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ईसा वास्योपनिषद पंचम मंत्र हिन्दी भाष्य सहित

 तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥ ५ ॥ 

स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

प० क्र० — (तत्) वह (ईश्वर) । (एजति) चलता है । (तत्) वह । (न) नही । (एजति) चलता है । (तत्) वह । (दूरे) दूर है । (तत्) वह । (उ) निर्विवाद निस्सन्देह अन्ति के निकट है । (तत्) वह । (अन्तः) भीतर । (अस्य) इस । (सर्वस्य) सब जगत् के । (तत्) वह । (उ) निर्विवाद निस्सन्देह (अस्य) इस । (सर्वस्य) सब संसारके । (बाह्यतः) बाहर है । अर्थ- उस परमात्मा को जिसको मूर्खजन एक वस्तु मे देखकर दूसरी बार अन्य वस्तुओ मे देखते हुये "चलता हुआ" जानते है और विद्वान् मनुष्य उसको सर्वव्यापक समझकर प्रत्येक स्थान पर विद्यमान देखने से चलने से रहित जानते है, वह मूर्ख लोगो के विचार से बहुत ही दूर है; क्योकि मनुष्य उसको संसार के दूर-दूर भागो मे ढूंढने जाते है । जब वहाँ पर उसका चिह्न नही मिलता, तो संसार से बाहर चौथे सातवें आकाश, बैकुन्ठ, गोलोक, कैलाश, क्षीर-सागर, तात्पर्य यह है कि उसे बहुत ही दूर बताते है; परन्तु विद्वानों और योगी मनुष्यों के विचार मे उससे अधिक निकटतम कोई वस्तु नहीं; जीव आत्मा के भीतर बाहर होने से वह अति समीप है । इसलिये योगी मनुष्य उसे बाहर ढूंढना छोड़कर समाधि के द्वारा अपनी आत्मा के भीतर उसे देखते है । वह संसार की प्रत्येक वस्तु के भीतर और बाहर विद्यमान है, कोई वस्तु उसको घेर नही सकती । प्रश्न— ’चलना’ और ’न चलना’ यह परस्पर विरोधी कर्म है । वह एक ब्रह्म में कैसे रह सकते है ? उत्तर— ब्रह्म में चलने का गुण (क्रिया) नहीं, किन्तु अज्ञानी मनुष्य ऐसा विचार करते हैं । इसलिये दो विरोधी गुण ब्रह्म में नही आते । प्रश्न— क्या अज्ञानी मनुष्य ही ब्रह्म को क्रियाशील मानते है ? हमारी समझ से तो मनुष्य ब्रह्म को जगत्कर्ता मानते है, उनको ब्रह्म क्रियाशील मानना पड़ता है । उत्तर— जगत्कर्ता होने के लिये ब्रह्म को क्रियाशील होने की आवश्यकता नही, किन्तु वह सर्वव्यापक होने से बिना क्रियाशील हुये ही सब कार्य्यों को कर सकता है और यह कही नियम भी नही है किसी कार्य के लिये क्रिया करना आवश्यक ही हो । प्रश्न— संसार मे कोई कार्य बिना क्रिया के बनता हुआ नहीं दिखाई देता । इसलिये गति और कर्म का होना कार्य्य पूर्ति के लिये आवश्यक ही हो । उत्तर— क्या चुम्बक पत्थर को जो लोहे को अपनी ओर खींचता है, इसके लिये क्रिया की आवश्यकता है ? कदापि नही जब कि चुम्बक लोहे को बिना गति क्रिया के खींचता हुआ प्रतीत होता है तो ईश्वर में कार्य्य करने के लिये क्रियात्मक गुण को आवश्यक समझना भारी भ्रम है । प्रश्न— ब्रह्म जगत् के भीतर तो हो सकता है, जगत के बाहर ब्रह्म कहाँ रह सकता है ? इसलिये यह विचार समीचीन नहीं कि ब्रह्म जगत के भीतर बाहर सर्वत्र विद्यमान है । उत्तर— यदि तुम ’जगत’ शब्द के अर्थ को समझते, तो तुम्हे इस आशंका का अवसर ही न मिलता; क्योकि जगत का अर्थ उत्पन्न होने वाला और नाश होने वाला है, इसीको विकृति कहते है । संसार में ’प्रकृति’ दो प्रकार की हैं— एक प्रकृति दूसरी विकृति । परमात्मा ’प्रकृति’ के भीतर व्यापक है और ’विकृति’ प्रकृति का एक विकारांग है, इसलिये परमात्मा जगत अर्थात् प्रकृति विकृति के भीतर बाहर दोनों ओर व्यापक है ।

आचार्य राजवीर शास्त्री

पदार्थः—(तत्) (एजति) कम्पते=चलति मूढदृष्ट्या (तत्) (न) (एजति) कम्पते कम्प्यते वा (तत्) (दूरे) अधर्मात्मभ्योऽ- विद्वद्भ्योऽयोगिभ्यः (तत्) (उ) (अन्तिके) धर्मात्मनां विदुषां समीपे (तत्) (अन्तः) आभ्यन्तरे (अस्य) (सर्वस्य) अखिलस्य जगतो जीवसमूहस्य वा (तत्) (उ) (सर्वस्य) समग्रस्य (अस्य) प्रत्यक्षाऽ- प्रत्यक्षात्मकस्य (बाह्यतः) बहिरपि वर्त्तमानः ॥५॥ अन्वयः—हे मनुष्यास्तद् ब्रह्मैजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके तदस्य सर्वस्यान्तस्तदु सर्वस्याऽस्य बाह्यतो वर्तत इति निश्चिनुत ॥५॥ सपदार्थान्वयः— हे मनुष्याः ! तद्=ब्रह्मैजति कम्पते= चलति मूढदृष्ट्या तन्नैजति कम्पते कम्प्यते वा तद्दूरे अधर्मात्मभ्योऽ- विद्वद्भ्योऽयोगिभ्यः तद्वन्तिके धर्मात्मनां विदुषां योगिनां समीपे । तदस्य सर्वस्य अखिलस्य जगतो जीवसमूहस्य वा अन्तः आभ्यन्तरे, तदु सर्वस्य समग्रस्य अस्य प्रत्यक्षाऽप्रत्यक्षात्मकस्य (जगतः) बाह्यतः बहिरपि वर्त्तमानः वर्त्तत इति निश्चिनुत ॥४०।५॥ भाषार्थ—हे मनुष्यो ! (तद्) वह ब्रह्म (एजति) चलता है ऐसा मूढ समझते हैं; (तत्) वह (न) नहीं (एजति) चलता है और न कोई उसको चला सकता है । (तत्) वह दूरे अधर्मात्मा अविद्वान् अयोगियों से दूर है; (तत्) वह (उ) निश्चय से (अन्तिके) धर्मात्मा विद्वान् योगियों के समीप है । (तत्) वह ब्रह्म (अस्य) इस (सर्वस्य) सब जगत् एवं जीवों के (अन्तः) अन्दर विराजमान है । (तत्) वह (उ) निश्चय से (अस्य) इस प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जगत् के (बहिः) बाहर भी विराजमान है; ऐसा निश्चित जानो ॥४०।५॥ भावार्थः—हे मनुष्याः ! तद् ब्रह्म मूढदृष्टौ कम्पत इव । तत् स्वतो व्यापकत्वात् कदाचिन्न चलति। ये तदाज्ञाविरुद्धास्ते इतस्ततो धावन्तोऽपि तन्न विजानन्ति; ये चेश्वराऽऽज्ञाऽनुष्ठातारस्ते स्वाऽऽत्म- स्थमतिनिकटं ब्रह्म प्राप्नुवन्ति । यद् ब्रह्म सर्वस्य प्रकृत्या- देर्बाह्याऽभ्यन्तराऽवयवानभिव्याप्य सर्वेषां जीवानामन्तर्यामिरूपतया सर्वाणि पाप-पुण्यात्मककर्माणि विजानन् याथातथ्यं फलं, प्रयच्छत्ये- तदेव सर्वैर्ध्येयमस्मादेव सर्वैर्भेतव्यमिति॥४०।५॥ भावार्थ—हे मनुष्यो ! वह ब्रह्म चलता सा है, ऐसा मूढ़ मानते हैं; वह व्यापक होने से अपने स्वरूप से कभी भी चलायमान नहीं होता है। जो लोग उसकी आज्ञा के विरुद्ध आचरण करते हैं, वे उसकी प्राप्ति के लिए इधर-उधर भागते हुए भी उसको नहीं जान सकते; और जो ईश्वर की आज्ञा के अनुसार आचरण करते हैं, वे अति निकट अपने आत्मा में स्थित ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं । जो ब्रह्म सब प्रकृति आदि के बाहर और भीतर के अवयवों में व्यापक होकर सब जीवों के अन्तर्यामी रूप से सब पाप और पुण्य कर्मों को जानता हुआ ठीक- ठीक फल प्रदान करता है; अतः इसी ब्रह्म का ही सब को ध्यान (उपासना) करनी चाहिए और इसी से सब को डरना चाहिए ॥४०।५॥ तद्=ब्रह्म । एजति=मूढदृष्टौ कम्पत इव । अन्तिके=अतिनिकटम् । अस्य=प्रकृत्यादेः । भाष्यसार—ब्रह्म विद्वानों के निकट और अविद्वानों से दूर है—वह ब्रह्म मूढों की दृष्टि में चलता है । वास्तव में वह न चलता है और न उसको कोई चला सकता है । यह स्वतः व्यापक होने से कभी नहीं चलता । अधर्मात्मा, अविद्वान् और अयोगी जनों से वह दूर है । जो उसकी आज्ञा के विरुद्ध आचरण करते हैं, वे इधर-उधर दौड़ते हुए भी उसे नहीं जान सकते । वह धर्मात्मा, विद्वान् योगी जनों के समीप है । अर्थात् जो ईश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं; वे अपने आत्मा में स्थित, अति निकट ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं । वह इस सब जगत् के तथा जीवों के अन्दर विद्यमान है तथा वह इस प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष जगत् के बाहर भी है । तात्पर्य यह है कि ब्रह्म सब प्रकृति आदि पदार्थों के बाह्य और आन्तरिक अवयवों को व्याप्त करके सब जीवों के अन्तर्यामी रूप से सब पाप-पुण्य रूप कर्मों को जानता है; और ठीक-ठीक फल देता है । सब मनुष्य इसी ब्रह्म का ध्यान करें, इसी की उपासना करें; और इसी से डरते रहें ॥४०।५॥ अन्यत्र व्याख्यात—(क)—यह मन्त्र महर्षि ने—‘तदेजति’ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदविषय-विचार प्रकरण में उपासना के प्रमाण में उद्धृत किया है ॥ (ख)—‘तद् एजति’ वह परमात्मा सब जगत् को अपनी-अपनी चाल पर चला रहा है, सो अविद्वान् लोग ईश्वर में भी आरोप करते हैं कि वह भी चलता होगा, परन्तु वह सब में पूर्ण है, कभी चलायमान नहीं होता। अतएव ‘तन्नैजति’ (यह प्रमाण है) । स्वतः वह परमात्मा कभी नहीं चलता, एकरस निश्चल होके भरा है । विद्वान् लोग इसी रीति से ब्रह्म को जानते हैं । ‘तद् दूरे’—अधर्मात्मा, अविद्वान्, विचारशून्य अजितेन्द्रिय, ईश्वर भक्ति रहित इत्यादि दोषयुक्त मनुष्यों से वह ईश्वर बहुत दूर है; अर्थात् वे कोटि-कोटि वर्ष तक उसको नहीं प्राप्त होते । इससे वे तब तक जन्म मरणादि दुःखसाङ्गार में इधर-उधर घूमते फिरते हैं कि जब तक उसको नहीं जानते। ‘तद्वन्तिके’=वह सत्यवादी, सत्यकारी, सत्यमानी, जितेन्द्रिय, सर्वजनोपकारक विद्वान् विचारशील पुरुषों के ‘अन्तिक’ अत्यन्त निकट है । किं च—वह सब के आत्माओं के बीच में अन्तर्यामी, व्यापक होके सर्वत्र पूर्ण भर रहा है । वह आत्मा का भी आत्मा है; क्योंकि परमेश्वर सब जगत् के भीतर और बाहर तथा मध्य अर्थात् एक तिलमात्र भी उसके विना खाली नहीं है । वह अखण्डैकरस, सब में व्यापक हो रहा है । उसी को जानने से सुख और मुक्ति होती है; अन्यथा नहीं । (आर्याभिविनय २।