ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किं च जगत्यां
जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य
स्विद्धनम् ॥ १ ॥
स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
प० क्र० — (यत्) जितना भी ।
(किञ्च) कुछ । (जगत्याम्) संसार में । (जगत्) उत्पन्न और नाशमान् रूप से विद्यमान
है । (इदम्) यह । (सर्वम्) सब । (ईशावास्यम्) ईश्वर से ओत-प्रोत है । (तेन) उस
परमेश्वर प्रदत्त से । (त्यक्तेन) वस्तुओं से । (भुञ्जीथाः) भोग करो ।
(कस्यस्वित्) किसी का । (धनम्) धन । (मा गृध) मत लालच समष्टि अथवा व्यष्टि करो ।
ईश्वर इस जगत में, उपस्थित हर वस्तु के प्रत्येक कण में व्याप्त है, अर्थात
उपस्थित है इस विश्व ब्रह्माण्ड में किंचित मात्र ऐसा कोई स्थान नहीं जहां प ईश्वर
ना हो, और यह जगत नाशवान है, यद्यपि ईश्वर इनके साथ नाश नहीं होता है, उस अविनाशी
जगत द्रष्टा परमेश्वर की ही सारी संपत्ति है, इसका त्याग पूर्वक उपयोग करें, इसमें
लालच लोभ वासना के आश्रित ना हों।
अर्थ- जो कुछ इस दृश्यमय संसार में
अपूर्ण अथवा पूर्ण वस्तुएँ हैं, उन सब में ईश्वर का निवास है अथवा ईश्वर से
ढकी हुई हैं, अर्थात् ईश्वर प्रत्येक वस्तु में ओत-प्रोत है । किसी पर्वत की गहरी
से गहरी कोई ऐसी गुफा या सुरंग नहीं, जिसमें ईश्वर विद्यमान
न हो; कोई समुद्र की गहरी से गहरी ऐसी तह नहीं, जहाँ ईश्वर न हो, कोई पर्वत की चोटी ऐसी नहीं,
जहाँ परमात्मा न हो । सूर्य्यलोक, चन्द्रलोक,
तारागण इत्यादि जितने भी लोक-लोकान्तर हैं, सब
स्थानों में परमात्मा विद्यमान है । किसी स्थान पर मनुष्य परमात्मा से छीप नहीं
सकता । जो ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध कार्य करते हैं अर्थात् ईश्वर को भुला देते
हैं, वे जन्म-मरण के दुखों को भोगते हैं । इसलिए प्रत्येक
मनुष्य को चाहिए कि परमात्मा को सब जगह उपस्थित जान कर, और उसके
विरुद्ध कोई कार्य करने से दुःख की उत्पत्ति का ज्ञान होता है, तब मानव, कभी भी पाप
कर्म करने के लिये उद्यत न होता है । किसी का धन लेने की इच्छा न करें, क्योंकि परमात्मा का नियम है कि प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार
भोग देता है, किसी मनुष्य को उसके विरुद्ध स्वेच्छा से भोग प्राप्त नहीं हो सकता ।
अतः दूसरे का धन लेने की इच्छा से पाप तो अवश्य होगा ही, और भोग में कुछ भी अन्तर
नहीं आयेगा । इसी को लोभान पापान कहते हैं । प्रश्न— यद्यपि
इस वेद-मन्त्र से ईश्वर का सर्व-व्यापी होना पाया जाता है, परन्तु
हम ईश्वर को कहीं नहीं देखते । अब हम तुम्हारे इस वेद-मन्त्र को मानें या अपनी
आखों से देखी हुई वस्तुओं का विश्वास करें । यदि ईश्वर है, तो
बताओ कहाँ है ? उत्तर— बहुत-सी ऐसी
वस्तुएं है जो सूक्ष्मता और दूरी आदि के कारण दिखाई नही देतीं, परन्तु उनकी सत्ता को सब मनुष्य मानते हैं। जैसे बुद्धि, आत्मा, दुख इत्यादि है । इससे सिद्ध हुआ है कि संसार
में ऐसी वस्तुएं विद्यमान हैं, जिन को मनुष्य इन्द्रियों से
नहीं जान सकते । उनमें से एक ईश्वर भी है । यदि प्रश्न यह हो कि ईश्वर कहाँ है?
सर्वथा असंगत है; क्योंकि कहाँ शब्द एक देशी
के लिए आता है और वेद मन्त्र ने ईश्वर को सर्वव्यापक बताया है । जैसे कोई कहे कि
दूध में घी या मिश्री में मिठास कहाँ है? तो उत्तर होगा,
सर्वत्र । इससे कहाँ का आक्षेप एक देशी वस्तुओं के लिए उचित प्रतीत
होता है, सर्व व्यापी के लिये नहीं । प्रश्न— जो मनुष्य ईश्वर को नही मानते, वे अधिक धनवान प्रतीत
होते हैं, जैसे चीनी आदि नास्तिक जातियाँ । इससे प्रतीत होता
है कि ईश्वर के मानने से दरिद्रता और दुःख प्राप्त होते हैं । उत्तर— प्रथम तो यह प्रश्न ही ठीक नहीं कि नास्तिक मनुष्य अधिक धनवान होते हैं,
क्योंकि ईसाई, यहूदी जो ईश्वर की सत्ता को
मानते हैं, बड़े-बड़े धनवान हैं । दूसरे धनी होना कोई अच्छी
बात नहीं; किन्तु जितने धनिक देखे जाते हैं उन सब में अन्य
अधिक बुराइयाँ भी देखी जाती हैं । वेदो के माननेवाले तो इस प्रकार के धन को,
जिससे मुक्ति मार्ग में बाधा के अतिरिक्त अन्य कोई लाभ नही होता,
बुरा मानते है । प्रश्न— क्या कोई मनुष्य बिना
धन के सिद्ध-मनोरथ हो सकता है ? उत्तर— संसार मे तो मनुष्य के लिये धन की आवश्यकता होती है, परन्तु उससे मनुष्य अपने लक्ष्य स्थान से सर्वथा दूर हो जाता है । जो लोग
संसार और धर्म, दोनो एक साथ प्राप्त करना चाहते है, वे बड़े मूर्ख हैं । प्रश्न— क्या वेदों में धन
कमाने की आज्ञा नहीं है ? उत्तर— वेदो
में प्रत्येक वस्तु के विषय में, जिनका जीवन में काम पड़ता
है, वर्णन है । नीच मनुष्य ही धन की विशेष इच्छा करते हैं,
परन्तु वेदों मे धन को कहीं मुक्ति का साधन नही लिखा, किन्तु योगाभ्यास और वैराग्य को मुक्ति का साधन बताया है । वैराग्य का
अर्थ सब संसारिक वस्तुओं की इच्छा का त्यागन है । जो मनुष्य संसारिक पदार्थों की
इच्छा में फँसे है, वही ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध कार्य
करते है । जितने झगड़े संसार में फैले है, उन सबका मूल कारण
दूसरों का अधिकार छीनना है । यदि मनुष्य केवल इसी वेद-मन्त्र के समान आचरण वाले हो
जावें, तो लड़ाई झगड़े सब दूर हो जावे । चोरी लूट मार दंभ और
ठगी का सर्वथा अन्त हो जावे, पुलिस और सेना की आवश्यकता ही न
रहे, न्यायालय बन्द दिखाई दें । तात्पर्य यह है कि जितनी
बुराइयाँ आज संसार में दिखाई देती है, कही उनका चिह्न भी न
दिखाई दे और प्रत्येक मनुष्य संसार में स्वर्ग से बढ़ कर आनन्द उठाने लगे । प्रश्न—
क्या ईश्वर के भय से वैराग्य ग्रहण करके कर्मो को सर्वथा त्याग देना
चाहिये ।
आचार्य राजवीर शास्त्री
पदार्थः—(ईशा) ईश्वरेण= सकलैश्वर्य्यसम्पन्नेन
सर्वशक्तिमता परमात्मना (वास्यम्) आच्छादयितुं योग्यं=सर्वतोऽभिव्याप्यम् (इदम्)
प्रकृत्यादिपृथिव्यन्तम् (सर्वम्) अखिलम् (यत्) किम्) (च) (जगत्याम्) गम्यमानायां
