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विवेकी जनों के लिये सुविज्ञान

 


विवेकी जनों के लिये सुविज्ञान

सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते।

तयोर्यत्सत्यं यतरदृजीयस्तदित्सोमोऽवति हन्त्यासत्॥

                                                                             -ऋग्०७।१०४।१२, अथर्व०८।४।१२

ऋषिः-वसिष्ठः । देवताः-सोमः। छन्दः-निचूत त्रिष्टुप्।

पदपाठ-सुविज्ञानम्। चिकितुषे । जनाय। सत्।च। असत्। च। वचसी। पस्पृधाते। तयोः । यत्। सत्यम्। यतरत्। ऋजीयः। तत्। इत्। सोमः । अवति । हन्ति । असत्॥

(चिकितुषे जनाय सुविज्ञानम्) - विवेकी जनों के लिये [यह]

सुविज्ञान है; (सत् च असत् च वचसी) - जो सत्य तथा असत्य वचन [हैं];

(पस्पृधाते) - [उनमें] परस्पर स्पृधा है;

(तयोः यत् सत्यम्) उन दोनों में जो सत्य है,

(यतरत् ऋजीयः) [तथा] जो ऋजीय है,

(तत् इत् सोमः अवति) - उसी की सोम रक्षा करता है,

(असत् हन्ति) असत्य का हनन [कर देता] है।

बात बहुत छोटी है, परन्तु है बहुत बड़ी, 'बहुत ऊँची, बहुत महान। इसी लिये वेद माता ने इसको मात्र विज्ञान (अर्थात् विशिष्ट ज्ञान) नहीं, 'सुविज्ञान' कहा है। पर यह 'सुविज्ञान' है किस के लिये? कौन लोग इसको ठीक-ठीक समझ कर इससे लाभान्वित हो सकते हैं? तो वेद-माता ने कहा-'चिकितुषे जनाय' विवेकी जनों के लिये ही यह सुविज्ञान है। वही इसकी महत्ता को समझ सकते हैं। चिकितुषे' से ही चिकित्सक' शब्द बना है। चिकित्सक सफ़ल वही होता है, जो ज्ञानवान होने के साथ-साथ विवेकी हो। रोगी की स्थिति के अनुसार किन स्थितियों में कौन सी औषधि, अथवा किस प्रकार का उपचार ठीक रहेगा, इसका सही निर्णय अपने विवेक से कर सके। मन्त्र में 'चिकितुषे' शब्द आया विद्वान, ज्ञानी, मेधावी, विवेचकों के लिये, जो सत्यस्वरूप 'ब्रह्मा' को 'परमेश्वर' को जानने-समझने की सूझबूझ तथा पैनी अंतर्दृष्टि रखते हैं। ऐसे 'जनाय', जनों के लिये, लोगों के लिये, यह 'सुविज्ञान' है।

इस सुविज्ञान की पहली कड़ी है-(सत् च असत् च वचसी पस्पृधाते) सत्य तथा असत्य जो वचन हैं, वे पारस्परिक स्पृधा से युक्त हैं । स्पृधा का कारण है, 'सत्य' और 'असत्य' का एक दूसरे का विरोधी होना। जो 'असत्य' है वह कभी 'सत्य' नहीं हो सकता और जो 'सत्य' है, वह 'असत्य' नहीं हो सकता।

प्रायः अज्ञानवश लोग 'सत्य' तथा 'असत्य' को काल अथवा युग से जोड़ देते हैं। कहते हैं कि जब सत्ययुग था तो सत्य का बोलबाला था, अब कलियुग है, तो अब सत्य कहाँ। किन्तु वेद का दृष्टिकोण यह है, कि जब से मानव-सृष्टि है, तब से ही 'सत्य' और 'असत्य' दोनों विद्यमान हैं। यजुर्वेद में आया कि सृष्टि के आरम्भ में ही प्रजापति ने 'सत्य' और 'असत्य' दोनों के रूपों को देखा, अतः 'असत्य' में 'अश्रद्धा' को धारण किया, और 'सत्य' में 'श्रद्धा' को, ताकि 'श्रद्धा', अर्थात् सत्य के धारण से, मनुष्य सत्य ऐश्वर्य को प्राप्त कर सके।

दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत्सत्यानृते प्रजापतिः। अश्रद्धामनृते दधाच्छूद्धा सत्ये प्रजापतिः।