१२) ॥ (ग) “तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः” वह सब के भीतर और बाहर परिपूर्ण है । (वेदविरुद्धमतखण्डन) ॥४०।५॥ समीक्षा—ईशावास्योपनिषत् के पञ्चम मन्त्र की व्याख्या में श्री शङ्कराचार्य जी लिखते हैं— (क) “मन्त्रों को आलस नहीं होता, अतः पहले मन्त्र द्वारा कहे हुए अर्थ को ही फिर कहते हैं ।”* [*“न मन्त्राणां जामितास्तीति पूर्वमन्त्रोक्तमप्यर्थं पुनराह ।”] (ख) “वह आत्मतत्त्व, जिसका प्रकरण है, चलता है, वही स्वयं नहीं भी चलता । अर्थात् स्वयम् अचल रहकर ही चलता हुआ सा जान पड़ता है ।”* [“तदात्मतत्त्वं यत्प्रकृतं तदेजति चलति, तदेव च नैजति स्वतो नैव चलति स्वतोऽचलमेव सन् चलतीवेत्यर्थः ।”] (ग) “वही अन्तिक अत्यन्त समीप भी है । विद्वानों का आत्मा होने के कारण न केवल दूर है, अपितु समीप है । वह इस सब के अन्तर यानी भीतर भी है ।”* [*“तद्वन्तिके समीपेऽत्यन्तमेव विदुषामात्मत्वान्न केवलं दूरेऽन्तिके च । तदन्तरभ्यन्तरेऽस्य सर्वस्य ।” (ईशावा० मं० ५ । शा० भा०)] समीक्षा—‘मन्त्रा मननात्’ (यास्कः) मनन करने के कारण ये मन्त्र कहलाते हैं । अथवा ‘मत्रि गुप्तभाषणे’ धातु से ‘मन्त्र’ शब्द बनता है । जिससे स्पष्ट है कि मन्त्रों में रहस्यात्मक बातें होती हैं, जिन पर बहुत ही गम्भीरता से विचार करना चाहिए । और मन्त्रों में परमेश्वर का ज्ञान है, उनमें पिष्ट-पेषण कैसे सम्भव है ? पूर्व-मन्त्र से इस मन्त्र में अनेक विशेष बातें कही हैं । केवल ‘अनेजत्’ या ‘एजति’ देखकर ही पुनरुक्त नहीं कहना चाहिए । परब्रह्म चलता है और नहीं भी चलता है, यहां विरोधाभासालङ्कार है । इस विरोधाभास का श्री शङ्कराचार्य जी ने कोई समाधान नहीं किया। यदि ब्रह्म अचल है तो चलता हुआ सा कैसे प्रतीत होता है ? यह पाठक को भ्रम ही बना रहता है । महर्षि दयानन्द ने इसका बहुत ही उत्तम समाधान किया है—‘एजति कम्पते=चलति मूढदृष्ट्या’ अर्थात् मूढ़ों की दृष्टि से ब्रह्म चलता हुआ प्रतीत होता है, वास्तव में नहीं ।’ अथवा ‘आर्याभिविनय’ पुस्तक में ‘एजति’ पद में अन्तर्भावित णिच् मानकर यह अर्थ किया है—“परमात्मा सब जगत् को यथायोग्य अपनी-अपनी चाल पर चला रहा है ।” और मन्त्र में कहा है कि वह परब्रह्म इस सब के अन्दर और बाहर भी है । जब परब्रह्म से भिन्न कोई वस्तु है ही नहीं तो वह किसके अन्दर और किसके बाहर है ? अतः इससे अद्वैतमत का खण्डन ही होता है। (क) श्री उव्वट ने इस मन्त्र के भाष्य में लिखा है— “तदेजति”=तदेव सर्वप्राणिरूपेणावस्थितं सत् एजति, कम्पवद् भवति, क्रियावद् भवति । तन्नैजति=तदेव च न चलति स्थावररूपावस्थितं सत् ।” (अर्थ) वह ब्रह्म सब प्राणियों के रूप में अवस्थित होकर चलता है, कम्पनशील होता है, क्रियावान् हो