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सफ़लता प्राप्ति का रहस्य (१)

 


सफ़लता प्राप्ति का रहस्य (१)

The Secret of Success

म् गर्भे योषामदधुर्वत्समासन्यपीच्येन मनसोत जिह्वया।

सविश्वाहा सुमनायोग्या अभिसिषासनिर्वनतेकार इज्जितिम्॥

-ऋग्वेद १०1५३।११

ऋषिः-देवाः । देवता:-अग्निः सौचीकः । छन्दः-पादनिचृज्जगती।

पदपाठ-गर्भे । योषाम्। अदधुः। वत्सम्। आसनि । अपीच्येन। मनसा । उत।जिह्वया । सः। विश्वाहा । सु-मनाः।योग्याः। अभि। सिषासनिः। वनते। कारः । इत्। जितिम्॥

(सः इत् वनते) - वह ही प्राप्त करता है

(विश्वाहा) - सब दिनों, सदा सर्वदा

(जितिम्) - जय, जीत, सफलता

(अपीच्येन मनसा)- [जिसने] अति सुन्दर अन्तर्हित मन से

(उत जिलया) - और वाणी से

(उदधुः) - धारण किया

(गर्भे योषाम) - गर्भ में बलवती कामना को [तथा]

(आसनि वत्सम्) - मुख में उत्तम प्रेरणास्पद वचन को।

[जो है-] (सुमना) - सु-मन वाला,  

(योग्याः अभि) - सब प्रकार से योग्य और योग्यों को सब ओर रखने वाला,

(सिषासनिः) - बाँटने, वितरण वा प्रत्यायोजन करने वाला

(कारः) - कार्य करनेवाला, कर्मकुशल, समर्थ, सुकर्मा ।

    सफलता की कामना सब करते हैं। सफ़लता का नाम ही जय है, विजय है। सफलता में ही सुख है, आनन्द है। असफ़लता सदैव दुःख और कष्टदायी है। जीव-विज्ञान की दृष्टि से यदि देखा जाय, तो प्राणीमात्र का अस्तित्व ही एक सफल गर्भाधान और एक सफल जात-कर्म का परिणाम है। अत: यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि 'सफ़लता' एक जीवित प्राणी का 'जन्म-सिद्ध अधिकार' है, और सफलता की प्राप्ति, जीवन का एक उच्चतम ध्येय।

पर सफ़लता है क्या? मोटे तौर पर हम जो पाना चाहते हैं, उसको यदि पा लेते हैं, तो अपने आप को सफ़ल समझते हैं, और न प्राप्त कर पाने की अवस्था में असफलता । किन्तु थोड़ा गहराई से विचार करें, तो हम इस निष्कर्ष पर शायद पहुँच जायें, कि जब तक हमने 'आगे बढ़ना, और ऊचें उठने' की नैसर्गिक-वृत्ति को बनाये रखा, हम सफल होते गये। उस वृत्ति को छोड़ दिया, रोक लग गई, तो असफलता ही हाथ लगती गई। इस संसार में जब हम आये थे तो न चल पाते थे न उठ पाते थे। पर जैसे-जैसे हमें आस-पास का ज्ञान हुआ, ईश्वर-प्रदत्त नैसर्गिक वृत्ति के फलस्वरूप हमने घुटनों के बल ही सही, बढ़ना आरम्भ किया। फिर, सहारे से ही सही, किन्तु उठने की कोशिश की। हम चल निकले, बढ़ निकले। जब तक आगे बढ़ने और ऊँचे उठने की अपनी स्वाभाविक वृत्ति का प्रयोग जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में रहा, सफलता मिलती रही। जब तक हमारी जिज्ञासु-वृत्ति रही, हम पूछते रहे, और कुछ-न-कुछ प्राप्त करते रहे। इस वृत्ति पर भी रोक लगा दी; प्राप्ति का सिलसिला रुक गया। एक विद्वान का कथन है-सफलता एक साईकिल के समान है, आप पैडल चलाना बन्द कर दीजिये, कुछ ही देर में गिर पड़ेंगे। वेद के माध्यम से परमेश्वर ने तो सृष्टि आरम्भ में ही कहा है

अनुहूतः पुनरेहि विद्वानुदयनं पथः।

आरोहणमाक्रमणं जीवतोजीवतोऽयनम्॥-अथर्व० ५।३०१७

"अनुप्रेरित होकर पथ के चढ़ाव को जानता हुआ पुनः - पुनः आगे बढ़। ऊँचा चढ़ना और आगे बढ़ना, प्रत्येक जीवित प्राणी का जीवन्त गमन-मार्ग है। "जो आरोहण (ऊँचे उठने) और आक्रमण (आगे बढ़ने) में विफलताओं के बावजूद लगा हुआ है उसी का जीवन सफल जीवंत-जीवन है।

