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दिनों का सुदिनत्व

 दिनों का सुदिनत्व


जातो जायते सुदिनत्वे अह्नौ समय आ विदथे वर्धमानः।

पुनन्ति धीरा अपसौ मनीषा देवया विप्र उदियति वाचम्॥

-ऋग्वेद ३11

ऋषिः-विश्वामित्रः । देवता: -विश्वेदेवाः । छन्दः-निचत् त्रिष्टुप।

पदपाठ-जातः । जायते। सुऽदिनत्वे ।अह्रामासऽमर्थे ।आ। विदथे। वर्द्धमानः । पुनन्ति। धीराः । अपसः । मनीषा । देवया। विप्र। उत्। इयर्ति। वाचम्।

(जात: जायते)      - जन्मा का जन्म हुआ है।

(सुदिनत्वे आहाम) - (1) दिनों को सुदिन करने के लिये,

(समर्थ आ विदथे वर्धमानः)- (1)

जीवन-संग्राम में भली भाँति ज्ञान-विज्ञान द्वारा सर्वत्र आगे बढ़ने के लिये।

(पुनन्ति धीरा अपसो मनीषा)-

धीर ज्ञानीजन पवित्र करते हैं कर्मों को बुद्धि से (प्रज्ञा से),

(देवया विप्रः उत् इयर्ति वाचम्)-

देवों का यजन करने वाला, दिव्यताओं का उपासक, श्रेष्ठ मेधावी, ज्ञानवान शुद्ध कल्याणी वाणी को उत्कृष्टता से प्राप्त होता व उच्चारता है।

ऋग्वेद के तीसरे मण्डल का आठवाँ सूक्त जीवन में साधना का सूक्त है। विद्या और ब्रह्मचर्य के अनुष्ठान का लक्ष्य क्या होना चाहिये, किन गुणों का ग्रहण मनुष्य को यज्ञ वाहक (श्रेष्ठतम कर्मों को आगे ले जाने वाले) बनने के लिये करना चाहिये, इसका बहुत ही सुन्दर काव्यमय वर्णन इस सूक्त में उपलब्ध है।

वेद की सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि इसकी शिक्षायें हर उस व्यक्ति के लिये हैं, जो इस धरती पर जन्मा है, जो इस संसार में आया है। प्रभु की कृपा से जिस भी आत्मा को यह मनुष्य का चोला (शरीर) मिला है, उसके लिये यह आवश्यक है कि वह अपना

आत्म-विश्लेषण करें, कि वह क्या है, वह आयुपर्यन्त क्या करे, कैसे इस संसार में, अपनी उन्नति, अपना आत्म विकास करें? प्रस्तुत मन्त्र में इसी प्रकार की जीवन-साधना मन्त्रदृष्टा ऋषि विश्वामित्र' ने विश्व के समस्त देव और देवियों के लिये बड़े ही व्यवहारिक ढंग से प्रस्तुत की है। यह इसी से स्पष्ट है कि मन्त्र का देवता, अर्थात् विषय है "विश्वेदेवाः"। (जातः जायते) जातः का अर्थ है-'जन्मा''जायते'= 'जिसका जन्म होता रहता है'।"जातः जायते" से निम्न बातें स्पष्ट होती हैं।

(१) मनुष्य 'जन्मा' है, परन्तु उसका यह प्रथम और अन्तिम जन्म नहीं है। इस जन्म से पहले भी जन्म होते रहें हैं, इस जन्म के बाद भी होते रहने हैं। यदि मुक्ति हो भी गई, तो परान्त काले मुक्ति का आनन्द लेने के बाद फिर जन्म लेना है।

2. मनुष्य 'जन्मा' है। जन्मदाता परमात्मा है। परमात्मा की यह महती अनुकम्पा है, कि वह सूक्ष्म चेतन तत्व 'जीवात्मा' को कर्मानुसार शरीर प्रदान करता रहता है। यह जन्म प्रभु की देन है।

