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चाणक्यनिति अध्याय -7,8

 



दोहा-- अरथ नाश मन ताप अरु, दार चरित घर माहिं ।

 

बंचनता अपमान निज, सुधी प्रकाशत नाहिं ॥१॥

 

अपने धन का नाश, मन का सन्ताप, स्त्रीका चरित्र, नीच मनुष्य की कही बात और अपना अपमान, इनको बुध्दिमान मनुष्य किसी के समक्ष जाहिर न करे ॥१॥

 

दोहा-- संचित धन अरु धान्य कूँ, विद्या सीखत बार ।

 

करत और व्यवहार कूँ, लाज न करिय अगार ॥२॥

 

धन-धान्यके लेन-देन, विद्याध्ययन, भोजन, सांसारिक व्यवसाय, इन कामों में जो मनुष्य लज्जा नहीं करता, वही सुखी रहता है ॥२॥

 

दोहा-- तृषित सुधा सन्तोष चित, शान्त लहत सुख होय ।

 

इत उत दौडत लोभ धन, कहँ सो सुख तेहि होय ॥३॥

 

सन्तोषरूपी अमृत से तृप्त मनुष्यों को जो सुख और शांति प्राप्त होती है, वह धन के लोभ से इधर-उधर मारे-मारे फिरने वालोंको कैसे प्राप्त होगी ? ॥३॥

 

दोहा-- तीन ठौर सन्तोष धर, तिय भोजन धन माहिं ।

 

दानन में अध्ययन में, तप में कीजे नाहिं ॥४॥

 

तीन बातों में सन्तोष धारण करना चाहिए । जैसे-अपनी स्त्री में, भोजन में और धन में । इसी प्रकार तीन बातों में कभी भी सन्तुष्ट न होना चाहिए । अध्ययन में, जप में, और दान में ॥४॥

 

दोहा-- विप्र विप्र अरु नारि नर, सेवक स्वामिहिं अन्त ।

 

हला औ बैल के मध्यते, नहिं जावे सुखवन्त ॥५॥

 

दो ब्राह्मणों के बीच में से, ब्राह्मण और अग्नि के बीच से, स्वामी और सेवक के बीच से, स्त्री-पुरुष के बीच से और हल तथा बैल के बीच से नहीं निकलना चाहिए ॥५॥

 

दोहा-- अनल विप्र गुरु धेनु पुनि, कन्या कुँआरी देत ।

 

बालक के अरु वृध्द के, पग न लगावहु येत ॥६॥

 

अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, गौ, कुमारी कन्या, वृध्द और बालक इनको कभी पैरों से न छुए ॥६॥

 

दोहा-- हस्ती हाथ हजार तज, शत हाथन से वाजि ।

 

श्रृड्ग सहित तेहि हाथ दश, दुष्ट देश तज भाजि ॥७॥

 

हजार हाथ की दूरी से हाथी से, सौ हाथ की दूरी से घोडा से, दस हाथ की दूरी से सींगवाले जानवरों से बचना चाहिये और मौका पड जाय तो देश को ही त्याग कर दुर्जन से बचे ॥७॥

 

दोहा-- हस्ती अंकुश तैं हनिय, हाथ पकरि तुरंग ।

 

श्रृड्गि पशुन को लकुटतैं, असितैं दुर्जन भंग ॥८॥

 

हाथी अंकुश से, घोडा चाबुक से, सींगवाले जानवर लाठी से और दुर्जन तलवार से ठीक होते हैं ॥८॥

 

दोहा-- तुष्ट होत भोजन किये, ब्राह्मण लखि धन मोर ।

 

पर सम्पति लखि साधु जन, खल लखि पर दुःख घोर ॥९॥

 

ब्राह्मण भोजन से, मोर मेघ के गर्जन से, सज्जन पराये धन से और खल मनुष्य दूसरे पर आई विपत्ति से प्रसन्न होता है ॥९॥

 

दोहा-- बलवंतहिं अनुकूलहीं, प्रतिकूलहिं बलहीन ।

 

अतिबलसमबल शत्रुको, विनय बसहि वश कीन ॥१०॥

 

अपने से प्रबल शत्रु को उसके अनुकूल चल कर, दुष्ट शत्रु को उसके प्रतिकूल चल कर और समान बलवाले शत्रु का विनय और बल से नीचा दिखाना चाहिए ॥१०॥

 

दोहा-- नृपहिं बाहुबल ब्राह्मणहिं, वेद ब्रह्म की जान ।

 

तिय बल माधुरता कह्यो, रूप शील गुणवान ॥११॥

 

राजाओं में बाहुबलसम्पन्न राजा और ब्राह्मणों में ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण बली होता है और रूप तथा यौवन की मधुरता स्त्रियों का सबसे उत्तम बल है ॥११॥

 