आगे बढ़ने और ऊँचा उठने के लिये, अर्थात् जीवन में वह सब कुछ पाने के लिये, जो हम पाना चाहते हैं, उसके लिये कुछ अपेक्षायें है, जिनका बड़ा सुन्दर वर्णन ऋग्वेद के दशम मण्डल के तिरेपनवें सूक्त के इस अंतिम मन्त्र में हुआ है। वस्तुतः सफ़लता तो चीज ही अन्त की है, पूर्व में तो उसकी तैयारी ही है। एक सफल व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव पर प्रकाश डालता हुआ, मन्त्र का दृष्टा ऋषि स्पष्ट घोषणा करता है (सः इत् वनते) वह ही प्राप्त करता है (विश्वाहा) सब दिन, सदा सर्वदा (जितिम्) जय, सफलता, जिसने (अपीच्येन मनसा) अन्तर्हित मन से (उत जिह्वया) और वाणी से (अदधुः) धारण किया (गर्भे) अन्तःकरण में (योषाम) बलवती कामना को, (आसनि) मुख में (वत्सम) उत्तम प्रेरणास्पद वचन को।

यहाँ मन्त्र में एक-एक शब्द का अपना महत्व है। सःइत् वनते से दो बातें स्पष्ट होती हैं-

सफलता वहीं प्राप्त कर सकता है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव मन्त्र के अनुसार हों; तथा

(२) सफलता प्राप्त की जाती है, यह बैठे-बिठाये बिना कुछ करे-धरे मिल जाने वाली चीज नहीं। सफलता साधना से मिलती है, और साधना के लिये चाहिये 'श्रम', 'तप', 'ज्ञान' और 'आस्था'

चिकित्वान और ज्ञानवान व्यक्तियों से पूछ कर बेशक हम सफलता के पथ को ढूंढ निकालें, पर सफलता पाने के लिये उस पथ पर चलना तो हमी को पड़ेगा। एक बात और। सफलता न लाटरी है, और न संयोग। न ही यह आकस्मिक या एक दम मिलने वाली चीज है। सफलता के भी सोपान होते हैं। सफल महापुरुषों के जीवन इस तथ्य के प्रमाण हैं कि उन्होंनें ऊँचाइयों को एक उड़ान में नहीं छू लिया था, सतत् साधना करते ही वे वहाँ पर पहुंचे थे। (HEIGHTS ACHIEVED BY GREAT MEN WERE NOT ATTAINED BY SUDDEN FLIGHT. WHILE OTHERS SLEPT, THEY WERE TOILING DAY AND NIGHT)

सतत साधना इस प्रकार सफलता प्राप्ति का अनिवार्य अंग है।

मन्त्र में अगला महत्वपूर्ण शब्द है-विश्वाहा। कुछ क्षणों, घण्टों या दिनों की सफलता कोई मायने नहीं रखती। मन्त्र में निर्देश है 'विश्वाहा', अर्थात् सब दिन, सदा, सर्वदा, जीवन-पर्यन्त । सफलता की साधना एक सफल-जीवन्त जीवन की साधना है, यह कुछ दिनों की नहीं। सफलता प्राप्ति के लिये कुछ बातें तो हमारे जीवन का अंग बन ही जानी चाहिये, जैसे

(१) स्वस्थ शरीर और सादा रहन सहन । (२) अपने जीवन और अपने कार्य में रुचि । (३) स्पर्धा स्वयं अपने से, दूसरों से नहीं। (४) जागरूकता अच्छी, परन्तु चिन्ता नहीं। (५) सबसे यथायोग्य प्रीति पूर्वक व्यवहार । (६) चेहरे पर मुस्कराहट और दिल में प्यार। (७) संयम, सदाचार, स्वाध्याय, सत्संग और सेवा।

हमारे जीने का ढंग यदि उपरोक्त बातों पर आधारित हो, तो निःसन्देह यह जीवन-पर्यन्त सफलता-प्राप्ति के लिये एक सशक्त बुनियाद हो सकता है।+