ऋतेने सत्यमिन्द्रियं विपानश्शुक्रमन्धसड इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु॥

"प्रजापति ने सत्य और असत्य के रूपों को देखकर विशिष्ट निश्चय किया। प्रजापति ने असत्य में अश्रद्धा को धारण किया, (और) सत्य में श्रद्धा को। ऋत अर्थात् सत्य विज्ञान से, अधर्माचरण के निवर्त्तक शुद्ध शुक्र (बीज-रूपी वेद-ज्ञान) से मनुष्यों के रक्षार्थ सत्य ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु इस अमृत-रूपी मधुर पेय को प्रदान किया।" 'सत्य' और 'असत्य' के वे कौन से रूप थे जिनको देखकर मनुष्यों के हितार्थ प्रजापति ने 'सत्य' में 'श्रद्धा' को और 'असत्य' में 'अश्रद्धा' को धारण किया? इसके लिये अथर्ववेद में आया- यथा सत्यं चानृतं च न बिभीतो न रिष्यतः। -अथर्व० २.१५.५

यथापूर्व 'सत्य' और 'असत्य' न डरते हैं न नष्ट होते हैं। इससे सिद्ध होता है, कि 'सत्य' और 'असत्य' के जिन दो रूपों का प्रजापति ने अवलोकन किया, वे थे, इनकी शाश्वत पारस्परिक 'निडरस्पृधा' और 'अमरता'। दोनों ही मनुष्यों के ऊपर प्रभुत्व जमाना चाहते थे और आज भी यह मनुष्यों के ऊपर हावी होने से बाज नहीं आते। यही इनकी कमी न ख़त्म होने वाली स्पृधा है, कशमकश है, जद्दोजहद है, हमेशा से है और हमेशा तक रहेगी। ऐसा समय कभी न था, जब सत्य न हो। और न ही कभी ऐसा समय था, जब असत्य न हो। और न ही कभी ऐसा समय आयेगा जब कि सत्य और असत्य दोनों में से कोई एक न होगा। सत्य और असत्य दोनों ही सदा से हैं, और सदा रहेंगें। दोनों ही शाश्वत हैं, और शाश्वत है इनका संग्राम भी। शाश्वतता की दृष्टि से दोनों समान हैं। पर अन्तर दोनों में यह है कि 'सत्य' ही 'शिव' है, और 'सत्य' ही 'सुन्दर' है; जबकि 'असत्य' शाश्वत होते हुये भी 'अशिव' है, और 'असुन्दर' है। 'सत्य' मनुष्य को 'देवता' बनाता है; 'असत्य' मनुष्य को 'दानव' बनाता है। सत्य से जो सम्पदा प्राप्त होती है वह 'दैवी' (दिव्य) होती है। असत्य से कहीं अधिक सम्पदा प्राप्त की जा सकती है, परन्तु वह 'आसुरी' होती है, जो अंततः विनाश का कारण बनती है। 'सत्य' निवास करता है, आशा और विश्वास में, आस्था और श्रद्धा में, सदाचार और सद्व्यवहार में। 'असत्य' निवास करता है निराशा और अविश्वास में, अनास्था और अश्रद्धा में, भ्रष्टाचार और दुराचार में। 'सत्य' सौभाग्य का सूचक है, और असत्य 'दुर्भाग्य' का।