(३) प्रत्येक 'जन्म' की एक सीमा-रेखा है, जिसे कहते हैं, 'आयु'। आयु का प्रदाता, मनुष्य स्वयं नहीं, माता-पिता नहीं, परमात्मा है। वेद के अनेक मन्त्रों में इसलिये साधक "आयुः", "प्राण", या “दीर्घायु" की प्रार्थना करता है।

4. 'आत्मा' अमर है, किन्तु 'शरीर' नश्वर है। जितने दिन 'आत्मा' और 'शरीर' संयुक्त है, वे ही दिन हमारी आयु हैं। यही दिन हमारी पूंजी है, हर जन्म की दौलत हैं। यह हमारे ऊपर हैं कि चाहे इस दौलत का हम वर्धन करें, या चाहे इसको बर्बाद कर दें।

वेद कहता है कि यह दिन मिले हैं, हमें दिनों को सुदिन बनाने के लिये (सुदिनत्व अह्राम) दिनों के सुदिनत्व के लिये। दिनों के सुदिनत्व में भी तीन साधनायें निहित हैं- आत्मोन्नति, देशोन्नति – विश्वोन्नति।

यह जन्म हमें मिला है आत्मोन्नति के लिये, अर्थात् शारीरिक और आत्मिक उन्नति के लिये। मनुष्य तन में ही यह सम्भव है, कि हम 'पुरुषार्थ' और 'परमार्थ' कर सकें। कर्म करने में चूंकि मनुष्य जन्म में स्वतन्त्रता है, अत: 'पुरुषार्थ' और 'परमार्थ' की कोई सीमा नहीं। जितना चाहें, करें, । पुरुषार्थ और परमार्थ ही हमारे जन्मों को सफल और सार्थक करने वाले हैं। आत्मोन्नति के लिये आयुपर्यन्त यदि हम दो बातों का ध्यान रखेंगें, तो दिन सुदिन हो जायेंगें। एक 'नित्य कर्म' और दूसरे 'नियत कर्म'। प्रातः जागरण से लेकर शयन काल तक, जिसमें उद्बोधन, प्रातः स्तवन, शौच, व्यायाम प्राणायाम, स्नान, सूर्य-दर्शन, पंचमहायज्ञ, योगाभ्यास, स्वाध्याय, सत्संग सब कुछ दैनिक साधना की बातें, भोजन से भजन तक, आ जाती हैं, सब 'नित्य कर्म' कहाते हैं। मनु महाराज ने कहा है

वेदोदितं स्वकं कर्म नित्यं कुर्यादतन्द्रितः।

तद्धि कुर्वन् यथाशक्ति प्राप्नोति परमां गतिम॥ -मनुस्मृति ४।१४

अर्थात् जो मनुष्य प्रतिदिन आलस्य रहित होकर यथाशक्ति वेदोक्त, 'नित्य कर्मों' को करता है, वह परम-गति (मोक्षानन्द) को प्राप्त होता है।

दूसरे हैं 'नियत कर्म' जो जीविकोपार्जन/व्यवसाय, के दायित्वों से लेकर, परिवार, समाज, राष्ट्र और वसुधा के प्रति दायित्वों से सम्बद्ध हैं । नियत कर्मों के प्रति गीता में कहा है

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि चते न प्रसिद्धयेदकर्मणः॥

तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचरः।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥ -श्रीमद्भगवद्गीता ३/८।१९