सृष्टौ (जगत्) यद् गच्छति तत् । (तेन) (त्यक्तेन) वर्जितेन तच्चित्तरहितेन
(भुञ्जीथाः) भोगमनुभवेः (मा) निषेधे (गृधः) अभिकाङ् क्षीः (कस्य) (स्वित्) कस्यापि
स्विदिति प्रश्ने वा (धनम्) वस्तुमात्रम् ॥१॥ अन्वयः—हे मनुष्य
! त्वं यदिदं सर्वं जगत्यां तद् जगदीशाऽऽ- वास्यमस्ति तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः
किञ्च कस्य स्विद्धनं मा गृधः॥१॥
सपदार्थान्वयः— हे
मनुष्य ! त्वं यदिदं प्रकृत्यादिपृथिव्यन्तं सर्वम् अखिलं जगत्यां गम्यमानायां
सृष्टौ जगत् यद् गच्छति तत् ईशा ईश्वरेण सकलैश्वर्यसम्पन्नेन सर्वशक्तिमता
परमात्मना वास्यम् आच्छादयितुं योग्यं=सर्वतोऽभिव्या- प्यम् अस्ति; तेन त्यक्तेन वर्जितेन तच्चित्तरहितेन भुञ्जीथाः भोगमनुभवेः। किञ्च
कस्यस्वित् कस्यापि धनं वस्तुमात्रं मा न गृधः= अभिकाङ्क्षीः॥४०।१॥
भाषार्थ—हे मनुष्य ! तू (यत्) जो
(इदम्) प्रकृति से लेकर पृथिवी पर्यन्त (सर्वम्) सब (जगत्याम्) चलायमान सृष्टि में
(जगत्) जड़ चेतन जगत् है, वह (ईशा) ईश्वर अर्थात् सकल ऐश्वर्य
से सम्पन्न, सर्वशक्तिमान् परमात्मा के द्वारा (वास्यम्)
आच्छादित अर्थात् सब ओर से अभिव्याप्त किया हुआ है । (तेन) इसलिए (त्यक्तेन)
त्यागपूर्वक अर्थात् जगत् से चित्त को हटा के (भुञ्जीथाः) भोगों का उपभोग कर ।
(किं च) और (कस्य- स्वित्) यह धन किसका है अर्थात् किसी का नहीं; अतः किसी के भी (धनम्) धन अर्थात् वस्तुमात्र की (मा) मत (गृधः) अभिलाषा
कर ॥४।१॥ भावार्थः—ये मनुष्या ईश्वराद् बिभ्यत्ययमस्मान्
सर्वदा सर्वतः पश्यति, जगदिदमीश्वरेण व्याप्तं, सर्वत्रेश्वरोऽस्तीति व्यापक- मन्तर्यामिणं निश्चित्य, कदाचिदप्य- न्यायाचरणेन कस्यापि किञ्चिदपि द्रव्यं ग्रहीतुं नेच्छेयुस्ते;
धार्मिका भूत्वाऽत्र परत्राऽभ्युदयनिःश्रेयसे फले प्राप्य
सदाऽऽनन्देयुः ॥४०।१॥
भावार्थः—जो मनुष्य ईश्वर से डरते
हैं कि यह हम को सब काल में सब ओर से देखता है; यह जगत्
ईश्वर से व्याप्त अर्थात् सब स्थानों में ईश्वर विद्यमान है । इस प्रकार उस व्यापक
अन्तर्यामी को जानकर कभी भी अन्याय- आचरण से किसी का कुछ भी द्रव्य ग्रहण करना
नहीं चाहते; वे इस त्याग से धार्मिक होकर इस लोक में अभ्युदय
और परलोक में निःश्रेयस रूप फलों को भोग कर सदा आनन्द में रहते हैं ॥४०।१॥
ईशा=ईश्वरेण । वास्यम्=व्याप्तम् । कस्यस्वित्= कस्यापि । धनम्=किञ्चिदपि द्रव्यम्
। मा=न । गृधः=कदाचिदप्यन्यायाचरणेन ग्रहीतुमिच्छ । भुञ्जीथाः=अत्र
परत्राऽभ्युदयनिःश्रेयसे फले प्राप्य सदाऽऽनन्देः॥
भाष्यसार—मनुष्य परमात्मा को जान कर
क्या करें—इस चलायमान सृष्टि से प्रकृति से लेकर पृथिवी
पर्यन्त जो जड़-चेतन जगत् है, वह सब सकल ऐश्वर्य से सम्पन्न,
सर्वशक्तिमान् परमात्मा से आच्छादित अर्थात् सब ओर से व्याप्त है ।
ईश्वर सर्वत्र है । वह सर्वव्यापक और अन्तर्यामी है । वह सर्वदा सब ओर से मनुष्यों
को देख रहा है । ऐसा निश्चित जानकर परमात्मा से डरते रहें । त्यागपूर्वक पदार्थों
का उपभोग करें । धार्मिक होकर इस लोक में अभ्युदय फल और परलोक में निःश्रेयस फल को
प्राप्त करके सदा आनन्द में रहें । यह धन किसका है ? अर्थात्
किसी का नहीं । यह सब धन परमात्मा का है । उसी ने कर्मानुसार सब को दिया है । अतः
कभी भी अन्याय से किसी के द्रव्य को ग्रहण करने की इच्छा न करें ।
अन्यत्र व्याख्यात—हे
मनुष्य ! जो कुछ इस संसार में जगत् है, उस सब में व्याप्त
होकर नियन्ता है, वह ईश्वर कहाता है । उससे डरकर तू अन्याय
से किसी के धन की आकांक्षा मत कर । अन्याय के त्याग और न्यायाचरण रूप धर्म से अपने
आत्मा से आनन्द भोग॥४०।१॥
(सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास) समीक्षा—ईशावास्योपनिषत्
के विषय के सम्बन्ध में श्री शङ्कराचार्य जी लिखते हैं—ईशावास्यमित्यादयो
मन्त्राः कर्मण्यविनियुक्ताः । तेषामकर्मशेषस्यात्मनो याथात्म्यप्रकाशकत्वात् ।
याथात्म्यं चात्मनः शुद्धत्वापापविद्धत्वैकत्वनित्यत्वाशरीरत्वसर्वगतत्वादि
वक्ष्यमाणम् । तच्च कर्मणा विरुध्येतेति युक्त एवैषां कर्मस्वविनियोगः ।
अर्थात् ‘ईशावास्यम्’ इत्यादि मन्त्रों का कर्म में विनियोग नहीं है, क्योंकि
ये कर्मशेष से भिन्न आत्मा के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले हैं । और
आत्मा का यथार्थस्वरूप है—शुद्धत्व, निष्पापत्व,
एकत्व, नित्यत्व, अशरीरत्व
और सर्वगतत्वादि है, जो आगे कहा जायेगा, इसका कर्म से विरोध है, अतः इन मन्त्रों का कर्म में
विनियोग न होना ही ठीक है ।
समीक्षा—‘ईशावास्यम्’ इत्यादि मन्त्रों में आत्मा के स्वरूप का वर्णन है, अतः
कर्म में इनका विनियोग नहीं है, श्री शङ्कराचार्य जी का कथन
सत्य नहीं है । क्योंकि वेदों में जहां-जहां भी आत्मा का वर्णन है, उन मन्त्रों का भी कर्म में विनियोग नहीं होना चाहिए । परन्तु ऐसा नहीं है,
जैसे यजुर्वेद के ३२वें अध्याय में भी आत्मा का वर्णन है और उसका
विनियोग ‘सर्वमेधयज्ञ’ में किया गया है
। अतः शङ्कराचार्य जी का कथन अनैकान्तिक है । और उनका यह कथन भी सत्य नहीं है कि ‘ईशावास्यम्’ इत्यादि मन्त्रों में आत्मा के स्वरूप
का ही वर्णन है । स्वयं श्री शङ्कर स्वामी ने ‘कुर्वन्नेवेह
कर्माणि०’ मन्त्र के अर्थ में लिखा है कि अग्निहोत्रादि कर्म
करते हुए सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करें ।* [*
‘कुर्वन्नेव इह निवर्त्तयन्नेव
कर्माणि=अग्निहोत्रादीनि जिजीविषेत् ।’ (शाङ्करभाष्यम्)] और
उनका यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा के वर्णन का कर्म से विरोध है । आत्मा के सत्य
स्वरूप को जानकर ही जीवात्मा श्रेष्ठकर्मों में प्रवृत्त होता है और दुष्कर्मों से
बच जाता है । परमात्मा के निष्पापादि गुणों की स्तुति का प्रयोजन भी यही है,
कि परमात्मा की भांति जीवात्मा अपने को निष्पाप बनाने का पूर्ण यत्न
करे और शुद्धस्वरूप परमात्मा की भांति शुद्ध बन सके । अतः आत्मा के स्वरूप ज्ञान