'सत्य' और 'असत्य' से ही जुड़े हुये हैं, सच और झूठ, अच्छाई और बुराई, नेकी और बदी, धर्म और अधर्म, तथा वैदिक वाङ्मय में बहुप्रयुक्त शब्द 'ऋत' और 'अनृत'। सत्य जब तक वाणी या वचनों तक रहता है, वह 'सत्य' कहाता है। सत्य जब आचरण और व्यवहार में आ जाता है, तब 'धर्म' कहाता है। वही सत्य जब अकाट्य, अभेय, अछेद्य, अखण्ड, अटल व्रतों, नियमों, व्यवस्थाओं और उच्चतम जीवन-मूल्यों तथा श्रेष्ठतम कर्मों में विस्तरित हो जाता है, तो 'ऋत' कहाता है। जो ठीक है, उचित है, स्वाभाविक है, अखंडनीय है, वह सब 'ऋत' है। सत्य-विद्या, सत्य-ज्ञान, सत्य-नियम, सत्य-आचार, सत्य-व्यवहार, सत्य-कर्म, सत्यधर्म, सद्भाव, सद्विवेक, सद्न्याय तथा जीवन में शुद्धता, पवित्रता तथा यज्ञीयता मनुष्य को ऋताचारी बनाते हैं। मनुष्यों में देव/देवियां वही कहाते हैं, जो 'ऋत' के अनुव्रती होते हैं। 'ऋतस्य देवा अनुव्रता गुः' (ऋग्० १।६५।२) 'ऋत' ही मनुष्य को विवेकी बनाता है। इसीलिये वेद ने कहा 'ऋतं चिकित्वः' 'ऋतमिच्चिकिद्धि' 'ऋतस्य धारा अनुतन्धि पूर्वीः' (ऋग०५।१२। २) ऋत से विवेकी बन, ऋत को बार-बार जान, ऋत की सनातन धाराओं को अनुकूलता से विस्फोटित कर, जिससे तू उनके मर्म को समझ सके।

यह पृथिवी, यह वसुन्धरा जिन महान शक्तियों के आश्रय से टिकी हुई है, उनमें अथर्ववेद १२।१।१ के अनुसार अग्रणी हैं'बृहत् सत्य', और 'उग्र ऋत'। इनके स्थान पर 'क्षुद्र-असत्य' और 'क्षुब्ध-अनृत' को बिठा दीजिये, और फिर देखिये अराजकता, दुराचार, भ्रष्टाचार, अनाचार, अत्याचार, अन्याय और पतन का नंगा नाच । नित् नये अपराध, शोषण, बलात्कार के नमूने आते रहेंगे। इसलिये विवेकी जनों को सोचना है कि उन्होंने 'सत्य' और 'असत्य', 'ऋत' और 'अमृत' के बीच चले आ रहे संग्राम में किसका साथ देना है, किसको प्रतिष्ठित करना है। अज्ञानी और अविवेकी मनुष्य तो असत्य और अनृत के माया जाल में फंसते जाते रहे हैं, और जाते रहेंगे। केवल ज्ञानी और विवेकी ही सत्य और ऋत से जुड़े रहने में समर्थ रहे हैं, और समर्थ रहेंगे। इसीलिये वेदमाता ने कहा कि यह सुविज्ञान विवेकीजनों के लिये हैं।

इस सुविज्ञान की दूसरी कड़ी है-(तयोः यत् सत्यम्, यतरत् ऋजीयः) उन दोनों में (अर्थात सत्य और असत्य में) जो सत्य है,

और जो भी ऋजीय है, (तत् इत् सोमः अवति) उसी की सोम-प्रभू रक्षा करता है। सत्य और असत्य में जो 'सत्य' है, उसको परखने की एक बड़ी सुन्दर कसौटी यहाँ वेदमाता ने दी है। वाणी का सत्य बनावटी और दिखावटी भी हो सकता है। हाथी के दाँत होते हैं, यह सत्य है । पर कौन से दाँत खाने के और कौन से दिखाने के हैं, इसका भी निर्णय करना ज़रूरी है। अत: वेदमाता ने कहा, सत्य में जो भी 'ऋजीय' है, वही वास्तविक सत्य है। 'ऋजीय' शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। 'ऋजीय' के अर्थ हैं, सीधा, सरल, सहज, स्वाभाविक, सही, स्थिर, सुस्पष्ट, खरा, तथा ऋत से ओत-प्रोत, एकदम अकाट्य । वास्तविक सत्य सदैव सीधा, सरल, सहज, स्वाभाविक और सही होता है। इस सत्य में कोई अंतर्द्वंद्व या विरोधाभास नहीं होता। यह सत्य एकदम निर्मल, निर्विकार और निर्भ्रांत होता है। इस सत्य के लिये कुछ सिखाना नहीं पड़ता, इतना सहज और स्वाभाविक यह होता है। इसके विपरीत झूठ बोलने के लिये पहले झूठ सिखाना पड़ता है। एक झूठ बोलने के लिये सौ झूठ घड़ने पड़ते हैं। झूठे वचनों में बहुधा परस्पर विरोध भी पाया जाता है। वस्तुतः इस विरोधाभास के कारण ही झूठ पकड़ा जाता है। सत्य में ऐसा कुछ नहीं होता, इसीलिये वेद ने उसको ऋजीय कहा।