तू नियत कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने (अकर्म) की अपेक्षा कर्म करना निस्सन्देह श्रेष्ठ है। अकर्म से तो शरीर-यात्रा भी न हो सकेगी। अनासक्त होकर निरन्तर कर्तव्य-कर्म करता रह। आसक्त होकर ही कर्म करता हुआ पुरुष परम--पद को प्राप्त होता है"। यहाँ यह समझ लेना चाहिये, कि जो जहाँ नियत (नियुक्त) है, वहीं उसका नियत कर्म है। नियत कर्म का अनासक्ति के साथ, किन्तु निष्ठापूर्वक सम्पादन करना ही कर्म योग है। प्रत्येक व्यक्ति प्रतिक्षण कहीं न कहीं स्थित है। और जो जहाँ स्थित है, वहीं उसके लिये नियत कर्म है। घर में, आफ़िस में, कारखाने में, दुकान पर, ग्राम में, नगर में, खेत में, जंगल में, पर्वत पर, जल में, थल में, रण में, जो जहाँ पर नियत है, वहीं नियत कर्म उसके सामने सदा समुपस्थित हैं। प्रतिदिन के नियत कर्मों को सुचारु रूप से सम्पन्न कर लेना, दिन को सुदिन बना लेना है। नियत कर्मों को सुसम्पन्न करने के लिये आवश्यक है, सुविचारित योजना, योजनाबद्ध तरीके से निष्ठापूर्वक सम्पादन, तथा लक्ष्य की प्राप्ति हेतु कार्य-निष्पादन सम्बन्धी मूल्यांकन । यदि हम समय का वर्गीकरण इस प्रकार कर लें, कि रात्रि में शयन से पूर्व अगले दिन की कार्यसूची और संध्या समय लक्ष्य प्राप्ति हेतु जो कार्य-निष्पादन सम्बन्धी मूल्यांकन कर लें, तो निश्चय ही हमारे दिन सुदिन होते चले जायेंगे। हर व्यक्ति यह महसूस करता है, कि जिस दिन भी सारे सोचे हुये कार्य वह पूरे कर लेता है, वह स्वमेव ही कह उठता है, आज का दिन बहुत अच्छा गया । यदि यह स्थिति निरन्तर हो जावे, तो समझो, सारी आयु सारा जीवन ही सफल हो गया।

सुदिनत्व की साधना आत्मोन्नति पर ही नहीं समाप्त हो जाती। देश और विश्व में यदि दुर्दिन छायें हों, तो किसी भी मनुष्य के दिन सुदिन नहीं हो सकते। रोने-धोने, शिकायत और आलोचना करने मात्र से दिनों का दुर्दिनत्व दूर नहीं किया जा सकता। इसके लिये भी साधना करनी पड़ती है। महापुरुषों के जीवन इस देशोन्नति और विश्व-जागृति अभियान के ज्वलन्त उदाहरण हैं। यह साधना निस्सन्देह

आत्म-उन्नति की साधना से अत्यन्त कठिन है, परन्तु कुदिनों और दुर्दिनों की मंडराती काली छाया दूर करने के लिये प्रत्येक जन्मे हुये को करनी ही पड़ेगी।

मन्त्र में इसीलिये कहा (समयं आ विदते वर्धमानः)। यह संसार एक समर है, युद्ध है, संग्राम है, दुर्दिनों को सुदिनों में बदलने के लिये। इसके लिये सब ओर से ज्ञान-विज्ञान का आश्रय लेकर भली-भाँति इस समर में संघर्ष करना है। आयु की सार्थकता संघर्ष करने में है। आलस्य और प्रमाद के वशीभूत होकर आलसी पड़े रहने से दुर्दिन जाने वाले नहीं, और सुदिन आने वाले नहीं। कुदिन या दुर्दिन तो तभी आते हैं, जब अविद्या, अज्ञान, पाखण्ड, कुबोध, कुमति, कदाचार की व्याप्ति होती है। यही फैलाते हैं, अभाव, अन्याय, भ्रष्टाचार, व्यभिचार, अनाचार और आतंकवाद। इनसे टक्कर लेना है, और इनको युद्ध-स्तर पर 'समर्थ' अर्थात् सामरिक शक्ति से तथा 'विदथ' (ज्ञान-विज्ञान) के आश्रय से समाप्त कर दुर्दिनों को सुदिनों में, या बुरे दिनों को अच्छे दिनों में बदल देना ही मनुष्य की वर्धमानता' है। ज्ञान, विवेक, सुबोध, सुमति और सच्चरित्रता ही वर्धमान बनने की निशानियाँ है। अंततोगत्वा वर्धमान ही महावीर सिद्ध होता है। महावीर ही ताकत की लड़ाई सामरिक-शक्ति और रणनीति से तथा बौद्धिक या वैचारिक लड़ाई ज्ञान-विज्ञान के प्रचार-प्रसार से लड़ता है, और अंत में अधर्म और अत्याचारियों का विनाश कर धर्म की विजय-पताका लहराता है।