तथा कर्म में परस्पर कोई भी विरोध नहीं है अपितु परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । ज्ञान
के बाद ही जीवात्मा शुभ कर्मों के अनुष्ठान में प्रवृत्त होता है । इसी उपनिषत् के
‘अग्ने नय सुपथा’ मन्त्र का यज्ञकर्म
में तथा ‘वायुरनिलममृतमथेदम्०’ मन्त्र
का अन्त्येष्टि कर्म में विनियोग होने से शङ्कर स्वामी का इन मन्त्रों का कर्म में
विनियोग न मानना काल्पनिक ही है । क—“न ह्येवं लक्षणमात्मनो
याथात्म्यमुत्पाद्यं विकार्यमाप्यं संस्कार्यं कर्त्तृभोक्तृरूपं वा येन कर्मशेषता
स्यात्।” (शाङ्करभा०) अर्थात् आत्मा का ऐसे लक्षणों वाला
यथार्थ स्वरूप—उत्पाद्य, विकार्य,
आप्य, संस्कार्य, कर्त्ता
और भोक्ता रूप नहीं है, जिससे कि वह कर्म का शेष हो सके । ख—“तस्मादात्मनोऽनेकत्वकर्त्तृत्व-भोक्तृत्वादि चाशुद्धत्वपाप- विद्धत्वादि
चोपादाय लोकबुद्धिसिद्धं कर्माणि विहितानि ।” (शाङ्करभाष्यम्)
अर्थात् इसलिए आत्मा के सामान्य लोगों की बुद्धि से सिद्ध होने वाले अनेकत्व,
कर्तृत्व, भोक्तृत्व तथा अशुद्धत्व और
पापमयत्व को लेकर ही कर्मों का विधान किया गया है । ग—तस्मादेते
मन्त्रा आत्मनो याथात्म्यप्रकाशनेन आत्मविषयं स्वाभाविकमज्ञानं निवर्त्तयन्तः
शोकमोहादिसंसारधर्मविच्छित्तिसाधनमात्मैकत्वादि विज्ञानमुत्पादयन्ति ।’ (शाङ्करभाष्यम्) अर्थात् इस कारण से ये मन्त्र आत्मा के यथार्थ स्वरूप का
प्रकाश करके आत्मसम्बन्धी स्वाभाविक अज्ञान को निवृत्त करते हुए संसार के शोक
मोहादि धर्मों के विच्छेद के साधनस्वरूप आत्मैकत्वादि विज्ञान को ही उत्पन्न करते
हैं । समीक्षा—क—आत्मा के दो भेद हैं—जीवात्मा और परमात्मा । दोनों ही अनुत्पाद्य, चेतन व
शाश्वत हैं किन्तु परमात्मा एक, सर्वज्ञ, सर्वत्र व्यापक, निराकार, सर्वशक्तिमान्
आदि गुणयुक्त है और जीवात्मा प्रतिशरीर में भिन्न-भिन्न अल्पज्ञ, परिच्छिन्न, अल्पसामर्थ्य वाला और कर्म करने में
स्वतन्त्र होता हुआ भी फल भोगने में परतन्त्र है । इस निश्चित सिद्धान्त को स्वयं
शङ्कराचार्य जी को भी मुण्डकोपनिषत् के ‘द्वा सुपर्णा सयुजा०’
(मु०—३।१।१) मन्त्र की व्याख्या में स्वीकार
करना पड़ा । अन्यत्र भी ऐसे ही अर्थ करने पड़े । किन्तु कर्त्तृत्व-भोक्तृत्व आदि
किस आत्मा के लक्षणों का प्रतिषेध शङ्कर स्वामी कर रहे हैं ? यह स्पष्ट नहीं किया । क्या परमात्मा सृष्टि का रचयिता होने से कर्त्ता
नहीं है ? क्या जीवात्मा कर्त्ता, भोक्ता
तथा अनेकत्वादि लक्षण वाला नहीं है ? यदि शङ्कराचार्य जी का
अभिप्राय परमात्मा से ही है, क्योंकि वे जीवात्मा की सत्ता
पृथक् नहीं मानते तो भी कर्त्तृत्व-लक्षण का तो प्रतिषेध नहीं करना चाहिए ।
क्योंकि परमात्मा इस समस्त जगत् का कर्त्ता है । ख—शङ्कराचार्य
जी की यह मान्यता भी सत्य नहीं है कि सामान्य बुद्धि से सिद्ध आत्मा के अनेकत्व,
कर्त्तृत्व, भोक्तृत्वादि को लेकर ही कर्मों
का विधान किया है । सामान्य-बुद्धि वालों की बात छोड़ दें तो भी परमात्मा से भिन्न
जीवात्मा की सत्ता स्वीकार करनी पड़ती है । अन्यथा ‘द्वा
सुपर्णा सयुजा०’ जैसे मन्त्रों का अर्थ कैसे भी सङ्गत नहीं
हो सकता। क्या मन्त्रों में भी सामान्य-बुद्धियों के लिए ही वर्णन किया है ?
क्या ‘आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं
भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः’ (कठो०) मन्त्र में आत्मा को भोक्ता,
‘चेतनश्चेतनानाम्०’ (कठोप०) जीवात्मा का
अनेकत्व, ‘तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति०’ (कठोप०) में परमात्मा का जीवात्मा द्वारा हृदयाकाश में साक्षात्कार,
और ‘शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यम्’
(मुण्डको०) में जीवात्मा को बाण और परब्रह्म को लक्ष्य कहकर भी
उपासक व उपास्य में भेद नहीं माना? जिस आत्मा में अनेकत्व,
कर्त्तृत्व, भोक्तृत्वादि को मानकर वेदों में
कर्मों का विधान किया है, क्या वह कल्पित ही है ? क्या आपके कथनानुसार परमात्मा के स्वरूप का ही प्रकाश करने वाले मन्त्र ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि’ में कर्म करते हुए सौ वर्षों
तक जीने का उपदेश परमात्मा के लिए है ? कर्म से आत्मा के
स्वरूप को विरुद्ध मानकर क्या यह सिद्ध किया जा सकता है कि इस मन्त्र में
अग्निहोत्रादि कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने का उपदेश किस के लिए है ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान यदि खोजा जाए तो श्री शङ्कर स्वामी का
अद्वैतवाद स्वतः ही धराशायी हो जाता है । ग—इन मन्त्रों से
आत्मा के स्वाभाविक अज्ञान की निवृत्ति मानना भी एक असङ्गत-कल्पना है । अज्ञान यदि
आत्मा का स्वाभाविक गुण है तो वह कभी भी दूर नहीं हो सकता । क्योंकि स्वाभाविक गुण
किसी भी वस्तु से कदापि पृथक् नहीं हो सकता । जैसे जल का स्वाभाविक गुण शीतलता है
। जल को अग्नि के संयोग से गर्म कितना भी किया जाए, किन्तु
कालान्तर में वह फिर शीतल ही हो जाता है । और यह अज्ञान क्या परमात्मा का
स्वाभाविक गुण है ? क्योंकि जीवात्मा की सत्ता को तो
वेदान्ती स्वीकार नहीं करते । धन्य है, ऐसे अद्वैतमत तथा
उसके संस्थापकों को, जो उपनिषदों में वर्णित सर्वज्ञ
परब्रह्म को भी अज्ञानी बनाने का दुस्साहस करने लगे हैं और अपनी कल्पित मान्यता के
कारण उन्हें ऐसा करना पड़ा है अन्यथा ब्रह्म से भिन्न जीवात्मा की सत्ता स्वीकार
करने पर उसके अज्ञान को दूर करना ही मन्त्रों का लक्ष्य है और वह भी स्वाभाविक
अज्ञान नहीं होता, अपितु नैमित्तिक होता है । ईशोपनिषद् के
प्रथम मन्त्र की व्याख्या में शङ्कराचार्य जी लिखते हैं— क—सब का ईशन=शासन करने वाला परमेश्वर परमात्मा है । वही सब जीवों का आत्मा
होकर अन्तर्यामी रूप से सब का ईशन करता है । उस अपने स्वरूपभूत आत्मा ईश से सब
(जगत्) वास्य=आच्छादन करने योग्य है ।* [*ईशिता परमेश्वरः परमात्मा सर्वस्य । स हि
सर्वमीष्टे सर्वजन्तू- नामात्मा सन्प्रत्यगात्मतया तेन स्वेन