तीसरा शब्द जितिम् भी महत्वपूर्ण है। सफलता को यहाँ जीत के रूप में लिया गया है। 'जीत' का सम्बन्ध 'मन' से है। 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत'। तो सफलता मन का विषय है। विफलता से जो घबराता नहीं, असफलता से जो हारता नहीं, विपरीत परिस्थितियों में जो डिगता नहीं, साहस, शौर्य और मेधा की जिसके पास कमी नहीं, वेद की दृष्टि में वही जीता हुआ है, वही सफल है। जीवन-पर्यन्त जिसने हार नहीं मानी, वही जीता कहलाया, उसी का जीवन सफल हुआ। मुख्य बात यह है कि सफलता की कसौटी 'लाभ' नहीं 'जीत' है;"व्यापारिक-कुशाग्रता' या 'दुकानदारी' नहीं, लक्ष्य के प्रति पूरी निष्ठा से डटे रहना है।

लक्ष्य-निर्धारण (GOAL SETTING) के लिये आवश्यक है, अन्त:करण में एक बलवती कामना का स्थापन । इसीलिये मन्त्र की शुरुआत ही गर्भे योषाम् अदधुः से हुई है। गर्भ में धारण करें बलवती  कामना । कामनाओं का गर्भस्थान है 'मन' और मन है (हत्प्रतिष्ठम्यजु:०३४।६) हृदय में प्रतिष्ठित ।श०ब्रा० में भी कहा है—(कस्मिन्नु मनः प्रतिष्ठितं भवतीति हृदय इति-शत० १६।४।९।२५) मन किसमें प्रतिष्ठित है? हृदय में। तो हृदय में धारण करें बलवती कामना। मात्र इच्छाओं से काम नहीं चलने वाला । हमें+ जीवन का लक्ष्य निश्चित करना है। पूछे हम अपने-आप से, करें आत्म-शंसन, कि हम वस्तुतः क्या पाना चाहते हैं, और कितनी बलवती है हमारी वह कामना।

बुद्धि-बल और मनोबल वे शक्तियाँ हैं जो हमारी कामनाओं को दिशा, गति और निश्चयात्मकता प्रदान करती हैं। कठोपनिषद् में इसी तथ्य को यूं समझाया गया है, कि यह शरीर एक रथ है; आत्मा रथी है, बुद्धि सारथी है, मन लगाम है, इन्द्रियाँ इस रथ के घोड़े हैं बुद्धि और मन (सारथि और लगाम) निश्चय कर घोड़ों को जिधर ले जाना चाहें ले जाते हैं। ऋग्वेद में भी आया।

रथे तिष्ठन्नयति वाजिनः पुरो यत्रंयत्र कामयते सुषारथिः।

अभीशूनां महिमानै पनायत मनः पश्चाद यच्छन्ति रश्मयः॥

-ऋग्० ६ । ७५।६

रथ पर बैठा हुआ उत्तम सारथि जहाँ जहाँ चाहता है, वेगवान अश्वों को आगे-आगे ले जाता है। रासों (लगाम की रस्सियों) के समान सामर्थ्य की प्रशंसा करो। मन ही वह रासें है, जो अश्वों को पीछे से नियमन करती रहती हैं।

बुद्धि और मन की शक्ति ही वह शक्तियाँ हैं, जो हमारा मार्ग प्रशस्त करती हैं। जो कुछ भी हम पाना चाहते हैं, उसको बाधाओं, रुकावटों, विफलताओं के बावजूद भी हम इन्हीं शक्तियों का उपयोग कर पा सकते हैं। हमारी कामना जब बलवती होती है, तो हमारी समस्त इन्द्रियाँ वेगवान अश्वों के समान उस कामना की पूर्ति में स्वतः जुट जाती हैं। संसार के समस्त मनोवैज्ञानिकों ने भी यह सिद्ध कर दिया है, कि मनुष्य का मन धारणा और अटूट विश्वास के आधार पर वह सब कुछ प्राप्त कर सकता है जो वह चाहता है। बलवती कामना कैसी हो, कैसा हो उसका स्वरूप, कैसे हो उसका निर्धारण? तो मन्त्र में आया अपीच्येन मनसा। अन्तर्हित सुन्दर मन से बलवती कामना का निर्धारण करें। मन यदि मैला है, तो कामना मैली होगी। मन में यदि खोट है, तो कामना खोटी होगी। मन यदि भ्रष्ट है तो कामना भी भ्रष्ट होगी। पर मन यदि सुन्दर है, तो कामना भी सुन्दर होगी। मन यदि उदात्त है, तो कामना उदात्त होगी। मन यदि महान है, तो कामना भी महान होगी। मन के साथ मन्त्र में आया है' अपीच्येन', जिसका भाव है'अतिशय सुन्दर' अतिशय सुन्दर । मन को ही 'सुमन' बनाना है। सुन्दरता निवास करती है पवित्रता में अत: मन की पवित्रता ही मन की सुन्दरता है। यजुर्वेद के चौतीसवें अध्याय के प्रथम छः मन्त्रों में बारम्बार यही प्रेरणा है कि तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु मेरा मन शुभ संकल्पों वाला हो। कौन मन हो सकता है शुभ संकल्पों वाला ? स्पष्ट भी किया, कि जिसमें 'ऋचः, यजुषि और साम', अर्थात् 'ज्ञान, कर्म, और उपासना' प्रतिष्ठित हों, जिसमें सर्वज्ञ, सर्वव्यापक प्रजा का साक्षी चेतन परमात्मा ओत - प्रोत, अर्थात् उरोयापुरोया हो, वह मन अतिशय सुन्दर तथा शुभसंकल्पोंवाला होता है। अन्तर्मन तथा अन्तरात्मा की शुद्धता और पवित्रता के लिये अन्तर्यामी परमात्मा से युक्त होना जरूरी है। परमेश्वर से युक्त मन बलवती उदात्त कामनाओं का सूजन कर उनकी प्राप्ति में सहायक होगा, इसमें सन्देह नहीं।