कैसे आयेगी यह सामरिक शक्ति; कैसे होगी, ज्ञान-विज्ञान की साधना । मन्त्र में इसके लिये बड़े ही व्यवहारिक गुर दिये गये हैं। पहला है-(पुनन्ति धीराः अपसोमनीषाः) धीर [ज्ञानीजन] पवित्र करते हैं कर्मों को बुद्धि से। यहाँ चारों शब्द 'पुनन्ति', 'धीराः', 'अपसः' और 'मनीषा' अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। कामनारहित, निस्स्वार्थ, निष्काम, अनासक्त, शान्त, गम्भीर और धैर्यवान ज्ञानीजनों की संज्ञा होती है 'धीर''निर्मल, निभ्रान्त, निश्चयात्मक और तीव्र बुद्धि का नाम है 'मनीषा'। जो जल के समान व्यापते और सतत प्रवाहित होते रहते हैं, ऐसे कर्मों/कार्यों को कहते हैं, 'अपसः''पुनन्ति' में पवित्र करने की क्रिया निहित है। इस प्रकार दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हैं। एक, हमें 'धीर' और 'मनीषी' बनना है, दूसरे अपने कर्मों/ कार्यों की पवित्रता ही हमारे अन्दर सामरिक शक्ति और आत्मिक बल का संचार करती है; और कर्मों को पवित्र करने के लिये 'धीर' और 'मनीषी' होना ज़रूरी है।

वैसे भी दिनों को सुदिन बनाना या दुर्दिनों को सुदिनों में परिवर्तित कर देना कोई एक दिन का कार्य नहीं है। धीरज और धैर्य के साथ सनियोजित और सुविचारित ढंग से प्रतिदिन इस कार्य को बढ़ाना है, जो 'धीर' और 'मनीषी' ही कर सकता है। अधीर और अविवेकी व्यक्ति इस समर को लड़ नहीं पायेगा, बल्कि सम्भव यह है कि वह अपने असन्तुलित क्रियाकलापों से किये कराये पर पानी फेर दे। इस प्रकार, देखा जाये, तो मन्त्र का एक-एक शब्द बहुत महत्वपूर्ण लगता है। 'अपसः' को ही ले लें। दिनों को सुदिन बनाने या दुर्दिनों को सुदिनों में बदलने के कार्य में सतत प्रवाहता अत्यन्त जरूरी है, ऐसा नहीं कि एक-दो दिन कुछ कर दिया, और फिर कुछ दिनों की छुट्टी कर दी। यह तो प्रतिदिन की कार्य-योजना और कार्यवाही है। एक और सबसे बड़ी बात है 'साधनों की पवित्रता', जो 'पुनन्ति' शब्द से प्रतिपादित होती है। लड़ना अवश्य है, किन्तु अपवित्र या अनुचित उपायों से नहीं। जीवन के सुपावन आदर्शों और नैतिक मूल्यों की अवहेलना करके नहीं। "पुनन्ति धीरा"। धीर पहले पवित्र करते हैं फिर आक्रमण करते हैं। वृत्तियों और कृतियों की पवित्रता 'धीर' और 'मनीषी' व्यक्तियों का मन्त्रानुसार महत्वपूर्ण लक्षण है।