रूपेणात्मनेशावास्यमाच्छादनीयम् ।] ख—यह सब जो कुछ जगती
अर्थात् पृथिवी में जगत् (स्थावर-जङ्गमप्राणिवर्ग) है, वह सब
अपने आत्मा ईश्वर से अन्तर्यामि रूप से यह सब कुछ मैं ही हूं, ऐसा जानकर अपने परमार्थसत्यस्वरूप परमात्मा से यह सम्पूर्ण मिथ्याभूत
चराचर आच्छादन करने योग्य है ।* [*यत् किञ्चिज्जगत्यां पृथिव्यां जगत्, तत्सर्वं स्वेनात्मना ईशेन प्रत्यगात्मतयाहमेवेदं सर्वमिति
परमार्थसत्यरूपेणानृतमिदं सर्वं चराचरमाच्छादनीयं स्वेन परमात्मना।] समीक्षा—मन्त्र के पूर्वार्द्ध में बहुत ही स्पष्ट कहा गया है कि परमात्मा सब का
शासन करने वाला है । और वह स्थावर-जङ्गम दोनों प्रकार के जगत् को व्यापक होने से
आच्छादन कर रहा है । इससे स्पष्ट है कि शासन करने वाला तथा जिस जगत् पर वह शासन कर
रहा है, दोनों भिन्न-भिन्न हैं । यदि परमात्मा से भिन्न किसी
वस्तु की परमार्थसत्ता ही नहीं है तो परमात्मा किस का आच्छादन करता है ? और श्री शङ्कर स्वामी ने दोनों बातें यहां ऐसी लिखी हैं, जिनसे उनका अद्वैतवाद स्वतः ही खण्डित हो जाता है । एक तो यह कि परमात्मा
जीवों का अन्तर्यामी है । यहां जीवात्मा की परमात्मा से भिन्न सत्ता स्वयं स्वीकार
कर ली है । और स्थावर-जङ्गम या चर-अचर ये जगत् के दो भेद भी स्वीकार किए हैं ।
जिन्हें जड़-चेतन रूप से भी कहा जा सकता है । इससे भी परमात्मा से भिन्न चेतन
जीवात्मा तथा अचेतन जड़ जगत् की सत्ता को श्री शङ्कर स्वामी ने स्वयं स्वीकार कर
लिया अन्यथा चराचर जगत् के दो भेद बन ही नहीं सकते । अतः स्पष्ट ही परमात्मा,
भोक्ता-जीवात्मा तथा परमेश्वर से आच्छादित अचेतन प्रकृति की सत्ता
को स्वीकार करने से त्रैतवाद की सिद्धि हो जाती है । इस मन्त्र की व्याख्या में “अन्तर्यामी रूप से यह सब कुछ मैं ही हूं और ‘यह सम्पूर्ण
चराचर जगत् मिथ्या है’ इत्यादि बातें मूल मन्त्र में न होने
से स्वयं कल्पित तथा मिथ्या हैं । मन्त्र के उत्तरार्द्ध की व्याख्या में
शङ्कराचार्य जी लिखते हैं— “इस प्रकार जो ईश्वर ही चराचर
जगत् का आत्मा है, ऐसी भावना से युक्त है, उसके पुत्रादि तीनों एषणाओं के त्याग में ही अधि कार है, कर्म में नहीं । उसके त्याग से आत्मा का पालन कर । त्यागा हुआ अथवा मरा
हुआ पुत्र या सेवक, अपने सम्बन्ध का अभाव हो जाने के कारण
अपना पालन नहीं करता, अतः त्याग से भोग=पालन कर।”* [*एवमीश्वरात्मभावनया युक्तस्य पुत्राद्येषणात्रयसंन्यास एवाधिकारो न कर्मसु
। तेन त्यक्तेन त्यागेनेत्यर्थः । न हि त्यक्तो मृतः पुत्रो वा भृत्यो वा
आत्मसम्बन्धिताया अभावात् आत्मानं पालयति, अतस्त्यागेन
इत्ययमेव वेदार्थः—भुञ्जीथाः=पालयेथाः ।] समीक्षा—मन्त्र में कहा है—तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः=अर्थात्
त्याग भाव से सांसारिक पदार्थों का भोग करो । कर्म का प्रतिषेध नहीं किया। किन्तु
शाङ्कर-भाष्य में कर्म का निषेध करके न केवल व्याख्या ही त्रुटिपूर्ण की है,
प्रत्युत ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि०’ मन्त्र के विरुद्ध भी की है। और जब परमात्मा से भिन्न कोई सत्ता ही श्री
शङ्कराचार्य जी नहीं मानते तो यह आदेश किसे दिया जा रहा है ? क्या परमात्मा परमात्मा को ही आदेश दे रहा है ? और ‘भुञ्जीथाः’ क्रिया का ‘पालन कर’
अर्थ भी यहां सङ्गत नहीं है । ‘आत्मा का पालन
कर’ इस अर्थ की यहां क्या सङ्गति? और
जो उदाहरण दिया है, उसकी भी कोई सङ्गति होनी चाहिए। त्यागा
हुआ पुत्र या सेवक जैसे सम्बन्ध न रहने से पालनादि क्रियाएं नहीं करता, वैसे ही पुत्रादि एषणाओं के त्याग से आत्मा का पालन करने की बात उचित नहीं
है । क्या त्याग से पूर्व ये एषणाएं पालन करती थीं, जो उनके
त्याग के बाद पालन की आशा के अभाव में पालन करने का आदेश दिया है ? और आत्मा नित्य अच्छेद्यादि गुणों वाला है, उसका
क्या पालन करना ? और यदि भाष्यकार का भाव यह हो कि इन एषणाओं
से बचने के लिए कहा गया है तो भी अर्थ की सङ्गति तभी हो सकती है जबकि ‘भुञ्जीथाः’ क्रिया का भोगना अर्थ किया जाए । क्योंकि
भोग करता हुआ मनुष्य ही एषणाओं के जाल में फंस सकता है, अतः
उसे बचने की शिक्षा देना भी उचित है । व्याकरण के अनुसार भी श्री शङ्कराचार्यकृत ‘भुञ्जीथाः’ की व्याख्या ‘पालयेथाः’
अशुद्ध है । यह ‘भुज पालनाभ्यवहारयोः’ धातु का रूप है । यद्यपि ‘भुज’ धातु के पालन करना तथा अभ्यवहार=खाना दोनों अर्थ हैं । किन्तु ‘भुजोऽनवने’ (अ० १।३।६६) इस पाणिनीय सूत्र में पालन
से भिन्न अर्थ में आत्मनेपद होता है । पालन अर्थ में परस्मैपद होता है । मन्त्र
में आत्मनेपद का रूप है, अतः उसका अर्थ ‘पालन करना’ व्याकरणनियम से भी अशुद्ध है । दीर्घतमाः
। आत्मा=परमात्मा । भुरिगनुष्टुप् । धैवतः ॥ अथ वैदिककर्मणः प्राधान्यमुच्यते । अब
वैदिक कर्म की प्रधानता का उपदेश किया जाता है ।
प्र० क्र० – (स) वह
(ईश्वर) । (परि) सब ओर से । (आगात्) विद्यमान है । (शुक्रम्) जगत् को उत्पन्न करने
वाला । (अकायम्) शरीर-रहित । (अव्रणम्) रन्ध्र रहित। (आस्नाविरम्) नस-नाड़ियों के
बन्धन से बाहर । (शुद्धम) पवित्र । (अपापविद्धम्) पापो से मुक्त । (कविः) ज्ञानी ।
(मनीषी) मन को भीतरी भावो का ज्ञाता । (परिभूः) सर्वव्यापक । (स्वयम्भूः) जन्म
रहित (याथातथ्यत) ठीक-ठीक । (अर्थात्) वस्तुओं को । (व्यदधात्) भले प्रकार उपदेश
करता है । (शाश्वतीभ्य समाभ्य) सदैव नित्य जीवों के लिये । अर्थ- वह परमात्मा,
जिसकी आज्ञानुसार कर्म करने से मनुष्य दुःख से छूट जाता है, सर्वव्यापक है । उसका न कोई प्रतिनिधि है, न
सांसारिक राजाओ के समान मन्त्री, जागीरदार और सैनिक है । इन
सब की आवश्यकता केवल एकदेशीय और शरीर-धारी के लिये ही होती है । परमात्मा शरीर
रहित है और शरीर-धारी न होने से रन्ध्र (रोम कूप) इत्यादि से रहित है । जो किसी
प्रकार भी क्षत-विक्षत हो नही सकता , क्योंकि वह शरीर और
नाड़ियो के बन्धन में ही नही । वह सब प्रकार की अपवित्रताओं से रहित होने से शुद्ध