यह मनुष्य का अविवेक और बुद्धिभ्रंश ही है, कि वह सत्य जैसी सरल चीज को परे रखकर जटिल असत्य का आश्रय लेना चाहता है। यह सोच बिल्कुल ग़लत है, कि झूठ का आश्रय लिये बिना कोई काम नहीं बनता। काम तो सच बोलने से ही बनता है। झूठ के आश्रय से तो इन्सान केवल धोखा देता है, और धोखा ही खाता है। आप अपने घर, परिवार, दफ़तर, व्यापार में, मात्र एक दिन के लिये ही सत्य के विपरीत केवल झूठ बोल कर देखें, तब आपको पता लग जायेगा, कि झूठ से आपने आपना कितना नुकसान कर लिया । वेद ने इसीलिये कहा, कि जीवन में यदि कोई व्रत लेना चाहते हो, तो सत्यव्रती बनो। तुम्हारा आदर्श-वाक्य होना चाहिये 'इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि' (यजु:०१।५) यह मैं अनृत/ असत्य को न ग्रहण कर सत्य के निकट होऊँ। सत्य के निकट होकर सत्य को धारण करना ही 'श्रद्धा' है। 'श्रद्धा' से ही उस परम सत्य की प्राप्ति होती है, जिसको ईश्वर कहते हैं, ब्रह्म कहते हैं। ईश्वर सत्य है, आत्मा सत्य है, प्रकृति सत्य है, ब्रह्माण्ड सत्य है। इनकी सत्यता को सत्य से ही जाना जा सकता है। असत्य तो केवल पथभ्रष्ट ही कर सकता है, सत्य का साक्षात्कार नहीं करा सकता।

कोई-कोई कहते हैं, कि आत्मसाक्षात्कार तथा ब्रह्म साक्षात्कार का मार्ग तो अत्यन्त कठिन है। कठिन है; किन्तु उनके लिये, जो 'सत्य' से कोसों दूर हैं, मन, वचन, कर्म में जिनके सत्यता नहीं। धर्म के सत्य-स्वरूप को जिन्होंने समझा नहीं, अपनाया नहीं। मतमतान्तरों के भ्रम-जाल में जो उलझे हुयें हैं, वे ब्रह्म साक्षात्कार कभी नहीं कर सकते। लेकिन जिनके जीवन में सत्य है, ऋजुता और सरलता है, उनके लिये सत्यस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त करना स्वमेव सरल है। जब परमेश्वर स्वयं ही सत्य है, तो वह स्वयं ही सरल हो गया, जटिल कहाँ रहा। मन्त्र यही तो दर्शा रहा है कि सरल को सरलता से, सहजता से, निष्ठा से जानने का पुरुषार्थ करो, ऋजीय बनो, ऋत स्वतः आत्मसात हो जावेगा। इसी तथ्य को ऋग्वेद में यो कहा है-'सुगः पन्था अनृक्षर आदित्यास ऋतं यते। नात्रावखादो अस्ति वः' (ऋग्० १।४१ । ४) "ऋत अर्थात् ऋजीय पर चलने वालों के लिये मार्ग सुगम और कण्टकरहित होता है। हे आदित्यासः (ब्रह्म में चिचरण करने वाले ब्रह्मचारियों) इस पथ पर तुम्हारा अनिष्ट कदापि नहीं है।" अनिष्ट या विनाश इसलिये नहीं है, क्योंकि (तत् इत् सोमः अवति) उसकी वह सोम प्रभु पत रखता है, रक्षा करता है।

परमात्मा के जो अनेक नाम हैं, उनमें एक अत्यन्त प्रिय नाम है-'सोम''यो वै विष्णुः सोमः सः' (शतपथ ब्राह्मण ३।३।४। २१) जो सर्वव्यापक विष्णु है, वही सोम है। शान्ति, आहाद तथा आनन्द का दाता 'सोम' है। 'सोमो वै प्रजापति' (शतपथ ब्राह्मण ५।१।३।७) सोम ही प्रजापति परमेश्वर है। प्रजापति परमेश्वर दयालु भी है, और न्यायकारी भी। दयालुता यह है, कि वह सत्यव्रती और सदाचारी की रक्षा करता है। सत्यानुशासन में रहने वालों की वह लाज रखता है। और न्याय यह है, कि (असत् हन्ति) असत्य का अंततः हनन कर देता है।