अगला गुर जो मन्त्र में बताया गया है, वह है (देवया वित उदयर्ति वाचम्) देवों के यजन करने वाला श्रेष्ठ मेधावी विद्वान शुद्ध कल्याणी वाणी का उत्कृष्टता से वाचन करता है। इससे होती है ज्ञान-विज्ञान की साधना। यजन में जो तीन चीजें निहित हैं, वे हैं पूजा (सम्मान), संगतिकरण तथा समर्पण की भावना। दिनों को सुदिन बनाने के लिये जीवन में दिव्यताओं और दिव्य आकांक्षाओं का होना जरूरी है। दिव्यताएँ आती हैं देवों [दिव्य-पुरुषों/ विद्वानों] के संगतिकरण से, उनके ज्ञान-वर्धक उपदेशों को जीवन में उतारने से, तथा दिव्य लक्ष्यों की पूर्ति के लिये उनके प्रति पूर्णतया समर्पित रहने से। विद्या से जैसे विद्वान बढ़ते हैं, देवों के यजन से दिव्यतायें बढ़ती हैं। दिव्यताओं से मनुष्य की संज्ञा "विप्र" होती है। विप्र पहले ज्ञान प्राप्त करता है, वस्तु-स्थिति को समझता है, फिर शुद्ध, कल्याण की भावना से वाणी द्वारा समझाने का यत्न करता है। वाणी तीन प्रकार की होती है-अव (निम्न), मध्यम, और उत् (उच्च, उत्कृष्ट, उत्तम)। यहाँ शब्द आया है, (उत्, इयर्ति)। इसका अर्थ यह हुआ 'उत्कृष्ट भाषण करता है'। उत्कृष्ट भाषण वही कर सकता है, जो उत्-वाणी, उत्कृष्ट कल्याणी वाणी, वेद वाणी, की साधना से संसिद्ध हो। उत्-वाणी में पांडित्य नहीं बोलता, बोलने वाले का हृदय बोलता है। और बात जो दिल से निकलती है, असर करती है।

बात अच्छी या बुरी है, कहने वाले के है हाथ। असल में लफ्जों की तो कोई ज़बाँ नहीं होती। दिव्यताओं के संचार से आखिर को जन-मानस की कायापलट हो जाती है। दुर्दिन समाप्त होते हैं, और सुख भरे दिन आ जाते हैं। 'जन्मा' 'सुजन्मा' हो जाता है, 'दिन', 'सुदिन' हो जाते हैं।

मोटे तौर से मन्त्र के आशय से यदि कहा जाये, तो धर्म की संस्थापना के लिये अधर्म अन्याय और अत्याचार से युद्ध भी ज़रूरी है, और धर्म-प्रचार भी। धर्म-युद्ध लड़ा गया, किन्तु धर्म-प्रचार नहीं हुआ, तब भी सुदिन नहीं आएँगे। और धर्म-प्रचार तो होता रहा, किन्तु धर्म की रक्षा के लिये धर्म-युद्ध नहीं लड़ा गया, तब भी सुदिन आने से रहे।

दिनों का सुदिनत्व ही मानव का लक्ष्य है, और मानवता की पुकार भी। इसीलिये जन्मा मनुष्य प्रार्थना करता है।

इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि चित्तिं दक्षस्य सुभगृत्वमस्मे।

पोषं रयीणामरिष्टिं तनूनी स्वाद्यान वाचः सुदिनत्वमहाम्॥ -ऋग्वेद २।२१।६

हे ऐश्वर्यशाली प्रभो! हमारे लिये जहाँ श्रेष्ठ द्रव्य, दक्षता, चित्त की अनुकूलता, सौभाग्य, ऐश्वर्यो का पोषण शरीर को नीरोगता और वाणी की स्वादुता दे, वहाँ हमें प्रदान कर, दिनों का सुदिनत्व भी। आइये, हम भी दिनों को सुदिन बनाये, दुर्दिनों को दूर भगायें। ऐसा न हो, कि अंत समय कहना पड़ जाय उने दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन, दो आरजू में कट गये, दो इन्तज़ार में।

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