कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः । एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥ २ ॥
स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
प० क्र०— (कुर्वन) करता हुआ । (एव) ही । (इह) इस संसार में । (कर्म्माणि) कर्मो को । (जिजीविपेत्) जाना चाहे । (शतम् ) सौ । (समा) वर्ष । (एवं) इस भाँति । (त्वयि) तुझमें । (न) नही । (अन्यथा) अन्य प्रकार । (इतः) इसके सिवाय । (अस्ति) है । (न) नही । (कर्म्म) कार्य । (लिप्यते) आलेपन करता है (नरे) मनुष्य मे । अर्थ- इस वेद मन्त्र मे परमात्मा जीव को इस बात का उपदेश करते है कि हे जीव ! तू इस संसार में सौ वर्ष तक कर्म करता हुआ जीने की इच्छा कर अर्थात् यावज्जीवन पर्यन्त कर्म करता रह । तेरे लिये सब से उत्तम मार्ग यही है, क्योंकि शुभ कर्म जीव के बन्धन का कारण नहीं होते । बहुत से मनुष्य यह कहेंगे कि मन्त्र मे तो केवल कर्म करने का विधान है, तुम शुभ कर्म किस प्रकार कहते हो । तो इसका उत्तर यह है कि ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध दूसरो का अधिकार करने वाले कर्मों के करने की मनाई पिछले मन्त्र में हो चुकी है । उनके सिवाय जो कर्म है, वह सब ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल होने से शुभ ही है । किसी प्रकार की बुराई हो नही सकती, क्योंकि ईश्वर कभी दुःखदायक कर्म के करने का उपदेश जीव को नही करते और कर्म के उपदेश का प्रयोजन भी यही है । मनुष्य सदा भला या बुरा कुछ न कुछ कर्म करता रहता है, अतः कर्म के उपदेश की कोई आवश्यकता न थी । परन्तु पूर्व मन्त्र में किसी का अधिकार अपहरण करने वाले कर्मो का उपदेश कारण किया कि बिना शुभ कर्मों के किये मनुष्य अशुभ कर्मो से बच नही सकता । बुरे कर्मो से सदा दुःख उत्पन्न होता है परन्तु कोई मनुष्य दुख कीइच्छा से कोई कार्य नही करता । इस सब बुराई को दूर करने के लिये उपदेश किया कि किसी समय भी शुभ-कार्य से रहिन न रहो, जिसमें अवकाश न मिलने से अशुभ कर्म का विचार ही उत्पन्न न हो । क्योंकि मन सदा कर्म करता रहता है, वह किसी समय भी कर्म से भिन्न नहीं होता । ऐसी दशा में जबकि मन की शक्ति को समाधि या सुषुप्ति के द्वारा सर्वथा रोक दिया जाय, मनुष्य का सबसे बढ़कर कर्त्तव्य यह है कि वह मन को अवकाश न दे । इसलिये एक दृष्टांत लिखते हैः— एक समय किसी धनी के यहां एक मनुष्य ने आकर निवेदन किया कि मैं नौकरी चाहता हूँ । धनी ने पूछा— " क्या वेतन लोगे ?" सेवक ने कहा—" मेरा वेतन यही है कि मुझे सदा काम करने को मिलता रहे । जब ही काम न दोगे, मै तुम्हें मार डालूँगा ।" धनी ने सोचा कि सेवक तो बहुत अच्छा है, जो कुछ वेतन नही चाहता और काम करने के लिये सदैव तत्पर है और कभी विश्राम लेने का नाम भी नही लेता । हमे अपने कामों के लिये बहुत-से-मनुष्यो की आवश्यकता पडती है । जब काम देखेंगे उसको काम देते रहेगे, शेष नौकरों को निकाल देगे । तात्पर्य यह है कि उस धनी ने सेवक की प्रतिज्ञात सेवा अंगीकार करली । सेवक बड़ा फुर्तीला था । काम जिह्व से निकला नही कि झट पूर्ण किया । एक दो दिन मे ही धनी के सब काम समाप्त हो गये । अब उसे चिन्ता हुई कि यदि इसे काम नही देते, तो यह अवश्य मार डालेगा । यदि काम दे, तो इतना काम कहाँ से लावें । इस चिन्ता से धनी के चित्त को सब प्रकार अशान्त कर दिया । खाना-पीना सब बन्द हो गया । एक दिन किसी विद्वान ने धनी से पूछा कि आपके पास इतना धन है, तो भी आप इतने दुर्बल क्यों होते जाते हो । धनी ने सब वृतान्त वर्णन किया । विद्वान् ने कहा कि तुम अपने कामों पर ही उसे निर्भर क्यों रखते हो ? उसे मुहल्ले और शहर के मनुष्यों के कामों पर लगा दो । यदि वह उसे भी पूरा कर दिखाये, तो सब मनुष्य के हित के कामों पर लगा दो। यदि इससे भी निवृत्त हो जाय, तो प्रत्येक जीव की सेवा का काम लो । यह असीम (बड़ा) काम उससे जन्म भर में पूरा न होगा और तुम उसके हाथ से बच जाओगे । यही दशा प्राणियों के मन की है । जिस समय उसे शुभ-कार्य से समय मिलेगा उसी समय मनुष्य मनुष्य के नाश करने वाले कामों में लग जावेगा । इस कारण उस मन को परोपकार के कार्य में लगाये बिना संसार की बुराइयो से बच नही सकते । न बुरा काम करके विपत्ति रहित और कष्ट से मुक्त हो कर किसी शुभ परिणाम की आशा ही कर सकता है । मनुष्य के अपने काम इतने थोड़े हैं कि मन उनको अति शीघ्र पूरा कर लेता है । भगवान् रामचन्द्रजी ने भी वीर हनुमान को यही उपदेश किया था कि इच्छा रूपी नदी शुभ और अशुभ रूपी दो कर्म मार्गो में बहती है । जो इच्छा ईश्वर की आज्ञा के अनुसार हो, वह शुभ है और जो उसके विपरीत है, बुरी कामना है । इसलिये परोपकार की इच्छा जो शुभ है, सदा मन मे रखकर संसार के उपकार पर कमर कसनी चाहिये । जब तक प्राण रहे, कभी उस उपकार के काम से दूर होकर जीवन न व्यतीत करना चाहिये, क्योंकि मनुष्य जीवन इतना अमूल्य है कि उसका बार-बार मिलना अत्यन्त कठिन है । जो मनुष्य ईश्वर के नियमों की चिन्ता न करके मनुष्य जीवन को वृथा कामो में खो रहे है, उनसे बढ़कर मूर्ख कोई नही; और जो दूसरो को हानि पहुँचा कर निज लाभ प्राप्त करना चाहते है, वह पूर्ण पशु है । मनुष्य वही बुद्धिमान कहलाते है, जो सदा परोपकार के कामो मे लगे रहते है । जिनके जीवन का ध्येय ही दूसरो की भलाई करना है और जो संसार के उपकार में लगे रहते है, वही प्राणी ईश्वर-ज्ञान प्राप्त करते है । जो शुभ काम दूसरो के हित के लिये किये जाते है, वह कभी बंधन के निमित्त नही होते । बंधऩ के हेतुक वही कर्म होते हैं, जो ईश्वर की आज्ञा के प्रतिकूल किया जाते है और जिनमें दूसरों का स्वत्व (अधिकार) छीनने का भाव विद्यमान है । अतएव, जो मनुष्य अपने जीवन को परोपकार मे पूरा करेंगे, वही संसार के बुरे कर्मो से बचकर शुभ-कर्मो द्वारा मन को शुद्ध करके तत्वज्ञान प्राप्त कर मुक्ति के अधिकारी होंगे । इस वेद-मंत्र का यही तात्पर्य है ।