रहा है, और वही ब्रह्म स्थावर=वृक्षादि रूप में अवस्थित होकर नहीं चलता है । समीक्षा—यहां श्री उव्वट ने ब्रह्म के दो रूप स्वीकार किए हैं। एक—ब्रह्म प्राणीरूप में चल रहा है । दूसरा—ब्रह्म स्थावर (वृक्ष-पर्वतादि) रूप में नहीं चलता । अर्थात् ब्रह्म चेतन और जड़ दोनों रूपों में है । किन्तु जड़-चेतन दोनों ऐसे परस्पर विरोधी गुण हैं, जो एक ब्रह्म में कदापि नहीं रह सकते और नहीं ऐसा कोई दृष्टान्त है, जिसमें ये परस्पर विरोधी गुण मिलते हों । वृक्षादि में कम्पन होता है । पृथिवी, सूर्य, चन्द्रादि भी गतिशील हैं । ऐसी दशा में ‘तन्नैजति’ का क्या अभिप्राय होगा ? इसलिए श्री उव्वटकृत अर्थ दोषयुक्त होने से मान्य नहीं हो सकता । (ख) श्री उव्वट ‘तद् दूरे तद्वन्तिके’ की व्याख्या में लिखते हैं— “तद् दूरे तदेव च दूरे आदित्यनक्षत्रादिरूपेणावस्थितम् । चान्तिके पृथिव्यादिरूपेणावस्थितम् ।” (अर्थ) वह ब्रह्म आदित्य (सूर्य) नक्षत्रादि रूप में अवस्थित होने से दूर है और पृथिवी आदि रूप में अवस्थित वह ब्रह्म समीप भी है । समीक्षा—यहां श्री उव्वट ने अखण्ड और सर्वव्यापक ब्रह्म को खण्ड-खण्ड और एकदेशी मान लिया है । ब्रह्म का एक खण्ड आदित्य (सूर्य), एक खण्ड नक्षत्र तथा एक खण्ड पृथिवी आदि है । यह कैसी विचित्र व्याख्या है । जिस ब्रह्म को ‘स पर्यगाच्छुक्रमकायम्०’ (ईशा०) मन्त्र में सर्वव्यापी, शरीरादि से रहित तथा अक्षत=अखण्ड बताया है, उसी को खण्ड-खण्ड कर दिया है । और यह खण्ड हुआ ब्रह्म किससे दूर तथा समीप है ? इस पर कोई विचार नहीं किया । ‘यदि वह ब्रह्म जीव से दूर या समीप है, तो जीव-ब्रह्म की पृथक्ता सिद्ध होती है ।’ अतः ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ का सिद्धान्त मानने वालों को यहां परस्पर विरोधी व्याख्या को देखकर लेशमात्र भी बोध नहीं हुआ । मन्त्र के अन्तिम भाग में कहा है— ‘तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ।’ अर्थात् वह ब्रह्म इस जगत् के अन्दर और बाहर भी है । यहां मन्त्रपठित ‘अस्य’ पद का श्री शङ्कराचार्य जी को ‘सर्वस्य जगतः’ अर्थ करना ही पड़ा । जगत् की सत्ता ..तदेव मानकर अद्वैतवाद कहां रह गया? यथार्थ में मन्त्र के अनुसार त्रैतवाद स्पष्ट रूप से सिद्ध है—ब्रह्म सर्वत्र व्यापक है, इस जगत् के कहने से अचेतन प्रकृति के कार्य भूत जगत् की सत्ता है, और मूढ़ तथा विद्वान् जीवों की दृष्टि से वह ब्रह्म दूर या समीप कहलाता है । अतः ब्रह्म से भिन्न जीवों की सत्ता को स्पष्ट रूप से माना है । अतः श्री उव्वटादि मन्त्र के रहस्य को न समझ कर सत्यार्थ से बहुत दूर ही चले गये हैं । दीर्घतमाः । आत्मा =परमात्मा । निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥ अथेश्वरविषयमाह ॥ अब ईश्वर-विषयक उपदेश किया जाता है ॥ यस्तु सर्वा॑णि भू॒तान्या॒त्मन्ने॒वानु॒पश्य॑ति।


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