है, क्योकि अशुद्धता सदा स्थूल पदार्थों में घर करती है ।
अतः परमात्मा सबसे अधिक सूक्ष्म है, अतः वह तीनों काल में
शुद्ध है और पाप के फल (दुःख) से भी रहित है , क्योकि
परमात्मा की आज्ञा के विरुद्ध चलने का नाम पाप है । वह परमात्मा अपने विरुद्ध कभी
नहीं वर्तता, एवं सर्वज्ञ होने से प्रत्येक भेद को , जो जीवों की आँख ओझल है, जानते है । प्रत्येक वस्तु
का उन्हें ज्ञान है, प्रत्येक मन के भीतर भाव उनको ज्ञात है;
इसीलिये संसार में बिना ज्ञान के काम करने से जीवों को हानि पहुँचती
है । इसी कारण परमात्मा ने प्रत्येक वस्तु का ठीक-ठीक ज्ञान जीवों को सुख और
शान्ति के निमित्त उपदेश किया है । प्रश्न- परमात्मा ने किस प्रकार जीवों को ज्ञान
का उपदेश किया है और वह ज्ञान कौन-सा है ? उत्तर- वह ज्ञान
वेदों मे है, जिसमें जीव को मुक्ति लाभ के निमित्त परमात्मा
ने उपदेश किया है । प्रश्न- निराकार परमात्मा विशेष कर वेदों की रचना और उसका किस
प्रकार उपदेश कर सकता है ? उपदेश करना वाणी से ही होता है और
जिसके वाणी न हो, वह किस प्रकार उपदेश कर सकता है ? यद्यपि किसी-किसी अवसर पर शरीर और इन्द्रियादि से भी उपदेश किया जा सकता
है; परन्तु जिसके शरीर ही न हो, वह किस
प्रकार उपदेश कर सकता है ? अतः निराकार का वेदों के द्वारा
उपदेश करना सर्वथा असम्भव है । उत्तर- शरीर और जिह्वा तो केवल बारहवालों को उपदेश
हेतुक आवश्यक है । परन्तु जो हमारे भीतर है वह हमको तो बिना शरीर और जिह्वा के ही
उपदेश कर सकता है । जैसे, जब किसी मनुष्य का मन बुरे कार्य
की ओर जाता है, तो आत्मा उससे भय, लज्जा
और शंका उत्पन्न कराके रोकने का उपदेश करती है अर्थात् यह विचार उत्पन्न होता कि
सम्भव है कि यदि कोई देख ले तो क्या न हो जाय और सफलता हो अथवा न हो । अतः जो सबके
भीतर विद्यमान है, उसको उपदेश करने के लिये शरीर धारण की
आवश्यकता नही । प्रश्न- निराकार बिना शरीर के जगत् को कैसे बना सकता है, क्योंकि हर एक वस्तु के बनाने के लिये हाथ-पाँव की आवश्यकता है । यदि
हाथ-पाँव और साधन (यंत्र) न हों, तो यह नाना प्रकार का जगत्
किस प्रकार बन सकता है ? उत्तर- हाथ-पाँव या यंत्र की
आवश्यकता भी एकदेशी को होती है, जो सर्वव्यापक हो, उसे हाथ-पाँव आदि किसी भी अंग की आवश्यकता नहीं । पेड़ो पर भिन्न-भिन्न
प्रकार की चित्रकारी हाथ-पाँव के बिना बन जाती है, फूलों की
पंखुडियाँ, फूलो का रूप, मनुष्य का
शरीर, संक्षेपतः लाखो वस्तुएँ बिना हाथ-पाँव के ही तो बनी है,
जिससे प्रतीत होता है कि बिना हाथ-पाँव के उसके द्वारा बनना संभव है
। केवल एकदेशी जीवात्मा को हाथ-पाँव की आवश्यकता होती है, सर्वव्यापक
परमात्मा को बनाने के लिये हाथ-पाँव आदि किसी साधन की आवश्यकता नहीं । इसके सिवाय
हाथ-पाँव वाला सब कामों को कर भी नही सकता, क्योंकि कोई ऐसा
मनुष्य दिखाई नही देता, जो परमाणु को पकड़ सके और न इस समय
तक कोई ऐसा यंत्र आविष्कार ही हुआ विद्यमान है कि जिसके द्वारा परमाणु को पकड़ सके
। परमाणु के देखने-योग्य भी कोई सूक्ष्मदर्शक यंत्र इस समय तक नहीं बना, जिससे प्रतीत होता है कि सृष्टि कर्ता वही हो सकता है कि जिसके हाथ-पाँव
और शरीर न हों, किन्तु वह परमाणु से भी अधिक सूक्ष्म और
सर्वव्यापी हो ।
आचार्य राजवीर शास्त्री
पदार्थः—(सः) परमात्मा (परि) सर्वतः (अगात्) व्याप्तोऽस्ति (शुक्रम्) आशुकरं=सर्वशक्तिमत् (अकायम्) स्थूलसूक्ष्मकारणशरीररहितम् (अव्रणम्) अच्छिद्रमच्छेद्यम् (अस्नाविरम्) नाड्यादिसम्बन्धबन्धरहितम् (शुद्धम्) अविद्यादिदोषरहितत्वात्सदा पवित्रम् (अपापविद्धम्) यत् पापयुक्तं पापकारि पापप्रियं कदाचिन्न भवति तत् (कविः) सर्वज्ञ (मनीषी) सर्वेषां जीवानां मनोवृत्तीनां वेत्ता (परिभूः) यो दुष्टान् पापिनः परि भवति=तिरस्करोति सः (स्वयम्भूः) अनादिस्वरूपो, यस्य संयोगे- नोत्पत्तिर्वियोगेन विनाशो, मातापितरौ, गर्भवासो, जन्मवृद्धिक्षयौ च न विद्यन्ते (याथातथ्यतः) यथार्थतया (अर्थान्) वेदद्वारा सर्वान् पदार्थान् (वि) विशेषेण (अदधात्) विधत्ते (शाश्वतीभ्यः) सनातनीभ्योऽनादिस्वरूपाभ्यः स्वस्वरूपेणोत्पत्तिविनाशरहिताभ्यः (समाभ्यः) प्रजाभ्यः ॥८॥ अन्वयः—हे मनुष्याः ! यद्ब्रह्म शुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धं पर्यगाद्यः कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूः परमात्मा शाश्वतीभ्यः समाभ्यो याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधात् स एव युष्माभिरुपासनीयः ॥८॥ सपदार्थान्वयः— हे मनुष्याः ! यद् ब्रह्म शुक्रम् आशुकरं सर्वशक्तिमद् अकायं स्थूलसूक्ष्म- कारणशरीररहितम् अव्रणम् अच्छिद्र- मच्छेद्यम् अस्नाविरं नाड्यादि- सम्बन्धबन्धरहितं शुद्धम् अविद्यादि- दोषरहितत्वात्सदा पवित्रम् अपापविद्धं यत् पापयुक्तं पापकारि पापप्रियं कदाचिन्न भवति तत् परि+अगात् सर्वतः व्याप्तोऽस्ति; यः कविः सर्वज्ञः मनीषी सर्वेषां जीवानां मनोवृत्तीनां वेत्ता परिभूः यो दुष्टान्=पापिनः परिभवति=तिरस्करोति सः स्वयम्भूः= परमात्मा अनादिस्वरूपो यस्य संयोगे- नोत्पत्तिर्वियोगेन विनाशो माता-पितरौ, गर्भवासो, जन्मवृद्धिक्षयौ च न विद्यन्ते शाश्वतीभ्यः सनातनीभ्योऽनादि- स्वरूपाभ्यः स्वस्वरूपेणोत्पत्ति-विनाशरहिताभ्यः समाभ्यः प्रजाभ्यः याथातथ्यतः यथार्थतया अर्थान् वेदद्वारा सर्वान् पदार्थान् वि+अदधात् विशेषेण विधत्ते । सः परमात्मा एव युष्माभिरुपासनीयः ॥४०।८॥ भाषार्थ—हे मनुष्यो ! जो ब्रह्म (शुक्रम्) शीघ्रकारी, सर्वशक्ति- मान् (अकायम्) स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से रहित है, (अव्रणम्) छिद्र रहित एवं जिसके दो टुकड़े नहीं हो सकते, (अस्नाविरम्) नाड़ी आदि के बन्धन से रहित है, (शुद्धम्) अविद्या आदि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र है, (अपापविद्धम्) जो कभी भी पाप से युक्त, पाप करने वाला और पाप से प्रेम करने वाला नहीं है, वह (परि+अगात्) सर्वत्र व्यापक है; जो (कविः) सर्वज्ञ, (मनीषी) सब जीवों की मनोवृत्तियों को जानने वाला, (परिभूः) दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला, (स्वयम्भूः) अनादिस्वरूप वाला, जिसकी संयोग से उत्पत्ति और वियोग से विनाश नहीं होता, जिसके माता-पिता कोई नहीं और जिसका गर्भवास, जन्म, वृद्धि और क्षय नहीं होते हैं, वह परमात्मा (शाश्वतीभ्यः) सनातन, अनादि स्वरूप वाली, अपने स्वरूप की दृष्टि से उत्पत्ति और विनाश से रहित (समाभ्यः) प्रजा के लिए (याथातथ्यतः) यथार्थता से (अर्थान्) वेद के द्वारा सब पदार्थों का (व्यदधात्) अच्छी तरह से उपदेश करता है । (सः) वह परमात्मा ही तुम्हारे लिए उपासना करने योग्य है ॥४०।८॥ भावार्थः—हे मनुष्याः ! यद्यनन्तशक्तिमदजं, निरन्तरं, सदामुक्तं, न्यायकारिणं निर्मलं, सर्वज्ञं, सर्वस्य साक्षि, नियन्तृ, अनादिस्वरूपं ब्रह्म कल्पादौ जीवेभ्यः स्वोक्तैर्वेदैः शब्दार्थ-सम्बन्धविज्ञापिकां विद्यां नोपदिशेत्तर्हि कोऽपि विद्वान् न भवेत्; न च धर्मार्थकाममोक्षफलं प्राप्तुं शक्नुयात् । तस्मादिदमेव सदैवोपा- ध्वम् ॥४०।८॥ भावार्थ—हे मनुष्यो ! यदि अनन्त शक्तिशाली, अजन्मा, अखण्ड, सदा से मुक्त, न्यायकारी, पापरहित, सर्वज्ञ, सब का द्रष्टा, नियन्ता और अनादिस्वरूप वाला ब्रह्म सृष्टि के आदि में स्वयं प्रोक्त वेदों के द्वारा शब्द, अर्थ और सम्बन्ध को बतलाने वाली विद्या का उपदेश न करे तो कोई भी विद्वान् न बन सके; और न धर्म, अर्थ काम, मोक्ष रूप फल को प्राप्त कर सके। इसलिए इस ब्रह्म की उपासना सदा करो ॥४०।८॥ भा॰ पदार्थः—शुक्रम्=अनन्तशक्तिमत् (ब्रह्म) । अकायम्=अजम् (ब्रह्म) । अव्रणम्=निरन्तरं (अखण्डम्) । अस्नाविरम्=सदा मुक्तम् । शुद्धम्=निर्मलम् । अपापविद्धम्=न्यायकारि । मनीषी=सर्वस्य साक्षी । परिभूः=नियन्तृ । स्वयम्भूः=अनादिस्वरूपं (ब्रह्म) । समाभ्यः=जीवेभ्यः । अर्थान्=स्वोक्तैर्वेदैः शब्दार्थसम्बन्धविज्ञापिकां विद्याम् व्यदधात्=उपदिशेत् ब्रह्म । सः=इदमेव ॥८॥ भाष्यसार—परमेश्वर कैसा है—जो ब्रह्म—शीघ्रकारी, सर्वशक्तिमान्, स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से रहित, छिद्र रहित एवं अखण्ड, नाड़ी आदि के बन्धन से रहित, अविद्यादि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र या जो कभी पापयुक्त, पापकारी और पापप्रिय नहीं है; वह सर्वत्र व्यापक है । वह सर्वज्ञ, सब जीवों की मनोवृत्तियों का ज्ञाता, दुष्ट पापी जनों का तिरस्कार करने वाला, स्वयम्भू अर्थात् अनादि है, उसकी संयोग से उत्पत्ति और वियोग से विनाश नहीं होता । उसके माता-पिता कोई नहीं । वह कभी गर्भवास नहीं करता । वह जन्म, वृद्धि और क्षय से रहित है । अनन्त शक्ति वाला, अज, निरन्तर, सदा मुक्त, न्यायकारी, निर्मल, सर्वज्ञ, सब का साक्षी, नियन्ता, अनादि स्वरूप ब्रह्म—सृष्टि के आदि में सनातन, अनादि स्वरूप, अपने स्वरूप से उत्पत्ति और विनाश से रहित जीवों के लिए यथार्थ रूप में वेद के द्वारा सब पदार्थों का उपदेश करता है । यदि ब्रह्म स्वयं प्रोक्त वेदों के द्वारा शब्द, अर्थ, सम्बन्ध की विज्ञापक विद्या का उपदेश न करे तो कोई भी मनुष्य विद्वान् न हो सके और न कोई धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप फल को प्राप्त कर सके । अतः सब मनुष्य मन्त्रोक्त ब्रह्म की ही उपासना करें ॥४०।८॥ अन्यत्र व्याख्यात—(क) ‘स पर्यगाच्छु०’ ॥ ईश्वर की स्तुति—वह परमात्मा सब में व्यापक, शीघ्रकारी और अनन्त बलवान् जो शुद्ध, सर्वज्ञ, सब का अन्तर्यामी, सर्वोपरि विराजमान, सनातन, स्वयं सिद्ध परमेश्वर अपनी जीवरूप सनातन अनादि प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अर्थों का बोध वेद द्वारा कराता है । यह सगुण स्तुति अर्थात् जिस-जिस गुण सहित परमेश्वर की स्तुति करना वह सगुण; (अकाय) अर्थात् वह कभी शरीर धारण वा जन्म नहीं लेता, जिसमें छिद्र नहीं होता, नाड़ी आदि के बन्धन में नहीं आता और कभी पापाचरण नहीं करता, जिसमें क्लेश, दुःख, अज्ञान कभी नहीं होता; इत्यादि जिस-जिस राग, द्वेषादि गुण से पृथक् मानकर परमेश्वर की स्तुति करना है, वह निर्गुण स्तुति है । इससे अपने गुण, कर्म, स्वभाव भी करना, जैसे वह न्यायकारी है तो आप भी न्यायकारी होवे, और जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुण-कीर्तन करता जाता है और अपने चरित्र नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है ॥ (सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास) (ख) स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः (यजु० ४०।८) ॥ जो स्वयम्भू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है वह सनातन जीव रूप प्रजा के कल्याणार्थ यथावत् रीतिपूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है । (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समु०) (ग)—“शाश्वतीभ्यः समाभ्यः” (अर्थात् अनादि सनातन जीवरूप प्रजा के लिए वेद द्वारा परमात्मा ने सब विद्याओं का बोध किया है । (सत्यार्थप्रकाश, अष्टम समुल्लास) (घ)—“अज एकपात्” “अकायम्” इत्यादि विशेषणों से परमेश्वर को जन्म, मरण और शरीर धारण रहित वेदों में कहा है । (सत्यार्थप्रकाश, एकादश समुल्लास) (ङ)—“स पर्यगाच्छु०” जो परमेश्वर—(कविः) सब का जानने वाला, (मनीषी) सब के मन का साक्षी, (परिभूः) सब के ऊपर विराजमान और (स्वयम्भूः) अनादि स्वरूप है, जो अपनी अनादि स्वरूप प्रजा को अन्तर्यामी रूप से और वेद के द्वारा सब व्यवहारों का उपदेश किया करता है । (स पर्यगात्) सो सब में व्यापक (शुक्रम्) अत्यन्त पराक्रम वाला, (अकायं) सब प्रकार के शरीर से रहित (अव्रणं) कटना और सब रोगों से रहित (अस्नाविरं) नाड़ी आदि के बन्धन से पृथक्, (शुद्धं) सब दोषों से अलग और (अपापविद्धं) सब पापों से न्यारा इत्यादि लक्षणयुक्त परमात्मा है; वही सब को उपासना के योग्य है । ऐसा ही सब को मानना चाहिए; क्योंकि इस मन्त्र से भी शरीरधारण करके जन्म-मरण होना इत्यादि बातों का निषेध परमेश्वर विषय में पाया ही गया । इससे इसकी पत्थर आदि की मूर्ति बनाकर पूजना किसी प्रमाण वा युक्ति से सिद्ध नहीं हो सकता। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ग्रन्थप्रामाण्याप्रामाण्यविषय) (च)—“स, पर्यगात्” वह परमात्मा आकाश के समान सब जगह में परिपूर्ण (व्यापक) है, “शुक्रम्” सब जगत् का करने वाला वही है “अकायम्” और वह कभी शरीर (अवतार) नहीं धारण करता, क्योंकि वह अखण्ड और अनन्त, निर्विकार है, इससे देहधारण कभी नहीं करता, उससे अधिक कोई पदार्थ नहीं है, इससे ईश्वर का शरीर धारण करना कभी नहीं बन सकता । “अव्रणम्” वह अखण्डैकरस, अच्छेद्य, अभेद्य, निष्कम्प और अचल है इससे अंशांशीभाव भी उसमें नहीं है, क्योंकि उसमें छिद्र किसी प्रकार से नहीं हो सकता, “अस्नाविरम्” नाड़ी आदि का प्रतिबन्ध (निरोध) भी उसका नहीं हो सकता, अतिसूक्ष्म होने से ईश्वर का कोई आवरण नहीं हो सकता, “शुद्धम्” वह परमात्मा सदैव निर्मल अविद्यादि जन्म, मरण, हर्ष, शोक, क्षुधा, तृष्णादि दोषोपाधियों से रहित है, शुद्ध की उपासना करने वाला शुद्ध ही होता है और मलिन का उपासक मलिन ही होता है, “अपापविद्धम्” परमात्मा कभी अन्याय नहीं करता क्योंकि वह सदैव न्यायकारी ही है, “कविः” त्रैकालज्ञ (सर्ववित्) महाविद्वान् जिसकी विद्या का अन्त कोई कभी नहीं ले सकता, “मनीषी” सब जीवों के मन (विज्ञान) का साक्षी सब के मन का दमन करने वाला है, “परिभूः” सब दिशा और सब जगह में परिपूर्ण हो रहा है, सब के ऊपर विराजमान है, “स्वयम्भूः” जिसका आदिकारण माता, पिता, उत्पादक कोई नहीं किन्तु वही सब का आदिकारण है । “याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।” उस ईश्वर ने अपनी प्रजा को यथावत् सत्य, सत्यविद्या जो चार वेद उनका सब मनुष्यों के परमहितार्थ उपदेश किया है । उस हमारे दयामय पिता परमेश्वर ने बड़ी कृपा से अविद्यान्धकार का नाशक, वेदविद्यारूप सूर्य प्रकाशित किया है और सब का आदिकारण परमात्मा है, ऐसा अवश्य मानना चाहिए । ऐसे विद्यापुस्तक का भी आदिकारण ईश्वर को ही निश्चित मानना चाहिए । विद्या का उपदेश ईश्वर ने अपनी कृपा से किया है, क्योंकि हम लोगों के लिए उसने सब पदार्थों का दान दिया है तो विद्यादान क्यों न करेगा ? सर्वोत्कृष्ट विद्यापदार्थ का दान परमात्मा ने अवश्य किया है तो वेद के विना अन्य कोई पुस्तक संसार में ईश्वरोक्त नहीं है । जैसा पूर्ण विद्यावान् और न्यायकारी ईश्वर है वैसा ही वेद पुस्तक भी है । अन्य कोई पुस्तक ईश्वरकृत वेदतुल्य वा अधिक नहीं है । अधिक विचार इस विषय का “सत्यार्थप्रकाश” और “ऋग्वेदादि- भाष्यभूमिका” मेरे किये ग्रन्थों में देख लेना । (आर्याभिविनय २।२) समीक्षा—ईशावास्योपनिषत् के आठवें मन्त्र में परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है । शङ्कराचार्य तथा स्वामी दयानन्द, दोनों के भाष्यों में परमात्मा के स्वरूप के विषय में प्रायः समानता है । जैसे— मन्त्रगत पद महर्षि दयानन्दकृत पदार्थ श्रीशंकराचार्यकृत पदार्थ सः परमात्मा आत्मा पर्यगात् सर्वतो व्याप्तोऽस्ति समन्ताद् गतवान् आकाशवद् व्यापी शुक्रम् सर्वशक्तिमत् शुद्धं ज्योतिष्मद्दीप्तिमान् अकायम् स्थूलसूक्ष्मकारणशरीररहितम् अशरीरो लिङ्गशरीरवर्जितः अव्रणम् अच्छिद्रमछेद्यम् अक्षतम् अस्नाविरम् नाड्यादिसम्बन्धरहितम् स्नावाः शिरा यस्मिन् विद्यन्ते, अव्रणमस्नाविरमित्याभ्यां स्थूलशरीरप्रतिषेधः । शुद्धम् अविद्यादिदोषरहितत्वात् निर्मलविद्यामलरहितम् इति सदा पवित्रम् कारणशरीरप्रतिषेधः अपापविद्धम् यत् पापयुक्तं पापकारि धर्माधर्मादिपापवर्जितम् पापप्रियं कदाचिन्न भवति कविः सर्वज्ञः क्रान्तदर्शी सर्वदृक् मनीषी सर्वेषां जीवानां मनोवृत्तीनां मनस ईषिता सर्वज्ञ ईश्वर वेत्ता परिभूः यो दुष्टान् पापिनः परि- सर्वेषामुपरि भवति भवति तिरस्करोति स्वयम्भूः अनादिस्वरूपः यस्य संयोगे- स्वयमेव भवति येषामुपरि नोत्पत्तिर्वियोगेन विनाशो भवति यश्चोपरि स सर्वः मातापितरौ गर्भवासो जन्म- स्वयमेव भवति । वृद्धिक्षयौ च न विद्यन्ते । याथातथ्यतः यथार्थतया यथाभूतकर्मफलसाधनतः अर्थान् वेदद्वारा सर्वान् पदार्थान् कर्त्तव्यपदार्थान् व्यदधात् विशेषेण विधत्ते विहितवान् यथानुरूपं व्यभजद् शाश्वतीभ्यः उत्पत्तिविनाशरहिताभ्यः नित्याभ्यः समाभ्यः प्रजाभ्यः (जीवेभ्यः) संवत्सराख्येभ्यः प्रजापतिभ्यः उपर्युद्धृत दोनों भाष्यकारों के मत में परमात्मा सर्वत्र व्यापक, स्थूलादि त्रिविध शरीर रहित, अविद्यादि दोषों से रहित, सर्वशक्तिमान्, ईशावास्योपनिषद् 75 प्रकाशस्वरूप, अच्छेद्य, सर्वविध पापों से शून्य, सर्वद्रष्टा, सर्वज्ञ, मनोवृत्तियों का ज्ञाता, पापकर्म करने वालों का शासक तथा अनादिस्वरूप अर्थात् उत्पत्तिविनाशरहित है । इस प्रकार परमात्मा के स्वरूप के विषय में दोनों के एकमत होते हुए भी शाङ्कर-भाष्य में निम्न-दोष तथा अद्वैतमत के प्रतिपादन में मिथ्याग्रह किया गया है— मन्त्र में परमात्मा को अविद्यादि दोषरहित होने से ‘शुद्ध’ कहा है। विद्या और अविद्या का सम्बन्ध जीवात्मा से है, भौतिक शरीर से नहीं, किन्तु शाङ्कर-भाष्य में ‘शुद्धम्’ का अर्थ ‘कारण शरीर रहित’ किया है। तीनों प्रकार के शरीर प्रकृति के ही विकार होते हैं । विद्या ज्ञान को कहते हैं, इसका सम्बन्ध अचेतन शरीरों से कैसे सम्भव है । और ‘अपापविद्धम्’ का अर्थ ‘धर्माधर्मादि पाप रहित’ करना भी अनुचित है। क्योंकि अधर्म तो पाप है, इससे परमात्मा रहित है, किन्तु धर्म को पाप नहीं कहा जा सकता । ‘पाप’ शब्द का धर्म और अधर्म दोनों अर्थ कैसे सम्भव हैं? धर्म का श्री शङ्कराचार्य जी क्या स्वरूप मानते हैं, यहां यद्यपि स्पष्ट नहीं किया है, किन्तु कोई भी विद्वान् धर्म शब्द को पापार्थ में प्रयोग नहीं कर सकता । यदि ‘धारणाद् धर्म इत्याहुः’ धर्म का अर्थ किया जाता है तो भी परमात्मा के लिए असङ्गत नहीं होता है, क्योंकि वह समस्त लोक-लोकान्तरों को धारण किए हुए है । सृष्टिरचना, स्थिति