दोहा-- अतिहि सरल नहिं होइये, देखहु जा बनमाहिं ।

 

तरु सीधे छेदत तिनहिं, वाँके तरु रहि जाति ॥१२॥

 

अधिक सीधा-साधा होना भी अच्छा नहीं होता । जाकर वन में देखो--वहाँ सीधे वृक्ष काट लिये जाते हैं और टेढे खडे रह जाते हैं ॥१२॥

 

दोहा-- सजल सरोवर हंस बसि, सूखत उडि है सोउ ।

 

देखि सजल आवत बहुरि, हंस समान न होउ ॥१३॥

 

जहाँ जल रहता है वहाँ ही हंस बसते हैं । वैसे ही सूखे सरोवरको छोडते हैं और बार-बार आश्रय लर लेते हैं । सो मनुष्य को हंस के समान न होना चाहिये ॥१३॥

 

दोहा-- धन संग्रहको पेखिये, प्रगट दान प्रतिपाल ।

 

जो मोरी जल जानकूँ, तब नहिं फूटत ताल ॥१४॥

 

अर्जित धनका व्यय करना ही रक्षा है । जैसे नये जल आने पर तडाग के भीतर के जल को निकालना ही रक्षा है ॥१४॥

 

दोहा-- जिनके धन तेहि मीत बहु, जेहि धन बन्धु अनन्त ।

 

घन सोइ जगमें पुरुषवर, सोई जन जीवन्त ॥१५॥

 

जिनके धन रहता है उसके मित्र होते हैं, जिसके पास अर्थ रहता है उसीके बंधू होते हैं । जिसके धन रहता है वही पुरुष गिना जाता है, जिसके अर्थ है वही जीत है ॥१५॥

 

दोहा-- स्वर्गवासि जन के सदा, चार चिह्न लखि येहि ।

 

देव विप्र पूजा मधुर, वाक्य दान करि देहि ॥१६॥

 

संसार में आने पर स्वर्ग स्थानियों के शरीर में चार चिह्म रहते हैं, दान का स्वभाव, मीठा वचन, देवता की पूजा, ब्राह्मण को तृप्त करना अर्थात् जिन लोगों में दान आदि लक्षण रहे उनको जानना चाहिये कि वे अपने पुण्य के प्रभाव से स्वर्गवासी मृत्यु लोक में अवतार लिये हैं ॥१६॥

 

दोहा-- अतिहि कोप कटु वचनहूँ, दारिद नीच मिलान ।

 

स्वजन वैर अकुलिन टहल, यह षट नर्क निशान ॥१७॥

 

अत्यन्त क्रोध, कटुवचन, दरिद्रता, अपने जनों में बैर, नीचका संग, कुलहीनकी सेवा, ये चिह्म नरकवासियोंकी देहों में रहते हैं ॥१७॥

 

दोहा-- सिंह भवन यदि जाय कोउ, गजमुक्ता तहँ पाय ।

 

वत्सपूँछ खर चर्म टुक, स्यार माँद हो जाय ॥१८॥

 

यदि कोई सिंह की गुफा में जा पडे तो उसको हाथी के कपोलका मोती मिलता है, और सियार के स्थान में जाने पर बछावे की पूँछ और गदहे के चामडे का टुकडा मिलता है ॥१८॥

 

दोहा-- श्वान पूँछ सम जीवनी, विद्या बिनु है व्यर्थ ।

 

दशं निवारण तन ढँकन, नहिं एको सामर्थ ॥१९॥

 

कुत्ते की पूँछ के समान विद्या बिना जीना व्यर्थ है । कुत्ते की पूँछ गोप्य इन्द्रिय को ढाँक नहीं सकती और न मच्छड आदि जीवॊम को उडा सकती है ॥१९॥

 

दोहा-- वचन्शुध्दि मनशुध्दि और, इन्द्रिय संयम शुध्दि ।

 

भूतदया और स्वच्छता, पर अर्थिन यह बुध्दि ॥२०॥

 

वच की शुध्दि, मति की शुध्दि, इंद्रियों का संयम, जीवॊं पर दया और पवित्रता--ये परमार्थितों की शुध्दि है ॥२०॥

 

दोहा-- बास सुमन, तिल तेल, अग्नि काठ पय घीव ।

 

उखहिं गुड तिमि देह में तेल, आतम लखु मतिसीव ॥२१॥

 

जैसे फलमें गंध, तिल में तेल, काष्ठमें आग, दूध में घी और ईख में गुड है वैसे देह में आत्मा को विचार से देखो ॥२१॥

 

इति चाणक्ये सप्तमोऽध्यायः ॥७॥

 

दोहा-- अधम धनहिं को चाहते, मध्यम धन अरु मान ।

 

मानहि धन है बडन को, उत्तम चहै मान ॥१॥

 