सोम के न्यायकारी स्वरूप का वर्णन कुछ विस्तार से इसी मन्त्र से अगले मन्त्र में किया गया है, जो ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों में है।

न वा उ सोमो वृजिनं हिनोति न क्षत्रिय मिथुया धारयन्तम्।

हन्ति रक्षो हन्त्यासद्वदन्तमुभाविन्द्रस्य प्रसितौ शयाते॥

-ऋग्०७।१०४ । १३; अथर्व० ८।४।१३

"सोम प्रभु न तो कभी त्याज्य (पापी) का समर्थन करता है, और न ही मिथ्या (झूठ) को धारण करने वाले क्षत्रिय (बलशाली रक्षक) का । दुष्ट राक्षस और असत्य वचन बोलने वालों का [वह] हनन कर देता है। दोनों ही इन्द्र के बन्धनों में पड़े रहते हैं।" वस्तुतः झूठ से बढ़ कर कोई पाप नहीं। मनुष्य कर्म करने में बेशक स्वतन्त्र है, झूठ बोलने में भी स्वतन्त्र है, परन्तु परमेश्वर के दण्ड विधान से अंततः बच नहीं सकता।

अतः सुविज्ञान यही है कि हम सत्य का आश्रय लें। 'सत्यमूचुनरै एवा हि चक्रुरनु स्वधामृभवो जग्मुरेताम्'-ऋग्० ४।३३ । ६ "ऋभवः नर सत्य ही उच्चरित करते हैं, और वैसा ही अनुकूल आचरण करते हैं। अपनी इस आत्म-धारण को वे प्राप्त रहते हैं", उससे विचलित नहीं होते।।

'सत्यमेव जयते नानतम्'। यह मुण्डकोपनिषद् (३।१।६) का वचन है। इसका अर्थ यही है कि सत्य ही का विजय होती है, असत्य की नहीं। पर इसका यह अभिप्राय नहीं, कि जहाँ सत्य और असत्य में स्पर्धा हो, वहाँ सत्य स्वयमेव जीत जायगा। संघर्ष से विरक्त और निष्क्रिय सत्य न कभी विजयी हुआ है, न कभी होगा। संघर्षशून्य और निष्क्रिय सत्य पर संघर्षयुक्त और सक्रिय असत्य विजयी हो सकता है। इसी प्रकार यदि सत्य अल्पमत में है, और असत्य बहुमत में है, तो विजय असत्य की हो सकती है। अतः आवश्यक है, कि सत्य को एक तो बहुमत में लाया जाय, अनेकानेक लोगों को सत्यनिष्ठ बनाया जाय। वेद के अनुसार 'रश्मिना सत्याय सत्यं जिन्व' (यजुः० १५।६) सत्य की रक्षा के लिये सत्य की रश्मियों द्वारा सत्य की ओर लोगों को सुप्रेरित किया जाय। और दूसरे सत्य और असत्य का परस्पर संघर्ष होने पर, सत्य असत्य के मुक़ाबले पर डट जाय, और निरन्तर डटा रहे, तब सत्य की विजय होती है, असत्य की नहीं। वेद के अनुसार सत्यवान और सत्यनिष्ठ की कसौटी यही है कि-'ऋतस्य गोपा न दर्भाय सुक्रतुः' (ऋग्० ९।७३।८) ऋत का रक्षक सुकर्मा दबता नहीं; डटा रहता है। वह जानता है कि सोम प्रभु उसकी रक्षार्थ उसके साथ है। विवेकी जनों के लिये यही वेद का सुविज्ञान है। हम सब विवेकी बनें।'त्री पवित्रा हृद्यन्तरा दधे' (ऋग्० ९।७३।८) [मन, वचन और कर्म की] तीन पवित्रताओं को हृदय के अन्दर धारण करें। अनृत और असत्य से संघर्ष करते हुये सदाचारी एवं ऋताचारी बन कर सत्य पर आरूढ़ रहें। सत्य के आश्रय से जीवन में विजयश्री को प्राप्त करें । सत्यस्वरूप सोम परमेश्वर हमारे सत्य की रक्षा करे । तन्मामवतु, तद्वक्तारमवतु॥

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