और प्रलय करना परमात्मा के धर्म हैं । वह जीवों की भलाई के लिए सृष्टि-रचना करता है, यह उपकार करना धर्म है । उसने जीवों के लिए वेद का उपदेश दिया और वह कर्मानुसार फल प्रदाता है । यह न्यायाचरण धर्म है । अतः परमात्मा को धर्महीन कहना असङ्गत है । ‘परिभूः’ पद का ‘ऊपर होना’ तथा ‘स्वयम्भूः’ पद का ‘स्वयं ही होना’ अर्थ भी त्रुटिपूर्ण है । परमात्मा सर्वत्र व्यापक है, उसका ऊपर नीचे होना अथवा किसी स्थान विशेष में होना कैसे सम्भव है ? यदि भाष्यकार का आशय यह हो कि वह सब से उत्कृष्ट होने से सर्वोपरि है तो भी अद्वैतमत के विरुद्ध है । क्योंकि जब परमात्मा से भिन्न वे किसी अन्य वस्तु को स्वीकार ही नहीं करते तो किसकी अपेक्षा से उसे सर्वोत्कृष्ट कहोगे । और परिपूर्वक ‘भू’ धातु का प्रयोग ‘तिरस्कार’ अर्थ में ही उपयुक्त है । वह परमात्मा कर्म-फल व्यवस्था के अनुसार पापी व्यक्तियों को दण्ड देकर तिरस्कार करता है । 76 उपनिषद्-भाष्य और ‘स्वयम्भूः’ पद की व्याख्या में यह मानना—जिनके ऊपर है, और जो ऊपर है, वह सब स्वयं ही होता है, इसलिए उसे ‘स्वयम्भूः’ कहते हैं । यह कितना पूर्वनिर्धारित मिथ्याग्रह से युक्त तथा मन्त्रार्थ के भी विपरीत अर्थ है । अद्वैतमत वालों की यह मान्यता है कि जीव और प्रकृति की परमार्थ में कोई सत्ता ही नहीं है । वह परमात्मा ही सब प्राणियों में स्वयं ही कार्य कर रहा है । यदि मनुष्यादि के शरीरों में वह परमात्मा ही है तो वह स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीरों से रहित कैसे हो सकता है ? मनुष्यादि सब एकदेशी, अल्पज्ञ, पापविद्ध तथा शरीर वाले हैं, यदि यह परमात्मा ही है तो मन्त्रोक्त परमात्मा का सब स्वरूप मिथ्या ही मानना पड़ेगा, मनुष्यादि शरीरों में कार्य करने वाला आत्मा जन्म-मरण वाला तथा शरीरों वाला है, वह परमात्मा कदापि नहीं हो सकता, अतः मन्त्रार्थ में कथित ब्रह्मस्वरूप से शाङ्कर-मन्त्रव्याख्या विपरीत होने से कदापि मान्य नहीं हो सकती । और ‘अर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः’ के अर्थ में तो श्री शङ्कराचार्य जी ने मिथ्याग्रह की पराकाष्ठा दिखा दी है । क्योंकि इसके सत्यार्थ को स्वीकार करने से उनका अद्वैतवाद सर्वतः धराशायी हो जाता है । इसकी व्याख्या श्री शङ्कराचार्य जी ने यह की है—“उस नित्य ईश्वर ने सर्वज्ञ होने से यथाभूत कर्म, फल और साधन के अनुसार कर्त्तव्यपदार्थों का नित्य रहने वाले संवत्सर नामक प्रजापतियों के लिए विभाग किया ।” ये नित्य संवत्सर नामक प्रजापति कौन हैं ? यह शाङ्कर भाष्य में स्पष्ट नहीं है । किन्तु यदि उनका अभिप्राय काल से है तो उसके ‘शाश्वतीभ्यः’ का विशेषण होने से उसे नित्य मानना पड़ेगा । और काल को नित्य मानने वाले परमात्मा से भिन्न नित्यवस्तु को न मानने से अद्वैतवाद की प्रतिज्ञा का निर्वाह नहीं कर सकते । और संवत्सरादि काल के परिमाण हैं । सूर्य से इनकी गणना होती है। जब सूर्य नहीं रहता, तब संवत्सरादि काल परिमाण कैसे होंगे ? फिर इनको शाश्वत=नित्य कैसे माना जा सकता है ? और यदि यही अर्थ यहां सङ्गति के अनुसार ठीक है तो इन संवत्सरों को चेतन या अचेतन मानना पड़ेगा । वह ईश्वर सर्वज्ञ होने से इनके कर्म-फल के अनुसार कर्तव्यों का विभाग करता है, इसकी सङ्गति संवत्सरों के साथ कैसे सङ्गत होगी ? इनके कर्म क्या हैं? और यह ईश्वर इनको किस रूप में फल देता है ? यथार्थ में इस मिथ्या ईशावास्योपनिषद् 77 व्याख्या का कारण पूर्वाग्रहमात्र ही है क्योंकि एक स्थान पर मिथ्या अर्थ करने पर व्याख्याता उसकी सङ्गति न पाकर सर्वत्र लड़खड़ाता रहता है। शाङ्कर-भाष्य की भी यही दशा है । यद्यपि श्री शङ्कराचार्य जी ने ‘द्वा सुपर्णा सयुजा०’ की व्याख्या में ईश्वर को कर्मफल-प्रदाता और जीवात्मा को भोक्ता स्पष्टरूप में स्वीकार किया है, किन्तु यहां मिथ्याग्रह के कारण सत्यार्थ नहीं कर सके, यह आश्चर्य की बात है । महर्षि दयानन्द कृत व्याख्या में ऐसी विसंगति कहीं भी नहीं है । श्री उव्वट ने इस मन्त्र के ‘अर्थान् व्यदधात्’ पदों की बहुत ही विचित्र व्याख्या की है । वे लिखते हैं—“अर्थात् विहितवान्’ त्यक्त- स्वस्वामिसम्बन्धैश्चेतनाचेतनैरुपभोगं कृतवान्।” अर्थात् अर्थान् व्यदधात्= पदार्थों को बनाया । उसका तात्पर्य यह है कि स्व-स्वामी सम्बन्ध से रहित चेतन और अचेतन पदार्थों से उपभोग किया ॥ समीक्षा—यहां ‘अर्थान् व्यदधात्’ पदों का जो तात्पर्यार्थ निकाला है, वह सर्वथा अशुद्ध तथा कल्पित है । यहां जो चेतन-अचेतन पदार्थों में स्व-स्वामी सम्बन्ध का निषेध किया है, वह प्रत्यक्ष विरुद्ध है । चेतन प्राणियों का अचेतन पदार्थों के साथ स्व-स्वामी सम्बन्ध प्रत्यक्ष देखा जाता है । प्रत्येक मनुष्य स्वकीय पदार्थों का स्वयं को स्वामी मानता है। क्या यह स्व-स्वामी सम्बन्ध नहीं है ? और ब्रह्म का चेतन-अचेतन पदार्थों से उपभोग करना भी सम्भव नहीं है । जिस ब्रह्म को मन्त्र में ‘अकायम्=शरीररहित’ कहा है, वह विना शरीर के उपभोग कैसे करेगा। और अन्यत्र उपनिषद् में स्पष्ट लिखा है—“अनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति” (मुण्डक०) अर्थात् ब्रह्म भोग नहीं करता । अतः श्री उव्वट की व्याख्या प्रमत्त-प्रलाप मात्र ही है । कुछ विद्वानों ने इस मन्त्र के ‘समाभ्यः’ पद में पञ्चमी विभक्ति मानकर ‘अनादिकाल से’ अर्थ किया है । किन्तु कालवाची शब्दों में व्याकरण के नियम से पञ्चमी विभक्ति सर्वत्र नहीं होती । ‘सप्तमी-पञ्चम्यौ कारकमध्ये ।’ (अ० २।३।७) इस पाणिनि के सूत्र से कालवाची शब्दों में पञ्चमी विभक्ति वहां होती है, जहां कालवाची शब्द दो कारक-शक्तियों के मध्य में हो । प्रस्तुत मन्त्र में ‘समाः’ पद का दो कारक शक्तियों से सम्बन्ध नहीं है, प्रत्युत एक कर्तृकारक (ब्रह्म) से ही सम्बन्ध है । अतः यहां पञ्चमी विभक्ति मानकर अर्थ करना व्याकरणशास्त्रीय भूल है ।
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