आचार्य राजवीर शास्त्री
पदार्थः—(कुर्वन्) (एव) (इह) अस्मिन् संसारे (कर्माणि) धर्म्याणि वेदोक्तानि निष्कामकृत्यानि (जिजीविषेत्) जीवितुमिच्छेत् (शतम्) (समाः) संवत्सरान् (एवम्) अमुना प्रकारेण (त्वयि) (न) निषेधे (अन्यथा) (इतः) अस्मात् प्रकारात् (अस्ति) भवति (न) निषेधे (कर्म) अधर्म्यमवैदिकं मनोऽर्थसम्बन्धिकर्म (लिप्यते) (नरे) नयन- कर्त्तरि ॥२॥ अन्वयः—मनुष्य इह कर्माणि कुर्वन्नेव शतं समा जिजीविषेदेवं धर्म्ये कर्मणि प्रवर्त्तमाने त्वयि नरे न कर्म लिप्यते, इतोऽन्यथा नास्ति लेपाभावः ॥२॥ सपदार्थान्वयः—मनुष्य इह अस्मिन् संसारे कर्माणि धर्म्याणि वेदोक्तानि निष्कामकृत्यानि कुर्वन्नेव शतं समाः संवत्सरान् जिजीविषेत् जीवितुमिच्छेत् । एवम् अमुना प्रकारेण धर्म्ये कर्मणि प्रवर्त्तमाने त्वयि नरे नयनकर्त्तरि न—कर्म अधर्म्यमवैदिकं मनोरथसम्बन्धिकर्म लिप्यते । इतः अस्मात् प्रकाराद् अन्यथा नास्ति न भवति लेपाभावः॥४०।२॥ भाषार्थ—मनुष्य (इह) इस संसार में (कर्माणि) धर्मयुक्त वेदोक्त, निष्काम-कर्मों को (कुर्वन्नेव) करता हुआ ही (शतम्) सौ (समाः) वर्ष (जिजीविषेत्) जीने की इच्छा करे । (एवम्) इस प्रकार से धर्मयुक्त कर्म में लगे हुए (त्वयि) तुझ (नरे) व्यवहारों के नायक नर में (कर्म) अपने मनोरथ से किए अधर्म युक्त, अवैदिक कर्म का (न लिप्यते) लेप नहीं रहता है । (इतः) इस वेदोक्त प्रकार से भिन्न (अन्यथा) अन्य प्रकार से कर्म के लेप का अभाव (न) नहीं (अस्ति) है । ४०।२॥ भावार्थः—मनुष्या आलस्यं विहाय सर्वस्य द्रष्टारं न्यायाधीशं परमात्मानं कर्त्तुमर्हां तदाऽऽज्ञां च मत्वा शुभानि कर्माणि कुर्वन्तोऽशुभानि त्यजन्तो ब्रह्मचर्येण विद्यासुशिक्षे प्राप्योपस्थेन्द्रियनिग्रहेण वीर्यमुन्नीयाऽल्पमृत्युं घ्नन्तु, युक्ताऽऽहारविहारेण च शतवार्षिकमायुः प्राप्नुवन्तु । यथा यथा मनुष्याः सुकर्मसु चेष्टन्ते, तथा तथैव पापकर्मतो बुद्धि- र्निवर्त्तते । विद्याऽऽयुः सुशीलता च वर्द्धते ॥४०।२॥ भावार्थ—मनुष्य लोग आलस्य को छोड़ कर सबके द्रष्टा न्यायाधीश परमात्मा को, और आचरण करने योग्य उसकी आज्ञा को मानकर शुभ-कर्मों को करते हुए और अशुभ कर्मों को छोड़ते हुए ब्रह्मचर्य के द्वारा विद्या और उत्तम-शिक्षा को प्राप्त करके उपस्थ-इन्द्रिय के संयम से वीर्य को बढ़ाकर अल्पायु में मृत्यु को हटावें, और युक्त आहार-विहार से सौ वर्ष की आयु को प्राप्त करें । जैसे-जैसे मनुष्य श्रेष्ठ-कर्मों की ओर बढ़ते हैं, वैसे-वैसे ही पाप-कर्मों से उनकी बुद्धि हटने लगती है । जिसका फल यह होता है कि—विद्या, आयु और सुशीलता आदि गुणों की वृद्धि होती है ॥४०।२॥ शतं समाः=शतवार्षिकमायुः । कर्म=पापकर्म । न लिप्यते=निवर्त्तते ॥ भाष्यसार—वैदिक कर्म की प्रधानता—मनुष्य इस संसार में वैदिक निष्काम कर्म करता हुआ ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करे । तात्पर्य यह है कि मनुष्य आलस्य को छोड़कर, सब के द्रष्टा, न्यायाधीश, परमात्मा को तथा आचरण करने योग्य उसकी आज्ञा को मानकर शुभ कर्म करता हुआ और अशुभ कर्मों को छोड़ता हुआ, ब्रह्मचर्य से विद्या और सुशिक्षा को प्राप्त करके, उपस्थेन्द्रिय के संयम से वीर्य को बढ़ाकर अल्पायु का विनाश करे । युक्त आहार-विहार से सौ वर्ष की आयु को प्राप्त करे । इस प्रकार से वैदिक (धर्मयुक्त) कर्म में प्रवृत्त होने से मनुष्य अपने मनोरथ से किये अवैदिक (अधर्मयुक्त) कर्म में लिप्त नहीं होता । जैसे-जैसे मनुष्य वैदिक कर्मों में प्रवृत्त होता है वैसे-वैसे पापकर्म से उसकी बुद्धि निवृत्त होती जाती है । विद्या, आयु और सुशीलता बढ़ती है । इस प्रकार को छोड़कर कर्म में लेपाभाव का अन्य कोई प्रकार नहीं है ॥४०।२॥ अन्यत्र व्याख्यात—जो परमेश्वर की पुरुषार्थ करने की आज्ञा है, उसको जो कोई तोड़ेगा वह सुख कभी न पावेगा । जैसे “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतꣳ समाः।” (य० ४०।२) परमेश्वर आज्ञा देता है कि मनुष्य सौ वर्ष पर्यन्त अर्थात् जब तक जीवे तब तक कर्म करता हुआ जीने की इच्छा करे, आलसी कभी न हो ॥४०।२॥ (सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास) समीक्षा—‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि०’ मन्त्र की भूमिका में शङ्कराचार्य जी लिखते हैं— ‘अथ इतरस्यानात्मज्ञतया आत्मग्रहणाय अशक्तस्येदमुपदिशति ।’ अर्थात् अब जो आत्मतत्त्व का ग्रहण करने में असमर्थ दूसरा अनात्म पुरुष है, उसके लिए इस दूसरे मन्त्र का उपदेश करते हैं । इससे स्पष्ट है कि श्री शङ्कराचार्य जी के मत में इसमें आत्मस्वरूप का वर्णन नहीं है । इसलिए इस मन्त्र की व्याख्या अनात्मज्ञ पुरुष के लिए की । किन्तु जब यह मन्त्र भी उपनिषत् का है और उपनिषदों के विषय में प्रारम्भ में ही श्री शङ्कराचार्य जी ने लिखा है— ‘सर्वासामुपनिषदामात्मयाथात्म्यनिरूपणेनैव उपक्षयात् ।’ अर्थात् समस्त उपनिषदों की परिसमाप्ति आत्मा के यथार्थ स्वरूप का निरूपण करने में ही होती है । क्या इस मन्त्र को उपनिषत् का भाग न माना जाए ? अथवा आपकी मान्यता को, जिसमें कर्म तथा आत्मस्वरूप में विरोध माना है, मिथ्या समझा जाए ? आपका यह लेख भी वेद से विरुद्ध है कि—“आत्मा के सामान्य लोगों की बुद्धि से सिद्ध होने वाले अनेकत्व, कर्त्तृत्व, भोक्तृत्व तथा अशुद्धत्व और पापमयत्व को लेकर ही (अग्निहोत्रादि) कर्मों का विधान किया गया है।”