सुन्दर मन के साथ सफलता का अगली अनिवार्यता है उत जिह्वया उत्कृष्ट वाणी तथा आसनि वत्सम मुख में उत्तम प्रेरणास्पद वचन । वाणी और वचन ही संप्रेषण के वे साधन हैं, जो मन के भावों को प्रकट करते हैं। सफलता का रहस्य बहुत कुछ संप्रेषण कला में निहित है। वेद में आया-"भट्टैषी लक्षमी निहिताधि वाचि"ऋग० १०।७१ । २। लक्ष्मी सुन्दर संप्रेषण कला में वास करती है। वाणी के ऊपर है, मस्तिष्क और नीचे हृदय । बुद्धि और मन-दोनों से प्रभावित होती है वाणी; और वाणी से प्रभावित होता है हमारा व्यवहार । हमारे व्यवहार पर निर्भर करती है हमारी सफलता। वाणी हित, मित, मधुर, स-रसवती तथा कल्याणी होनी चाहिये। वचन सदैव शिष्ट, भद्र, प्रभावी, आशाजनक, युक्तियुक्त, विश्वासोत्पादक, भ्रमरहित, सुग्राह्य एवं प्रेरणास्पद होने चाहिये। व्यर्थ की बहस, तर्क-वितर्क, वाद-विवाद, आक्षेप और अधिनायकता से चाहे जो कुछ भी अर्जित किया जा सकता हो, पर सफलता नहीं प्राप्त की जा सकती। एक सफल व्यक्ति की पहचान उसकी अपनी निजी सफलता मे ही नहीं, वरन अन्यों को भी अपने अनुकूल बनाने तथा लक्ष्य प्राप्ति की ओर प्रेरित किये रखने में होती है। लक्ष्य जितना ही महान और विशाल होता है, उतना ही उसकी पूर्ति के लिये जन-सहयोग सौहाद्र और संसाधनों की आवश्यकता होती है। इनकी प्राप्ति में प्रभावी वाणी और प्रेरणास्पद उत्तम वचनों की कितनी अहम भूमिका रहती है, यह सहज ही अनुभव किया जा सकता है।

अब विचार करते हैं उन व्यक्तिगत गणों को जो सफलता प्राप्ति के लिये मन्त्रानुसार अत्यन्त आवश्यक है । यह है-सुमना, योग्याः अभि. सिषासनिः, कारः । पहली अनिवार्यता है, स-मना, अर्थात् समन वाला, अच्छे मनवाला, शुद्ध और पवित्र मन वाला । जो स-मन है, वही सु-प्रसन्न है, और वही लोगों को, जनाधार को 'सम्-मनसः' समान मन वाले बना सकता है। सु-मनवाला ही फूलों के समान मुस्करा सकता है। एक उक्ति है-मुस्कराइये, और दुनियाँ आप के साथ है। सुमनस्कता ही व्यक्तित्व को उभारती है। व्यक्तित्व में यह एक ऐसा अन्दरूनी और बाहरी चुम्बकीय आकर्षण पैदा करती है, जिसका सही ढंग से, सही समय पर, सही लोगों में, सही उपयोग सफलता के द्वार खोल देता है। सफलता चाहने वाले व्यक्ति (अर्धा ते सुम्नम् ईमहे-ऋग्०८।९८।११, साम०११६०, अथर्व०२०।१०८।२) इसीलिये तेरी [परमेश्वर की] सुमनस्कता की प्रार्थना करते हैं।

