तात्पर्य यह है कि परमात्मा को सर्वव्यापक, न्यायकारी, सर्वज्ञ, सनातन, सर्वात्मा और सब का द्रष्टा समझता है; सुख-दुःख और हानि-लाभ में अपने आत्मा के तुल्य सब प्राणियों को जानता है; संशय को प्राप्त नहीं होता । वह सन्देह-रहित हो जाता है । वह धार्मिक बन जाता है और मोक्ष को प्राप्त करता है ॥४०।६॥ अन्यत्र व्याख्यात—(यः) जो संन्यासी (तु) पुनः (आत्मन्नेव) आत्मा में अर्थात् परमेश्वर ही में तथा अपने आत्मा के तुल्य (सर्वाणि भूतानि) सम्पूर्ण जीव और जगत्स्थ पदार्थों को (अनुपश्यति) अनुकूलता से देखता है; (च) और (सर्वभूतेषु) सम्पूर्ण प्राणी, अप्राणियों में (आत्मानम्) परमात्मा को देखता है; (ततः) इस कारण वह किसी व्यवहार में (न विचिकित्सति) संशय को प्राप्त नहीं होता अर्थात् परमेश्वर को सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वसाक्षी जान के अपने आत्मा के तुल्य सब प्राणिमात्र को हानि-लाभ, सुख-दुःखादि व्यवस्था में देखे, वही उत्तम संन्यास धर्म को प्राप्त होता है ॥४०।६॥ (संस्कारविधि, संन्यासप्रकरण) समीक्षा—ईशावास्योपनिषद् तथा यजुर्वेद के ४०वें अध्याय के मन्त्रों में कहीं कहीं पाठभेद है । छठे मन्त्र में ‘विचिकित्सति’ के स्थान पर ईशावास्योपनिषद् में ‘विजुगुप्सते’ पाठ है । दोनों पदों के अर्थों में विशेष अन्तर नहीं है । विचिकित्सति=संशयं प्राप्नोति, विजुगुप्सते=निन्दित होता है या घृणा करता है । जो परमात्मा को सर्वत्र सर्वभूतों में देखता है, ऐसा योगी या मुमुक्षु संशय को प्राप्त नहीं होता अथवा निन्दित नहीं होता अथवा किसी से घृणा नहीं करता । इस मन्त्र की व्याख्या में श्री शङ्कराचार्य जी लिखते हैं— “जो परिव्राट् मुमुक्षु अव्यक्त से लेकर स्थावर पर्यन्त सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में ही देखता है, और उन्हें आत्मा से पृथक् नहीं देखता तथा उन सम्पूर्ण भूतों में भी आत्मा को देखता है, अर्थात् उन भूतों के आत्मा को भी अपना ही आत्मा जानता है । और यह समझता है कि जिस प्रकार मैं इस देह के कार्य और कारण सङ्घात का आत्मा और इसकी समस्त प्रतीतियों का साक्षी चेतयिता, केवल और निर्गुण हूं उसी प्रकार अपने इसी रूप से अव्यक्त से लेकर स्थावर पर्यन्त सम्पूर्ण भूतों का आत्मा भी मैं ही हूं । इस प्रकार जो सब भूतों में अपने निर्विशेष आत्मस्वरूप को ही देखता है ।” * [ “यः परिव्राट् मुमुक्षुः सर्वाणि भूतान्यव्यक्तादीनि स्थावरान्तानि आत्मन्येवानुपश्यत्यात्मव्यतिरिक्तानि न पश्यतीत्यर्थः, सर्वभूतेषु च तेष्वेव चात्मानं तेषाम् अपि भूतानां स्वमात्मानम् आत्मत्वेन यथास्य देहस्य कार्यकारणसङ्घातस्यात्मा अहं सर्वप्रत्ययसाक्षिभूतश्चेतयिता केवलो निर्गुणोऽनेनैव स्वरूपेणाव्यक्तादीनां स्थावरान्तानामहमेवात्मेति सर्वभूतेषु चात्मानं निर्विशेषं यस्त्वनुपश्यति ।” (ईशावा० मं० ६। शा० भा०) ] मन्त्रार्थ बहुत सरल तथा सुगम है । उपासक योगी जब परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है, तब सर्वव्यापी परमात्मा के स्वरूप को समझ लेता है । उस समय परमात्मा को सब प्राणी या अप्राणियों में, और सब भूतों में परमात्मा को देख लेता है, तब वह निन्दित कार्यों से अथवा संशय से मुक्त हो जाता है । किन्तु इस मूल मन्त्रार्थ से भिन्न जो बातें हैं, वे भी शङ्कराचार्य जी की काल्पनिक होने से अप्रामाणिक ही हैं। जैसे प्रकरण परमात्मा का है, वहां जीवात्मा परक अर्थ उचित नहीं है । ‘आत्मा’ शब्द से ‘परब्रह्म’ ही लेना चाहिए । और ‘अनुपश्यति’ क्रिया का कर्त्ता योगी या मुमुक्षु उस परब्रह्म से पृथक् है । अन्य प्राणियों के आत्मा को अपना ही आत्मा जानना या समस्त भूतों का आत्मा स्वयं को समझना अज्ञानता है । अव्यक्त से लेकर स्थावर पर्यन्त जितने भी जगत् में पदार्थ हैं, वे सब अचेतन