अधम धन चाहते हैं, मध्यम धन और मान दोनों, पर उत्तम मान ही चाहते हैं।क्योंकि महात्माओं का धन मान ही है ॥१॥

 

दोहा-- ऊख वारि पय मूल, पुनि औषधह खायके ।

 

तथा खाये ताम्बूल, स्नान दान आदिक उचित ॥२॥

 

ऊख, जल, दूध, पान, फल और औषधि इन वस्तुओं के भोजन करने पर भी स्नान दान आदि क्रिया कर सकते हैं ॥२॥

 

दोहा-- दीपक तमको खात है, तो कज्जल उपजाय ।

 

यदन्नं भक्ष्यते नित्यं जायते तादृशी प्रजा ॥३॥

 

दिया अंधकार को खाता है और काजल को जन्माता है । सत्य है, जो जैसा अन्न सदा खाता है उसकी वैसेही सन्तति होती है ॥३॥

 

दोहा-- गुणहिंन औरहिं देइ धन, लखिय जलद जल खाय ।

 

मधुर कोटि गुण करि जगत, जीवन जलनिधि जाय ॥४॥

 

हे मतिमान् ! गुणियों को धन दो औरों को कभी मत दो । समुद्र से मेघ के मुख में प्राप्त होकर जल सदा मधुर हो जाता है और पृथ्वी पर चर अचर सब जीवॊं को जिला कर फिर वही जल कोटि गुण होकर उसी समुद्र में चला जाता है ॥४॥

 

दोहा-- एक सहस्त्र चाण्डाल सम, यवन नीच इक होय ।

 

तत्त्वदर्शी कह यवन ते, नीच और नहिं कोय ॥५॥

 

इतना नीच एक यवन होता है । यवन से बढकर नीच कोई नहीं होता ॥५॥

 

दोहा-- चिताधूम तनुतेल लगि, मैथुन छौर बनाय ।

 

तब लौं है चण्डाल सम, जबलों नाहिं नहाय ॥६॥

 

तेल लगाने पर, स्त्री प्रसंग करने के बाद, और चिता का धुआँ लग जाने पर मनुष्य जब तक स्नान नहीं करता तब तक चाण्डाल रहता है ॥६॥

 

दोहा-- वारि अजीरण औषधी, जीरण में बलवान ।

 

भोजन के संग अमृत है, भोजनान्त विषपान ॥७॥

 

जब तक कि भोजन पच न जाय, इस बीच में पिया हुआ पानी विष है और वही पानी भोजन पच जाने के बाद पीने से अमृत के समान हो जाता है । भोजन करते समय अमृत और उसके पश्चात् विषका काम करता है ॥७॥

 

दोहा-- ज्ञान क्रिया बिन नष्ट है, नर जो नष्ट अज्ञान ।

 

बिनु नायक जसु सैनहू, त्यों पति बिनु तिय जान ॥८॥

 

वह ज्ञान व्यर्थ है कि जिसके अनुसार आचरण न हो और उस मनुष्य का जीवन ही व्यर्थ है कि जिसे ज्ञान प्राप्त न हो । जिस सेना का कोई सेनापति न हो वह सेना व्यर्थ है और जिसके पति न हो वे स्त्रियाँ व्यर्थ हैं ॥८॥

 

दोहा--वृध्द समय जो मरु तिया, बन्धु हाथ धन जाय ।

 

पराधीन भोजन मिलै, अहै तीन दुखदाय ॥९॥

 

बुढौती में स्त्री का मरना, निजी धन का बन्धुओं के हाथ में चला जाना और पराधीन जीविका रहना, ये पुरुषों के लिए अभाग्य की बात है ॥९॥

 

दोहा-- अग्निहोत्र बिनु वेद नहिं, यज्ञ क्रिया बिनु दान ।

 

भाव बिना नहिं सिध्दि है, सबमें भाव प्रधान ॥१०॥

 

बिना अग्निहोत्र के वेदपाठ व्यर्थ है और दान के बिना यज्ञादि कर्म व्यर्थ हैं । भाव के बिना सिध्दि नहीं प्राप्त होती इसलिए भाव ही प्रधान है ॥१०॥

 

दोहा-- देव न काठ पाषाणमृत,मूर्ति में नरहाय ।

 

भाव तहांही देवभल, कारन भाव कहाय ॥११॥

 

देवता न काठ में, पत्थर में, और न मिट्टी ही में रहते हैं वे तो रहते हैं भाव में । इससे यह निष्कर्ष निकला कि भाव ही सबका कारण है ॥११॥

 

दोहा-- धातु काठ पाषाण का, करु सेवन युत भाव ।

 

श्रध्दा से भगवत्कृपा, तैसे तेहि सिध्दि आव ॥१२॥

 

काठ, पाषाण तथा धातु की भी श्रध्दापूर्वक सेवा करने से और भगवत्कृपा से सिध्दि प्राप्त हो जाती है ॥१२॥