दूसरी अनिवार्यता है-योग्या: अभिः सब प्रकार से योग्य होना और योग्यों को ही अपने सब ओर रखना। आदर-सम्मान मांगने से नहीं मिलता; हाँ यदि योग्यता हो तो स्वतः मिलने लगता है। सफलता प्राप्ति के लिये योग्यता अत्यन्त जरूरी है। और योग्यता आती है, दक्षता से, अपनी क्षमताओं के आकलन और पूर्ण सदुपयोग से। यह दक्षता कार्य के प्रत्येक क्षेत्र में अनिवार्य है। सफल नेतृत्व प्रदान करने के लिये भी दक्षता और योग्यता सब ओर से जरूरी है, और उससे भी अधिक जरूरी है सफलता प्राप्ति के लिये सब ओर से योग्य व्यक्तियों का सहयोग व सदुपयोग। अपने चारों ओर अयोग्यों को लगा लीजिये, बनते हुये कार्य भी चौपट हो जायेंगे। योग्यों का निर्माण करना, योग्यों का चयन करना, योग्यों को ही योग्य कार्य पर युक्त करना और योग्यों को ही बढ़ावा देने में सफलता का रहस्य निहित है।

गुणों की दृष्टि से तीसरी अनिवार्यता है-सिषासनिः बाँटने वाला होना। आपके पास प्यार है, तो प्यार बाँटिये। आपके पास ज्ञान है तो ज्ञान बाँटिये। आपके पास धन-ऐश्वर्य है, तो उसको बांटिये। भोजन है तो भोजन बाँटिये। भजन है तो भजन बाँटिये। सेवा है तो, सेवा बांटिये। अधिकारी हैं, तो अधिकार और शक्तियों का प्रत्यायोजन कीजिये। धर्मात्मा हैं, तो धर्म बाँटिये। महात्मा हैं, तो महानता बाँटिये। शान्तात्मा है, तो शान्ति बॉटिये। जो कुछ है उसे वेद के अनुसार बाँटिये, बेचीये मत । आज बिडम्बना यही है, कि हर चीज बिकाऊ हो गई है। आज के सद्गुरु और सन्त 'ध्यान' और 'योग' जैसे विषयों को भी बेच रहे हैं। बेचने से लाभ मिल सकता है, किन्तु सफलता नहीं। सफलता मिल सकती है समुचित वितरण से, शासन कार्य में समुचित वितरण-व्यवस्था से, और महान लक्ष्यों की प्राप्ति में समुचित प्रत्यायोजन प्रणाली से।

अन्तिम महत्वपूर्ण गुण मन्त्र में बताया-कारः । कारः का अर्थ है, साकार करने वाला । सफलता के सपने लेना, योजनायें बनाना, सफलता की सोचना, सब अच्छा है, परन्तु महत्वपूर्ण है, सफलता को सफल और सार्थक साकार करना । साकार करने में कर्तृत्व तथा साधना दोनों ही सन्निहित हैं। जो बलवती कामनाओं को सफल और सार्थक करने के लिये सतत कठोर साधना करता रहता है, उस सुकर्मा को कारः (कार्यान्वयन करने वाला) कहा जाता है। (क्रतुभिः सुक्रतुः-ऋग०१।९१।२)कर्मों को करने वाला ही सुकर्मा है। सुकर्मा ही सदाचार का रक्षक है (ऋतस्य गोपा न दर्धाय सुक्रतुः-जाग०९।७३।८) सदाचार का रक्षक सुकर्मा दबता नहीं, दबने के लिये होता ही नहीं। वह सफलता के साथ उभरना और आरोहण करना ही जानता है। कारः को अपनी क्षमताओं में विश्वास होता है। कर्म कुशल, वह समस्त कार्यों को इतनी कुशलता और गुणवत्ता से सम्पन्न करता है, कि सफलता स्वतः ही उसकी चेरी हो जाती है। सफलता भी सफल व्यक्ति को पाकर धन्य हो जाती है। पीछे मुड़ कर देखने का या वापस लौटने का प्रश्न ही नहीं उठता। सफलता के सोपानों पर चढ़ता हुआ 'कारः' निरन्तर सफलता ही सफलता प्राप्त करता चला जाता है।

सफलता की अग्नि मन्त्र के देवता (विषय) अनुसार सौचीकः अग्नि है। प्रज्वलित हो गई तो वृद्धि को ही प्राप्त होती है। सफलता ही सफलता की जननी है। ऋषियों ने मन्त्र में सफलता के रहस्य को साक्षात्कार कर हमारे सामने रख दिया है। क्यों न हम भी अपने जीवन को सफल और सार्थक बनायें। निरन्तर सफलता को प्राप्त हों।

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