* [*“तस्मादात्मनोऽनेकत्वकर्त्तृत्वभोक्तृत्वादि चाशुद्धत्वपापविद्धत्वादि चोपादाय लोकबुद्धिसिद्धं कर्माणि विहितानि ।” (ईशोप० शा० भा०)] वेद का आदेश तो यह है कि जब तक जीवे, तब तक अग्निहोत्रादि कर्म करता हुआ जीने की इच्छा करे । मन्त्र में कहीं भी ऐसा निर्देश नहीं है कि यह अनात्मज्ञ पुरुष के लिए उपदेश है । और शङ्कराचार्य जी ने स्वयं मनुष्य की बड़ी से बड़ी आयु १०० वर्ष मानी है । और मन्त्र की व्याख्या में अग्निहोत्रादि कर्म करता हुआ, ऐसा ही अर्थ किया है । क्या यह उपदेश अनात्मज्ञ पुरुष के लिए हो सकता है ? जबकि मन्त्र का देवता ‘आत्मा’ है, जो मन्त्र का प्रतिपाद्य विषय है । जिसके अनुसार आत्मा (जीवात्मा) के लिए जीवन भर वैदिक कर्मों को करने के लिए उपदेश दिया गया है । किन्तु आप इस प्रकरण सङ्गत अर्थ को कैसे स्वीकार करते?* [*“कुर्वन्नेव इह निवर्त्तयन्नेव कर्माण्यग्निहोत्रादीनि जिजीविषेज् जीवितुमिच्छेत् शतं शतसंख्याकाः समाः संवत्सरान् । तावद्धि पुरुषस्य परमायुर्निरूपितम् ।” (ईशोप० शा० भा०)] आपने जीवब्रह्म की एकता की मिथ्या मान्यता को मानकर और जीवात्मा की पृथक् सत्ता न मानकर वेदों का अनर्थ कर दिया है । सत्य से विमुख व्यक्ति कहां-कहां और कैसे-कैसे ठोकरें खाता है, इसका यह मन्त्र एक नमूना है । आपकी इस गलत शिक्षा के कारण नवीन-वेदान्ती साधु स्वयम् अज्ञानग्रस्त होने से दूसरों को भी अज्ञानी ही बना रहे हैं । और आत्मज्ञान के लिए कर्म का विरोध मानकर निष्क्रिय बने हुए हैं । महर्षि दयानन्द की मन्त्रार्थभूमिका देखिए—‘अथ वैदिककर्मणः प्राधान्यमुच्यते’ अर्थात् अब वैदिक कर्मों की प्रधानता का उपदेश किया जाता है । मन्त्र में भी कहा है ‘न कर्म-लिप्यते नरे’ अर्थात् श्रेष्ठ कार्यों को करते हुए अधर्मयुक्त कर्मों का लेप नहीं रहता । अतः शङ्कराचार्य जी की मन्त्रार्थभूमिका प्रकरणविरुद्ध होने से मान्य नहीं हो सकती । श्री शङ्कराचार्य जी की यह मान्यता भी अवैदिक तथा मिथ्या है कि—‘मनुष्य की बड़ी से बड़ी आयु १०० वर्ष है ।’* [*‘जिजीविषेज्जीवितुमिच्छेच्छतं शतसंख्याकाः समाः संवत्सरान् । तावद्धि पुरुषस्य परमायुर्निरूपितम् ।” (ईशोप० शा० भा०)] (३६।२४) के ‘तच्चक्षुर्देव०’ मन्त्र में ‘भूयश्च शरदः शतात्’ कहकर सौ वर्षों से अधिक देखने-सुनने, जीने तथा उपदेश करने की प्रार्थना की गई है । और ‘त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम्’ (यजु० ३।६२) मन्त्र में पुरुष की आयु ४०० वर्षों की बताई है । महाभाष्यकार महर्षि पतञ्जलि ने अपने समय में मनुष्यों की आयु में कमी देखकर ही लिखा है— किं पुनरद्यत्वे, चिरं जीवति, वर्षशतं जीवति । (महाभाष्य-नवा०) अर्थात् आजकल क्या है, अधिक जीता है तो सौ वर्ष जीता है । और प्रत्यक्ष के अनुसार भी श्री शङ्कराचार्य जी की मान्यता मिथ्या है । क्योंकि सौ वर्षों से अधिक आयु के व्यक्ति अब भी विद्यमान हैं । छान्दोग्य के ऐतरेय महिदास की ११६ वर्ष की आयु लिखी है— “स ह षोडशं वर्षशतमजीवत् ।” (खं० १६।