हैं, उनमें परब्रह्म तो व्यापक भाव से है, किन्तु उनमें जीवात्मा नहीं है । फिर उनके आत्मा को अपना आत्मा जानना, अज्ञान नहीं तो क्या है ? और प्राणियों के आत्मा को भी अपना आत्मा नहीं कहा जा सकता क्योंकि सब के आत्मा भिन्न-भिन्न हैं । इसीलिए दूसरे के देखे सुने का अनुस्मरण दूसरे को नहीं होता । यथार्थ ज्ञान को ही विद्या कहते हैं । अचेतन को चेतन, सर्वव्यापक को परिच्छिन्न, परिच्छिन्न को व्यापक तथा सर्वज्ञ को अल्पज्ञ और अल्पज्ञ को सर्वज्ञ समझना अज्ञान ही है । यथार्थ में इस प्रकार खैंचातानी से अद्वैतवाद सिद्ध नहीं हो सकता । सर्वव्यापक परमात्मा, उसको उपासकभाव से जानने वाला जीवात्मा और अव्यक्त प्रकृति से बने स्थावरान्त पदार्थ अचेतन, ये सब त्रैतवाद की ही पुष्टि करते हैं । श्री उव्वट ने इस मन्त्र के भाष्य में लिखा है—“यः पुनः सर्वाणि भूतानि=चेतनाचेतनानि आत्मन्नेवानुपश्यति । मय्येव सर्वाणि भूतान्यवस्थितानि न मद्व्यतिरिक्तानि । अहमेव परं ब्रह्मेति । सर्वभूतेषु चात्मानम् अवस्थितं तद्व्यतिरिक्तं पश्यति, ततो न विचिकित्सति=न संशेते ॥” (अर्थ) जो सब चेतन और अचेतन भूतों को आत्मा (ब्रह्म) में ही देखता है । मुझ में ही सब भूत अवस्थित हैं मुझ से भिन्न नहीं, मैं ही परब्रह्म हूं और सब भूतों में आत्मा (ब्रह्म) को अवस्थित देखता है, अर्थात् उन से भिन्न समझता है, फिर वह संशयरहित हो जाता है । समीक्षा—यहां श्री उव्वट ने ‘भूतानि’ पद से चेतन अर्थात् प्राणी और अचेतन=पृथिवी आदि जड़ जगत् का ग्रहण किया है यह तो ठीक किया है । किन्तु ‘आत्मन्नेवानुपश्यति’ की जो यह व्याख्या की है कि सब जड़-चेतन (भूत) मुझ में ही अवस्थित हैं यह बात प्रत्यक्ष प्रमाण के विरुद्ध है । सब जड़-चेतनभूत किसी भी व्यक्ति में स्थित नहीं हैं। यदि व्याख्याता का अभिप्राय ब्रह्म से है तो भी व्याख्या दोषपूर्ण है । जड़-चेतन जगत् ब्रह्म के आश्रित तो है, किन्तु उससे भिन्न न मानना दुराग्रह मात्र ही है । प्रथम तो चेतन-अचेतन दोनों विरोधी धर्म एक वस्तु के (ब्रह्म के) ही धर्म नहीं हो सकते और अचेतन यदि ब्रह्म का गुण है तो क्या ब्रह्म अचेतन भी है ? यह एक नया प्रश्न उत्पन्न हो जायेगा। जो स्वयम् अद्वैतवादी भी ब्रह्म को अचेतन मानने के लिए तैयार नहीं हैं। ‘मैं ही परब्रह्म हूं’ यह मन्त्रगत किसी पद की तो व्याख्या नहीं है, केवल अपनी कल्पित व्याख्या है । और श्री उव्वट आगे लिखते हैं—“सब भूतों में आत्मा (ब्रह्म) को अवस्थित देखता है अर्थात् उनसे भिन्न समझता है ।” क्या यह परस्पर विरोधी व्याख्या नहीं है ? प्रथम लिखा है कि सब भूत ब्रह्म से भिन्न नहीं हैं और अब उनको भिन्न लिखना असङ्गत व्याख्या ही है । यथार्थ सत्य-मन्त्रार्थ को कहां तक छिपाते ? सत्य अर्थ कहते तो अपना मिथ्याग्रह खण्डित हो जाता, इस प्रकार परस्पर-विरुद्ध व्याख्या तो की, किन्तु मिथ्याग्रह को नहीं छोड़ सके । यह विद्वानों को कदापि शोभा नहीं देता । श्री महीधर ने इस मन्त्र के ‘विचिकित्सति’ पद की व्याख्या में ‘कित रोगापनयने संशये च’ धातु से “गुप्तिज्किद्भ्यः सन्” सूत्र से स्वार्थ में ‘सन्’ प्रत्यय माना है । यहां श्री महीधर ने अशुद्ध धातुपाठ उद्धृत किया है । पाणिनीय धातुपाठ में ‘कित निवासे रोगापनयने च’ पाठ है । यह श्री महीधर की भ्रान्ति ही है । शुद्ध ‘कित’ धातु का संशय अर्थ में प्रयोग नहीं होता । ‘उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते’ इस के अनुसार विपूर्वक ‘कित्’ धातु का प्रयोग संशय अर्थ में होता है । दीर्घतमाः । आत्मा =परमात्मा । निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥ अथ केऽविद्यादिदोषान् जहतीत्याह ॥ अब कौन अविद्यादि दोषों को छोड़ते हैं, यह उपदेश किया जाता है॥

 

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