 

दोहा-- नहीं सन्तोष समान सुख, तप न क्षमा सम आन ।

 

तृष्णा सम नहिं व्याधि तन, धरम दया सम मान ॥१३॥

 

शान्ति के समान कोई तप नहीं है, सन्तोष से बढकर कोई सुख नहीं है, तृष्णा से बडी कोई व्याधि नहीं है और दया से बडा कोई धर्म नहीं है ॥१३॥

 

दोहा-- त्रिसना वैतरणी नदी, धरमराज सह रोष ।

 

कामधेनु विद्या कहिय, नन्दन बन सन्तोष ॥१४॥

 

क्रोध यमराज है, तृष्णा वैतरणी नदी है, विद्या कामधेनु गौ है और सन्तोष नन्दन वन है ॥१४॥

 

दोहा-- गुन भूषन है रूप को, कुल को शील कहाय ।

 

विद्या भूषन सिध्दि जन, तेहि खरचत सो पाय ॥१५॥

 

गुण रूप का श्रृंगार है , शील कुलका भूषण है, सिध्दि विद्या का अलंकार है और भोग धन का आभूषण है ॥१५॥

 

दोहा-- निर्गुण का हत रूप है, हत कुशील कुलगान ।

 

हत विद्याहु असिध्दको, हत अभोग धन धान ॥१६॥

 

गुण विहीन मनुष्य का रूप व्यर्थ है, जिसका शील ठीक नहीं उसका कुल नष्ट है, जिसको सिध्दि नहीं प्राप्त हो वह उसकी विद्या व्यर्थ है और जिसका भोग न किया जाय वह धन व्यर्थ है ॥१६॥

 

दोहा-- शुध्द भूमिगत वारि है, नारि पतिव्रता जौन ।

 

क्षेम करै सो भूप शुचि, विप्र तोस सुचि तौन ॥१७॥

 

जमीन पर पहँचा पानी, पतिव्रता स्त्री, प्रजा का कल्याण करनेवाला राजा और सन्तोषी ब्राह्मण-ये पवित्र माने गये हैं ॥१७॥

 

दोहा-- असन्तोष ते विप्र हत, नृप सन्तोष तै रव्वारि ।

 

गनिका विनशै लाज ते, लाज बिना कुल नारि ॥१८॥

 

असन्तोषी ब्राह्मण, सन्तोषी राजे, लज्जावती वेश्या और निर्लज्ज कुल स्त्रियाँ ये निकृष्ट माने गये हैं ॥१८॥

 

दोहा-- कहा होत बड वंश ते, जो नर विद्या हीन ।

 

प्रगट सूरनतैं पूजियत, विद्या त कुलहीन ॥१९॥

 

यदि मूर्ख का कुल बडा भी हो तो उससे क्या लाभ ? चाहे नीच ही कुल का क्यों न हो, पर यदि वह विद्वान् हो तो देवताओं द्वारा भी पूजा जाता है ॥१९॥

 

दोहा-- विदुष प्रशंसित होत जग, सब थल गौरव पाय ।

 

विद्या से सब मिलत है , थल सब सोइ पुजाय ॥२०॥

 

विद्वान का संसार में प्रचार होता है वह सर्वत्र आदर पाता है । कहने का मतलब यह कि विद्या से सब कुछ प्राप्त हो सकता है और सर्वत्र विद्या ही पूजी जाती है ॥२०॥

 

दोहा-- संयत जीवन रूप तैं , कहियत बडे कुलीन ।

 

विद्या बिन सोभै न जिभि, पुहुप गंध ते हीन ॥२१॥

 

रूप यौवन युक्त और विशाल कुल में उत्पन्न होकर भी मनुष्य यदि विद्याहीन होते हैं तो ये उसी तरह भले नहीं मालूम होते जैसे सुगन्धि रहित टेसू के फूल ॥२१॥

 

दोहा-- मांस भक्ष मदिरा पियत, मूरख अक्षर हीन ।

 

नरका पशुभार गृह, पृथ्वी नहिं सहु तीन ॥२२॥

 

मांसाहारी, शराबी और निरक्षर मूर्ख इन मानवरूपधारी पशुओं से पृथ्वी मारे बोझ के दबी जा रही है ॥२२॥

 

दोहा-- अन्नहीन राज्यही दहत, दानहीन यजमान ।

 

मंत्रहीन ऋत्विजन कहँ, क्रतुसम रिपुनहिं आन ॥२३॥

 

अन्नरहित यज्ञ देश का, मन्त्रहीन यज्ञ ऋत्विजों का और दान विहीन यज्ञ यजमान का नाश कर देता है । यज्ञ के समान कोई शत्रु नहीं है ॥२३॥

 

इति चाणक्येऽष्टमोऽध्यायः ॥८॥

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