७) इस मन्त्र के भाष्य में श्री शङ्कराचार्य जी ने ‘ज्ञान, कर्म, समुच्चय’ का खण्डन करने के लिए स्वयं शङ्का की है—“यह कैसे जाना गया कि पूर्व मन्त्र से [संन्यासी की ज्ञाननिष्ठा का तथा द्वितीय मन्त्र से संन्यास में असमर्थ पुरुष की कर्मनिष्ठा का वर्णन किया गया है ।] इसका उत्तर देते हैं—‘क्या तुम्हें स्मरण नहीं कि जैसा पहले कह चुके हैं—ज्ञान और कर्म का विरोध पर्वत के समान अविचल है ।”* [*“कथं पुनरिदमवगम्यते पूर्वेण संन्यासिनो ज्ञाननिष्ठोक्ता द्वितीयेन तदशक्तस्य कर्मनिष्ठेति । उच्यते ज्ञानकर्मणोर्विरोधं पर्वतवदकम्प्यं यथोक्तं न स्मरसि किम् ?” (ईशोप० शा० भा०)] मन्त्र में ज्ञान-कर्म के विरोध की कोई बात नहीं कही है, और नहीं यह बात कही है कि पूर्व मन्त्र में संन्यासी के लिए ज्ञान का और दूसरे में अनात्मज्ञ के लिए कर्म का उपदेश है । मन्त्र में मनुष्यमात्र के लिए उपदेश किया गया है कि मनुष्य परमात्मा को सर्वत्र व्यापक समझकर लोभादि दुर्गुणों से बचकर अनासक्त होकर सांसारिक सुखों का भोग करें और दूसरे मन्त्र में आजीवन यज्ञादि शुभकर्म करने का उपदेश है । ज्ञान और कर्म में पर्वत के समान अटल विरोध कहना महान् आश्चर्य की बात है । विना ज्ञान के कर्म अन्धे के समान और विना कर्म के ज्ञान पङ्गुवत् (लंगड़े के तुल्य) होता है । इन दोनों के समुच्चय के विना लौकिक अथवा पारलौकिक किसी भी प्रकार की उन्नति सम्भव नहीं है । स्वयम् इसी अध्याय के निम्न मन्त्र में ज्ञान-कर्म का समुच्चय दिखाया गया है— विद्यां चाविद्यां च यस्तद् वेदोभयं सह । अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥ (यजु० ४०।१४) अर्थ—जो मनुष्य विद्या (ज्ञान) और अविद्या (कर्म) को साथ-साथ जान लेता है, वह अविद्या (कर्म) से मृत्यु को पार करके विद्या (ज्ञान) से अमृत को प्राप्त करता है । ज्ञान के विना कर्म और कर्म के विना ज्ञान दोनों परस्पर अधूरे हैं । ज्ञानपूर्वक कर्मानुष्ठान ही सर्वाङ्गपूर्ण है। और केवल ज्ञान से मोक्ष कदापि नहीं हो सकता । क्योंकि मोक्ष भी कर्मों का फल ही है; अतः ज्ञान-कर्म का समुच्चय परमावश्यक है। वेद-मन्त्र में इस बात पर बल देने के लिए ‘उभयं सह’ शब्दों से उपदेश किया है । इस मन्त्र के अविद्यया=कर्मणा ‘विद्यया=ज्ञानेन’ अर्थ करने के लिए शङ्कराचार्य जी को भी सत्यार्थ करने के लिए बाध्य होना पड़ा। क्योंकि मन्त्र में अविद्या और विद्या को साथ-साथ जानने के लिए कहा गया है । यदि इनमें परस्पर विरोध होता तो ऐसा कदापि मूल-मन्त्र में उल्लेख न होता । दीर्घतमाः । आत्मा=स्पष्टम् । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥ अथात्महन्तारो जनाः कीदृशा इत्याह ॥ अब आत्मा के हननकर्त्ता अर्थात् आत्मा के विरुद्ध आचरण करने वाले जन कैसे होते हैं, यह उपदेश किया है ॥
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